विज्ञान को शैतान बनने से रोकें

चिल्लाइये मत कान फट रहे हैं

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वायु, जल, पृथ्वी में व्याप्त—प्रदूषण की तरह शोर भी पर्यावरण प्रदूषण में सम्मिलित हो गया है शोर भी इनसे कम घातक नहीं। शरीर-विज्ञानियों के अनुसार शोर का मनुष्य के शरीर पर दुष्प्रभाव पड़ता है। कानों को तो क्षति पहुंचती ही है। अधिक तेज शोर से धमनियां सिकुड़ने लगती हैं, ब्लडप्रेशर बढ़ जाता है, श्वसन-क्रिया अनियमित हो सकती है, पाचन-क्रिया गड़बड़ा जाती है, इससे आंतों पर असर होता है। कई हारमोनों के सुख पर प्रतिकूल असर पड़ता है। पिट्यूटरी ग्रन्थि, एड्रनिल कार्टेक्स, थायराइड ग्रन्थि और जनन ग्रन्थियों पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

अधिक तेज शोर से आंखों की ज्योति मन्द पड़ती है, रात में देखने में कठिनाई होने लगती है, रंगों का भेद कर पाना मुश्किल हो जाता है और दूरी का तथा धरातल के ऊंचे-नीचे होने का अनुमान सही-सही लगा पाना कठिन हो जाता है।

शोर से थकान, उदासी और ऊब पैदा होती है, विचारों की श्रृंखला टूटती है, मस्तिष्क की विद्युत-तरंगों में गड़बड़ी होने लगती है। इससे हिंसा की भावना बल पकड़ सकती है। उत्तेजना पूर्ण जीवन की ओर झुकाव बढ़ सकता है।

मन्द से मन्द ध्वनि जो मनुष्य के कानों से सुनी जा सकती है उसे ‘शून्य डेसीबल’ इकाई माना गया है। काना-फुंसी की घुसफुस प्रायः 10 से 20 डेसीबल तक की होती है। 14 डेसीबल की ध्वनि मनुष्य के कान के पर्दे फाड़ सकती है और उसे बहरा कर सकती है, 150 पर तो शरीर में भारी विक्षोभ उत्पन्न हो सकता है और मृत्यु तक हो सकती है। यों शरीर 75 को ही असह्य मानकर उसके विरुद्ध विद्रोह करने लगता है। तेज शोर के बीच रहने वाले लोगों की शारीरिक एवं मानसिक स्थिति मन्द या तीव्र रोगों की ओर बढ़ती जाती है।

हवाई जहाज इतना शोर करते हैं कि यदि 100 फीट दूरी से उनकी आवाज सुनी जाय तो सिर चकराने लगेगा। हवाई जहाजों के भीतर बैठे यात्रियों और चालकों को यह शोर कष्ट न दे इसलिए भीतर ध्वनि अवरोधक यन्त्र लगे होते हैं, पर बाहर आकाश में तो वह शोर होता ही है इस ध्वनि का प्राणियों पर क्या प्रभाव होता है यह जांचने के लिए गिनीपिग चूहों को जेट इंजन के शोर में रखा गया। कुछ ही मिनट में वे सब झुलस कर मर गये। तेज ध्वनियों का मानव शरीर पर बुरा असर पड़ता है यह भली प्रकार अनुभव कर लिया गया है। विज्ञानियों ने अब इतनी तीव्र ध्वनियों का आविष्कार कर लिया कि उनके शोर मात्र से बारूद या पेट्रोल की तरह देखते-देखते भयंकर अग्निकाण्ड हो सकता है।

आस्ट्रिया के ध्वनि विज्ञानी डा. ग्रिपिथ का कथन है कि कोलाहल में रहने वाले अपेक्षाकृत अधिक जल्दी बूढ़े होते हैं। इंग्लैंड की स्वास्थ्य रिपोर्ट में शोर वाले क्षेत्र में एक चौथाई लोगों को न्यूरोसिस, सनक की मस्तिष्कीय विकृति में ग्रस्त पाया गया। अमेरिका के आवाज करने वाले कारखानों में एक चौथाई के कान अपनी स्वाभाविक क्षमता गंवाते चले जा रहे हैं।

सुपर मगनक लड़ाकू विमानों की दहलाने वाली आवाज के केन्योन की ऐतिहासिक गुफाओं में दरारें डाल दीं। ब्रिटेन और फ्रांस के सहयोग से बने कनकार्ड जेट ने लन्दन के सेन्टपाल गिरजाघर और पार्लमेन्ट भवन तक के लिए खतरा उत्पन्न कर दिया था। फलतः उस क्षेत्र में उसके उड़ने पर प्रतिबन्ध लगाया गया। डाक्टरों ने उस विमान की भयंकर आवाज के सम्बन्ध में यह भी चेतावनी दी थी कि उसकी उड़ान मार्ग के इर्द-गिर्द 100 मील तक के हृदय रोगियों का जीवन संकट में पड़ जायगा।

मनुष्य के कान 25-30 डेसीबल तक की आवाज को सहन कर सकते हैं। इससे अधिक कोलाहल जहां भी होगा वहां कान के जरिये अवांछनीय तनाव मस्तिष्क पर पड़ेगा और फिर वह उत्तेजना शरीर के विभिन्न अवयवों पर बुरा असर डालेगी। सेनफ्रांसिस्को के कैलीफोर्निया मेडीकल कालेज द्वारा ध्वनि प्रवाह के विभिन्न परिणामों का अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला है—विषैली जलवायु की तरह ही कोलाहल युक्त वातावरण भी स्वास्थ्य पर घातक प्रभाव डालता है।

सन् 1966 में रूस के गोर्की नगर में अनभ्यस्त शोर का प्रभाव पशुओं पर क्या पड़ता है इसका परीक्षण किया जाय तो यही पाया गया कि वे कर्कश ध्वनियों को सुनने के कारण अपनी सामान्य दिनचर्या छोड़ बैठते हैं और उद्विग्न रहने लगते हैं। उनकी कार्यक्षमता घट जाती है और अस्वस्थता आ घेरती है। पालतू पक्षी भी शोर से घबराते हैं। जो पालतू नहीं हैं वे कोलाहल से हटकर अन्यत्र अपने घोंसले बनाने की तैयारी करते हैं।

टैक्सास के एक शोध संस्थान ‘कैलियर हीयरिंग एण्ड स्पीच सेन्टर’ द्वारा की गई ध्वनि प्रतिक्रिया शोध का निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए उसके निर्देशक डा. ग्लोरिंग डलास ने बताया कि अधिक शोर करने वाले कारखानों में काम करने वाले श्रमिकों में से अधिकांश को आंशिक बहरापन आ घेरता है। साथ ही उनकी कार्यक्षमता एवं सहनशीलता घट जाती है चैकोस्लोवाकिया में शोर करने वाले और शोर रहित व्यवस्था वाले कारखानों की उत्पादन शक्ति का लेखा-जोखा लिया गया तो प्रतीत हुआ कि शान्ति के वातावरण में शारीरिक और मानसिक श्रम कहीं अधिक मात्रा में सम्भव हो सकता है।

हारवर्ड विश्व-विद्यालय के प्रो. वैरोल विलियम्स ने सुविस्तृत क्षेत्र में दीर्घकालीन पर्यवेक्षण करके यह निष्कर्ष निकाला है कि मनुष्य की जीवनी शक्ति को नष्ट करने और उसे अकाल मृत्यु का ग्रास बनने के लिए बाध्य करने में कोलाहल का बहुत बड़ा हाथ है। बड़े शहरों में सड़क के किनारे बने हुए घरों में जो लोग रहते हैं दौड़ती हुई मोटरों की आवाजें उनके मस्तिष्क को क्षुब्ध करती रहती हैं। फलतः अन्य मुहल्लों में रहने वालों की अपेक्षा वे अनिद्रा, घबराहट, धड़कन, बधिरता, रक्त-चाप, अपच जैसे रोगों से कहीं अधिक अनुपात में बीमार पड़ते हैं।

जार्जिया विश्व-विद्यालय के डा. विलियम एफ. गेबर ने चूहों को कोलाहल भरे वातावरण में रखकर देखा तो वे दिन-दिन दुबले होते गये और उन दिनों गर्भ में आये लगभग सभी बच्चे किसी न किसी बीमारी से ग्रसित एवं अविकसित अंग लेकर जन्मे पाये गये।

सन् 1963 में लेनिन ग्राड के निकटवर्ती क्षेत्र में बुलडोजर की सहायता से ऊबड़-खाबड़ जमीन साफ की गई। इन दैत्याकार यन्त्रों का प्रभाव समीप के मुर्गी फार्मों पर बहुत बुरा पड़ा। इन पक्षियों के पंख इस बुरी तरह झड़े कि वे विचित्र तरह के कुरूप हो गये। उदास रहने लगे और अण्डे देना रुक गया। असह्य शोर से मुर्गियां घबराने लगीं और उनकी सामान्य दिनचर्या अस्त-व्यस्त हो गई।

डा. फेचनर ने 40 वर्ष तक ध्वनियों का गहन अध्ययन किया और यह पाया कि अब जो शोर बढ़ रहा है, उससे उत्तेजना बढ़ती है और शरीर के कोमलतम तन्तुओं पर तीक्ष्ण प्रभाव पड़ता है। ध्वनि के उत्तेजत्व को उन्होंने ‘डेसीबिल’ नाम की इकाई बनाकर नापा भी और यह बताया कि शान्त सड़कों में 50 डेसीबिल उत्तेजत्व रहता है, जबकि शोर-युक्त सड़कों में 70-80 डेसीबिल। मोटरगाड़ियों में ब्रेक लगाने की ध्वनि से 76, ध्वनि निरोधक यन्त्र से सज्जित मोटर-साइकिलों से 90 और ऐसी ही मोटरों से 120 डेसीबिल शोर का प्रभाव श्रवण प्रणाली पर पड़ता है, उससे मस्तिष्क का विभ्रान्त और अशान्त रहना तो आवश्यक है ही, यह भी सिद्ध हो चुका है कि 160 डेसीबिल वाले शोर के कारण कान का पर्दा तक फट सकता है। 120-130 डेसीबिल शोर से आंशिक और यदि कुछ दिन तक यह क्रम बराबर बना रहे तो व्यक्ति स्थायी रूप से भी बधिर हो सकता है। प्रत्येक अवस्था में 80-100 डेसीबिल से अधिक मात्रा का शोर श्रवण प्रणाली और मानसिक सम्वेदना के लिए घातक हो सकता है।

प्रसिद्ध मनोविज्ञान शास्त्री पास्कल का कथन है कि शोर श्रवण प्रणाली को ही नहीं प्रभावित करता, वरन् वह मस्तिष्क पर भी कुप्रभाव छोड़ता है, जिससे सारे शरीर पर दूषित तत्व सक्रिय हो उठते हैं। हमारी चिन्तन-धारा में मुख्य बाधा भी यह शहरी शोर हैं, जिसके कारण मनुष्य अपने कल्याण की भी बात अच्छी तरह सोच नहीं पाता। ‘डेली टेली ग्राफ’ के सम्पादक ने सत्ताधारियों से पूछा है कि—कुछ लोग कम समय में जेट विमान द्वारा जल्दी अटलांटिक पार करलें इस सुविधा के लिए करोड़ों लोगों की नींद जेट की भयंकर ध्वनि के कारण क्यों बिगाड़ी जा रही है?

अमेरिका में यान्त्रिक विकास सबसे अधिक है। वहां के 45 लाख कारखाना मजदूरों में से दस लाख के कान खराब पाये गये। इंग्लैंड में बड़े नगरों के सर्वेक्षण की रिपोर्ट है कि वहां एक तिहाई स्त्रियां और एक चौथाई पुरुष न्यूरोसिस (अर्ध विक्षिप्तता) के शिकार बने हुए हैं। फ्रांस की औद्योगिक बस्तियों के पागलखाने बताते हैं कि हर पांच पीछे एक पागल कोलाहल की उत्तेजना से अपना दिमाग खो बैठा है। पूरी निद्रा न ले सकने वाले जब तेज सवारियां चलाते हैं तो सड़क दुर्घटनाओं की संख्या में बेतरह अभिवृद्धि होती है।

साइन्स डायजेस्ट के एक लेख में कुछ समय पूर्व बताया गया था कि कनाडा की मान्ट्रियल विश्व-विद्यालय में शोर के प्रभाव का चूहों पर परीक्षण किया गया। कोलाहल में रहने के कारण उन सभी के स्नायु संस्थान गड़बड़ा गये। शोधकर्त्ताओं का कथन है कि ऐसे उत्तेजित वातावरण के कारण मनुष्यों को अक्सर, ग्रन्थि-क्षय गुर्दे की खराबी, हृदय की धड़कन जैसी बीमारियां हो सकती हैं। कोलाहल से प्रभावित रोगियों की चिकित्सा में संलग्न डॉक्टर सेक्युएल रोजेन का कथन है हम कोलाहल को क्षमा कर सकते हैं, पर कोलाहल हमें कभी क्षमा नहीं करता। उसके सम्पर्क में आकर हमें बहुत कुछ खोना पड़ता है।’’

शोर विशेषज्ञ उस रोजेन ने अपने विषय की शोध के सिलसिले में सूडान (अफ्रीका) का भी दौरा किया और वे ‘माबान’ कबीले के ऐसे लोगों के साथ रहे जिन्हें गाजे-बाजे तक का शौक नहीं था और शान्ति प्रिय वातावरण में रहने के आदी थे, उनमें से एक भी रक्त-चाप, हृदय रोग, अनिद्रा सरीखी बीमारियों का मरीज नहीं था। रूस के 85 वर्षीय नागरिकों की इतनी श्रवण-शक्ति पाई गई जितनी कि औसत 65 वर्ष के अमेरिकी की होती है। इसका कारण वातावरण में शोर की न्यूनाधिकता ही है। डा. रोजेन के प्रयोगों से शोर में रहने वाली चुहिया के बच्चे अधूरे और अस्त-व्यस्त जन्मे और चूहों में से 80 प्रतिशत नसों की ऐंठन के शिकार हो गये।

संसार में आजकल लगभग 20 करोड़ से अधिक मोटरें दौड़ती हैं। ब्रिटेन के अर्थशास्त्री वार्वरा वार्ड का कथन है कि शहरों की असली निवासिनी यह कारें ही है और वे परमाणु बमों जितनी ही भयावह हैं अन्तर इतना ही है कि बम तुरन्त मार डालते हैं और ये रगड़-रगड़ कर मारती है।

हवाई जहाज इस संकट को बढ़ाने में सबसे आगे हैं। अमेरिका के सुपर मगनक सैनिक जैट जहाज से उठने वाली ध्वनि तरंगों से केन्योन की कुछ प्राचीन गुफायें दरार देकर मुंह फाड़ गईं। उन विमानों की ध्वनि तरंगें 50 मील का क्षेत्र प्रभावित करती चलती हैं। प्रभाव लगभग बिजली गिरने जैसी प्रतिक्रिया पैदा करता है। ब्रिटेन और फ्रांस के सहयोग से बने कनवार्ड जैट की ध्वनि तरंगों से लन्दन के सेन्ट पाल गिरजे को तथा पार्लमेन्ट भवन को खतरा उत्पन्न हो गया तो उसकी उड़ाने रोकी गईं। वैज्ञानिकों ने आगाह किया था कि इस विमान के रास्ते में 100 मील तक के दोनों ओर हृदय रोगियों का जीवन संकट में पड़ जायगा। समय-समय पर कोलाहल की वृद्धि के खतरे के सम्बन्ध में अन्य विशेषज्ञ भी चेतावनी देते रहे हैं। कैलीफोर्निया विश्व-विद्यालय के विज्ञान अधिकारी डॉक्टर वर्न नुडसन ने कहा है कि—जिस गति से आकाश में शोर बढ़ रहा है उसी तरह बढ़ता रहा तो कुछ ही समय में संक्रामक और संघात्मक रोग के कारणों में एक और नया आधार ‘शोर’ जुड़ जायगा। वह विषाक्त वायु की तरह ही प्राणघातक सिद्ध होगा। अमेरिका के चिकित्सक संघ के अधिकारी डॉक्टर गेराल्ड डोर मेन ने चेतावनी दी है कि—जहरीली गैसों की तरह ही कोलाहल हमारे वातावरण को विषाक्त करता चला जा रहा है। इससे जल, वायु, वनस्पति, जमीन और प्राणियों का बुरी तरह विनाश होगा। जीवाणुवेत्ता नौविल पुरस्कार विजेता डा. राबर्ट क्रोच ने कहा है कि—अगले दिनों हमें स्वास्थ्य के निर्मम शत्रु ‘कोलाहल’ से भी जूझना पड़ेगा। उसे परास्त किये बिना मनुष्य का जीवन संकट में पड़ जायगा। डॉक्टर रोस युए, डॉक्टर मार्क्सजान्सन, डॉक्टर लीस्टर सोन्टांग प्रभृति वैज्ञानिकों ने भी ऐसी ही चेतावनियां दी हैं। मेम्फिक विश्व-विद्यालय के शोधकर्मी जेम्स फ्लूगार्थ ने तो यहां तक कहा है कि शोर की वर्तमान अभिवृद्धि अगले दिनों वधिरों की ऐसी पीड़ी पैदा करेगी जो तीस वर्ष के होते-होते आधी श्रवण शक्ति खो बैठेगी।

कोलाहल का अन्य प्राणियों पर क्या असर होता है इसका पता लगाने के लिए किये गये अनेक प्रयोगों में से एक कैलीफोर्निया की जीवन अनुसन्धान संस्था द्वारा शार्क मछलियों पर किया गया था। संस्था के निर्देशक थियोब्राडन ने बताया कि पानी में लाउडस्पीकरों के द्वारा तेज आवाजें दौड़ाई गईं तो मछलियां उसे सुनकर आतंकित और विक्षिप्त हो उठीं। वे एक दूसरे को इसका कारण समझ कर आपस में हमला करने लगीं और जब ध्वनि उन्हें असह्य हो गई तो चट्टानों से सिर पटक कर आत्म-हत्या कर बैठीं। ऐसे ही प्रयोग फ्रांसीसी कौलीनीशिया केरिगिरोजा एटौस में भी किये गये। उनका भी निष्कर्ष यही था कि जल जीव असाधारण कोलाहल के बीच सामान्य जीवन नहीं बिता सकते।

मोटरों की—कारखानों की लाउडस्पीकरों की चिल्लियां शहरों को ऐसे शोरगुल से भरती जा रही हैं जिसके परिणाम से, इण्डियन काउन्सिल आफ मेडीकल रिसर्च के कथनानुसार, लोग धीरे-धीरे बहरे होते चले जायेंगे। उनके मानसिक स्नायविक और हृदय सम्बन्धी रोग बढ़ सकते हैं।

यन्त्रीकरण के कारण आज जन-जीवन में शोर का जो दबाव पड़ रहा है, उसकी सियेना विश्व-विद्यालय इटली के इन्स्टीट्यूट आफ हाइजिनके प्रोफेसर टिजानो ने विस्तृत व्याख्या की है। शोर के प्राण-शास्त्रीय प्रभाव का उन्होंने बहुत आवश्यक विवेचन और लोगों को सावधान किया है कि यदि आज के यान्त्रिक मनुष्य ने एकान्त शान्ति की व्यवस्था न की तो उसका भावी प्रजा पर बुरा प्रभाव पड़ेगा। बड़ी चिड़चिड़ी, क्रोधी, अशिष्ट, फूहड़ और दुराचारी आत्मायें जन्म लेंगी या यों कह सकते हैं कि इस दुष्प्रभाव के कारण आने वाली पीढ़ी में इन दुर्गुणों का स्वयमेव विकास होता जायेगा।

उनका कहना है—‘‘यही नहीं कि शोर केवल श्रवण यन्त्रों को ही खराब करते हैं, वरन् मस्तिष्क जिससे सारे शरीर का क्रिया-व्यापार चलता है, प्रभावित होता है। उसका ही परिणाम है कि लोगों की कार्यक्षमता तेजी से घट रही है। स्नायविक तनाव और रक्त-चाप बढ़ रहा है।’’

उन्होंने कई औद्योगिक प्रतिष्ठानों के श्रमिकों का मानसिक अध्ययन किया और यह निष्कर्ष पाया कि मिल, कारखानों में काम करने वाला प्रत्येक मजदूर जब प्रातःकाल सोकर उठता है तो काम में कठिनाई अनुभव करता है। उसके कानों में 20 मिनट तक भनभनाहट गूंजती रहती है। मानसिक और शारीरिक थकान अनुभव होती है। उसे लगता है मस्तिष्क में कुछ भर गया है। कुछ दिन में यद्यपि वह अभ्यास में आ जाता है, किन्तु श्रवण प्रणाली को क्रमिक क्षति पहुंचती रहती है। मानसिक उद्वेग के कारण पारिवारिक झंझट, क्लेश, चिन्ता और वासनायें भड़कती हैं। फिर वह शान्ति की खोज के लिए भटकता है, पर जो साधन हाथ लगते हैं, जैसे सिनेमा, शराब, सम्भोग वह और भी उसकी दुर्दशा करने वाले सिद्ध होते हैं।

जिन शहरों में यान्त्रिक शोर की अधिकता होती है, वहां श्रवण-शक्ति की कमजोरी और इस तरह से व्यग्र व्यक्तियों की अधिकता होती है। वहां अपराध भी बहुत अधिक होते हैं क्योंकि आत्म-शान्ति के लिए जिस कोलाहल से उन्मुक्त वातावरण की आवश्यकता होती है, वह उन्हें बिल्कुल नहीं मिल पाता। कुछ बड़े आदमियों के बंगले और बगीचे ऐसे होते हैं कि वे कुछ समय एकान्त का लाभ पा लेते हैं और अपनी कार्यक्षमता और स्नायविक तेजस्विता को बनाये रखते हैं, पर मानसिक प्रभाव से वे भी मुक्त नहीं रह सकते, क्योंकि ध्वनि तरंगों की तरह यह शोरगुल भी महापुरुषों के मुख-मण्डल पर व्याप्त औरा की तरह उस शहर के बाहरी क्षेत्र तक को भी कई-कई मील तक प्रभावित किये रहता है।

ऐसी अवस्था में उस युग की याद आती है, जब लोगों की जीवन व्यवस्था ऐसी रहती थी कि कुछ समय एकान्त सेवन के लिए निकल आता था। ऐसे पीठ संस्थान तथा क्षेत्र होते थे, जहां जाकर लोग कम से कम जीवन के अन्तिम चरण में तो मुक्त चिन्तन और आत्म-शान्ति पाते थे। आज उसकी सर्वाधिक आवश्यकता अनुभव हो रही है। विद्यालय और शिक्षण संस्थानों को तो शहर से हटा कर वन्य-प्रदेशों में रखना ही चाहिए साथ ही कुछ क्षण निकाल कर ऐसे स्थानों की यात्रा भी करनी चाहिए, जहां कुछ समय मानसिक शान्ति पाई जा सके। तीर्थ-यात्रा का यह महत्व अब पहले की अपेक्षा बहुत अधिक है, यदि ऐसे सुरम्य और सुरक्षित एकान्त स्थान उपलब्ध हो सकें।

ऐसे स्थानों में हिमालय के उत्तराखण्ड भाग का महत्व सर्वाधिक है। यह आदिकाल से भारतवर्ष की साधना स्थली रही है। ऋषि-महर्षियों से लेकर अनेक साधु वानप्रस्थों ने यहां आकर तपस्यायें की और साधना के तेजस्वी कण बिखेरे। उनका लाभ वहां पहुंचने वाले को अनायास ही मिल जाता है।

प्राकृतिक दृष्टि से यह स्थान अत्यन्त शीतल, सुरम्य और मनोहर दृश्यों से परिपूर्ण है। यही एक स्थान ऐसा शेष बचा है, जो अभी तक जन कोलाहल से पर्याप्त अंश में बचा हुआ है। दूसरे वहां पर उठने वाली युग-युगान्तरों की प्रबल आध्यात्मिक विचार तरंगें, इतनी शक्तिशाली हैं कि वे बाहर से पहुंचने वाले शोर और ध्वनि तरंगों को दबा देती हैं और अपने प्रभाव को बनाये रखती हैं यही कारण है कि यहां मानव मन को असीम शान्ति मिलती है।

वातावरण का कोलाहल असंदिग्ध रूप से मनुष्य के लिए अत्यन्त हानिकारक है। उसमें निवास करते हुए मात्र पौष्टिक आहार-विहार के अथवा दवादारू के आधार पर सामान्य स्वास्थ्य संरक्षण भी सम्भव नहीं हो सकता है। जिन्हें धन ही सब कुछ प्रतीत होता है वे भले ही घने शहरों में या गहरे समुद्रों में रहें, पर जिन्हें जीवन की समस्वरता से प्यार है उन्हें अपना निवास प्रकृति के सान्निध्य में—शान्त वातावरण में व्यतीत करना चाहिए। कोलाहल किसी को सह्य अथवा प्रिय ही क्यों न प्रतीत होता हो, पर वस्तुतः उसकी विषाक्तता इतनी घातक है कि उसके दुष्परिणामों से बचा नहीं जा सकता।

ठीक इसी प्रकार मानसिक उद्विग्नता का बुरा प्रभाव भुगतना पड़ता है। चिन्ता, भय, आशंका, निराशा, क्रोध, आवेश, ईर्ष्या, ललक, लिप्सा का कोलाहल जिनके मन मस्तिष्क में निरन्तर उद्विग्नता पैदा करता रहता है उन्हें चैन की—शान्ति और सन्तोष की सुखद घड़ियां कदाचित ही मिल सकें। वातावरण का कोलाहल शरीर और मन को विक्षुब्ध करता है। चिन्तन क्षेत्र का कोलाहल शरीर और मन को विक्षुब्ध करता है। चिन्तन क्षेत्र का कोलाहल मनुष्य को एक प्रकार से विक्षिप्त ही बनाकर रख देता है। ऐसा जीवन जीकर भला क्या कोई सुखी रह सकता है।

इस बढ़ते हुए कोलाहल के विरुद्ध सजग जन-समाज द्वारा आवाज भी उठाई जा रही है। अमेरिका में जन स्तर पर इसके लिए आन्दोलन भी खड़ा हुआ है। न्यूयार्क के कोलाहल निवारक आन्दोलन भी के अध्यक्ष श्री एलेक्स वैरन का कथन है कि—जनता को कोलाहल से होने वाली हानियों की यदि पूरी जानकारी मिल जाय तो वह सरकार पर वैसा ही दबाव डालेगी जैसा कि बुरे से बुरे संकट के निवारण के लिए डाला जाता है।

इस संकट से सरकारें भी परिचित हैं और वे उससे बचने के लिए कुछ उपकरण बनाने की—कुछ बन्धन प्रतिबन्ध लगाने की तैयारी कर रही हैं। कई देशों में ऐसा कुछ-कुछ हो भी रहा है। कितने ही देशों में जन-स्तर पर इसके लिए आन्दोलन खड़े किये गये हैं और शोर करने वालों पर प्रतिबन्ध लगाने तथा सर्वसाधारण को इस सन्दर्भ में प्रशिक्षित करने में यह आन्दोलन अपने ढंग से कुछ-कुछ कर भी रहे हैं।

सरकारी स्तर पर—जन-स्तर पर कोलाहल के समाधान के लिए प्रयत्न होने ही चाहिए। पर साथ ही व्यक्तिगत रूप से भी इस सन्दर्भ में ध्यान दिया जाना चाहिए। हमें यह समझ कर चलना चाहिए कि औद्योगिक प्रगति के नाम पर अन्धाधुन्ध बढ़ते चले जा रहे कल-कारखानों की आगे वृद्धि ही होगी। सम्पन्नता के साथ-साथ मोटरें, रेलें भी बढ़ेंगी। छोटी मोटर बनने वाली है, अनुमान है कि इसके बनते ही मोटरों की संख्या में भारी वृद्धि होगी। सिनेमा, लाउडस्पीकर अपनी गतिविधियां कब कम करने वाले हैं। जनसंख्या की वृद्धि रुक नहीं रही है, फलतः कारखाने यातायात के साथ यह भाग-दौड़ का बढ़ना भी स्वाभाविक है। अब उसका परिणाम कोलाहलों की अधिकाधिक वृद्धि के रूप में ही सामने आयेगा और आज के बड़े नगर कल सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए संकट बन कर उभरेंगे।

बढ़ती हुई आबादी अब बड़े शहरों की ओर भाग रही है। देखने में चुहल-चपाटा, मनोरंजन के साधन तथा सुविधा सामग्री गांवों की अपेक्षा शहरों में अधिक है। वहां पैसा भी आसानी से और अधिक कमाया जा सकता है, उपभोग की आकर्षक वस्तुएं भी वहां अधिक मिल जाती हैं। ऐसी सुविधाओं का गांवों में अभाव अनुभव किया जाता है। अस्तु शहरों की—उनके आस-पास के इलाकों की आबादी हर जगह तेजी से बढ़ रही है। छोटे गांव कस्बे बन रहे हैं और कस्बे, शहरों में परिणत हो चले हैं। शहरों में खचाखच भरी हुई आबादी के निर्वाह एवं यातायात के लिए स्वभावतः कितने ही छोटे-बड़े कारखाने बनते हैं। बड़े उद्योगों की स्थापना भी उसी क्षेत्र में अधिक होती है। इस घचापच से कितनी ही ऐसी व्यवस्थाएं चल पड़ती हैं जो हवा और पानी जैसे जीवन धारण के लिए आवश्यक तत्वों को विषाक्त करती है। कोलाहल भी कम घातक नहीं है। इन सबका सम्मिश्रित परिणाम मनुष्य जाति के सामने भयंकर स्वास्थ्य संकट उत्पन्न करता चला जा रहा है। स्थिति यही बनी रही तो दम घुटने से एवं विषाक्त अन्न, जल के कारण दुर्बलता तथा रुग्णताजन्य विभीषिकाएं मनुष्य को अकाल मृत्यु के मुख में धकेल देंगी।

परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए शहरों से पीछे हटकर देहातों में बसने की बात सोचनी चाहिए। अधिक कमाई- अधिक चमकीले चकाचौंध के आकर्षण में अपना शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य गंवा बैठना न बुद्धिमानी है न दूर-दर्शिता।

प्राचीन काल में इस संकट को भली-भांति समझा गया था इसलिए उस जमाने में शिक्षण संस्थाएं, शोध संस्थान, चिकित्सा केन्द्र, साधना स्थल, सुदूर देहातों में एकान्त एवं वन्य प्रदेशों में बनाये गये थे। जिसमें कोलाहल रहित वातावरण में शान्त सन्तुलित, स्वस्थ, सुखी और सुन्दर जीवन जिया जा सके, हमारे लिए भी उसी राह को अपनाना श्रेयस्कर होगा।
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