पर विनोबा में ये लक्षण स्वभावत: ही पाये जाते थे। उन्होंने जो अपने पत्र में महात्मा गाँधी को लिखा था कि- ''मुझे कभी- कभी ऐसा प्रतीत होता है कि मेरा जन्म ही आश्रम के लिये हुआ है।'' वह सत्य ही था। ऐसी दैवी विभूतियाँ किसी खास उद्देश्य की पूर्ति के लिये संसार में आया करती हैं। विनोबा में छोटी अवस्था से हीगीताध्ययन की जो प्रवृति दिखाई देती थी और उसी के अनुसार उनमें जो ज्ञान, कर्म और भक्ति का आविर्भाव हो गया था, वह उनकी इस विशेषता को प्रमाणित करता है। ज्ञान और कर्म की यात्रा उनमें पहले ही अधिक थी, पर जनता की सेवा करते हुए भक्ति- भावना विशेष रुप से विकसित होती गई। दक्षिण- भारत की एक सभा में जब वे भाषण देने को खड़े हुए तो सामने ही कपडे़ पर तेलुगु भाषा में लिखा दिखाई पडा़- ''रामराज्यम् स्थापनचन्दि'' अर्थात् ''रामराज्यम् की स्थापना कीजिए।'' उस दिन विनोबा ने अपने भाषण में इसी की विशेष रुप से व्याख्या की और कहा- ''कौन करेगा राम राज्य की स्थापना ?? इसमें संदेह नही कि राम राज्य से ही दुनिया केदु:ख मिटेंगे, पर राम- राज्य हो कैसे ?? हमारे मन में बुरी- बुरी बातें भरी है,लडा़ई- झगडे़ की बाते भरी है, 'मेरे' 'तेरे' की बात भरी है, ऊँच- नीच की बात भरी है। इनको छोड़े बिना राम- राज्य कैसा आयेगा ?? राम- राज्य का मतलब है 'सबका राज'। गरीब का राज, प्रेम का राज ।। सब लोग होंगे सेवक,राजा होगा राम।''
यह समझाते हुए विनोबा का गला भर आया। कहने लगे- ''लोग हमसे पूछते है की बाबा पाँच साल तोघुमे और अब कहाँ तक घूमते रहोगे ?? हम पूछते हैं कि हमारे राजा राम तो चौदह साल वन- वन में भटके थे हमारी कीमत ही क्या है ?? यह कहत- कहते विनोबा सचमुच रो पडे़। उनके हृदय में गरीबों का दर्द इतना अधिक है कि जब उनके कष्टों का ध्यान आता तो वे रोने लग जाते है। यह भक्ति का चरम लक्षण है। नरसी मेहता ने वैष्णों- भक्तों की व्याख्या करते हुए सत्य ही कहा है- ''वैष्णव जन तो तेने कहिए जे पीर पराई जाने रे ।''
विनोबा वेदांत और शंकराचार्य के ब्रह्मसूत्र के विद्यार्थी होने पर भी सच्चे वैष्णव थे ।। उन्होंने गरीबों की पीड़ा को बहुत अधिक अनुभव करके ही भूदान आंदोलन चलाया है। इसके द्वारा अब तक एकाध करोड़ व्यक्तियों की रक्षा हो ही सकी है।