एक तो विनोबा प्रकृति से ही संयमी, त्यागी और तपस्वी मनोवृति के थे, फिर उनको परिवार वाले भी इसी के अनुकूल मिल गये। बस, बच्चपन से ही उन्होंने ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर लिया और उसके अनुसार कठोर जीवन बिताने लगे। माँ उनके लिए गद्दा बिछाती, तो वे सोते समय उसे उठाकर अलग रख देते और कंबल बिछाकर ही सो जाते। वे नंगे पैर रहते और जाडों में भी ठंडे पानी से नहाते, जब ठंड ज्यादा होती तो इनकी कम उम्र का खयाल करके माँ पानी गरम कर देती, तो ये कहते- ''यदि स्नान करुँगा तो ठंडे जल से ही करुँगा, अन्यथाकरुँगा ही नहीं।'' विनोबा जब हाईस्कूल में पढ़ते थे, उन्हीं दिनों घर से समाचार आया कि- तुम्हारे विवाह के लिए लड़की ठीक की जा रही है।'' विनोबा ने माँ को लिख दिया कि -माँ, तुझे मेरी जरुरत हो, तो विवाह की बात कभी न उठाना। यदि जरुरत न हो तो बात दूसरी है। मैं एक बार ब्रह्मचर्य- व्रत धारण कर चुका हूँ, अब उसे कभी छोड़ा नहीं जा सकता।
उन दिनों विनोबा का ध्यान दो तरफ लगा था। एक तरफ वे निजी तौर पर संस्कृत का अध्ययन कर रहे थे और भारत के प्राचीन आध्यात्मिक साहित्य की झाँकी ले रहे थे। वैदिक- कालीन ऋषि- मुनियों ने जिस ब्रह्म ज्ञान की चर्चा की है, उसी को प्राप्त करने के लिए उनका मन उत्सुक हो रहा था। वे अपने मन में कल्पना करते थे कि मैं हिमालय में भगवती भागीरथी के तट पर किसी शिलाखंड पर बैठा हुआ उपनिषद् और गीता के तत्वोंका आंतरिक रुप से अध्ययन और मनन कर रहा हूँ। दूसरी तरफ उस समय वे समाचार पत्रों में बंगाल के नेताओं तथा क्रांतिरियों के देशभक्ति पूर्ण उद् गार और कारनामों की बातें पढ़ते थे। इन लोगों ने किस प्रकार अपना सर्वस्व ही नही, प्राण तक मातृभूमि की वेदी पर अर्पण कर दिये, इसको जानकर इनके मन में भी वैसा ही त्याग करने की भावना उत्पन्न होने लगी ।इसलिए सन्१९१६ में जब वे इंटर की परीक्षा देने को बंबई जाने वाले थे, तो बिना घर वालों से कुछ कहे- सुने काशी चले गये। इनकी इच्छ थी कि कुछ समय तक वहाँ संस्कृत का अच्छी तरह अभ्यास करके 'ब्रह्म' की खोज में लगा जाए। उस समय की अपनी मानसिक स्थिति का वर्णन करते हुए उन्होंने एक बार स्वयं कहा था- ''बचपन से मेरे मन में बंगाल के लिए बडा़ भारी खिचाव था। राममोहन, रवींद्रनाथ, राम कृष्ण, विवेकानन्द, अरविंद मेरे मंत्र देवता थे। मन में बडी़ साध थी कि कभी बंगाल जाएँगा ।। सन्१९१६ में ह्गरको छोड़कर ब्रह्म की खोज में बाहर निकला। सोचा था कि वहाँ से हिमालय जाऊगा। बंगाल ह्गूम आने की बात भी मन में छिपी पडी़ थी। दैवयोग से दोनों में से एक भी उद्देश्य पूरा न कर पाया। चल गया गाँधी जी के पास और वहाँ मेरी दोनों साधें पूरी हो गईं। बापू में मुझे मिल गई हिमालय की शांति और बंगाल की क्रांति।''
इसमें संदेह नही कि जिसने अपने भीतर शांति और क्रांति दोनों का समन्वय कर लिया है, वही सच्चा आत्मज्ञानी और त्यागी- तपस्वी है। शरीर पर भस्म रमाने वाले अथवा धूनि तापने वाले सधुओं की तो कमीनही, वे इतने हैं कि आजकल कुछ अज्ञानीजनों को छोड़कर कोई उनकी पूछ भी नहीं करता, पर जिसने वास्तव अपनी आत्मा को कुछ समझ लिया है- पहचाना है, वही चाहे जब हिमालय में रहकर शांति प्राप्त कर सकता है और जरुरत हो तो बंगाल की- सी क्रांति करके अपने जीवन को सार्थक बना सकता है। सबसे अधिक महत्व की चीज है। हृदय की सच्चाई और परमार्थ- वृति। केवल भोजन, वस्त्र, परिवार की चिंता में अपने समस्त जीवन को लगा देना बहुत सामान्य बात है। घटिया से घटिया मनुष्य और बहुत से पशु भी इस उद्देश्य को पूरा कर लेते है। पर यह निश्चित रुप से कहा जा सकता है कि ऐसा व्यक्ति न तो आत्मा को जान सकता है और न ईश्वर को। वह चाहे मुँह से भगवान् का नाम लेता रहे, पूजा- पाठ भी करता रहे, पर वह रहेगा नितांत सामान्य स्तर का ही जिसने आत्मतत्व को कुछ भी समझ लिया है, हृदय में उसका अनुभव कर लिया है, वह अवश्य ही लोकसेवा के मार्ग को ग्रहण करेगा और अपनी परिस्थिति के अनुसार जिस प्रकार और जितना बनपडे़गा, अपनी शक्ति को दूसरों के हित में लगायेगा ।।