समाज−सुधार की अनिवार्य आवश्यकता

July 1962

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हमारे समाज में जहाँ अनेकों अच्छाइयाँ हैं, वहाँ कितनी ही बुराइयाँ भी हैं। अच्छाइयों को दृढ़तापूर्वक अपनाए रहने की निष्ठा जहाँ हम में होनी चाहिए, वहाँ इतना साहस भी रहना चाहिए कि जिन कुरीतियों को अनुचित एवं हानिकर समझते हैं, उनका परित्याग कर सकें। समय के परिवर्तन के साथ−साथ रीति−रिवाजों और प्रथा-परंपराओं को बदलने की भी आवश्यकता होगी, यदि यह परिवर्तन एवं सुधार कार्य रुक जाए तो समाज में सड़न पैदा हो जाती है।

समयानुसार परिवर्तन

जाड़े में गरम कपड़े पहने जाते हैं, पर गरमी आते ही हलके वस्त्र पहनने पड़ते हैं और जाड़े वाले ऊनी कपड़े तब निरुपयोगी हो जाने के कारण उठाकर रख देने पड़ते हैं। बरसात में छाता आवश्यक होता है, पर सरदी में उसकी कोई उपयोगिता नहीं रह जाती। स्वस्थ मनुष्य जो कुछ खाता है, वह बीमार होने पर नहीं दिया जा सकता। खुशहाली के दिनों में जैसा खरच करते हैं, अकाल पड़ जाने पर उसमें बहुत किफायत करनी पड़ती है। समयानुसार परिवर्तन की बात सभी स्वीकार करते हैं, इसी में बुद्धिमत्ता भी है। वैदिककाल में यज्ञों को आवश्यक धर्मकृत्य माना जाता था। कालांतर में उस विधान में विकृति आई और लोग यज्ञों के नाम पर पशुबलि करने लगे। देवी-देवताओं पर भी बलि चढ़ाई जाने लगी। एक अच्छी यज्ञप्रथा, जिसमें लोग अपनी बुराइयों और दुष्प्रवृत्तियों रूपी पशुता की बलि दिया करते थे, समय के परिवर्तन के साथ−साथ पशुबलि जैसे घृणित कार्य में बदल गई। इसे सुधारने के लिए भगवान बुद्ध आए, उनने अहिंसा का आंदोलन चलाकर पशुबलि की प्रथा-परंपरा का उन्मूलन करके रख दिया। कुछ दिन बाद अच्छी प्रथाएँ भी रूढ़ि बन जाती हैं और लोग अपनी बुराइयों को मिलाकर उन अच्छाइयों को भी विकृत कर देते हैं, तब उन्हें भी सुधारना आवश्यक हो जाता है।

बुद्ध द्वारा प्रसारित अहिंसा का सिद्धांत बड़ा अच्छा था, पर कालांतर में लोग उसके कारण कायर, अकर्मण्य और आत्मरक्षा योग्य पौरुष से भी हीन होने लगे। तब भगवान शंकराचार्य ने उसमें सुधार करने का आंदोलन आरंभ किया। उन्होंने बुद्ध धर्म की मान्यताओं का, अहिंसा के विकृत स्वरूप का विरोध करके पुरुषार्थपूर्ण वेदांत का प्रतिपादन किया और बुद्ध धर्म की जड़ हिला दी।

भक्तिवाद और संतकाल

बहुत समय बीतने पर जब वेदांत भी मिथ्या अहंकार का रूप धारण करने लगा और लोग समाज से विरक्त होकर शुष्क व्यक्तिवादी बनने लगे, अपने मतलब से मतलब रखने लगे तो उसकी बुराइयों को देखते हुए संतों ने भक्तिवाद का प्रचलन किया। सामूहिक कीर्त्तनों, मंदिरों एवं धर्मोत्सवों का प्रसार करके उन्होंने हिंदू समाज में उस समय फैली हुई पृथकतावादी विचारधाराओं को सामूहिकता एवं संगठन के रूप में मोड़ा, जिससे विश्रृंखलित हिंदू समाज परस्पर मिलने-जुलने का महत्त्व समझें और विदेशी आक्रमणों का जो ताँता उस समय लगा हुआ था, उसके विरुद्ध संगठित होने का प्रयत्न करें।

सिख धर्म का आध्यात्मिक स्वरूप भक्तिवादी है। गुरु नानक की वाणियाँ ग्रंथ साहब में भक्तिवाद की ही धारा हैं, पर वस्तुतः उस संगठन ने हिंदू समाज पर हो रहे विधर्मी आक्रमणों से रक्षा का बहुत बड़ा कार्य संपन्न किया। उस समय राजनैतिक एवं सामाजिक संगठन संभव नहीं था। जनता को धार्मिक झंडे के तले ही इकट्ठा किया जा सकता था। भक्तिकाल में यही प्रयत्न होते रहे। इसके बाद वह भक्तिवाद भी कालांतर में ढोंग-पाखंड का केंद्र बन गया। निकम्मे आलसी एवं धूर्त्त लोग इसी बहाने लोगों की श्रद्धा का पोषण करने लगे और उसमें सुधार की आवश्यकता अनुभव हुई तो स्वामी दयानंद ने आर्य समाज का आंदोलन आरंभ किया और कितनी ही कुरीतियों का उन्मूलन करके सुधार की एक महत्त्वपूर्ण धारा प्रवाहित कर दी।

सुधार की सनातन परिपाटी

यह सुधार कार्य सदा से होता रहा है। समय-समय पर ऋषि उस समय की परिस्थितियों को देखकर विभिन्न स्मृतियों की रचना करते रहे हैं। आजकल हिंदू कानून याज्ञवल्क्य स्मृति के आधार पर बना हुआ है। इससे पूर्व कालों में मनुस्मृति, पाराशर स्मृति आदि अनेकों स्मृतियाँ कार्यान्वित रही हैं। समय बदलने के साथ−साथ ऋषियों की स्मृतियाँ भी बदलने की आवश्यकता अनुभव होती रही और तदनुसार उन्होंने सामयिक विधानों को बदल देने में भी संकोच नहीं किया। मानवता के नैतिक गुणों को प्रतिपादित करने वाला आध्यात्मिक धर्म अपरिवर्तनशील है। सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अस्तेय, दान, परोपकार, तप, संयम आदि के आध्यात्मिक नियम हर युग में एक से रहते हैं, पर खान-पान, वेषभूषा, रहन-सहन, रीति-रिवाज आदि के व्यावहारिक धर्म में सामयिक स्थिति के अनुसार हेर-फेर होता रहता है। एक समय में अच्छी रही वस्तु समयानुसार जब जीर्ण-शीर्ण हो जाती है तो उस फटी-पुरानी को बदलकर उसके स्थान पर नई को लाया जाता है। बूढ़े बैलों को पेंशन देकर नए बछड़े खरीदने का क्रम हर किसान के यहाँ चलता रहता है। हमारा शरीर भी जब बूढ़ा हो जाता है तब जीव उसे बदलकर नया चोला धारण कर लेता है। चूँकि यह शरीर पुराना है, इसलिए बढ़िया है, उसे नहीं छोड़ेंगे, ऐसा सोचा जाए तो इस दुनिया में बूढ़े बीमार ही भरे पड़े रहेंगे और तब हर दिशा में अस्पताल जैसी पीड़ा परेशानी ही बिखरी दिखाई देगी।

परिवर्तन और असुविधा

हर परिवर्तन असुविधाजनक होता है, पर उसके किए बिना काम नहीं चलता। सरकारी कर्मचारियों की बदली होती रहती है तो उसमें कुछ अड़चन और परेशानी जरूर होती है, पर यह अनिवार्य है। सब कर्मचारी अपने-अपने स्थान पर जमे बैठे रहें तो उनके राग-द्वेष का अनुचित प्रभाव जनता पर पड़ने लगेगा इसलिए बहुत खरच पड़ने और परेशानी होने की बात को जानते हुए भी कर्मचारियों का परिवर्तन होते रहना आवश्यकता माना जाता है। रीति-रिवाजों का हेर-फेर भी इसी प्रकार अनिवार्य एवं आवश्यक होता है। अपरिवर्तनवादियों को उस में बहुत अड़चन जैसी बात दीखती है और वे विरोध भी करते हैं, पर उनके विरोध को सहन करते हुए भी समाज को आगे ही बढ़ना पड़ता है। इसके अतिरिक्त दूसरा कोई मार्ग नहीं।

बाल विवाह का प्रतिपादन

यवनकाल में जब कुमारी कन्याओं का अपहरण शासकों की वासना−अग्नि तृप्त करने के लिए आम बात बनी हुई थी, तब छोटी लड़कियों को बहू के रूप में परिणित कर देने की उपयोगिता सोची गई। यद्यपि उससे होने वाली शारीरिक और मानसिक हानि को सब लोग समझते थे, पर अपहरण जैसे आघात को सहने की अपेक्षा वह हानि कम महत्त्व की समझी गई और बाल विवाह चल पड़ा। पंडित काशीनाथ ने शीघ्रबाध में 8, 9,10 वर्षों की कन्याओं के विवाह का प्रतिपादन श्लोक बनाकर कर दिया और यहाँ तक लिख दिया कि बारह वर्ष से अधिक बड़ी कन्या हो जाने पर भी विवाह न करने से उसके अभिभावक रौख-नरक को जाते हैं। विचार की दृष्टि से बात बिलकुल अटपटी है। कहाँ तो वैदिककाल की पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्यपूर्वक विद्याध्ययन करने के बाद लड़के-लड़कियों के विवाह करने की सुदृढ़ परंपरा और कहाँ यहाँ आठ वर्ष की कन्या का विवाह करने पर स्वर्ग का पुण्य मिलने की उपहासास्पद व्यवस्था। पर उस समय वही उचित था। बाल विवाह की सामयिक उपयोगिता सबकी समझ में आ गई और उसका प्रचलन कुछ ही दिनों में हो गया। किसी समझदार ने उसका विरोध नहीं किया। परदाप्रथा भी इसी आधार पर थी। स्त्रियों को घर से बाहर न जाने देने, घर के भीतर ही रहने, यज्ञ आदि किसी सामूहिक कार्य में भाग न लेने की प्रथा इसलिए चलाई गई कि अपनी बहू-बेटियों के रूप-लावण्य की चर्चा बाहर न फैलने पाए और आततायियों का दाँत उन पर होने से भयंकर आपत्ति आने से बचाव हो सके। वह परिस्थितियाँ आज नहीं रहीं। आज हमारी बहिन-बेटियों की इज्जत सुरक्षित है, फिर बाल विवाह और परदाप्रथा की क्या उपयोगिता रह जाती है? यह तर्क किसी काम का नहीं कि यह पुरानी प्रथा है, ब्रह्मचर्यपूर्वक पच्चीस वर्ष तक विद्याध्ययन करके विवाह करने वाली बात को एक समय बदलकर बाल विवाह जैसी अटपटी बात को स्वीकार कर लिया गया तो अब वैसी परिस्थिति न रहने पर सनातन वैदिक परंपरा को पुनः लाने में क्यों आपत्ति होनी चाहिए? परदा भारतीय संस्कृति के सर्वथा विपरीत है। प्राचीनकाल की महिलाओं के रहन-सहन का वर्णन धर्मग्रंथों में मिलता है, उनमें परदा का कहीं संकेत भी नहीं है। चित्रों में भी कोई प्राचीनकाल की भारतीय नारी घूँघट काढ़े नहीं दिखाई देती। फिर मध्यकाल की एक सामाजिक प्रथा को हम अतीत से चली आने वाली सनातन प्रथा की तुलना में क्यों महत्त्व दें? परदाप्रथा और बाल विवाह की कोई उपयोगिता किसी भी दृष्टि से जब दिखाई नहीं देती तो उनके लिए आग्रह क्यों किया जाए?

जेवरों की परिपाटी

किसी समय संग्रहित धन को सुरक्षित रखने के लिए बैंक जैसे कोई विश्वस्त संस्थान न थे। घर में धन रहने पर चोरी होने का डर रहता था। इसलिए लोग अपनी संग्रहित कमाई को सोने-चाँदी के जेवर बनाकर हर घड़ी अपने साथ रखते थे और शरीर पर धारण किए रहते थे। आज स्थिति भिन्न है। बैंकों में पैसा सुरक्षित भी है, ब्याज भी मिलता है। जेवर बनाने में टाँका, बट्टा, मजूरी, टूट-फूट, घिसन आदि में नुकसान भी बहुत होता है, साथ ही शत्रुता ईर्ष्या देखा-देखी से गरीबों को भी उनकी आकांक्षा जगने से किसी भी प्रकार धन प्राप्त करने की अभिलाषा, चोरी, डकैती, हत्या आदि का खतरा पैदा होता है। गंदगी बढ़ती है एवं नाक में पहने जाने वाले जेवरों से तो साँस लेने एवं नासिका छिद्रों की सफाई तक में बाधा पड़ती है, जो आरोग्य की दृष्टि से बहुत हानिकारक है। इन बुराइयों को जानते हुए भी, जेवर की अनुपयोगिता समझते हुए भी यदि हम केवल प्रथा परंपरा के आधार पर उसे अपनाए रहते हैं तो इसमें कौन-सी बुद्धिमत्ता की बात कही जा सकती है?

मृत्युभोज का कारण

मृत्युभोज की बड़ी दावतें देने की प्रथा उस समय चली होगी जब बार−बार अकाल पड़ते थे और भूखे-प्यासे लोग अधिक रहते थे, तब मृतात्मा की शांति के लिए भूखे-प्यासों को भोजन कराके पुण्यप्राप्ति की बात सोची जाती होगी। पर आज जब यार-दोस्तों को भूखे-प्यासे अकाल पीड़ितों के स्थान पर दावत खिलाने बुलाया जाए तो इसमें खाने वाले और खिलाने वाले का क्या गौरव रह जाता है? जिस घर में एक व्यक्ति को मरे पंद्रह दिन भी नहीं हुए हैं, वहाँ शोक सांत्वना देने के स्थान पर दोस्त लोग दावत उड़ाने और उस बेचारे के घर को खाली करने जा पहुँचें तो इसमें क्या भलमनसाहत की बात है? एक व्यक्ति के मर जाने से परिवार की क्षति होना स्वाभाविक है। इस पर भी बड़े प्रीतिभोज का भार उस परिवार पर पड़े तो उसकी आर्थिक स्थिति और भी बिगड़ेगी। सताए को और सताने वाली इस प्रथा से—‘मरे को मारें शाह मदार’ वाली कहावत ही चरितार्थ होती है। ऐसे रिवाजों को इसलिए जारी रखा जाए कि इसकी प्रथा चली आ रही है तो यह मानसिक दुर्बलता क्योंकर उचित कही जा सकती है?

भूत-पलीतों का अंधविश्वास

भूत-पलीत के नाम पर सयाने-दिवाने कैसा भ्रम-जंजाल उत्पन्न करते हैं, लोगों को कितना डरपोक बनाते हैं, और कमजोर दिल-दिमाग वालों को तो सचमुच ही वह भ्रमपूर्ण मान्यता, एक बीमारी बनकर चिपक जाती है और कई बार तो उससे प्राणघातक दुष्परिणाम तक होते हैं। गाँव-गाँव के जाति-जाति के ऐसे असंख्यों देवता उपज पड़े हैं, जिनकी शास्त्र-पुराणों में कहीं चर्चा दिखाई नहीं पड़ती। फिर यह उपजे हुए देवी-देवता, भूत-पलीतों की श्रेणी में ही आते हैं। इन्हीं पर ज्यादातर बकरे, भैंसे, मुर्गे, कबूतर, शराब, गाँजा चढ़ाने का रिवाज है। हिंदू धर्म में वैदिक और पौराणिक देवताओं की ही क्या कमी है, जो इन प्रेत-पिशाचों का एक नया वर्ग और देवताओं की श्रेणी में सम्मिलित किया जाए? इनसे अनेकों भ्रांतियाँ बढ़ती हैं, कई बार बहुत हानिकारक परिणाम होते हैं।

हमारा हर त्योहार सामाजिक सुव्यवस्थाओं का संदेश लेकर आता है। श्रावणी वेदाध्ययन का, विजयदशमी शारीरिक बल का, दिवाली धन के सदुपयोग का, गोपाष्टमी गोसंवर्द्धन का, बसंतपंचमी विद्याध्ययन का, होली सफाई का, गंगादशहरा तप का, गुरु पूर्णिमा गुरुजनों के सम्मान का शिक्षण करने आती है। इन पुनीत पर्वों के उद्देश्य के विपरीत अहितकर उलटे काम किए जाएँ तो यह कितने दुःख की बात होगी। दिवाली पर जुआ खेलना, होली पर नशे पीना और अश्लील उद्दंडता का प्रदर्शन करना कितना बुरा है। पुरानी प्रथा कहकर यदि इन अनुचित बातों को चलने दिया जाए तो उससे कोई सत्परिणाम प्राप्त होने वाला नहीं है।

दान में विवेक की आवश्यकता

दान एक बहुत ही अच्छी परंपरा है। आध्यात्मिक उदारता और सामाजिक उन्नति के लिए उसकी भारी आवश्यकता भी है। जिस समाज के लोग लोभी, कंजूस और स्वार्थी बनकर अपना ही स्वार्थ-साधन करने में लगे रहते हैं, दूसरों की उन्नति में योग देने के लिए अपना समय एवं धन खरच करना नहीं चाहते, उस वर्ग के लोगों की स्वार्थपरता ही उनके अधःपतन का कारण बन जाती है। पर साथ ही यह भी ध्यान रखने की बात है कि दान का उपयोग विवेकपूर्वक हो। अपने से पिछड़े हुए दीन-दुखी असमर्थ लोगों को उनकी प्रगति के आवश्यक साधन जुटाने में सहायता करते रहना उचित है। ज्ञान और सदाचार बढ़ाने वाले सत् शिक्षण को ब्रह्मदान कहा गया है। संसार का कल्याण इसी महान प्रक्रिया पर निर्भर है इसलिए उस प्रक्रिया को सजीव रखने के लिए भी अपनी पुण्य कमाई में से देते रहना आवश्यक है। गिरे हुओं को उठाने के लिए उनकी साधनों से अथवा ज्ञान से सहायता करना ही दान का उद्देश्य है। पर जब इस उद्देश्य के विपरीत अमुक वंश या अमुक वेष के लोगों को उनकी पात्रता एवं गतिविधियों का ध्यान न रखते हुए स्वर्ग प्राप्ति की अंधश्रद्धा के आधार पर दान दिया जाता है तो उससे लाभ कुछ नहीं, हानि बहुत है। निकम्मे, निठल्ले, आलसी, दुर्गुणी और धूर्त्तों को मुफ्त की कमाई जब अनायास ही मिल जाती है तो उनके दुर्गुण दिन दूने बढ़ते रहते हैं। धर्म के नाम पर उसमें विवेक का समन्वय नहीं होता। यदि विवेकपूर्वक, उपयोगी एवं सत्कार्यों के लिए वह धन खरच किया जाए तो उससे समाज में सत्प्रवृत्तियाँ भी बढ़ सकती हैं और उनके सत्परिणाम का पुण्य उस दानी को भी मिल सकता है। दान की प्रवृत्ति बढ़ाने की जहाँ आवश्यकता है; कुपात्रों और अंधविश्वास से धन लुटाने के अपव्यय को रोकना भी उचित है।

व्यर्थ के चुन्न-पुन्न

पिछले लेख में विवाह-शादियों में धन की होली खेले जाने की मूर्खता पर प्रकाश डाला जा चुका है। उस अपव्यय को रोकने के लिए यदि प्रयत्न न किया गया तो हमारा आर्थिक और सामाजिक ढाँचा बुरी तरह लड़खड़ाने लगेगा। हमारा समाज बुद्धि, धर्म, उदारता एवं अनेकों जन्मजात विशेषताओं के कारण संसार के किसी भी प्रगतिशील समाज से पीछे नहीं है, पर उसकी सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि सामाजिक कुरीतियों में धन और समय का भारी अपव्यय करने के लिए उसे विवश होना पड़ता है। इसी प्रकार उसकी सबसे बड़ी दुर्बलता भी यह है कि इन प्रथाओं की हानियों को भली प्रकार जानते और मानते हुए भी वह उन्हें छोड़ने का साहस नहीं कर पाता। विवाह ही नहीं, विवाह के बाद भी त्योहारों पर या विशेष अवसरों पर कन्या वालों को वरपक्ष के यहाँ अनेकों कीमती उपहार भेजते रहना पड़ता है। जो धीरे−धीरे करके कुछ दिन में विवाह जितना ही एक और ऊपरी खरच बँध जाता है। लड़की के बच्चा होने पर उसके बच्चों का विवाह होने पर बहुत-सा उपहार एवं प्रदर्शन के साथ देने का रिवाज है। जिनकी आर्थिक स्थिति इस लायक नहीं है, उनके लिए तो यह व्यर्थ के रीति−रिवाज भी बहुत भारी पड़ते हैं। सामाजिक प्रतिष्ठा की दृष्टि से लोग इन्हें करते तो हैं, पर मन-ही-मन उससे दुःख भी बहुत पाते हैं। जिन्हें दिया जाता है, उनके लिए भी वे प्राप्त चीजें मेवा, मिठाई, कपड़े, खिलौने आदि कुछ विशेष उपयोगी नहीं होते। एक व्यर्थ के आडंबर में ही इतना धन खरच करना पड़ता है जिसके कारण लोगों की आर्थिक स्थिति इतनी खोखली हो जाती है कि प्रगति के किसी भी मार्ग पर बढ़ सकना उनके लिए संभव नहीं रहता।

नशेबाजी का फैशन

नशेबाजी ने अब एक फैशन का रूप धारण कर लिया है। लाभ-हानि की दृष्टि से नहीं, फैशन की दृष्टि से लोग उसका उपयोग करते हैं। तमाकू का प्रचलन कितना अधिक हो गया है, इस पर आश्चर्य होता है। लगभग दो करोड़ रुपये मूल्य का तमाकू हम प्रतिदिन पीते हैं, अर्थात् 720 करोड़ वार्षिक का धुँआ हर वर्ष यों ही उड़ा दिया जाता है और उसके बदले में कैंसर, कफ, खाँसी, श्वास, प्रदाह, अनिद्रा, गठिया, दमा, स्नायु, दौर्बल्य, लकवा सरीखे भयंकर रोग खरीद लिए जाते हैं। जितनी जमीन में तमाकू उपजाई जाती है, उतने में अन्न उपजे तो लाखों करोड़ों का पेट भर सकता है। जितनी जनशक्ति तमाकू उपजाने, बीड़ी-सिगरेट बनाने में लगी रहती है, वह यदि उपयोगी उत्पादन करे तो लोगों की कितनी ही महत्त्वपूर्ण आवश्यकताएँ पूरी हो सकती हैं। शराब, गाँजा, चरस, अफीम, भाँग, चाय आदि नशे हमारे शारीरिक ही नहीं मानसिक स्वास्थ्य को भी चौपट करते हैं। क्रोध, उत्तेजना, आवेश, चिंता, दीर्घसूत्रता आदि अनेकों तामसिक दुर्गुण नशेबाजों में बढ़ते रहते हैं और वे धीरे−धीरे असभ्य कहलाने वाली बुराइयों में ग्रसित होते चले जाते हैं। सभ्य समाज की रचना के लिए जिन बुराइयों का उन्मूलन आवश्यक है, उनमें से नशेबाजी का स्थान उपेक्षणीय नहीं है। फैशन के नाम पर यह व्यर्थ ही नहीं, हानिकर आदत यदि चलते रहने दी गई तो हमारा स्तर ऊँचा न उठ सकेगा।

नीच−ऊँच का आधार

गुण, कर्म, स्वभाव के कारण मनुष्य ऊँचे भी बनते हैं और नीचे भी गिने जाते हैं। अपनी विशेषताओं के कारण लोग प्रतिष्ठा भी प्राप्त करते हैं और नीच भी समझे जाते हैं, पर यह एक विचित्र बात है कि अमुक घर, वंश या कुल में जन्म लेने के कारण किसी को ऊँचा या नीचा समझा जावे। हर वंश में भले आदमी हो सकते हैं और बुरे भी। फिर उन सारे वंश को नीचा या ऊँचा मान लेना किसी भी प्रकार उचित नहीं कहा जा सकता। प्राचीनकाल में किसी वंश के लोगों ने अच्छे या बुरे काम करके कोई प्रतिष्ठा या निंदा प्राप्त की थी तो उनके वंशजों को भी बिना उनके वर्त्तमान गुणों की जाँच किए, पूर्वजों जैसा ही मान लिया जाए, इसमें क्या बुद्धिमत्ता है? कलेक्टर के बच्चों को कलेक्टर और डॉक्टर के बच्चों को जब डॉक्टर नहीं माना जाता तो किन्हीं भले या बुरे पूर्व पुरुषों के वंशजों को उन्हीं जैसा ऊँच या नीच कैसे माना जा सकता है?

विशाल मानव समाज में अनेकों वंश, परिवार और वर्ग हो सकते हैं, पर जाति तो एक मनुष्य ही रहेगी। घोड़ा, गाय, भैंस, बकरी आदि पशुओं की जिस प्रकार अपनी−अपनी जाति होती है, उसी प्रकार मनुष्य की भी एक जाति है। गाय−गाय के बीच अंतर हो सकता है, यह अंतर उसकी निजी विशेषताओं के कारण होगा, पर पूज्य तो सभी गायें मानी जाएँगी। उनके सामाजिक सम्मान में तो कोई कमी न करेगा। मनुष्य और मनुष्य के बीच में ऊँच−नीच की दीवार खड़ी करना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं माना जा सकता। यह अनुपयुक्त दृष्टिकोण हमारे सामाजिक संगठन में भारी बाधा बना हुआ है। करोड़ों हिंदुओं को विधर्मी बना देने और देश के खंड−खंड करा देने का सारा दोष इसी संकीर्णता का है। हम जब तक अनेक भागों में विभक्त रहेंगे और एकदूसरे से घृणा करते रहेंगे, तब तक संगठित समाज की एकता का आशाजनक वातावरण कैसे उत्पन्न हो पावेगा?

सुधार और सफाई

हमारा समाज जितना श्रेष्ठ और प्राचीन है, उतनी ही कुरीतियाँ और बुराइयाँ भी उसमें प्रवेश कर गई हैं। जिस प्रकार सिर में पड़ जाने वाले जुओं को बीन−बीनकर फेंक दिया जाता है, उसी प्रकार सामाजिक रीति−रिवाजों को भी विवेक की कसौटी पर कसना होगा, जो उपयुक्त हों उनको प्रोत्साहन देने और जो अनुपयुक्त हों उनका परित्याग करने के लिए हमें तत्पर होना होगा। दूरदर्शी किसान अपनी खेती में उपजने वाले धान्य को सींचता रखाता है, पर हानिकारक घास-पात को खोदता हटाता भी रहता है। यदि ऐसा न किया जाए तो निरर्थक घास-पात बढ़ जाने से धान्य की फसल ही नष्ट हो जाएगी। समाजरूपी खेत में जहाँ सत्प्रवृत्ति की फसल को सींचा और रखाया जाना आवश्यक है, वहाँ कुरीतियों के घास-पात को उखाड़ने की भी नितांत आवश्यकता रहेगी। हमें इस ओर से उदासीन नहीं रहना चाहिए।

संकोच और विरोध

एक मानसिक दुर्बलता लोगों में यह देखी जाती है कि उन्हें पुराना ढर्रा ही पसंद होता है, नई व्यवस्था चलाते हुए उन्हें झिझक एवं संकोच का अनुभव होता है। अच्छाई को अच्छाई मानते हुए भी वे संकोचवश उसे कर नहीं पाते और बुराई को बुराई समझते हुए भी उसको हटाने का साहस उनमें नहीं होता। वे सोचा करते हैं कि इस परिवर्तन का लोग उपहास या विरोध करेंगे। अनेक तरह की बात कहेंगे और तरह−तरह के प्रश्न पूछेंगे, उनका उत्तर देने या समाधान करने का साहस अपने में न होने से झेंप उठानी पड़ेगी और हमारी अप्रतिष्ठा बढ़ेगी। पर यह मान्यता सर्वथा थोथी और निरर्थक है। वीर और साहसी पुरुष जो अनुपयुक्त प्रथाओं को तोड़कर उनके स्थान पर उपयुक्त प्रथाओं की स्थापना में अग्रसर होते हैं, वे जननेतृत्व करने वाले, महापुरुष एवं युग प्रवर्त्तक समझे जाते हैं। जिन कुप्रथाओं का उल्लेख ऊपर की पंक्तियों में किया गया है; विचारशील लोगों में से प्रायः हर एक ही उनका उन्मूलन उचित समझता है, पर यह सोचकर कि मैं अकेला ही कैसे कोई कदम उठाऊँ? बेचारा संकोचवश चुप बैठा रहता है। यदि कोई साहसी व्यक्ति आगे बढ़कर समाज का मार्गदर्शन करने के लिए अपना अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत कर सके तो निश्चय ही उनकी निंदा नहीं प्रशंसा होगी।

साहस की आवश्यकता

हो सकता है कि सड़े−गले दिमाग के कुछ कूड़ापंथी, इन समाज-सुधार कार्यों का विरोध करें। पर विरोध से डरना क्यों चाहिए? क्या संघर्ष को ही जीवन नहीं कहा गया है? जिस मार्ग में कोई कठिनाई न आए, वह भी क्या मंजिल? विरोध और विघ्नों को चीरते हुए आगे बढ़ने को ही तो पराक्रम कहते हैं। धार को चीरती हुई प्रवाह की उलटी दिशा बढ़ चलने वाली मछली ही तो दर्शकों के आकर्षण का केंद्र बनती है। प्रवाह की दिशा में लुढ़कता−पुढ़कता तो कूड़ा−कचरा भी चला जाता है। विवेकपूर्ण नैतिक धर्म-मर्यादाओं के पालन में हमें नितांत श्रद्धावान और परंपरावादी रहना चाहिए, पर कुरीतियों के सड़े-गले मवाद को साफ करने से झिझकने में तो कायरता और दुर्बलता ही कारण हो सकती है। जनहित, समाज−कल्याण और युग−निर्माण की दृष्टि से हमें इतना साहस तो दिखाना ही पड़ेगा।


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