विनोबा ने इन बातों पर अच्छी तरह विचार करके देखा तो उनको प्रतीत हुआ कि- ''इस प्रकार जीवन को सार्थक बनाया जा सकता है। इसमें सादगी है, सच्चाई है, ईमानदारी है, श्रम है, त्याग है, सेवा है, देश- भक्ति है। इसके सिवा मुझे और क्या चाहिए ?'' यह समझकर उन्होने गाँधी जी से कह दिया कि मुझे यहाँ रहना पसंद है।
पर उसी समय उनके एक और अवसर भी उपस्थित हो गया। वे काशी संस्कृत भाषा और अध्यात्मशास्त्र का अभ्यास करने गये थे। पर वहाँ दो महीने भी न रह पाये कि गाँधी जी का आकर्षण उनको आश्रम में खींच लाया। पर तब तक उनकी अध्ययन की इच्छा पूरी नही हुई थी ।। इसलिए जब उनको मालूम हुआ कि 'वाई' कस्बे में श्री नारायण शास्त्री मराठे नामक विद्वान् विद्यार्थियों को वेदांत और अन्य शास्त्र पढा़ते है, तो उनको कुछ समय वहाँ रहकर अपना शास्त्राभ्यास दृढ़ कर लेने की इच्छा हुई। वे गाँधी जी से कुछ दिनों की छुट्टी माँगकर बाई पहुँचे और कुछ महीनों में उपनिषद् गीता, ब्रह्मसूत्र और उस पर शंकर भाष्य, मनुस्मृति, पातंजल, योगदर्शन काविधिवत अध्ययन कर लिया।
पर इस कार्य में उन्होंने जितना सोचा था, उससे ज्यादा समय लग गया, तो उन्होंने महात्मा गाँधी को एक पत्र में लिखा- ''एक साल पहले तबियत ठीक न होने से मैं आश्रम के बाहर गया था। सोचा था दो- तीन महीना 'वाई' में रहकर लौट आऊँगा। पर इतना अर्सा बीत गया फिर भी मेरा कोई ठिकाना नही। इसलिये यदि वहाँ किसी को ऐसी शंका हुई हो कि मैं आश्रम में लैटूँगा या नही अथवा मैं जिंदा भी हूँ या नही, तो यह स्वाभाविक ही है और इसमें सब दोष मेरा ही है, क्योकि समय पर पत्र न लिखने की मेरी आदत है। पर अब में इतना लिख देना चाहता हूँ कि आश्रम ने मेरा दिल में खास स्थान बना लिया है। इतना ही नही बल्कि मेरा जन्म ही आश्रम के लिये है, ऐसी मेरी श्रद्धा बन गई है।- क्या कहूँ, जब भी सपने आते है, तभी मन में एक ही विचार आता है कि ईश्वर मुझसे कोई सेवा लेगा। इसालिए यहाँ भी आश्रम के नियमों के अनुसार अपना आचरण रखता हूँ। अर्थात् मैं आश्रम का ही हूँ और आश्रम मेरा साध्य है।'' वाई में रहकर अध्ययन करते हुए भी वे दूसरों को शिक्षा देकर, हिंदी प्रचार करके, चक्की पीसकर, पुस्तकालय स्थापित करके कुछ न कुछ सेवा कार्य करते ही रहे। आश्रम के व्रतों में से अधिक पालन किया। उनका पूरा हाल जानकर और आश्रम के प्रति उनकी अविचल श्रद्धा को देखकर गाँधी जी बडे़ प्रभावित हुए और उन्होंने विनोबा को पत्रोत्तर में लिखा- ''तुम्हें क्या कहकर चिट्ठी लिखूँ, यह मैं नही समझ पाता। तुम्हारा प्रेम और तुम्हारा चरित्र मुझे मोह मेंडुबो देता है। तुम्हारी परीक्षा करना मेरे बस की बात नही है। तुमने जो अपनी परीक्षा की है, उसे मैं स्वीकार करता हूँ और तुम्हारे लिये पिता का स्थान लेता हूँ। मैं जानता हूँ कि सच्चा पिता अपने से भी ज्यादा चरित्रवान् पुत्र पैदा करना चाहता है सच्चा पुत्र भी वही है कि पिता ने जो कुछ किया है, उससे बढ़ती करे। तुमने ऐसा ही किया है और इसलिये तुमने मुझे जो पिता का पद दिया है, उसे मैं तुम्हारी प्रेम की भेंट के रुप मेम स्वीकार करता हूँ। मैं भी उस पद के लायक बनने की कोशिश करुँगा।''
जिस व्यक्ति के चरित्र की उच्चता और ध्येय के प्रति अटूट श्रद्धा की प्रशंसा करने में गाँधी जी को संकोच जान पडे़, निस्संदेह उसकी महत्ता का निर्णय कर सकना सहज काम नही है। यह तो आज से पचासी वर्ष पूर्व सन् १९१८ की बातें थी। पर आज हम विनोबा के चरित्र पर दृष्टि डालने से स्पष्ट कह सकते हैं कि उन्होंने गाँधी जी से जो कुछ कहा और गाँधी जी ने उनसे जिस प्रकार की आशाएँ रखीं; वे सब शत- प्रतिशत ही नही, वरन् उससे भी कई गुने रुप में चरितार्थ हो चुकी हैं। विनोबा न होते, तो न मालूम इस भ्रष्टाचार- युग में जिसमें कांग्रेस के बडे़- बडे़ स्तंभ भी डगमगा गये, गाँधी जी के सत्य, अहिंसा और अपरिग्रह के सिद्धांतों की लाज कौन रखता ?? अब जब बडे़- बडे़ नाम वाले नेता, पदवी और धन के पीछे ही नही पडे़ हैं। वरन उन्होंने चरित्र और सच्चाई की चिंता छोंड़ दी है, तब एक विनोबा ने ही उस लँगोटीधारी 'युगपुरुष' के झंडे को ऊँचा रखा है और अपने आत्मदान से उसमें इतना बल भर दिया कि आज सच्चे गुण- ग्राहकों के मुख से यही निकल रहा है कि 'गाँधी को सराहों कि सराहों विनोबा भूदानी को।'