भौतिक ही नहीं, आत्मिक प्रगति भी

July 1962

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युगनिर्माण योजना के अंतर्गत स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन एवं सभ्य समाज की रचना का कार्यक्रम वस्तुतः व्यक्ति निर्माण का कार्यक्रम है। आज अनेकों वस्तुएँ बन रही हैं, उनकी उत्कृष्टता और मात्रा बढ़ाने के लिए सतत प्रयत्न हो रहे हैं, पर एक वस्तु ऐसी भी है जिसका महत्त्व सबसे बढ़-चढ़कर होते हुए भी उपेक्षा के गर्त्त में गिरी-पड़ी सड़ रही है, वह वस्तु है— मनुष्यता। इसे उठाने के लिए ध्यान देने की न उपयोगिता समझी जाती है न आवश्यकता। मनुष्य का स्तर दिन-दिन गिरता चला जा रहा है। उसका स्वास्थ्य,उसका विवेक, उसका पारस्परिक सद्व्यवहार दिन-दिन घटता और गिरता चला जा रहा है, फलस्वरूप अगणित प्रकार के सुख-साधनों की बढ़ोत्तरी होते जाने पर भी मनुष्य दिन-दिन अधिक दुखी, अधिक चिंतित, अधिक क्षुब्ध होता चला जा रहा है। साधन-सामग्री की वृद्धि के साथ-साथ उसकी मानसिक गरीबी एवं व्यथा भी बढ़ती चली जा रही है।

यह बढ़ोत्तरी किस काम की?

अस्पताल बढ़ रहे हैं, पर स्वास्थ्य गिर रहा है। पैसा बढ़ रहा है, पर आवश्यकताएँ बढ़ जाने से अभावों का दुःख दूना हो रहा है। विद्यालय बढ़ रहे हैं, पर अविवेक और अदूरदर्शिता का साम्राज्य अधिक विस्तृत होता जाता है। पुलिस, कचहरी, और जेलों की संख्या बढ़ रही है, अपराधों की संख्या में भारी वृद्धि हुई है। प्रचार, प्रवचन और संगठनों की धूम है, पर स्वार्थपरता द्वेष और अविश्वास की मात्रा में बढ़ोत्तरी ही होती चलती है। विज्ञान की सहायता से सुविधाएँ बढ़ाने वाले आविष्कार आए दिन होते रहते हैं, पर असुविधाओं का कोई अंत नहीं, हर व्यक्ति पहले की अपेक्षा अब अधिक असुविधा और परेशानी अनुभव करता है। प्रगति के लिए हम जितने ही हाथ-पैर पीटते हैं, उतना ही पीछे लौटने का उपक्रम बन जाता है। सुख-शांति के लिए बनाए गए उपकरण उलटे अधिक असुविधा उत्पन्न करने वाले बन रहे हैं। इसका कारण एक ही है कि आंतरिक स्तर की ओर पूर्ण उपेक्षा बरती जाती है। बाहर की टीप-टाप से स्थिति को सुंदर और सुसज्जित दिखाने के लिए हम जितना प्रयत्न करते हैं, यदि उससे आधा भी भीतरी स्थिति को सँभालने के लिए ध्यान दिया जाए तो स्थिति का वह रूप न रहे जो आज दिखाई पड़ता है।

यदि यह अपव्यय रुक सके

पोशाक, फैशन, क्रीम, पाउडर, जेवर आदि के द्वारा शरीर को सजाने में जितना समय और धन हम खरच करते रहते हैं, उससे आधा भी यदि व्यायाम, मालिश एवं संतुलित आहार में खरच किया जाता रहे तो हमारा सौंदर्य और स्वास्थ्य ऐसा अच्छा हो जाए कि फटे-टूटे कपड़े पहनकर भी। गुदड़ी में छिपे लाल की तरह हमारा व्यक्तित्व निखरकर चमकने लगे। स्कूल-कालेजों की थोथी पढ़ाई करके नौकरी का उद्देश्य पूरा कर लेने में जितनी शक्ति लगती है, यदि उसका आधा श्रम भी गुण, कर्म, स्वभाव को अच्छा बनाने की प्रक्रिया में खरच करके व्यक्तित्व का सर्वांगपूर्ण विकास करने में लगाया जाए तो व्यक्ति साधारण व्यक्ति न रहकर महापुरुष बन सकता है और वह अपना ही नहीं, अपने संपर्क में आने वाले अनेकों का भविष्य उज्ज्वल कर सकता है। जितना पैसा व्यसनों में, नशेबाजी में, सिनेमा जैसे भद्दे मनोरंजनों में, कुप्रथाओं में, अंधविश्वासों में, धूमधाम बनाने में नष्ट किया जाता है, उसका आधा भी यदि राष्ट्रीय पुनरुत्थान के कार्यों में हम स्वेच्छापूर्वक लगा दें तो वर्त्तमान पंचवर्षीय योजना की अपेक्षा दस गुनी योजना हम बिना किसी विदेशी सहायता के बड़ी आसानी से चला सकते हैं और विकास के जो सपने आज कठिन दिखाई पड़ते हैं, वे जादू की तरह साकार होकर हमारे सामने आकर उपस्थित हो सकते हैं।

लोक शिक्षण की उपयोगिता

अस्पतालों में खरच होने वाली विशाल धनराशि यदि स्वास्थ्य रक्षा के शिक्षण एवं साधन जुटाने में, व्यायामशाला बनाने में, सफाई सिखाने में, संयम की आदतें बनाने में लगा दी जाए तो बीमार पड़ने का प्रश्न ही उत्पन्न न हो और अस्पतालों की जरूरत बहुत कम रह जाए। डॉक्टर-वैद्यों की विशाल फौज यदि दवाएँ बनाने की अपेक्षा स्वास्थ्य शिक्षक-अध्यापक का कार्य करने लगे तो बीमारी की जड़ जो असंयम के रूप में हमारे मस्तिष्कों में जमी बैठी है, आसानी से उखाड़ी जा सकती है। दवा के बलबूते पर रोग की बढ़ोत्तरी में रत्ती भर भी कमी नहीं की जा सकती। शारीरिक सारी व्यथाओं का एकमात्र कारण असंयम है और उसे रोकने का कोई प्रयत्न न किया गया तो हर घर के लिए एक डॉक्टर नियुक्त कर देने पर भी रोगों से छुटकारा मिलने वाला नहीं है। जेल और पुलिस के भय से अपराधों की वृद्धि नहीं रुक सकती। जितने अपराध होते हैं उनमें से दसवाँ भाग भी प्रकाश में नहीं आता। जो प्रकट होते हैं, उनमें से सबको पुलिस कहाँ पकड़ पाती है? जो पकड़े जाते हैं, उनमें से कितने अपराधियों को दंड मिलता है? अधिकांश तो सबूत के अभाव से वकीलों की चतुरता एवं प्रलोभनों के आकर्षण से बिना दंड पाए ही छूट जाते हैं। जिन्हें थोड़ी सजा भी मिलती है, उनमें से बहुसंख्यक और भी अधिक प्रशिक्षित होकर अपनी कला में पारंगत होकर वापस लौटते हैं। ऐसी दशा में यह आशा करना कि इन बाह्य प्रयत्नों से अपराध रुक जाएँगे, एक दुराशामात्र ही है। यह कार्य तो धर्मबुद्धि, ईमानदारी और कर्तव्य-भावना जागृत होने पर ही संभव है। जब तक मनुष्य पाप से घृणा करना न सीखेंगे, पुण्य के प्रति श्रद्धा न जगेगी तब तक उसे दुष्कर्मों के प्रबल आकर्षण से रोके रखना और किसी भी प्रकार संभव न होगा।

योग्यताएँ ही पर्याप्त नहीं

हर नागरिक का साक्षर होना एक अच्छी बात है, पर साक्षरता के साथ-साथ यदि सदाचार का व्यवहारिक शिक्षण न मिला तो शिक्षा के कारण प्राप्त हुई चतुरता एक मुसीबत उत्पन्न करेगी। अशिक्षित व्यक्ति दुष्टता पर उतारू होने से जितना संकट उत्पन्न कर सकता है, उससे अनेकों गुनी मुसीबत सुशिक्षित व्यक्ति करेगा। अशिक्षित झूठ बोलने वाला थोड़े ही दिनों में बदनाम हो जाएगा, पर यदि कोई झूठा वकील, झूठे गवाही से झूठी साक्षी दिलाकर अपने मुवक्किल को जिताने में सफलता प्राप्त करता रहता है तो हजारों व्यक्तियों को झूठ बोलने की कला का विधिवत शिक्षण देने का अपराध करते रहने पर भी उसकी प्रशंसा ही होगी, प्रतिष्ठा ही बढ़ेगी। कदाचित वह झूठा वकील बिना पढ़ा रह गया होता तो झूठ का इतना विस्तार कहाँ कर पाता? अशिक्षितों की अपेक्षा शिक्षितों में सभी विशेषताएँ बढ़ती हैं, तो संकट उत्पन्न करने की, ठगने और धोखा देने की क्षमता क्यों न बढ़ेगी? भ्रष्टाचार की जड़ निम्नस्तर की गरीब जनता में नहीं, ऊँचे पदाधिकारियों में रहती है। बुराई नीचे से ऊपर को नहीं, वरन ऊपर से नीचे को चलती है। नेतृत्व करने वाला सुशिक्षित वर्ग यदि आचरण भ्रष्ट हो जाए तो उसका प्रभाव निम्नस्तर के लोगों पर पड़े बिना रह नहीं सकता।

योग्यताओं की प्रशंसा की जाती है और प्रतिष्ठा भी। पर वस्तुतः महत्त्व भावनाओं का है। निम्नकोटि की भावनाएँ रखने वाला व्यक्ति भले ही उच्च योग्यताओं से संपन्न हो, संसार का अहित ही करेगा, पर यदि भावनाएँ ऊँची हैं तो स्वल्प क्षमतासंपन्न व्यक्ति भी अत्यन्त उपयोगी और महत्त्वपूर्ण कार्य कर सकने में समर्थ हो सकेगा। एक इंजीनियर बहुत योग्य है, पर यदि वह लालची और रिश्वतखोर है तो उसकी देख-रेख में बनी हुई इमारत महँगी पड़ेगी और थोड़े ही दिनों में टूट-फूट जाएगी, किन्तु यदि साधारण स्वल्प शिक्षित मिस्त्री की देख-रेख में ईमानदारी के साथ काम किया जाए और अच्छा सामान लगाया जाए तो वह इमारत कम खरच में भी बनेगी और अधिक दिन भी टिकेगी। योग्यता की महत्ता से इनकार नहीं किया जा सकता, पर यदि उसमें उच्च भावनाओं का समुचित समावेश नहीं तो उससे लक्ष्य की प्रगति नहीं हो सकती।

ईमानदार हाथों में सुरक्षा

जिन देशों में शासन, निर्माण, उद्योग, शिक्षण और मार्गदर्शन का कार्य ईमानदार हाथों में रहा है, वहाँ कम योग्यता के व्यक्तियों ने आश्चर्यजनक प्रगति करके दिखाई है। पर यदि बेईमानों का वर्चस्व रहा है, तो प्रचुर धन व्यय होने और बड़ी-बड़ी लम्बी-चौड़ी योजनाएँ बनने पर भी असफलता ही हाथ लगी है। साधनों का महत्त्व तभी है, जब उच्च-भावना वाले व्यक्तियों के हाथ में उनका उपयोग होने की व्यवस्था बने। बंदर के हाथ में तलवार पड़ने पर जिस प्रकार अहित की ही आशंका रहती है, उसी प्रकार बेईमान व्यक्ति दुर्भाग्य से कहीं योग्यतासंपन्न, साधनसंपन्न और शिक्षासंपन्न हों, तब तो उनके आक्रमण से दुनिया को अपनी जान बचाना भी कठिन पड़ जाता है। शस्त्रों का उद्देश्य शांति, रक्षा एवं आततायियों का नियंत्रण होता है, पर आज अंतर्राष्ट्रीय जगत में जो शस्त्रों की होड़ चल रही है, उनका शिकार बेचारे निर्दोषों और दीन-हीनों को ही होना पड़ेगा। यह शस्त्र यदि अनीति को रोकने के काम आ सके होते तो कितना अच्छा होता, पर इनका उपयोग तो अपने स्वार्थों की अभिवृद्धि के लिए ही किया जाने वाला है। ऐसी दशा में इन अस्त्रों को बनाने वाले लोग चतुरता और योग्यता की दृष्टि से प्रशंसनीय माने जाने पर भी वस्तुतः संसार के लिए संकटरूप ही हैं।

दुर्भावनाएँ और युद्ध का दानव

यदि दुर्भावनाओं का मिट सकना संभव हो सके तो सारी दुनिया में जो करोड़ों सुयोग्य व्यक्ति युद्ध के दानव को प्रसन्न करने के लिए दिन-रात लगे हुए हैं, उनका श्रम तथा विपुल धन जो अस्त्रों-शस्त्रों तथा युद्ध-साधनों में व्यय होता है, वह दूसरे उपयोगी निर्माण कार्यों में लग सकता है और गरीबी, बीमारी, बेकारी, अशिक्षा, अन्याय आदि व्यथाओं से पीड़ित मानव जाति कुछ ही समय में शांति एवं प्रगति का आनंदमय वातावरण उपलब्ध कर सकती है। किंतु यदि दुर्भावनाओं का यही दौर चलता रहा तो संसार की विपत्तियाँ बढ़ने ही वाली हैं, उसे नारकीय यंत्रणाओं की आग में झुलसने के लिए विवश होना ही पड़ेगा। घृणा, स्वार्थ, ईर्ष्या, अहंकार, अविश्वास और अनीति जैसी दुर्भावनाओं का एकमात्र परिणाम दुःख-दारिद्रय एवं विनाश ही हो सकता है। हम इसी मार्ग पर चल रहे हैं और वैसे ही दुःखद प्रतिफल, पग-पग पर उपलब्ध करते चल रहे हैं। यदि इस सत्यानाश की सड़क पर दौड़ते रहने से हमारे कदम न रुक सके, तो भविष्य निश्चित रूप से अंधकारमय ही बनेगा!

साधनों का अभाव नहीं

इस संसार में सारी मनुष्य जाति के लिए सुख-सुविधापूर्वक रहने एवं शांति, प्रसन्नता, प्रेम और आनंद भरा जीवन व्यतीत करने के लिए पर्याप्त साधन मौजूद हैं। सब लोग हिल-मिलकर, संतोष और सदाचार का जीवन व्यतीत करें तो यहाँ किसी को, किसी वस्तु का अभाव न रहे। भौतिक दृष्टि से कोई समस्या मानव प्राणी के सामने नहीं है। परमात्मा ने अन्न, जल, दूध, शाक, फल आदि आहार के लिए प्रचुर साधन इस धरती पर पैदा किए हैं। वस्त्र, मकान, धातुएँ, खनिज, जड़ी-बूटियाँ, वृक्ष, नदी, सरोवर सभी कुछ सुविधाएँ मौजूद हैं। मानव का अवतरण इस पृथ्वी पर करने से पूर्व परमात्मा ने सभी कुछ यहाँ पर्याप्त मात्रा में प्रस्तुत रखा है और अगणित शक्तियाँ एवं विशेषताओं से संपन्न इस देह की भी रचना की है। दुःख का वास्तविक कारण यहाँ कुछ भी नहीं है। सारी बुराई और विपत्ति की जड़ मनुष्य के मस्तिष्क में है। साँप के फन में विष की थैली होती है, वही थैली मनुष्य के मस्तिष्क में है। दुर्बुद्धि, दुर्भावना एवं दुष्टता के जहर से भरा हुआ मनुष्य अपनी प्रत्येक फुसकार के साथ वायुमंडल को दूषित कर रहा है और जो भी समीप आता है उसे डस लेता है। सुख-शांति से भरी इस साधन-सुविधासंपन्न दुनिया को उसी ने दुःख-दैन्य से भरी हुई नारकीय स्थिति में ले जाकर पटक दिया है। यदि यह विष निकाला न गया, इसी प्रकार बढ़ने दिया गया, तो प्रगति के नाम पर किए जाने वाले सारे प्रयत्न आडंबरमात्र सिद्ध होंगे और विपत्ति का दौर बढ़ता ही चलेगा।

सुख की आकांक्षा कैसे पूरी हो?

मनुष्य सुख का इच्छुक दीखता है, पर कार्य दुःख प्राप्ति के कर रहा है। बाह्यजगत में सुख-साधन बढ़ाने के जो प्रयत्न चल रहे हैं, वे उस समय तक सफल नहीं हो सकते जब तक कि अंतःजगत के निर्माण का और भी हमारा प्रयत्न आरंभ न हो जाए। भावनाएँ दूषित भले ही पड़ी रहें, पर बाह्यसाधन बढ़ते जाने से मनुष्य सुखी रहने लगेगा, यह कल्पना मृगतृष्णामात्र है। मजदूर का वेतन बढ़े, पर उसकी शराब पीने, जुआ खेलने की आदत यदि और भी अधिक बढ़ जाए तो उस बढ़ी हुई मजदूरी से वह क्या लाभ उठा सकेगा? व्यापार और खेती से आमदनी बढ़े सो ठीक है, पर फिजूलखरची, विलासिता और विवाहोन्माद सरीखी कुरीतियों के रहते उस बढोत्तरी से भी क्या काम चलने वाला है? सुरसा के मुँह की तरह यह खरच तो बढ़ते ही जावेंगे और अभाव ज्यों का त्यों सताता रहेगा। शिक्षा के साथ दीक्षा का प्रबंध न होने से सुशिक्षित लोगों में अहंकार, उच्छृंखलता, विलासिता, स्वार्थपरता आदि दुर्गुण ही बढ़ेंगे, वे दूसरे का हित-साधन कर सकना तो दूर, स्वयं अपने लिए ही एक समस्या बने रहेंगे। असंयमी आदतों के रहते हुए स्वास्थ्य कहाँ सँभल सकेगा? लोभ और स्वार्थ की जब प्रबलता है और पाप-पुण्य का, अनुचित उचित का, विवेक कुंठित हो गया तो अपराधों और दुष्कर्मों की, संघर्ष और द्वेष की, बाढ़ कैसे रुकेगी? बेईमान हाथों में गई हुई कोई उत्तम-से-उत्तम योजना कब सफल हो सकेगी? आत्मीयता और सौजन्य के अभाव में हमारा समीपवर्त्ती वातावरण स्नेह और सद्भावना से रहित ही रहेगा। वैज्ञानिक-साधन हमें आलसी और उद्दंड बनाने में ही समर्थ हो सकेंगे, उनसे न्याय का नहीं, पशुबल का ही पक्ष प्रबल होगा। आंतरिक सत्प्रवृत्तियों के अभाव में बाह्यजीवन की प्रत्येक प्रगति हमारे लिए अपेक्षाकृत अधिक विपत्ति का ही कारण बनती जाएगी।

प्रगति का प्रधान आधार

प्रगति और शांति का प्रधान आधार साधन-सामग्री नहीं सद्भावना है। सद्भावना का क्षेत्र अंतर्जगत है। हम उसे उपेक्षित स्थिति में ही पड़ा रहने दे रहे हैं, यह भारी भूल है। भावना की उत्कृष्टता होने पर स्वल्प साधनसंपन्न लोग भी आनंद का जीवन व्यतीत कर सकते हैं, पर प्रचुर साधनों के होते हुए भी दुर्भावनाग्रस्त व्यक्ति छप्पन लाख यादवों की तरह आपस में ही लड़-कटकर नष्ट हो जाते हैं। साँप के लिए दूध का हर प्याला उसकी दुष्टता को और अधिक बल देता है, उसी प्रकार दुर्भावनाओं से भरे हुए अंतःकरणों के लिए, भौतिक संपदा की अभिवृद्धि और भी अधिक विपत्ति का कारण है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हम देख भी रहे हैं। देहाती क्षेत्र की शांति वहाँ की कृषि-आमदनी बढ़ने के साथ-साथ ही नष्ट होती चली जा रही है। वहाँ झगड़े और उपद्रव, पार्टीवादी का द्वेष, विवाह-शादियों का अपव्यय पहले की अपेक्षा अब आमदनी की दृष्टि से भी अधिक तेज अनुपात से बढ़ रहा है।

आंतरिक प्रगति को न भूलें

साधनों की दृष्टि आवश्यक है। व्यापार, उद्योग, कृषि, शिक्षा, विज्ञान, मनोरंजन, पुलिस, कचहरी, प्रचार, संगठन, विज्ञान, अनुसंधान आदि सभी कुछ बढ़ना चाहिए, पर साथ ही यह भी ध्यान रहे कि यह उपयोगी तभी होगा जब साथ ही सद्भावनाओं की, सत्प्रवृत्तियों की, विवेकशीलता की एवं सज्जनता की भी अभिवृद्धि हो। यदि भौतिक उन्नति की ही ओर हमारा ध्यान रहा और आत्मिक-प्रगति की उपेक्षा की जाती रही, तो यह सारे प्रयत्न जो आज इतने मनोयोगपूर्वक किए जा रहे हैं, निरर्थक ही नहीं, हानिकारक भी होंगे। संयम और विवेक के अभाव में जिस प्रकार परिवार नियोजन जैसी अच्छी बात व्यभिचार बढ़ाने में ही सहायक हो रही है , उसी प्रकार हर अच्छी योजना, हर अच्छी प्रगति, मानव जाति पर, समस्त संसार पर विपत्ति की घटा बनकर ही घुमड़ेगी। इस तथ्य को हम जितनी जल्दी समझ लें, जितनी गहराई तक मस्तिष्क में उतार लें उतनी ही अधिक भलाई है।


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