लक्ष्यपूर्ति के लिए हमें भी कुछ तो करना ही होगा

July 1962

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मानव प्राणी, परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कृति है। प्रभु ने उसकी रचना पर सबसे अधिक श्रम किया है और उसे सर्वांगपूर्ण बनाया। वाणी, बुद्धि और भावना का अनुपम उपहार उसे मिला हुआ है, उसका यदि सदुपयोग कर सके तो मनुष्य सचमुच पृथ्वी का देवता बन सकता है और अपने समाज एवं वातावरण को स्वर्ग जैसा आनंदमय परिस्थितियों से परिपूर्ण कर सकता है। इस प्रकार की सभी सुविधाएँ और क्षमताएँ उसे जन्मजात रूप से प्राप्त हैं, पर दुर्भाग्य इतना ही है कि श्रेष्ठ सत्प्रवृत्तियों को अपनाकर जो दूरगामी महान परिणाम उत्पन्न हो सकते हैं, उनके लिए धैर्य रखने और श्रम करने की गुँजाइश उसे नहीं रहती, अधिक से अधिक तत्क्षण तुरंत लाभ प्राप्त करने की अधीरता में वह न करने योग्य काम करने लगता है और न चलने योग्य मार्ग पर चलने लगता है। पर इतनी-सी ही एक छोटी भूल उसे कहीं-से-कहीं ले पहुँचती है। उसका निजी जीवन अशांत रहता है और दूसरों को अशांतिमय परिस्थितियों में धकेलता है। सभ्यता का अर्थ है— 'सदाचार'। सदाचार का परित्याग करके, मानवीय कर्त्तव्य की मर्यादाओं का उल्लंघन करने से व्यक्ति आकृति में मनुष्य रहते हुए भी प्रकृति में पशु बन जाता है। पशुओं का समाज असभ्य कहलाता है, आज मनुष्य समाज अपनी चारित्रिक क्षुद्रता के कारण असभ्य ही बना हुआ है।

सत्प्रवृत्तियों का विस्तार

किन सत्प्रवृत्तियों के पनपने से समाज में श्री, समृद्धि एवं सुव्यवस्था रह सकती है और किन सद्गुणों को अपनाने से मनुष्य देव जीवन जैसी शांति तथा सुविधा प्राप्त कर सकता है, उसका कुछ दिग्दर्शन इस अंक में कराया गया है। पिछले अंकों में भी इस संबंध में काफी चर्चा की जा चुकी है। इनमें से कोई बात ऐसी नई नहीं है, जिसे हम जानते न हों, पहले भी यह सब बातें हम जाने और समझे हुए होते हैं। पर कठिनाई केवल कार्यरूप में परिणत करने की रहती है। भाषणों और लेखों में हम अनेकों महत्त्वपूर्ण बातें सुनते−पढ़ते हैं। कितनी ही आवश्यकताएँ हम सोचते-समझते भी हैं, पर वे केवल कल्पना तक ही सीमित रह जाती हैं। आवश्यकता इस बात की है कि जो कुछ हम उचित एवं आवश्यक समझते हैं, उसे कार्यान्वित करने का भी प्रयत्न करें। धीरे−धीरे भी चलती रहने वाली चींटी योजनों की यात्रा पार कर लेती है, पर केवल विचारमग्न बैठा रहने वाला गरुड़ भी जहाँ का तहाँ पड़ा रहता है। सद्विचारों का कोई परिणाम देखना हो तो उन्हें कार्यान्वित ही करना पड़ता है।

प्रचंड संघशक्ति की सामर्थ्य

बहती हुई जलधारा की ओर प्रवाह में बहते चले जाना सुगम है। ऊपर से नीचे उतर आना भी सहज है। पर बहती हुई धारा को चीरकर उलटे चलना और नीचे से ऊपर चढ़ना कठिन होता है। आज मानव समाज में जो दुष्प्रवृत्तियाँ एवं अंधपरंपरा चल रही है, उसी में भेड़चाल चलते रहना सामान्य बात है। पर उन्हें हटाकर जीवन का नया क्रम बनाना हो और दूसरों को गिरावट से खींचकर उत्थान की ओर खींचना हो तो इसके लिए विशेष मनोबल, साहस, पुरुषार्थ एवं प्रयत्न की आवश्यकता पड़ेगी। साधारणतः इस प्रकार का कार्य एकाकी नहीं हो पाता। इसके लिए संगठित एवं सुसंबद्ध शक्ति उत्पन्न करनी पड़ती है।

भारी-से-भारी चीज को नीचे पटक देने में एक धक्का मार देना पर्याप्त है, पर ऊपर उठाने के लिए क्रेन जैसी कीमती मशीन और उसे उपयोग में लाने वाले कुशल कारीगरों की आवश्यकता पड़ती है। युग−निर्माण के जिस महान लक्ष्य को लेकर हम अग्रसर हो रहे हैं, उसके लिए भी एक सुसंगठित जनशक्ति का सुनियोजित ढंग से कार्य−संलग्न होना आवश्यक है। जिस प्रकार अनेक पुर्जों के मिले बिना कोई मशीन नहीं बन सकती, उसी प्रकार कितने ही मनुष्यों का एक सुगठित संगठन बने बिना युग−निर्माण जैसे महान कार्य की सफलता संभव नहीं ।

लंका विजय का श्रेय अकेले राम को नहीं, रीछ-बंदरों की सारी सेना को है। गोवर्धन उठाने में गोप-बालकों का लाठी लगाकर खड़े होना भी महत्त्वहीन नहीं है। देवताओं के सामूहिक रक्तसंचय से भरे हुए घड़े से ही सीता का जन्म हुआ था और वे ही रावण जैसे अपराजित योद्धा के नाश का कारण बनी थीं। यों संघशक्ति प्रत्येक युग में महत्त्वपूर्ण रही है, पर इस कलियुग में तो वही सर्वोपरि है। वोट के बल से सरकारें बदल जाती हैं तो सामूहिक जनप्रयास से युग का बदल जाना भी क्यों कठिन होना चाहिए?

हमारा सजीव संगठन

'अखण्ड ज्योति परिवार' को हमने सदा से एक सजीव, सक्रिय एवं सत्प्रवृत्तियों में संलग्न सेना माना है। इसी के द्वारा गत बीस वर्षों से लाखों मनुष्यों के जीवन में ऐसे हेर−फेर संभव हुए, जिनसे राष्ट्रीय प्रगति में भारी योगदान मिला है। 'अखण्ड ज्योति' केवल सन्मार्ग का शिक्षण ही नहीं देती, वरन उसके साथ एक प्रेरणा भी सन्निहित रहती है, जिसके कारण पाठक केवल उन विचारों को पढ़कर ही संतुष्ट नहीं हो जाता, वरन कुछ उस दिशा में कदम भी बढ़ाने पड़ते हैं। इन विचारों के साथ घुली हुई प्रेरणा जिसके पास तक पहुँचेगी, वह निश्चेष्ट दर्शकमात्र नहीं रह सकता, उसे सत्पथ पर अग्रसर होना ही होता है, उसके बिना उसे चैन भी नहीं मिल सकता। प्रकाश की जो किरणें 'अखण्ड ज्योति' अपने पाठकों के मन में उत्पन्न करती है, उनसे उनका जीवन भी ज्योतिर्मय होने लगता है। गत अक्टूबर 1961 से तो उसका स्वरूप ही दूसरा बन गया है, वह अब 'साधारण ज्योति' न रहकर एक 'जाज्वल्यमान मशाल' बन गई है। युग−निर्माण के लिए ऐसी ही ज्वाला की आवश्यकता भी थी।

सदाचार, चरित्र−निर्माण, आस्तिकता और मानवीय धर्म कर्त्तव्यों को मानव जीवन में कूट−कूटकर भर देने के लिए ही अपना प्रचंड प्रयास गत 25 वर्ष से चलता रहा है। अब जबकि हमारा कार्यकाल दस वर्ष ही शेष है— उसमें से भी एक वर्ष बीत चुका— तो बाकी नौ वर्षों में अत्यधिक तत्परता के साथ द्रुतगति से कदम बढ़ाने पड़ेंगे। स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन और सभ्य समाज की रचना का त्रिविधि कार्यक्रम व्यापक विस्तृत जनसमूह के अंतस्थल तक पहुँचाने और उसे कार्यान्वित कराने का कार्य छोटा नहीं, सचमुच ही बड़ा है। इसके लिए बड़े साधन भी चाहिए। यह साधन, जनशक्ति ही हो सकती है। घर का साधारण−सा छप्पर उठाने के लिए बहुत आदमियों की जरूरत पड़ती है तो युग−निर्माण और साँस्कृतिक पुनरुत्थान का छप्पर उठाने का कार्य बिना जनशक्ति के कैसे संभव होगा? यह युगांतरकारी शक्ति कहीं बाहर से नहीं, हमें अपने ही भीतर से उत्पन्न करनी है। हमें अपनी शिथिलता एवं उपेक्षा को तत्परता एवं क्रियाशीलता में परिणत करना है।

खेद की बात है कि 'गायत्री परिवार' का एक विशाल संगठन बना था, पर उसके सदस्यों को 'अखण्ड ज्योति' पढ़ते रहने का महत्त्व हम न समझा सके, फलस्वरूप उनमें से अधिकांश लोग उस दिशा में चल सकने की स्थिति में न आ सके, जो हमारा लक्ष्य था। अब यह निश्चित रूप से स्वीकार कर लिया गया है कि उन्हीं को अपने परिवार का परिजन माना जा सकता है और उन्हीं से कुछ आशा रखी जा सकती है जो 'अखण्ड ज्योति' पढ़ते हैं। जो हमारी वाणी को सुनना नहीं चाहते, जिन्हें हमारे विचारों और प्रेरणाओं की आवश्यकता नहीं, जो हमारे सुझावों और संदेशों का कोई मूल्य नहीं मानते, उन्हें परिजन कहना हमारा एक भ्रममात्र था, जो अब पूरी तरह दूर कर लिया गया है। अपने परिचित लोगों की भारी भीड़ में से हम युग−निर्माण जैसे महान कार्य में कुछ सहयोग की आशा उन्हीं से करते हैं, जो कम-से-कम हमारे विचारों के प्रति सहानुभूति रखते हैं और उन्हें पढ़ने की आवश्यकता अनुभव करते हैं।

आगामी कार्यक्रम और उनका आधार

गत जनवरी के अंक में हम अपनी आगामी योजनाओं की चर्चा कर चुके हैं। 'युग−निर्माण' के लिए विचार ही पर्याप्त नहीं, वरन रचनात्मक कार्यक्रमों को अपनाकर हमें व्यक्तिगत जीवन में आदर्शवादिता की स्थापना और समाज में स्वस्थ परंपराएँ डालने के लिए अनेक प्रयत्न करने होंगे। देश-काल, पात्र की स्थिति देखते हुए कार्यक्रमों में हेर−फेर होते रह सकते हैं, पर आवश्यकता उन व्यक्तियों की है जो 'युग−निर्माण' की विचारधारा को अपने तथा दूसरों के जीवन में साकार रूप दे सकें। ऐसे व्यक्ति 'अखण्ड ज्योति' के पाठकों में से निकल सकेंगे। इसका हमें पूरा और पक्का विश्वास है। कार्य की महानता और क्षेत्र की व्यापकता को देखते हुए अभी 'अखण्ड ज्योति परिवार' संख्या की दृष्टि से बहुत छोटा है, इसे बढ़ाने की आवश्यकता है। पिछले अंकों में वर्त्तमान स्वजनों से हम यह प्रार्थना करते रहे हैं कि 'अखण्ड ज्योति परिवार' को बढ़ाने के लिए प्रयत्न किया जाए। अपना क्षेत्र जितना विस्तृत होगा सफलता की संभावना भी उतनी ही बढ़ेगी। जिनके पास 'अखण्ड ज्योति' पहुँचती है, उन्हें उसे एक बार नहीं, दो-तीन बार पढ़ना चाहिए। जितनी बार पढ़ेंगे, उसमें कुछ नई बात और नई प्रेरणा मिलेगी। जिन्हें हम अपना समझते हैं, जिनके उत्थान में हमारी दिलचस्पी है, उन सबको इसके पढ़ने के लिए बाध्य करना चाहिए और जो बिना पढ़े हैं, उन्हें पढ़कर सुनाना चाहिए। जिन्हें हमारे विचार निरंतर मिलते रहेंगे, वे सदा छूँछे नहीं बने रह सकते, उनके विचारों ओर कार्यों में प्रगति होनी ही है—होगी ही।

हममें से किसी के स्वजन, संबंधी, मित्र, पड़ोसी ऐसे न रहें, जो 'अखण्ड ज्योति' न पढ़ते हों। बहिनें और बेटियाँ ससुराल में चली जाती हैं, बहनोई और दामाद दूर रहते हैं, उन्हें जिस प्रकार अन्य उपहार दिए जाते हैं, उसी प्रकार अपने पास से उनका चंदा जमा करके पत्रिका चालू कराई जा सकती है। अन्य मित्रों और संबंधियों की हितकामना से भी ऐसे उपहार देना, उनकी सच्ची सहायता का आयोजन करना है। विचारों से बड़ा उपहार और कोई इस संसार में हो नहीं सकता। साथ ही यह भी प्रयत्न करते रहना चाहिए कि वे लोग अपने पैसों से उपयोगी वस्तु खरीदना सीखें। दूसरों के उपहार पर परावलंबी न बने रहें।

गुरु पूर्णिमा का पुनीत पर्व

इस मास 'गुरु पूर्णिमा' का पुनीत पर्व 17 जुलाई सन् 1962 को है। हम सब 'गुरु पूर्णिमा' को गुरुजनों के सम्मान में श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए, इस पुण्य पर्व को मनाते हुए, अपना परम पवित्र धर्मकर्त्तव्य पालन करते हैं। ऋषि ऋण इस पर्व पर अपनी किश्त चुकाने के लिए तकाजा करने आया करता है। धर्म और संस्कृति के प्रेमी अपने−अपने ढंग से वह श्रद्धांजलि अर्पित करते भी हैं। 'अखण्ड ज्योति' के पाठक भी उसके अपवाद नहीं। वे भी इस पर्व को खाली नहीं जाने देते। इस बार उनके लिए एक विशेष कर्त्तव्य यह हो सकता है कि 'युगनिर्माण योजना' को सफल बनाने के लिए 'अखण्ड ज्योति' के नए सदस्य बनाने का प्रयत्न करें। यह अंक पहुँचने के बाद 'गुरु पूर्णिमा' के लगभग 15 दिन शेष रहेंगे। जहाँ जितने 'अखण्ड ज्योति' के ग्राहक हैं, वे इकट्ठे होकर एक डेपूटेशन के रूप में धर्मफेरी लगाते रहें या अकेले-अकेले इसके लिए प्रयत्न करें तो आशाजनक कार्य हो सकता है। कितने ही नए ग्राहक बन सकते हैं। यह छोटा प्रयत्न शारीरिक श्रमदानमात्र है, पर इसका परिणाम 'युग−निर्माण' के कार्यक्रम को आगे बढ़ाने के लिए अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हो सकता है। जितना परिवार बढ़ेगा उतनी ही सद्विचारों और सत्कार्यों की वृद्धि भी होगी। और इसका पुण्यफल उन लोगों को मिलने वाला है, जो इस सत्प्रयत्न में सक्रिय रूप से अपने श्रमदान की श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए हमारा सेवाक्षेत्र बढ़ाने में सहायता करेंगे। हमारी सेवा, सहायता एवं प्रसन्नता का सबसे बड़ा कार्य यही हो सकता है। शरीर को पूजने वालों के प्रति नहीं, हमारी आत्मा को संतोष देने के लिए जो प्रयत्न करते हैं, उन्हीं के प्रति कृतज्ञता और श्रद्धा से हमारा मस्तक नत हो सकता है।

परिवार बढ़ाने का आवश्यक कार्य

इस अंक में एक अतिरिक्त 'परिशिष्ट−पत्र' इसी उद्देश्य से लगाया गया है। उसमें चार ग्राहक बनाने के कूपन संलग्न हैं। जो ग्राहक बनाए जाएँ, उनके पते इन कूपनों में भरकर भेजे जा सकते हैं और चंदा मनीऑर्डर से । इस संदर्भ में हमें यह भली प्रकार समझ लेना चाहिए कि आर्थिक दृष्टि से 'अखण्ड ज्योति' इन दिनों घाटे में चल रही है। पृष्ठ संख्या लगभग ड्यौढ़ी कर देने के कारण अब उसकी लागत 3) न रहकर 4) के करीब पहुँच रही है। इस घाटे की पूर्ति पुस्तकों के लाभांश से या किसी अन्य प्रकार से करनी पड़ती है। किसी को ऐसा स्वप्न में भी न सोचना चाहिए; ग्राहक बढ़ाने में कोई आर्थिक लाभ सन्निहित हैं, विशुद्ध रूप से जनहित एवं अपने महान मिशन का विस्तार करने की दृष्टि से ही यह सोचा और कहा जा रहा है। कार्यक्षेत्र को बढ़ाए बिना, वह सपने पूरे न हो सकेंगे, जिनके लिए हम जीवित हैं।

संगठन के बिना इस युग में कोई बड़ा काम हो सकना संभव नहीं। संगठन जितना बड़ा होगा— उसके सदस्य जितने उत्कृष्ट होंगे— उतनी ही शक्ति उत्पन्न होगी और उसके द्वारा उतनी ही बड़ी सफलता की आशा की जा सकती है। 'गायत्री परिवार' के संगठन में सदस्य के त्याग और निष्ठा की कोई परीक्षात्मक शर्त न रहने से उसमें घटिया श्रेणी के लोग भर गए और अब बिखरते भी जा रहे हैं। ऐसी दशा में 'युगनिर्माण कार्य' को आगे बढ़ाने के लिए परिवार का हम पुनर्गठन कर रहे हैं, इसमें केवल भावनाशील और निष्ठावान व्यक्ति ही सम्मिलित किए जा रहे हैं। प्रारंभिक शर्त के रूप में 'अखण्ड ज्योति' का पाठक होना, परिजन की प्रारंभिक परीक्षा रखी गई है। सत्कार्यों का मूल सद्विचार है, सद्विचारों को सुनने-समझने और उनके प्रति निष्ठा रखने में जिन्हें विश्वास नहीं, जो इतने उच्चकोटि के विचारों के लिए चार आना मासिक खरच नहीं करना चाहते, उनसे मानवता की पुकार के लिए 'युगनिर्माण कार्य' के लिए कोई कदम उठा सकना कैसे संभव हो सकता है?

इस वर्ष हमारा सारा ध्यान अपने बिखरे हुए परिवार को पुनर्गठित करने में लगा हुआ है। अगणित लोगों से हमारा संबंध और परिचय रहा। कितने ही तो हमें गुरु कहने और पैर छूने में भी बहुत उत्साह दिखाते रहे। अब उस भीड़ में से अपने-पराए की कसौटी के रूप में हमने 'अखण्ड ज्योति' की सदस्यता को एक शर्त बना दिया है। जो इससे कतराते हैं, उनकी चतुरता इस कसौटी पर स्पष्ट हो जाएगी। और असली नकली की छाँट का अवसर आसानी से मिल जाएगा। जो थोड़े से असली स्वजन हमारे साथ रह जाएँगे, वे भले ही थोड़े हों, पर उनसे कुछ आशा रखी जा सकेगी और जो महान कार्य कंधे पर उठाया है, उसके लिए अपनी शक्ति को ठीक तरह आँका जा सकेगा, फिर उसी आधार पर आगे के कदम उठावेंगे।

परिवार दो होते हैं—(1) वंश परिवार (2) विचार परिवार। वंश परिवार वह है, जिसमें रक्तसंबंध होता है। इसका आधार पिता रहता है। दूसरा परिवार, विचार परिवार है, जिसमें भावनात्मक एकता के आधार पर आत्मीयता स्थिर रहती है। इसका आधार गुरु होता है। 'अखण्ड ज्योति परिवार' इस दूसरे प्रकार का ही कुटुंब है। वर्त्तमान परिजनों का कर्त्तव्य है कि वे अपने क्षेत्र में अपना विचार परिवार बढ़ावें। जहाँ जितने 'अखण्ड ज्योति' के सदस्य रहेंगे, वहाँ उतना ही अपना परिवार माना जाएगा। इसलिए यह प्रयत्न किया ही जाना चाहिए कि अपने विचार परिवार का विस्तार हो। संगठन का अब अपना प्रारंभिक आधार यही है। इसलिए 'गुरु पूर्णिमा' के पावन पर्व पर हममें से हर एक को यह प्रयत्न करना चाहिए कि जो लोग पहले हमसे या गायत्री परिवार से किसी प्रकार संबंधित रहे हैं, वे यदि उस संबंध को आगे भी बनाए रखना चाहते हों तो 'अखण्ड ज्योति' की सदस्यता स्वीकार करें। पूर्व परिचय के क्षेत्र तक ही सीमित न रहकर अब आगे कदम बढ़ाने की आवश्यकता है। अपने इस वर्ष के सब अंक यदि पाठक किन्हीं भावनाशील व्यक्तियों को पढ़ने के लिए देंगे तो उन्हें नापसंद न किया जा सकेगा। जो पसंद करते हैं, उन्हें चार आना महीना इसके लिए खरच कर सकना कोई भार प्रतीत न होगा।

सभ्य समाज की रचना के लिए एक सशक्त, प्रबुद्ध एवं सुविस्तृत संगठन की अनिवार्य आवश्यकता है। यह संगठन 'अखण्ड ज्योति' के सदस्यों का ही हो सकता है। इस सदस्यता के लिए विशाल जनसमुदाय को तैयार करने से ही 'युगनिर्माण योजना' को सफल बनाया जा सकना संभव है। हममें से प्रत्येक को इसके लिए प्राणपण से प्रयत्न करना चाहिए। 'गुरु पूर्णिमा' इसके लिए विशेष संदेश लेकर सामने उपस्थित हो रही है।


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