विज्ञान को शैतान बनने से रोकें

कीटनाशक अन्ततः अपने लिये घातक

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हवा और पानी के बाद यदि कुछ शुद्ध बचा था तो वह था अन्न किन्तु दुर्बुद्धिग्रस्त प्राणी केवल दूसरों का अहित करे ऐसा आज तक दुनिया में कहीं हुआ नहीं। अधिक उत्पादन की बात जीवन की अन्यान्य आवश्यकताओं तक ही सीमित नहीं रही अन्न की तो सर्वाधिक आवश्यकतायें भी रहती हैं सो उस दिशा में ध्यान जाते ही विज्ञान-बुद्धि कीट-पतंगों को मारने के लिए समुद्यत हुई। फसलों की रक्षा के लिए कीड़ों को मारने के लिए तरह-तरह के कीटनाशक तैयार किये गये, पर उनके उपयोग में सावधानी न बरतने का दुष्परिणाम यह है कि यह कीटनाशक भी एक अलग समस्या बन गये हैं।

कीटनाशक उपायों में अब तक एक ही कारगर उपाय सोचा जा सका है कि विषैली रासायनिक घोल छिड़क कर जहां भी ये कीड़े हों वहां ही उन्हें मार डाला जाय। डी.डी.टी. प्रभृति औषधियों का प्रयोग इसी दृष्टि से अति उत्साह पूर्वक हुआ है, पर उससे भी कुछ हल निकला नहीं। एक तो इन कीड़ों की बढ़वार इतनी व्यापक होती है कि उन्हें मारने के लिए लगभग इतने ही मूल्य की दवाएं चाहिए जितना कि फसल का मूल्य होता है। उन्हें हर कोई न तो खरीद सकता है और न उसका सही प्रयोग जानता है। अवांछनीय मात्रा में असावधानी से उनका प्रयोग किया जाय तो पौधों के नष्ट होने और उनके फल, बीज खाने वालों में विषाक्तता बढ़ जाने का खतरा स्पष्ट रहता है। इन दवाओं के मन्द उपयोग का भी जो दुष्परिणाम सामने आया है उसने विचारशील वर्ग को चिन्ता में डाल दिया है। कीटनाशक औषधियां छिड़कीं तो उनका प्रभाव पौधों पर ही नहीं अन्न, शाक, फल आदि पर भी रहता है और वे पेट में पहुंच कर स्वास्थ्य संकट उत्पन्न करते हैं। गोदामों में अन्न को सुरक्षित रखने के लिए जो रसायन छिड़के जाते हैं वे घूम फिर कर खाने वालों के पेट में पहुंचते हैं और वह मन्द विष भी कालान्तर में विघातक परिणाम उत्पन्न करता है। छिड़काव से प्रभावित घास-भूसा खाने वाले पशुओं का दूध, घी और मांस भी अखाद्य बनने लगता है। इस प्रकार वह कीटनाशक रासायनिक उपचार कीड़ों को मारने में भले ही असफल रहे, पर मनुष्यों पर अपना प्रभाव जरूर डालता है।

रेकल कार्सन ने अपनी पुस्तक साइलेन्ट स्प्रिंग में अमेरिकी जनता की शारीरिक स्थिति की चर्चा करते हुए लिखा है कि यहां हर मनुष्य के शरीर में डी.डी.टी. एवं आर्गेनोक्लोरीन समूह के विषैले रसायनों की मात्रा बढ़ती ही जा रही है। अभी यह परिणाम दस लाख पीछे 12 भाग है, पर यह क्रमशः बढ़ता ही जायगा और फिर विविध-विधि स्वास्थ्य संकट उत्पन्न करेगा। कीटनाशक दवाएं बनाने वाले कारखानों के कर्मचारियों में तो यह मात्रा 648 भाग तक पहुंच गई है। ब्रिटेन के स्वास्थ्य विज्ञानी का चिन्तन है कि कीटनाशक रासायनिक प्रभाव से मानवी आहार को किस प्रकार बचाया जाय। यह चिन्ता एक देश की नहीं, वरन् समस्त विश्व की समस्या है। और उनकी नई पीढ़ियां ऐसी ढीठ उत्पन्न होती हैं जिन पर इन रसायनों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वे इन छिड़कावों को अंगूठा दिखाते हुए अपना विनाश कार्य प्रसन्नतापूर्वक करते रहते हैं।

खाद्यान्न सुरक्षित रखने के लिए रेडिएशन—विकरण का प्रयोग किया जा रहा है। रासायनिक खादों की भरमार है उनके आधार पर खेतों में अधिक अन्न उपजाने की बातें सोची गई हैं। कीड़ों से खाद्य पदार्थों का बचाव करने के लिए डी.डी.टी., क्लोरेडेन, डेलड्रिन, एलड्रिन, एनड्रिन सरीखी औषधियों के छिड़काव का प्रचलन बढ़ रहा है। खेतों में भी कृमि नाशक घोल छिड़के जा रहे हैं। इनसे तात्कालिक समाधान मिलता है, पर दूरगामी परिणामों की उपेक्षा करते रहें तो फिर जिस मानव प्राणी के लिए यह खाद्य बढ़ाने और सुरक्षित रखे जाने का प्रयत्न हो रहा है वह इस योग्य ही न रह जायगा कि कुछ खा या पचा सके, तो आज की सफलता को असफलता से कम दुर्भाग्यपूर्ण न माना जायगा।

डी.डी.टी. जैसे रसायन छिड़कने से कुछ कीड़े मरे, कुछ जहरीले बनकर जिन्दा रह गये। उन्हें खाकर पक्षी मरे। चिड़ियों की चहचहाहट से जो वन-उपवन गूंजते थे, वे सब सुनसान हो गये। कारसन ने ‘दि साइलेण्ट स्प्रिंग’ गूंगा बसन्त पुस्तक में पक्षियों के विनाश का दर्दनाक चित्र खींचा है और लिखा है रासायनिक खादों और कृमिनाशक रसायनों ने प्रकृति का सन्तुलन ही बिगाड़ दिया। कीड़े मरे या न मरे यह गौण बात है, उन रसायनों से सनी घास खाकर पशु और बीज एवं कीड़े खाकर पक्षी विषैले बने। उनका मांस खाकर मनुष्यों के शरीर में विषाक्तता घुस गई और अब उसकी प्रतिक्रिया तरह-तरह की चित्र-विचित्र बीमारियों के रूप में दृष्टिगोचर हो रही है।

अमेरिका तथा योरोप के कतिपय देशों में पशु-पक्षियों की प्रजनन क्षमता में भारी कमी आई है। अमरीकी कृषि विभाग ने अपने रोग निरोधक कार्यक्रमों में डी.डी.टी. आदि प्रभावी कीटनाशकों पर अस्थायी रोक लगादी है और उस हानि से बचने का उपाय खोजा जा रहा है जो इन रसायनों के प्रयोग से उठानी पड़ती है।

लॉरेल (मेरिलेण्ड) स्थित ब्यूरो ऑफ स्पोर्ट फिशरीज एण्ड वाइल्ड लाइफ संस्थान के तत्वावधान में दो वैज्ञानिकों ने इस सम्बन्ध में विशेष खोज की है। इनके नाम हैं आर.डी. पोर्टर और एस.एन. बायमेयर, उन्होंने कुछ पक्षियों पर परिक्षण किये। उनके भोजन में इतनी अल्प मात्रा इन कृमिनाशक रसायनों की मिलाई जिससे प्रत्यक्षतः उन पर कोई घातक प्रभाव न पड़े। लगातार दो वर्ष तक उस परीक्षण के तीन परिणाम निकले—(1) घोंसलों में से उनके अण्डे गुम होने लगे (2) स्वयं पक्षी अपने अण्डों का नाश करने लगे (3) अण्डों के ऊपर का खोल बहुत पतला पड़ गया। यह पतलापन 10 प्रतिशत तक हो गया। फलस्वरूप वे अण्डे तनिक से आघात से टूटने लगे। यहां तक कि मादा जब उन्हें सेने के लिए उठती-बैठती या करवट बदलती तो उतने में ही फूट पड़ते।

आश्चर्य यह था कि पक्षी अपने आप अपने अण्डे खाने लगे। आमतौर से ऐसा कहीं अपवाद स्वरूप ही होता है कि कोई मादा अपने अण्डे बच्चों को खाती है। नासमझी या आपत्तिकाल की बात अलग है, सामान्यतया क्रूर या हिंसक समझे जाने वाले पशु-पक्षी भी अपने अण्डे बच्चों को प्यार करते हैं और उनकी रखवाली पर पूरा ध्यान देते हैं। पर यह पक्षी इतने भावना शून्य और आलसी हो गये कि खुराक ढूंढ़ने जाने का कष्ट उठाने की अपेक्षा घर में रखे इस भोजन से ही काम चलाने लगे। मातृत्व की प्रकृति प्रदत्त भावना और प्रेरणा को भी उठाकर उन्होंने ताक पर रख दिया।

यह प्रभाव था जो दो वर्ष के अन्दर ही पक्षियों पर देखा गया और वह भी तब जबकि आहार में मिलावट की मात्रा 1.3 पी.पी.एम. (एक पी.पी.एम. बराबर है दस लाखवें भाग के) जितनी स्वल्प थी। अण्डों की संख्या का घटना, उनका छोटा और हलका होना तो प्रत्यक्ष ही था। कई पक्षी ऋतु सेवन करने के बाद भी गर्भ धारण करने से वंचित रहे जबकि आमतौर से पक्षियों का ऋतु सेवन शत-प्रतिशत प्रजनन में ही परिणत होता है।

उनके स्वास्थ्य पर अथवा पीढ़ियों पर स्वल्प विष सेवन का क्या प्रभाव पड़ेगा यह जानना अभी शेष है। फिर आशंका यह की जा सकती है कि आगे चलकर उनके स्वास्थ्य में अवांछनीय दुष्परिणाम देखे जा सकते हैं और पीड़ियों पर बुरा असर पड़ सकता है।

इन सभी दुष्परिणामों को देखते हुए कीटनाशकों का उपयोग वहीं तक उचित है जहां तक खटमल, जुएं आदि कीड़ों को मारने की बात है जिनको मारते समय अन्य वस्तुयें प्रभावित न हों, कृषि आदि में आवश्यक होने पर हलके कीटनाशकों का छिड़काव किया जाये तो भी ठीक है पर साथ-साथ लोगों को यह जानकारी भी दी जानी आवश्यक है कि इस तरह औषधि छिड़के अनाज को गोदामों से या फसल से प्राप्त करने के बाद किस तरह धोकर साफ करके प्रयुक्त किया जया जिससे औषधियों के विषाक्त प्रभाव से रक्षा की जा सके अन्यथा यही कीटनाशक अपने लिए संकट पैदा करेंगे। लाभ इनसे राई भर होगा, हानि पहाड़ के बराबर होगी।
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