संत विनोबा भावे

कन्याकुमारी में संकल्प

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इस भारतवर्ष के विविध प्रदेशों की पैदल- यात्रा करते हुए विनोबा देश के अंतिम छोर 'कन्याकुमारी' तक जा पहुँचे। यह वही स्थान था, जहाँ भारत- भूमि का अंतिम पत्थर हिंद महासागर के जल का स्पर्श करता है और जहाँ एक चट्टान पर बैठकर विनोबा के जन्म से भी पाँच वर्ष पूर्व स्वामी विवेकानन्द ने देशोद्धार की प्रतिज्ञा की थी। उस समय भारतवासी सोये पडे़ थे और विदेशियों की विद्या तथा यांत्रिक सभ्यता की चमक -दमक से प्रभावित होकर अपनी ऋषि- प्रणीत संस्कृति से दूर हटते जाते थे। यहाँ के आर्थिक साधनों का शोषण भी विदेशी बडी़ मात्रा में कर चुके थे और सर्वत्र खोखलापन ही नजर आता था। यह देखकर विवेकानंद अमेरिका और योरोप पहुँचे और अपनी योग्यता एवं आत्मशक्ति से विदेशों से साधन प्राप्त करके उन्होने भारत- उद्धार का कार्य आरंभ किया। फिर देश में जागृति हो जाने पर यहाँ वालों ने ही उनके संकल्प को पूरा कर दिखाया। इसलिए जब विनोबा उस 'अंतिम पत्थर' पर पहुँचे, तो विवेकानंद की आत्मा ने इनके भीतर एक नई भाव- प्रेरणा उत्पन्न की। वैसे तो 'कन्याकुमारी' एक तीर्थ स्थान है। 'रामेश्वर' के यात्रियों में से अनेक वहाँ तक जाकर दक्षिण दिशा में भारत की अंतिम सीमा के दर्शन कर आते हैं। पर उनको वहाँ 'कन्याकुमारी' के साधारण मंदिर और समुंद्र जल से घिरी हुई छोटी- बडी़ चट्टानों के सिवाय कुछ दिखाई नही पड़ता। स्वामी विवेकानंदका संदेश उनको सुनाई नही पड़ता, उनमें से अधिकांश तो उनके नाम से भी अनजान होते है, पर जब भारतमाता के महान सुपुत्र और संसार के सर्वश्रेष्ठ पुरुष गाँधी के उत्तराधिकारी संत विनोबा वहाँ पहुँचे, तोविवेकानंद की आत्मा को परम संतोष हुआ और दोनों आत्माएँ प्रेमपूर्वक मिलीं।

विवेकानंद की आत्मा ने कहा- ''मैंने सतर वर्ष पूर्व इस स्थान पर जो प्रतिज्ञा की थी और फिर आगामी दस वर्षों में जो नव- निर्माण का श्री गणेश किया था, वह लोकमान्य तिलक और महात्मा गाँधी के नेतृत्व में दो सीढ़ियाँ और पार कर चुका है। अब तीसरी सीढ़ी तुम्हारे सामने है। विदेशियों के शासन से छुटकारा पाकर देश बाह्य रुप में स्वाधीन अवश्य बन गया है, पर सच्ची स्वाधीवनता अब भी दूर है। भारतीय समाज के दोष- दुर्गुण अब भी मिटे नही हैं, वरन् 'भौतिकता की वृद्धि के कारण उसमें नई- नई शाखाएँ फूट रही है। इस समय यह तुम्हारा कर्तव्य है कि भारतवासियों की आर्थिक समस्याओं को सुलझाते हुए उनको सच्चा ईश्वर- भक्त भी बनाओ। यह उद्देश्य केवल मंदिर में जाकर भगवान् का दर्शन कर लेने या नाम जप लेने से पूरा नही होगा। इन कामों के साथ नैतिकता पर चलने और चरित्र को ऊँचा बनाने की अनिवार्य रुप से आवश्यकता है।''

विनोबा ने उस महापुरुष की जीवन्मुक्त आत्मा का संदेश अच्छी तरह सुना, उसके आशय को ह्र्दयंगमकिया और उसी समय हाथ में समुद्र का जल लेकर तथा सामने उगते हुए सूर्य- देवता को साक्षी बनाकर प्रतिज्ञा की- ''जब तक भारतवर्ष में ग्राम- राज्य की स्थापना नही होगी तब तक मेरी वह यात्रा जारी रहेगी।''

विनोबा जानते थे कि असली भारतवर्ष अब भी गाँव में ही बसा है। अब भी यह देश कृषि- प्रधान ही है। सौ में से७५- ८० व्यक्ति गाँव में ही रहते हैं और नगर निवासियों में से भी एक बड़ा भाग ग्रामीणों का ही होता है। इसलिए जब तक भारत के ग्राम संगठित और स्वावलंबी न होंगे, तब तक उनकी समस्याएँ सुलझ नही सकेंगी और न वे पुन: भारत की आध्यात्मिक संस्कृति को उच्च लक्ष्य की तरफ अग्रसर होने के योग्य हो सकेंगे। इसलिये उन्होने यही निश्चय किया कि ग्राम संगठन को सुदृढ़ बनाया जाए, जिससे वहाँ के निवासी अपनी समस्याओं को स्वयं हल करके स्वावलंबी बनकर कल्याण- मार्ग पर आगे बढ़ सकें।

यह संकल्प करके विनोबा कन्याकुमा॑री से चले और पैदल ही केरल,महाराष्ट्र, राजस्थान और पंजाब होकर भारत की उत्तरी सीमा के पत्थर पीर पंजाल, तक जा पहुँचे ।। सुनने में तो यह साधारण- सी बात हो गई। पर यह दो हाजार मील के फासले की यात्रा, जिसमें तेज से तेज रेलगाड़ी को भी तीन दिन और तीन रात से भी ज्यादा समय लग जाता है, ६५ वर्ष की अवस्था में विनोबा ने कैसे पूरी की और इस बीच में लाखों बीघा भूमि माँगकर गरीबों को दान कर दी, वह कोई साधारण बात नहीं है। एक लँगोटी लगाने वाला ऐसा काम कर दिखावे ,, तो इसे ईश्वर का प्रसाद ही कह सकते है।

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