लोकेषणा की हेय लालसा

July 1962

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काम-वासना की शारीरिक और मानसिक अमर्यादित प्रक्रियाएँ, व्यभिचार को जन्म देती हैं और उससे स्वास्थ्य, सद्भाव एवं दांपत्ति जीवन की निष्ठा पर भारी आघात पहुँचता है। संतान का सद्गुणी होना बहुत कुछ इस बात पर निर्भर है कि पति-पत्नी में हार्दिक प्रेम रहे। जिस दांपत्ति जीवन में अविश्वास, संदेह, दुर्भाव एवं मनोमालिन्य बना रहेगा, वहाँ सुसंतति का जन्म कदापि संभव न होगा। चरित्र पर संदेह होना, पति−पत्नी के प्रेम एवं विश्वास में आग लगाने वाला पलीता है। “एक नारी ब्रह्मचारी” वाली कहावत में बहुत कुछ तथ्य है। नारी के लिए पतिव्रत की जो महत्ता है, यही नर के लिए पत्नीव्रत की। रामायण में पतिव्रता के लिए यह धर्म बताया है कि वह, “अंध, बधिर, क्रोधी, अति दीना” जैसा पति मिलने पर संतुष्ट रहे और उसे ही ईश्वर की प्रतिमूर्ति समझकर सेवा करे। ठीक यही बात पति के लिए लागू होती है। संयोगवश जैसी भी कुछ काली, कानी, लँगड़ी, अंधी, दुर्गुणी, फूहड़, कर्कशा, मूर्ख, रोगी, अपंग नारी मिल गई है, उसे गृहलक्ष्मी, देवी की प्रतिमूर्ति समझकर प्रेमपूर्वक निवाहे और अपनी इसी छोटी दुनिया से संतुष्ट रहकर कुमार्ग पर मन न दौड़ाए।

सुसंतति के अभाव में पारिवारिक जीवन नष्ट होते चले जा रहे हैं, और हर पीढ़ी अपनी पूर्व पीढ़ी की अपेक्षा अधिक दुर्गुणी एवं कुसंस्कारी बनती चली जा रही है। यह असुरता के विकास का क्रम यदि इसी प्रकार चलता रहा तो हमारी सभ्यता और संस्कृति नष्ट होती ही चली जाएगी और सभ्य समाज की रचना के स्वप्न अधूरे ही पड़े रहेंगे। इसलिए हमें यौन सदाचार के लिए प्रबल प्रयत्न करना चाहिए और इसकी जड़, ‘मानसिक असंयम’ को दूर करना चाहिए। दृष्टिकोण में से वासना को हटाना और अपने दांपत्ति जीवन को ईश्वरीय आज्ञा मानकर संतुष्ट रहना, जहाँ धार्मिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से भी आवश्यक है, वहाँ समाज की रचना की दृष्टि से भी अनिवार्य है। हम व्यभिचार बुद्धि का परित्याग करके जब बहिन-भाई के, पिता-पुत्री के पवित्र संबंधो में संतोष एवं आनंद का अनुभव करेंगे तभी यह आशा की जा सकेगी कि हमारा समाज सभ्य बने और जिस स्वर्गीय वातावरण को इस धरती पर अवतरित देखना चाहते हैं, वह आकांक्षा पूर्ण हो।

लोकेषणा की प्रवंचना

वित्तेषणा, पुत्रेषणा के अतिरिक्त तीसरी एषणा है—‘लोकेषणा’। वाहवाही लूटने की, दूसरों के मुँह अपनी प्रशंसा सुनने की, मानसिक दुर्बलता को लोकेषणा कहते हैं। यों उचित मर्यादा में यह वृत्ति भी उचित धन-उपार्जन और संयमी दांपत्ति जीवन की तरह उपयोगी होती है, इस आधार पर मनुष्य सत्कर्म करता और अपने चरित्र को ऊँचा रखता है। बुराइयों से बचता और निंदा से डरता हुआ मर्यादा के अंदर रहना सीखता है। इस दृष्टि से यशकामना को उत्तम माना गया है। पर यह उत्तमता तभी तक स्थिर रहती है, जब मनुष्य ईमानदारी से धन कमाने की तरह अपने उत्कृष्ट आचरण एवं श्रेष्ठ सत्कर्मों द्वारा उसे प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। यदि अमीरी का रौब गाँठकर फिजूलखरची के द्वारा अपना बड़प्पन सिद्ध करके प्रशंसा प्राप्त करने का प्रयत्न किया जा रहा है तो वह लोकेषणा निंदनीय भी है और अहितकर भी।

कीमती कपड़े और जेवर

आज शेखीखोरी, बनावट, ढोंग, फैशनपरस्ती और बड़प्पन दिखाने की बहुत होड़ चल रही है। इन बातों में लोग अपनी हैसियत से बहुत अधिक खरच करते हैं। ठाठ−बाठ बनाने में अपनी गाढ़ी कमाई का अधिकांश भाग फूँक देते हैं। कीमती कपड़े पहनने की कोई उपयोगिता समझ में नहीं आती। शरीर ढँकने के लिए सीधे−सादे कपड़े पर्याप्त हैं, पर जब उनमें प्रचुर धन खरच करके कीमती सूट और महँगी साड़ी पहनकर लोग बाजार में निकलते हैं तो उनका उद्देश्य देखने वालों पर यह रौब गाँठना होता है कि हम बहुत बड़े अमीर हैं। इसी प्रकार जेवर लादे फिरने का फूहड़पन भी इसी ओछी बुद्धि का परिचायक है कि लोग हमें धनी समझें। धनी होने का प्रमाणपत्र गले में लटकाए फिरने, हाथ-पैरों में बाँधे फिरने का फितूर ही जेवर पहनने की भोंड़ी शक्ल बनाए फिरता है। जो धन बैंक में जमा होकर या किसी कारोबार में लगकर दिन−दिन बढ़ता रह सकता था और कितने ही लोगों के लिए रोजी−रोटी उत्पन्न करने वाला बन सकता था, उसे जेवरों में रोककर पंगु बना देना, वस्तुतः लक्ष्मी जी का अपमान है।

पैसे की उपयोगिता तभी है, जब वह घूमता रहे। यदि उसे जमीन में गाढ़ दिया जाए या जेवर जैसे दिन−दिन घटने वाले, ईर्ष्या उत्पन्न करने वाले, अहंकार बढ़ाने वाले और चोर-उचक्कों का मन ललचाने वाले व्यर्थ कामों में लगा दिया जाए तो उसकी फिर क्या उपयोगिता रह जाती है? यह तो लक्ष्मी देवी के हाथ-पैर तोड़कर उसे लुँज−पुँज बना देने जैसा अनुपयुक्त कार्य हुआ? कीमती पोशाक न पहनकर यदि हम सादे कपड़े पहनें तो यह हमारी सज्जनता और बुद्धिमत्ता का चिह्न होगा। इस विभाग में बचा हुआ पैसा हम अपने और दूसरों के आवश्यक कार्यों में लगाकर अपनी दूरदर्शिता और भलमनसाहत का परिचय दे सकते हैं।

अहंता की पूर्ति के लिए

विवाह-शादियों में लोग अंधे होकर पैसे की होली जलाते हैं। उनका प्रयोजन शायद यही रहता होगा कि उत्सव में शामिल होने वाले अथवा दर्शक लोग इन पैसे की होली फूँकने वालों को अमीर समझकर उनकी प्रशंसा करें। मृत्युभोज या अन्य बड़ी−बड़ी दावतों के मूल में भी वाहवाही लूटने की मनोवृत्ति छिपी रहती है। दूसरों की तुलना में अपने को अधिक अमीर साबित करके अधिक वाहवाही लूटने के लिए अपना घर खाली कर डालते हैं, कर्जदार बन जाते हैं और कई बार तो मतवाले होकर इतना खरच कर बैठते हैं कि पीछे उन्हें अपने आवश्यक कार्यों को ठीक तरह चलाने में भी कठिनाई अनुभव होने लगती है। मोटर, घोड़ा, गाड़ी, कोठी, बँगले, नौकर−चाकर आदि का भारी सरंजाम आवश्यकता की पूर्ति के लिए नहीं, ठाठ−बाठ दिखाने और अमीरी प्रदर्शित करने के लिए जुटाया जाता है। बड़े आदमी बनने के शौक में जितनी फिजूलखरची इन कामों में की जाती है, उससे कहीं कम में काम चल सकता था।

अमीरी प्रशंसनीय नहीं

किसी जमाने में अमीरी बड़प्पन का चिह्न रही होगी, पर अब जैसे−जैसे विचारशीलता बढ़ रही है, अमीरी को घृणा और ईर्ष्या-द्वेष की दृष्टि से देखा जाने लगा है। सर्वसाधारण की गरीबी और परेशानी को घटाने में अपनी कमाई को खरच न करके जो लोग उसका संग्रह करते चले जा रहे हैं, अपने ऊपर अंधाधुंध खरच कर रहे हैं और वाहवाही लूटने के लिए उसे फूहड़पन के साथ उलीचते हैं, उन्हें स्वार्थी, निष्ठुर एवं मदांध ही कहा जा सकता है। बड़प्पन पाने की आशा से जो लोग यह उद्धतपन करते हों, उन्हें यह बात गाँठ बाँध लेनी चाहिए कि उनका यह छिछोरापन प्रशंसा का नहीं, निंदा का कारण बनता चला जा रहा है और वह समय दूर नहीं, जब इस प्रकार की मूर्खता अवांछनीय मानी जाने लगेगी। लोग उनसे घृणा करके ही चुप न हो जाएँगे, वरन ऐसे उद्धत प्रदर्शनों का विरोध करेंगे और रोकेंगे।

सार्वजनिक जीवन का सत्यानाश

सार्वजनिक संस्थाओं का सत्यानाश इसी प्रवृत्ति ने किया है। पदाधिकारी बनने की हवस में प्रायः सभी महत्त्वपूर्ण जन-संगठन, ईर्ष्या और कलह के अखाड़े बने हुए हैं। हर कोई बड़प्पन और पदवी चाहता है, जिसे मिल जाती है, वह फिर उसे सदा के लिए छाती से चिपकाए बैठा रहना चाहता है। जिसे नहीं मिलती वह सत्ताप्राप्त को पदच्युत करने के लिए ही नहीं, उस संस्था की प्रगति को ही नष्ट करने पर तुल जाता है। धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक सभी संस्थाएँ इस बीमारी की शिकार हो रही हैं और इसी पारस्परिक कलह में अपनी उपयोगिता एवं शक्ति गँवाती चली जा रही हैं। व्यक्तियों का पतन भी इसी कुचक्र में हो रहा है। एक व्यक्ति स्वयं सत्ता हथियाने और अपने प्रतिद्वंद्वी को गिराने के लिए जितने हथकंडे प्रयोग करता है, जितने कुचक्र और षड़यंत्र बनाने में अपनी शक्ति खरच करता है, उतनी ही यदि वह सच्चे मन से सच्ची सेवा करने में लगा दे तो लोक−परलोक भी सुधरे, आत्मा को शांति भी मिले और जनता-जनार्दन की कुछ ठोस सेवा भी बन पड़े।

बड़े बनने के ओछे उपाय

प्रशंसा का उद्देश्य लेकर थोड़ा−सा सेवाकार्य कर देने वाले, लंबे−चौड़े लेक्चर झाड़ने वाले, बढ़-चढ़कर बातें बनाने वाले लोग अपने हथकंडों से बड़प्पन लूटने में सफल हो जाते हैं, यह सामाजिक जीवन के लिए एक खतरा है। राजनैतिक चुनावों में अयोग्य और अनुपयुक्त व्यक्ति भी केवल बड़प्पन प्राप्त करने के लिए उम्मीदवार खड़े हो जाते हैं और अंधाधुंध धन व्यय कर देते हैं।

थोड़ा−सा दान देकर अपने नाम का पत्थर लगवाने की या नामवरी छपवाने की प्रवृत्ति निम्नकोटि की है। इसमें दान या सेवा का नहीं, प्रशंसा प्राप्त करने का अहंकार ही प्रधान है। अहंता को पाप माना गया है, पाप ही नहीं, उसे पाप का मूल भी कहा गया है। 'पाप मूल अभिमान' की उक्ति प्रसिद्ध है। यह पाप जहाँ भी रहेगा, वहाँ सेवा क्या बन पड़ेगी? सत्कर्म कहाँ संभव होगा? नाम के भूखे पागल लोग, जहाँ नाम नहीं मिलता वहाँ से खिसकने लगते हैं और वहाँ जोड़−तोड़ भिड़ाते हैं, जहाँ किसी भी प्रकार उन्हें नामवरी प्राप्त हो। एक संस्था छोड़कर दूसरी में, दूसरी को छोड़ तीसरी में घुसते-फिरने वाले लोग, आमतौर से इसी मर्ज के मरीज होते हैं। सैद्धांतिक मतभेद के कारण तो कोई विरले ही इस प्रकार का परिवर्तन करते हैं। हमारा सार्वजनिक जीवन इस लोकेषणा की दुष्प्रवृत्ति के कारण कितना गंदा और मलिन होता चला जा रहा है, यह देखकर भारी दुःख होता है।

स्वराज्य में विश्वास करने वाले राजनीतिक विचार के लोग जब स्वतंत्रता संग्राम में जुट पड़े तो उस संघबद्ध प्रयत्न ने एक चमत्कार उत्पन्न कर दिया। निस्वार्थता एवं संगठन का परिणाम सदा ही चमत्कारिक होता है। धार्मिक जगत में त्यागी समझे जाने वाले लोग यदि अपनी लोकेषणा को त्याग कर सके होते तो भारत की धर्मप्रधान जनता को चारित्रिक दृष्टि से कहीं अधिक समुन्नत कर सकना बहुत ही सरल हो गया होता। धन और वासना का प्रलोभन छूट सकता है, पर लोकेषणा तो सबसे प्रबल है, उसका लोभ त्यागी कहे जाने वाले लोगों से भी नहीं त्यागा जाता।

मूकसेवा की महत्ता

हमें मूकसेवा को महत्त्व देना चाहिए। नींव के अज्ञात पत्थरों की छाती पर ही विशाल इमारतें तैयार होती हैं। इतिहास के पन्नों पर लाखों परमार्थियों में से किसी एक का नाम संयोगवश आ पाता है। यदि सभी सज्जनों का नाम छापा जाने लगे तो दुनिया का सारा कागज इसी काम में समाप्त हो जाएगा। यह सोचकर हमें प्रशंसा की ओर से उदास ही नहीं रहना चाहिए, वरन उसको तिलांजलि भी देनी चाहिए। नामवरी के लिए जो लोग आतुर हैं, उनको निम्नस्तर का स्वार्थी ही माना जाना चाहिए। जो बदले की नीयत से सत्कर्म कर रहा है, वह व्यापारी है। पुण्य और परमार्थ को वाहवाही के लिए बेच देने वाले व्यापारी हीरा बेचकर काँच खरीदने वाले मूर्ख की तरह हैं। जिसने प्रशंसा प्राप्त कर ली, उसे पुण्यफल नाम की और कोई चीज मिलने वाली नहीं है। दुहरी कीमत वसूल नहीं की जा सकती। अहंकार को तृप्त करने के लिए प्रशंसा प्राप्त कर लेने के बाद किसी को यह आशा न करनी चाहिए कि इस कार्य में उसे परमार्थ का दुहरा लाभ भी मिल जाएगा।

प्राचीनकाल में गुप्तदान की बड़ी महत्ता थी। बाइबिल में कहा गया है कि, ‟तू दाहिने हाथ से दान इस प्रकार कर कि तेरा बाँया हाथ भी जानने न पावे।” पुण्य और पाप का जितना बखान होता है, उतना ही वह घट जाता है। लोकेषणा का लोभी ईश्वर का प्यारा नहीं हो सकता। प्रभु को तो निरभिमानता ही प्रिय है। अठारह पुराण विभिन्न काल में विभिन्न व्यक्तियों के द्वारा लिखे गए हैं, पर उनमें से किसी ने भी अपना नाम न देकर व्यास जी को ही उनकी रचना का श्रेय दिया है। तुलसीकृत रामायण में कई व्यक्तियों ने अपनी कृतियों के क्षेपक लगाए, पर उसमें अपना नहीं तुलसीदास जी का ही नाम रखा। प्राचीनकाल में नाम से बचने की प्रवृत्ति थी। लोग नाम को नहीं, काम को महत्त्व देते थे। सत्कर्म करने से आत्मा में जो संतोष उत्पन्न होता और समीपवर्त्ती लोगों में जो गहरी श्रद्धा उत्पन्न होती है, उतना ही लाभ प्राप्त करके प्रत्येक सत्कर्म प्रेमी को संतुष्ट हो जाना चाहिए। सेवा का यही परिपूर्ण पुरस्कार है।

आत्मसंतोष के लिए सत्कर्म

वाहवाही और नामवरी के लिए ओछे उपायों का अवलंबन करना उतना ही हेय है, जितना धन और वासना की पूर्ति, अनैतिक उपायों से करना। इस मानसिक दुर्बलता ने समाज का अन्य किसी भी भयंकर बुराई से कम अहित नहीं किया है। सभ्य समाज की रचना के तीन प्रमुख आधारों में हमें सज्जनता का श्रेय प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए और हत्यारी लोकेषणा से दूर रहना चाहिए। आज महत्त्वाकांक्षाओं की आग में सारी दुनिया जल रही है। उन्नति के नाम पर प्रगति की अभिलाषा से बुरे−बुरे दुष्कर्म करने में संलग्न हैं। हमें संतोष का अमृत पीना और पिलाना चाहिए। और यह समझना तथा समझाना चाहिए कि वाहवाही व्यर्थ है। आत्मसंतोष के लिए श्रद्धापूर्वक सत्कर्म करते रहना ही श्रेष्ठ है। उसी में अपना और सबका कल्याण समाया हुआ है।


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