पर इसका रहस्य यही था कि विनोबा जिसको जो शिक्षा देते थे, वह केवल मौखिक अथवा पुस्तकीय ही नही होती थी, वरन् वे अपने व्यवहार और उदाहरण से ही दूसरों को शिक्षा देते थे। उन्होंने कताई, बुनाई, सफाई व सेवा, कोढ़ियों की सेवा, ग्राम शिक्षा आदि बीसियों कार्य आरंभ किये और इन कार्यकर्ताओं के द्वारा सबमें उल्लेखनीय सफलता प्राप्त करके दिखाई।
वे भगवान् पर पूर्ण श्रद्धा रखते थे, उसी का नाम लेकर खूनी और डाकुओं के बीच चले जाते थे, पर वे उसी भगवान् के उपासक रहे, जो दीन्- दुखियों, भूखे- नंगों की खबर ले। वे कहते हैं कि ''जब ये भूखे- प्यासे, दरिद्र- नारायण हमारे सामने खडे़ हैं और हम उनकी तरफ से निगाह फेरकर पत्थर की मूर्ति के लिए घर बनायें, कपडे़ पहिनायें भोग लगायें, तो कैसे चलेगा ?? हमारा आज का धर्म तो यही है कि हम इस भूखे- नंगे और सर्दी से ठिठुरने वाले भगवान् को खिलायें- पिलायें, उसे कपडे़ पहिनायें, उसके निवास स्थान की व्यवस्था करें।
विनोबा की महानता को संक्षेप में इतने में ही कहा जा सकता है कि वे 'नेताओं के भी नेता' थे। महात्मा गांधी कोई नया आंदोलन या क्रार्यक्रम शुरू करने के पहले इनसे सलाह ले लिया करते थे और प्रधानमंत्री श्री नेहरू जी ने भी इनकी जंयती के अवसर पर कहा था- "मैं थोडा़-बहुत सारी दुनिया से वाकिफ हूँ। जो लोग बडे़ कहलाते हैं उनसे मिला हूँ। दुनिया में जो माकूल आदमी, समझकर आदमी, हर तरह के अच्छे आदमी कहलाते हैं, उनसे भी मिला हूँ। लेकिन मैं अक्सर सोचता हूँ कि किसी और देश में विनोबा का-सा आदमी नहीं है।" जिसके संबंध में आधुनिक भारत के ये दो निर्माता ऐसी सम्मति प्रकट करें उसके लिए कहने को शेष क्या रह जाता है?