इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि जिस प्रकार आहार विहार को सुसंयत रखकर स्वास्थ्य रक्षा के सीधे उपाय को छोड़कर लोगों की समझ में यह आ गया है कि अप्राकृतिक और उच्छृंखल जीवन-क्रम बनाकर मनमानी की जाय और उसके दुष्प्रभाव से बचने के लिए दवाओं की शरण ली जाय। उसी प्रकार भूमि के बारे में भी यही नीति अपनाई गई है। उसे खर पतवार और गोबर की खाद से वंचित किया जा रहा है। पशु धन घटता चला जा रहा है और उसके गोबर का दूसरा उपयोग हो रहा है। जो घास-पात खेत से ली जाती है वह प्रकारान्तर से उसे वापिस नहीं मिलती। ऐसी दशा में जमीन यदि कम उपज देने लगे तो यह स्वाभाविक ही है।
इस कमी की पूर्ति के लिए आज की सभ्यताभिमानी उद्धत बुद्धि कोई जल्दी पहुंचने वाली पगडंडी ढूंढ़ती है। दवाओं के आधार पर स्वास्थ्य संरक्षण एवं रोग निवारण की जो सनक कार्यान्वित हो रही है वही तरीका भूमि के लिए भी अपनाया जा रहा है। रासायनिक खादों से भूमि को उत्तेजित करके उससे अधिक कमाई करने की रीति-नीति अपनाई जा रही है। सोचा जा रहा है इस तरह अधिक पैदावार का लाभ उठाया जा सकेगा।
जो प्रयोग हम आज करने चले हैं, उसे अमेरिका में बहुत पहले आजमाया जा चुका है। ‘‘जल्दी से जल्दी अधिक से अधिक लाभ उठाने की नीति अपनाकर उन्होंने रासायनिक खादों का अन्धाधुन्ध उपयोग किया कुछ समय तक उसके लाभ भी मिले पर अन्त में उस भूमि का अधिकांश भाग अपनी उर्वरा शक्ति खोकर बेकार हो गया।
अमेरिका के कृषि विभाव की भूमि संरक्षक संस्था ने ‘हमारी बची हुई भूमि’ नामक एक पुस्तक छाप कर उसमें रासायनिक खादों के द्वारा भूमि पर पड़ने वाले कुप्रभावों का विस्तृत वर्णन किया था। उसमें बहुत भयंकर आंकड़े थे। लगता है रासायनिक खादों के उत्पादनकर्त्ताओं के दबाव या अन्य किसी कारण से उस पुस्तक के दुबारा छपने का अवसर नहीं आया।
उपरोक्त पुस्तक के तथ्यों की भयंकरता को घटाते हुए उस पुस्तक का एक सरल संस्करण ‘हमारी उपजाऊ भूमि’ के नाम से छपाया। यह पुस्तक एग्रीकलचर इन्फार्मेशन बुलेटिन संख्या 106 के क्रम से प्रकाशित है और 10 सेन्ट मूल्य से गवर्नमेंट प्रिंटिंग आफिस 25 डी.सी. से खरीद कर पढ़ी जा सकती है।
इस पुस्तक में लिखित उद्धरणों से विदित होता है कि रासायनिक खादों के प्रभाव से अमेरिका की 28 करोड़ एकड़ जमीन बर्बाद हो गई। जो कि उस देश के इलीनाय, आइयोवा, मिसूरी, कन्सास, नेब्रास्का और बायोमिंग राज्यों की कुल जमीन के बराबर होती है। इसके अतिरिक्त कृषि योग्य, चरागाह तथा जंगली 77 करोड़ 50 लाख एकड़ भूमि और ऐसी है जिसका बहुत कुछ अंश बर्बाद हो चुका है, पुस्तिका में वर्णन है कि केवल 46 करोड़ एकड़ उपयोगी जमीन अमेरिका के पास बची है। पेट भरने के लिए तो इतनी भी काफी है पर यदि इसे संभालकर नहीं रखा गया और पिछली गलतियां दुहराई जाती रहीं तो हर साल आगे भी 50 लाख एकड़ जमीन बर्बाद होती चली जायगी।
रासायनिक खादों के नाम पर भूमि को विषाक्त और अनुत्पादक बनाने के साथ-साथ फसलों के छोटे रोग कीटाणुओं को नष्ट करने तथा दीमक, चूहे एवं पक्षियों से उसे बचाने के लिए विषैली दवाओं के घोल छिड़कने का प्रयोग चल रहा है। उसका परिणाम भी ऐसा ही निराशाजनक हो रहा है। जितना लाभ फसल को बर्बादी से बचाने के नाम पर उठाया जा रहा है उससे अधिक हानि उस अन्न से मनुष्यों और चारे से पालतू पशुओं के स्वास्थ्य की बर्बादी के द्वारा उत्पन्न की जा रही है। जितना लाभ उससे अनेक गुनी हानि करने वाली बुद्धिमत्ता की किस तरह प्रशंसा की जाय।
फसलों पर कीटाणुनाशक घोलों के छिड़के जाने से कीटाणुओं तथा पशु-पक्षियों, कीड़े-मकोड़ों से होने वाली हानि को बचाने की बात सोची जाती है और यह अनुमान किया जाता कि उससे फसल की बर्बादी बचेगी। इस प्रयोजन के लिए ऐसे विषाक्त कीटाणु नाशक रसायनों का उत्पादन भी तेजी से किया जा रहा है डी.डी.टी. तथा दूसरे रसायनों की वृद्धि तेजी से हो भी रही है। पारायियन सरीखे विष इसी प्रयोजन के लिए उत्पन्न किये जा रहे हैं। इनमें से कुछ औषधियां तो ‘नर्व गैस’ सरीखी युद्ध में काम आने वाली भयंकर गैसों जैसी घातक होती है। पर हम यह भूल जाते हैं कि फसल, अन्न, फल आदि खाद्य पदार्थों पर छिड़के हुए यह विष उन खाद्यों में ही समाविष्ट हो जाते हैं और अन्ततः मनुष्य के पेट में ही जा पहुंचते हैं। यह विषैलापन मात्रा में कितना ही न्यून क्यों न हो आखिर कुछ तो असर डालता ही है और थोड़ा-थोड़ा करके भी इतना अधिक हो जाता है कि उससे सामान्य स्वास्थ्य पर असर पड़ना नितान्त स्वाभाविक है।
अमेरिकन कृषि विभाग के अन्तर्गत ‘एन्टोमोलोजी रिसर्च’ शाखा ने इन कीटाणु नाशक विषों की प्रतिक्रिया की जांच कराई तो मालूम हुआ कि दस साल के लगातार इस विष सिंचन से 6 इंच गहराई तक की भूमि में डी.डी.टी., वी.एच.सी. और लिन्डेन तथा आलोरीन के अंश खतरनाक मात्रा में मिले हुए थे। इलीनाय, जर्जिया, न्यूजर्सी, राज्यों की जमीनें भी ऐसी ही विषाक्त पाई गई विचारशील लोग यह अनुमान लगा रहे हैं कि भूमि में बढ़ाई हुई विषाक्तता की यह अभिवृद्धि अन्ततः मानवीय आहार को भी विषाक्त ही बनाकर रहेगी और उसके परिणाम उसे भुगतने पड़ेंगे।
फल फल, दूध, शक्कर, साग, अन्न हम जो कुछ भी खाते हैं उनमें अधिकांश कार्बन तत्व होता है। कार्बन हवा और मिट्टी में पाया जाता है। अन्य अर्काबनिक तत्व और खनिज, पौधों को पृथ्वी से मिलते हैं। रासायनिक खादें इतनी उत्तेजित होती हैं कि वह खनिज तत्वों की भारी मात्रा निकाल देती हैं जिससे उपज बहुत अधिक बढ़ जाती है। साधारण आलू का वजन 100 ग्राम से अधिक नहीं होता। एस्तोनियाईसो वियत समाजवादी जनतन्त्र के ‘‘वीयदूतेये’’ सामूहिक कृषि फार्म में खुदाई करते समय वहां के मैनेजर को एक आलू इतना बड़ा मिला जिसका वजन 1 किलोग्राम 250 ग्राम थी। यह अत्यधिक विकास रासायनिक खाद की कृपा से हुआ पर मिट्टी की जांच करने से पता चला कि उसमें खनिज तत्व क्रमशः घटते चले जा रहे हैं। एक बार में 12।। गुना तक खनिज तत्व निकाल देने से भूमि का जीवन तत्व कितनी तेजी से नष्ट होता होगा इसे आसानी से समझा जा सकता है, पर आज के लोगों का ध्यान तो सवा किलो के आलू की तरह अधिक है। भूमि के जीवन तत्व नष्ट हो रहे हैं यह कोई नहीं देखता।
लेडी ईव बैलफर ने अपनी पुस्तक ‘‘लिविंग साइल’’ में स्पष्ट कर दिया है कि यदि मनुष्य यह समझता है कि धरती निष्प्राण है तो यह उसकी भूल है। जिस तरह शरीर में जीवन है पृथ्वी में भी ठीक वैसा ही जीवन विद्यमान है। खनिज द्रव्यों की चट्टान सेन्द्रिय खाद तत्व तथा अति सूक्ष्म कीटाणुओं के सम्मिश्रण से मिट्टी बनी है। मनुष्य और प्राणि जगत जो मल-मूत्र निकालता है तथा वनस्पति जो जमीन पर गिर जाती है उन्हें पृथ्वी के सूक्ष्म जीवाणु उसी प्रकार सेन्द्रिय खाद तत्व या प्राण में बदलते हैं जिस प्रकार शरीर के जीवाणु खाद्य से शरीर को पोषण प्रदान करते हैं हमारी जीवन व्यवस्था और पृथ्वी के जीवन में कोई अन्तर नहीं है। इसलिये यह स्पष्ट समझा जा सकता है कि उत्तेजक पदार्थों से जो निष्क्रियता मनुष्य शरीर पर आती है ठीक वैसी ही पृथ्वी में उत्तेजक खादों से आती है। अतएव विज्ञान को अपनी इस उपलब्धि को महत्व न देकर उसे एक नशा ही समझना चाहिए जो धरती के लिये कभी भी उपयुक्त नहीं हो सकती।
दूध और घी, मक्खन तथा छाछ से मिले जीवन तत्व की तुलना शराब और निकोटीन नहीं कर सकती, उसी प्रकार कम्पोस्ट खाद, हरी खाद, मल-मूत्र की स्वाभाविक खादों से पृथ्वी को अधिक कहीं शक्तिशाली और दीर्घजीवी बनाया जा सकता है तो शराब पिलाना ही क्या आवश्यक हो सकता है। हमारी धरती के संस्कारों का और अन्न के संस्कारों का भी तो महत्व है यदि उनकी इस उत्तेजना को रोका न गया तो यह कुसंस्कारित अन्न मनुष्य में दुर्बुद्धि के रूप में फूटेगा और अपने देश को भी योरोप की तरह उद्दण्ड स्वेच्छाचारी, कामुक, शोषक एवं उपयोगितावादी प्रवृत्ति का बना देगा। हानि यह पृथ्वी के बांझ होने से भी अधिक कटु है।
हम जब अन्धानुकरण कर रहे हैं तब अमेरिका के विचार इस दशा में गम्भीरता से पीछे लौटने की सोच रहे हैं। जेम्स एण्ड ह्वाइट ने अपनी पुस्तक रीप आफ दि अर्थ (धरती पर अत्याचार) पुस्तक में लिखा है—‘‘अमरीका में धरती पर अत्याचार हो रहे हैं। हजारों एकड़ भूमि रेगिस्तान बन गई। भूमि संरक्षण विकराल समस्या बन गई है।’’ एड्रेनबेल ने अपने पुस्तक ‘‘खेत के लोग’’ (मेन आफ दि फील्डस) में लिखा है—रासायनिक खाद देकर पैदा की हुई चीजें देखने में चाहे कितनी सुन्दर और आकर्षक लगें उनमें प्राकृतिक खाद के समान ओज, स्वत्व और जीवनी शक्ति नहीं है; पर गरीब किसान के अनुभव को कौन पूछता है। आज तो विज्ञान के अभिमान में पड़े तथाकथित बुद्धिवादी लोग अपने उद्योग और कारखानों को चलाये रखने के लिए रासायनिक खादों का धुआंधार प्रचार कर रहे हैं। गरीब किसान, भोला किसान उनकी चतुरतापूर्ण, छलप्रपंच से सनी बातों को समझ नहीं पाता और तो और जनता के कर्णधार जो कृषि विशेषज्ञ या कृषि शिक्षक हैं वे तक अपनी नौकरियों पर टिके रहने के लिए न तो ग्रामीण जनता के हित की बात सोचते हैं न आने वाली पीढ़ी और अपने ही के दीर्घ कालीन जीवन तत्व के रक्षण की बात।’’
इंग्लैण्ड के विचारशील लोगों ने ‘‘साइल एसोसिएशन’’ नामक एक संस्था गठित की है वह तथाकथित सुधारवादियों से मोर्चा लेने को तत्पर हैं। इस संस्था में कई बड़े वैज्ञानिक, डॉक्टर और कृषि विशेषज्ञ हैं। संस्था के घोषणा पत्र में कहा है—‘‘हम एटमबम के खतरे को जानते हैं पर आज धरती का जो शोषण हो रहा है उससे बेखबर हैं। इसलिए जनता को इसके प्रति जागृत करना जरूरी है। क्या हम चाहते हैं कि इतिहास हमारे बारे में यह लिखे कि यह एक ऐसी पीढ़ी थी जो मृत्यु के कार्य में इतनी व्यस्त थी कि जीवन के मूल स्रोत ढूंढ़ने के लिये उसे कभी अवकाश ही नहीं मिला। या हमारे बारे में यह लिखा जाये कि यही पहली पीढ़ी थी जिसने धरती को क्षीण होने से बचाया और मानव जीवन की मूलाधार—धरती, की उर्वरा शक्ति को बनाये रखा।’’
दोनों प्रकार के भविष्य हमारे हाथ में हैं। आज जबकि तथाकथित शिक्षित लोग ही दूरदर्शी और विवेक शील नहीं रहे गांव की जनता को आप निर्णय ही करना होगा कि ऊपर के दोनों निष्कर्षों में वे किसे पसन्द करते हैं। पृथ्वी को प्राकृतिक तौर पर शक्तिशाली बनाने में रूचि हो सकती है या फिर उसे बांझ करने में। यह आज की अहं समस्या है जिस पर भावी पीढ़ियों का भविष्य निर्भर करेगा अतएव उसे जितनी गम्भीरता से बन पड़े सोचा, विचारा और क्रियान्वित किया जाना चाहिए विज्ञान के क्षेत्र में मिली सफलताओं पर इतरा कर चल पड़ना तो एक प्रकार से बौद्धिक विक्षिप्तता ही होगी।
प्रकृति हमारी मां है, उसे बछड़े की तरह दुहने की मर्यादा में रहें, तो ही लाभ है। अन्यथा सोने का अण्डा देने वाली मुर्गी का पेट चीर कर सारे अण्डे निकालने की बात सोचने वाले लालची की तरह अपनी भी दुर्गति ही होनी है। प्रकृति पर विजय प्राप्ति करने का उद्धत स्वप्न अन्ततः अपने ही पैर में आप कुल्हाड़ी मारने की तरह घातक सिद्ध होगा।
धरती को ही लें—वह हमारी मां है। मां से सत्कार पूर्वक दूध पीकर जीव जगत मुद्दतों से अपना निर्वाक करता चला आ रहा है। पर स्वाभाविक क्रम का उल्लंघन कर हम तात्कालिक लाभ के लिए धरती का प्राण हरण करने के लिए उतारू होंगे तो पायेंगे कम, खोयेंगे अधिक। सृष्टि का एक सन्तुलित क्रम है, उसे यथावत् चलने देने से ही हमारी जीवन-रक्षा होगी। प्रगति की सीमा है, उसी में हमें रहना चाहिए। विशेषतया धरती-आकाश को जीतकर उन्हें मन चाहे प्रयोग के लिए तो विवश नहीं ही करना चाहिए। धरती के साथ इन दिनों हम जो अत्याचार बरत रहे हैं, उसका परिणाम अगले ही दिनों विघातक विभीषिका बनकर सामने प्रस्तुत होगा। इस भूल को जितनी जल्दी सुधारा जा सके उतना ही अच्छा होगा।
रासायनिक खादों के स्थान पर कम्पोस्ट खादों, हरी खादों के प्रचलन का विस्तार किया जा सके तो उससे एक स्वस्थ विकल्प बनता है। संतुलित मात्रा में यह खादें भी तैयार की जायें पर उनका उपयोग उस मिट्टी पर किया जाना उचित है जो बंजर या रेगिस्तानी जैसी हैं रेलगाड़ी के इंजन को स्टार्ट करने जैसी स्थिति में कभी किसी अच्छे खेत में प्रयोग करलें यहां तक भी बात समझ में आती है किन्तु संतुलन खोकर अंधाधुंध प्रयोग कहीं इतना घातक न बैठे जैसी आशंकायें व्यक्त की जा रही हैं यह भी ध्यान रखा जाना आवश्यक है मात्र प्रगति के जोश में होश खोना घातक ही रहेगा।