विज्ञान को शैतान बनने से रोकें

रोगों की जड़े काटी जायें पत्ते नहीं

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स्वास्थ्य संरक्षण का सीधा और सरल उपाय यह है कि आहार-विहार को संयत रखा जाय। मस्तिष्क को सन्तुलित रखा जाय और पाप कर्मों से बचा जाय। सौम्य सरल और हंसी-खुशी का निर्मल निश्छल जीवन निरोग भी रहता है और लम्बी आयुष्य भी प्राप्त करता है। इसके विपरीत आचरण करने पर प्रकृति समुचित दण्ड देती है और प्रतिशोध लेती है। उसके कानूनों का—मर्यादाओं का उल्लंघन करके कोई चैन से नहीं बैठ सकता, वेदाग नहीं छूट सकता। दुर्बलता और अस्वस्थता वे दण्ड हैं जो प्रकृति के नियमों को तोड़कर उच्छृंखलता की रीति-नीति अपनाने के कारण हमें बरबस भुगतने पड़ते हैं।

जिन्हें रोगों का भय है उन्हें चाहिए कि पहले से ही सावधानी बरतें और ऐसी रीति-नीति न अपनायें जिससे बीमार होना पड़े। यह सुरक्षा बहुत ही सरल है। प्रकृति के सम्पर्क में रहने वाले पशु-पक्षी कहां बीमार पड़ते हैं। बीमारी तो उद्धत आचरण करने वाले—और तरह-तरह की कृत्रिमताएं अपनाने वाले मनुष्य के हिस्से में आई हैं। अथवा उन निरीह पशु-पक्षियों को यह रुग्णता का उपहार मिला है जो मनुष्य के पालतू बन गये हैं और जिन्हें अपनी स्वाभाविक जीवन परम्परा छोड़कर उसकी मर्जी पर निर्वाह करना पड़ रहा है।

रोग होने पर प्रकृति की सहायता के लिए उपवास, विश्राम, अधिक जल सेवन, स्वच्छता जैसी व्यवस्था बनानी चाहिए और औषधियों की जरूरत पड़े तो वनस्पतियों से विनिर्मित इस स्तर की लेनी चाहिए जिनमें शामक गुण तो हों, पर मारक तत्व न हो। पर विज्ञान की उपलब्धियों के आवेश में प्रकृति को चुनौती देकर चिकित्सा की ऐसी अद्भुत प्रणाली अपनाई जा रही है जो ‘मर्ज को मारने के साथ-साथ मरीज को भी मारने’ की उक्ति चरितार्थ कर रही है। ऐलोपैथिक चिकित्सा पद्धति में रोगाणुओं को मारने के लिए ऐसी मारक एवं विषाक्त औषधियों का आविष्कार किया जा रहा है जो तत्काल तो थोड़ा चमत्कार दिशा देती हैं और रोगी को लगता है तुरन्त फायदा हुआ। पर उस थोड़ी देर के थोड़े लाभ के फलस्वरूप पीछे कितनी हानि उठानी पड़ती है और जीवनी शक्ति का कितना ह्रास होता है इसकी हानि का कुछ अनुमान नहीं लगाया जाता। कुनैन जैसी औषधियां तुरन्त बुखार भगाने का चमत्कार दिखाती हैं, पर पीछे कान बहरे हो जाने जैसे अनेक ऐसे उपद्रव उठ खड़े होते हैं जिनसे छुटकारा पाने में वर्षों लगते हैं।

आवश्यकता इस बात की है कि वर्तमान चिकित्सा पद्धतियों के गुण दोषों का गहराई तक विवेचन किया जाय और रोग के सामयिक समाधान के साथ-साथ इस बात का भी ध्यान रखा जाय कि उस जल्दबाजी में ऐसा तरीका न अपनाया जाय जो रोगी को आजीवन संकटग्रस्त बनादे। इस सन्दर्भ में ऐलोपैथिक चिकित्सा की उपयोगिता संदिग्ध होती चली जा रही है और उसी वर्ग के प्रख्यात चिकित्सक चौंका देने वाली आलोचना कर रहे हैं।

रसायन शास्त्र की शोध पर नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले डॉक्टर लुई पोलिंग ने कैलिफोर्निया विश्व-विद्यालय में एक भाषण देते हुए कहा था—‘मनुष्य के निरोधक और विधायक जीवाणु अपनी क्षति और आवश्यकता की पूर्ति स्वयं करते रहते हैं। यदि मनुष्य व्यसन और असंयम से बचते हुए प्राकृतिक जीवन जिये तो निस्सन्देह लम्बी और निरोग जिन्दगी जी सकता है। तब न उसे रोगी बनना पड़ेगा न चिकित्सा की जरूरत रहेगी।’

कर्निल युनिवर्सिटी आफ अमेरिका में दीर्घजीवन सम्बन्धी प्रयोगों से यह सिद्ध हुआ है कि यदि व्यक्ति अपने आहार की मात्रा घटा दे और सीधा-सादा सुपाच्य भोजन करे तथा संयमित दिनचर्या के साथ हंसी-खुशी की जिन्दगी बिताये तो वह बिना अधिक प्रयत्न के लम्बा और निरोग जीवन जी सकता है।

एकेडमी आफ मेडीशन के वैज्ञानिकों का एक संयुक्त वक्तव्य कुछ दिन पूर्व न्यूयार्क टाइम्स में छपा था जिसमें कहा गया था कि—कम भोजन से नहीं, वरन् अधिकांश लोग अधिक भोजन करने के कारण बीमार पड़ते हैं। उत्तेजक पदार्थों का सेवन अस्वस्थता का सबसे बड़ा कारण है। यदि लोग सादा और सरल जीवन बितायें तो उन्हें तीन चौथाई बीमारियों से स्वयमेव छुटकारा मिल जाय। साठ वर्ष से अधिक आयु के लोगों को बुढ़ापे के कारण जिन शारीरिक कष्टों से पीड़ित रहना पड़ता है उसका कारण वृद्धावस्था नहीं, वरन् पिछले दिनों का अनियमित एवं अव्यवस्थित जीवन ही मुख्य कारण होता है। स्विट्जरलैंड के प्रसिद्ध डा. कोरेंजेस्की का कथन है ढलती आयु का कष्ट कर होना युवावस्था के असंयम का परिणाम है अन्यथा पके हुए फल की तरह वृद्धावस्था अधिक मधुर और सरस होनी चाहिए। आक्सफोर्ड और डवलिन में स्वास्थ्य के रहस्य बताते हुए भी उन्होंने यही कहा—आवेशग्रस्त अशान्त मनोभूमि और उत्तेजक आहार ही हमारी आयु घटते जाने का एकमात्र कारण है।

लन्दन टाइम्स के मतानुसार उस देश में पुरानी खांसी, फेफड़े का केन्सर हृदय रोग और मस्तिष्कीय तनाव की बीमारियां बहुत तेजी से बढ़ रही हैं इसका कारण पौष्टिक पदार्थों का अभाव नहीं, वरन् कृत्रिम जीवन और दवाओं की बढ़ती हुई निर्भरता ही पाया गया है।

अमेरिका की फिशर साइन्टिफिक कम्पनी द्वारा प्रकाशित ‘लेबोरेटरी’ पत्रिका के लेख में विस्तार से यह बताया गया है कि बीमारों के शरीर में हानिकारक कीटाणु मात्र एक प्रतिशत होते हैं। उन्हें ही सब कुछ मानकर 99 प्रतिशत स्वस्थ कीटाणुओं का लाभ लेने से इन मारक दवाओं के कारण वंचित हो जाना कहां की बुद्धिमानी है। विश्व विख्यात सुप्रसिद्ध चिकित्सा विज्ञानी डॉक्टर जोशिया ओलफील्ड ने अपने ग्रन्थ दुःख दर्द पर चिकित्सा और विजय (हैलिंग एण्ड कान्कउ आफ पेन) में लिखा है—ऐलोपैथिक पद्धति की अपेक्षा पुरानी चिकित्सा पद्धतियों का दृष्टिकोण तथा आधार अधिक स्पष्ट है। आधुनिक चिकित्सा पद्धति से रोगों के लक्षण दबते, बदलते, पुराने होते और असाध्य बनते जाते हैं। इससे मात्र नई शोधों, नई दवाओं और नये सिद्धान्तों के गढ़ने में माथापच्ची करने मात्र का द्वार खुलता है। रोग निरोध के नाम पर रक्त में नकली बीमारी पैदा करदी जाती है, जिसे देखकर असली बीमारी के चले जाने का धोखा भर हो जाय।

अनेक रोगों के अनेक रोग कीटाणु प्रथक-प्रथक होते हैं और उनके निवारण के लिए प्रथक-प्रथक दवाएं होनी चाहिए आज के चिकित्सा शास्त्री यह मानकर चलते हैं, पर यदि गहराई से शोध की जाय तो पता चलेगा कि अपच एक ही रोग है और उसी की विकृतियां प्रकारान्तर से भिन्न-भिन्न आकार प्रकार के रोग कीटाणुओं के रूप में दिखाई देतीं तथा बदलती रहती हैं। जीवाणु विशेषज्ञ डॉक्टर जे.ई. मेकडोनाफ ने बताया है—रोगों का मूल स्रोत आंतों में है। बिना पचा और विकृत आहार वहां पड़ा सड़ता रहता है और उस सड़न से उत्पन्न हुए कृमि अनेक प्रकार के रंग रूप आकार-प्रकार बदलते रहते हैं। वस्तुतः वे सब एक ही पेड़ के प्रथक दीखने वाले पत्ते मात्र हैं। अतएव पत्ते काटने की अपेक्षा रोगों की जड़ काटने की बात सोची जाये तो ही स्वास्थ्य रक्षा सम्भव होगी।

औषधियों की दासता और उसके दुष्परिणाम

गैरहार्ड डोमाक ने सन् 1932 में ‘सल्फा ड्रग’ जाति की औषधियों की एक श्रृंखला प्रस्तुत की। उन दिनों यह आविष्कार बहुत उपयोगी माना गया। इसके बाद भी उस दिशा में खोजें जारी रहीं और अधिक शक्तिशाली एण्टीबायोटिक्स जाति की औषधियां सामने आईं।

एन्टीबायोटिक्स जीवित कोषों में उत्पन्न होने वाले रासायनिक पदार्थ हैं, जो शरीर में घुसे हुए विषाणुओं का संहार करते हैं और बढ़ती हुई विपत्ति को रोकते हैं। इस वर्ग की औषधियां प्रायः सीजो माइटीस एक्टीनो, माइसीटीज मोल्ड जाति के पौधों से भी विनिर्मित होती हैं। इसी वर्ग की एक औषधि ‘पेनिसिलीन’ प्रकाश में आई। यह फफूंदी से विनिर्मित होती है। इसके बाद इसी जाति की और भी प्रभावशाली औषधियां बनाई गईं। स्ट्रैप्टोमाइसीन, क्लोरों माइसिटीन, टेट्रा साइकिलीन, ओरिया माइसीन, एकरो माइसीन, लीडर माइसीन, टेरा माइसीन, सिनर माइसीन, टेट्रा माइसीन, होस्टाड साइकिलीन आदि औषधियों का आविष्कार हुआ। यह विभिन्न जाति के विषाणुओं पर अपने-अपने प्रभाव दिखाने में बहुत प्रख्यात हुई हैं। इनका प्रयोग कई रूपों में होता है, केपस्यूल, ड्राप्स, सिरप, टेबलेट, ट्राची, स्पर सायड मरहम सस्पेनशन्, इण्ट्रा मस्कुलर और इन्ट्राबीनसे इन्जेक्शन इनमें मुख्य हैं।

इन औषधियों के प्रयोग से जो कत्लेआम मचता है उनसे रोगकीट मरते हैं और बीमारी का बढ़ा-चढ़ा उपद्रव घट जाता है। इस चमत्कारी लाभ से सभी प्रसन्न हैं। रोगी इसलिए कि उसका बढ़ा कष्ट घटा। डॉक्टर इसलिए कि उन्हें श्रेय मिला। विक्रेता इसलिए कि उन्हें धन मिला। निर्माता इसलिए कि उन्हें यश मिला। रोग भी प्रसन्न है कि हमारा कुछ नहीं बिगड़ा। हम जहां के तहां बने रहे और अपना विस्तार करने के लिए उन्मुक्त क्षेत्र पाते रहे। लाभ वस्तुतः रोग कीटकों के मरने का नहीं, वरन् स्वस्थ कणों के दुर्बल हो जाने के कारण जो संघर्ष चल रहा था वह शिथिल पड़ जाने के कारण मिलता है। यह तत्काल का लाभ पीछे स्वास्थ्य की जड़ें ही खोखली कर देता है फलतः नित नये रोगों का घर रोगी का शरीर बन जाता है।

बी.सी.जी. के विशेषज्ञ डा. नोवेल इरविन ने अपनी पुस्तकें ‘बी.सी. वोक्सिनशन थ्योरी एण्ड प्रेक्टिस में इस टीके से उत्पन्न होने वाली हानिकारक प्रतिक्रियाओं तथा उससे उत्पन्न होने वाली बीमारियों का विस्तारपूर्वक वर्णन और भाण्डाफोड़ किया है। उस पुस्तक के पढ़ने से उस माहात्म्य पर पानी फिर जाता है जो इन दिनों वी.सी.जी. टीके लगाकर तपैदिक की रोकथाम के बारे में बताये जाते हैं।’

जो देश इन मारक औषधियों में जितने अग्रगामी हैं वे स्वास्थ्य की दृष्टि से उतने ही दुर्बल होते जा रहे हैं। एक के बाद एक रोग की फसल उनके पूरे समाज में उगती कटती रहती है। इंग्लैंड में इन दिनों खांसी की फसल पूरे जोश पर है यद्यपि उसकी निवारक औषधियों की भी भरमार है।

ब्रिटेन में खांसी एक बहुप्रचलित रोग बन गया है। ‘प्रेक्टीश्नर’ पत्रिका के अनुसार संसार का सबसे अधिक खांसी ग्रस्त देश ब्रिटेन है जहां व्रोकाहिस के रोगी सभी अस्पतालों में सबसे अधिक इलाज कराने आते हैं। उस देश में दस लाख पीछे 559 व्यक्ति इसी रोग से मृत्यु को प्राप्त होते हैं। बीमा कम्पनियों को इस रोग के रोगियों को 70 लाख पौंड का भुगतान करना पड़ता है।

भोजन पचाने के लिए आमाशय से जो रस निकलते हैं, उन्हें एन्जाइम्स कहा जाता है। यह कई प्रकार के होते हैं। इनमें पेप्सिन, ट्रिप्सिन, अमाइलेज आदि मुख्य हैं। जब इन स्रावों की कमी हो जाती है तो अपच की शिकायत पैदा होती है और गैस बनने लगती है। आंतों में कुछ खास किस्म के बैक्टीरिया जीवाणु होते हैं जो भोजन पचाने में सहायता करते हैं। लम्बे समय तक एन्टीबायोटिक दवाएं खाने से दूसरे कारणों से जब इनमें कमी पड़ जाती है तो भी अपच के साथ-साथ गैस की शिकायत रहने लगती है। कई अन्य विषैले दृश्य या अदृश्य हुक बार्म, जियारडिया कीड़े भी पानी के साथ पेट में पहुंच जाते हैं और वहां कई प्रकार की गड़बड़ी पैदा करते हैं।

कारबोहाईड्रेट पदार्थ का जब फारमन्टटेशन ठीक प्रकार नहीं होता तो भी अपच की शिकायत रहने लगती है।

सिरदर्द क्यों होता है इसके मोटे कारण कितने ही गिनाये और बताये जाते हैं। तथा, बदहजमी, रक्त-चाप, स्नायु दौर्बल्य, मानसिक तनाव, चोट या व्रण, सर्दी-गर्मी का प्रकोप आदि। भूखे रहने, अधिक खाने, कम सोने, अधिक श्रम करने, नशेबाजी, भय, चिन्ता, आशंका, क्रोध जैसे मनोविकार आदि। चिड़चिड़े, क्रोधी और आवेशग्रस्त व्यक्तियों को अक्सर सिरदर्द रहता है।

डाक्टरों के पास इसके गिने गिनाये उपचार हैं। बदहजमी, गैस बनने जैसे कारणों का अनुमान लगाकर कैस्टोफीन जैसी कोई हलके जुलाब की दवा दे देते हैं। एस्प्रीन जैसी शामक औषधि से भी तत्काल कुछ राहत मिलती है। शरीर में ‘हिस्टेमाइन’ नामक विष की अधिकता हो जाने पर ‘विषस्य विष मौषधम्’ के सिद्धान्तानुसार उसी विष को इन्जेक्शन द्वारा और भी रक्त में प्रवेश करा देते हैं। यह सभी सामयिक उपचार हैं। तत्काल कुछ राहत मिल सकती है, पर जड़ कटने की आशा नहीं की जा सकती। एक जर्मन औषण निर्माता ने ‘‘थैलिडोमाइड’’ नामक अनिद्रा नाशक चमत्कारी औषधि बनाई। कुछ ही दिनों में उसकी लोकप्रियता आकाश चूमने लगी, पर पीछे पता चला कि वह गर्भस्थ शिशुओं पर घातक असर डालती है। उसके कारण एक लाख से अधिक बच्चे जन्म से पूर्व अथवा जन्म के बाद काल के गाल में चले गये, जो बच गये अपंग होकर जिये।

पोलियो का इन्जेक्शन बनाने के लिए टोरोन्टो (कनाडा) यूनिवर्सिटी की प्रयोगशाला में लगभग 28 हजार बन्दरों का प्रयोग किया गया। उनके भूत्र पिण्डों से डा. साल्फ द्वारा अनेक रासायनिक क्रियाओं द्वारा जो आविष्कार किया जाना था उसका विज्ञापन तो बहुत हुआ, पर काम की चीज कुछ हाथ न लगी। इससे पहले डा. लेण्डस्टीनर और पोपर भी रक्त जल—सीरम द्वारा ऐसे ही प्रयोग कर चुके थे। इसके बाद घोड़े चिंपैंजी और मुर्गी के बच्चे पर प्रयोग करके ऐसी चेष्टा की गई कि पोलियो का कोई कारगर इन्जेक्शन निकल आवे। फल तो कुछ न निकला, बेचारे निरीह जीवों की निरीह हत्याओं से मनुष्यता कलंकित जरूर होती रही।

डॉक्टर मेलविल कीथ की पुस्तक ‘नरक जाने का रास्ता’ पुस्तक में प्रमाणों सहित इस सम्भावना का प्रतिपादन किया है कि पीड़ी-दर-पीड़ी हम अधिक अविकसित, पंगी, अन्धी, गूंगी, बहरी, नपुंसक और विकृत मस्तिष्क सन्तानें पैदा करते चले जायेंगे। सौ वर्ष बाद हमारे वंशजों की आकृति, प्रकृति और शारीरिक, मानसिक स्थिति कितनी भयावह होगी आज हम उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। क्योंकि आज हम जो खाते, पीते हैं तथा जिस वायु में सांस लेते हैं वह क्रमशः अधिकाधिक विषाक्त होती चली जा रही है।

इंग्लैंड में पागलखानों के अध्यक्ष डा. मार्टिन राथ ने डाक्टरी संघ द्वारा प्रकाशित ब्रिटिश मेडीकल जर्नल में एक लेख लिखकर पागलपन सम्बन्धी चिकित्सा में औषधि उपचार की असफलता स्वीकार करते हुए लिखा है—‘पागलखानों में प्रायः ऐसे ही दिन काटने पड़ेंगे क्योंकि हमारे पास उनकी बीमारी का कोई समुचित इलाज नहीं है।

फ्रांस के डॉक्टर ई. वाल्टेयर ने ऐलोपैथी के सबसे तेज विष—‘सबसे अच्छी दवा’ के सिद्धान्त पर करोड़ व्यंग किये हैं। डा. डबल्यू. एच. ह्वाइट के ऐलेपैथी चिकित्सा विज्ञान के मूल-भूत सिद्धान्तों को अपूर्ण और अनुमानों के आधार पर खड़ा किया गया बताया है। हीलिंग एन्ड कान्क्वेस्ट आफ पेन के लेखक डा. जे. ओल्डफील्ड ने लिखा है। वर्तमान चिकित्सा विज्ञान अभी प्रयोग मात्र है। इसमें वैज्ञानिक अन्ध-विश्वास जैसे तथ्य भरे पड़े हैं।

गाई हास्पिटल के चिकित्साधिकारी ने अपने कटु अनुभवों का निष्कर्ष बताते हुए लिखा है—‘रोगियों में से 67 प्रतिशत का निदान गलत होता है और उनकी चिकित्सा ऐसे ही अनुमान के न आधार पर चलती रहती है। मरे हुए रोगियों का शवच्छेद करने से जो पता चलता है उससे विदित होता है कि कितने ही ऐसे हैं जिनके रोग तथा कारण को ठीक तरह समझा ही नहीं जा सका और वे बेचारे गलत इलाज के शिकार बन गये।

लन्दन के सन्डे पिक्टोरियल में ‘दूरी से मुखी’ शीर्षक से संसार प्रसिद्ध सर्जन के दुःख पूर्ण अनुभव छपे हैं कि उसने नासमझी में कितने गलत आपरेशन किये और उनसे कितनों को कितनी हानि उठानी पड़ी।

अमेरिका की चिकित्सा पत्रिका ‘जनरल आफ अमेरिकन आष्टियो पैयिक ऐसीशियेशन’ में छपे एक विवरण में कहा गया है कि—सर्जनों के द्वारा बेकार या रुग्ण समझ कर काटकर निकाल दिये गये अंगों में से 20 हजार के टुकड़ों को विशेषज्ञों द्वारा जांचा गया तो पता चला कि इनमें से अधिकांश अंग निरोग थे और उन्हें काटने की जरूरत नहीं थी। ‘अमेरिकन कालेज आफ सर्जन’ के डायरेक्टर डा. पाल हाली का कथन है कि आजकल जितने आपरेशन होते हैं उनमें से अधिकांश अकुशल डाक्टरों द्वारा अनुमान मात्र के आधार पर किये हुए होते हैं। इससे रोगियों के हित की अपेक्षा अहित ही अधिक होता है।

‘लासेन्ट’ पत्रिका में एकबार मरने वाले डाक्टरों की आयु के सम्बन्ध में एक शोध का निष्कर्ष लम्बी तालिका के रूप में छपा है, उससे पता चलता है कि डाक्टरों की औसत उम्र पचास से भी नीचे रह जाती है, जबकि अन्य धन्धे करने वाले लोग इससे कहीं अधिक जीवित रहते हैं। जो स्वयं अपना इलाज नहीं कर पा रहे, जिनकी चिकित्सा पद्धति एवं दवायें स्वयं के लिए उपयोगी सिद्ध न हो सकीं वे भला दूसरों का क्या लाभ कर सकेंगे। इस तथ्य को देखते हुए यही उचित है कि हम दवाओं के अन्ध भक्त न बनें और डाक्टरों की केवल आवश्यक सहायता ही उपलब्ध करें।

इंग्लैंड के स्वास्थ्य विशेषज्ञ जानमेशन गुड ने लिखा है—‘‘दुर्भिक्ष, युद्ध, महामारी और प्रकृति कोप से जितने लोग मरते हैं, गलत चिकित्सा के कारण उससे अधिक लोग मरा करते हैं। असंयम के कारण जितने लोग बीमार पड़ते हैं, उससे ज्यादा बीमारियां दवाएं खाते रहने के कारण उत्पन्न होती हैं।

पाश्चात्य चिकित्सा विज्ञान के अनुभवी विशेषज्ञों में से डॉक्टर हिक्सन ने (रिबोन्ट्र अगेन्स्ट डाक्टर्स) डाक्टरों के विरोध में और डॉक्टर नार्मन टार्नवा ने (मेडीकल एण्ड क्राइम) ‘डाक्टरी अन्धेर’ और पाप पुस्तकों में वर्तमान चिकित्सा पद्धति के दोषों को अधिक विस्तार के साथ बताया है। इस संदर्भ में और भी बहुत कुछ कहा गया है जिससे औषधियों की अन्धी गुलामी से हमें छुटकारा पाने के लिए सचेत होना चाहिए।

तत्काल चमत्कार दिखाने वाली दवाओं के कुछ ही समय बाद दिखाई पड़ने लगने वाले दुष्परिणामों के बारे में कितने ही शोध संस्थ्ज्ञानों ने स्पष्ट चेतावनी दी है। उनका कथन है कि—स्टैप्टो माइसिन की प्रतिक्रिया मनुष्य की दृष्टि और श्रवण शक्ति को मन्द एवं समाप्त कर सकती है। पैन्सलीन के खतरनाक परिणाम आये दिन देखने को मिलते रहते हैं। क्लोरम्पेनिकोल से अस्थि क्षय और रत्तान्मता की नई शुरुआत होते देखी गई है।

अमेरिका के सुप्रसिद्ध डॉक्टर नारमन वार्नसली एम.डी. ने एक बड़ी पुस्तक ‘डाक्टरी अन्धेर और पाप’ नामक पुस्तक में ऐसे अगणित प्रसंगों का उल्लेख किया है, जिनसे प्रतीत होता है कि ऐलोपैथी का चिकित्सा विज्ञान अभी बाल कक्षा में ही पढ़ रहा है, उसकी स्थिति अभी ऐसी नहीं, जिसका अन्धाधुन्ध और जोखिम भरा प्रयोग किया जा सके।

सतर्कता आवश्यक

महात्मा गांधी ने एक स्थान पर लिखा है—‘अस्पतालों में मुझे पाप की झांकी होती है। शरीर की खोटी सेवा के लिए हर साल लाखों जीवों की नृशंस हत्या होती है। आधार चाहे विज्ञान ही क्यों न हो कोई उदात्त सुविधा पहुंचाने के नाम पर निरीह और अबोध जीवों की इस प्रकार हत्या की जाय।

न्यूजीलैंड के रेडियो विज्ञान से चिकित्सा करने में निष्ठावान डॉक्टर उलरिक विलियम ने लिखा है—आधुनिक चिकित्सा विज्ञान और कुछ नहीं केवल नई बीमारी को पुरानी में बदल देने का—एक को दूसरी में परिणत कर देने का गोरखधन्धा है। नासमझी के कारण भोले लोग इस जाल में फंस जाते हैं और क्षणिक लाभ का चमत्कार पाने के लालच में चिरस्थायी बीमारियों के शिकार बन जाते हैं।

वर्तमान चिकित्सा पद्धति की अपूर्णता की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए डॉक्टर फील्डिंग लिखते हैं—हम डाक्टरों में से अधिकांश अपनी-अपनी बीमारियों में फंसे हैं। हमारे बाल-बच्चे और मित्र सम्बन्धी बीमारियों से कराहते रहते हैं यदि वर्तमान चिकित्सा विज्ञान सही और निश्चित रहा होता तो हम लोग अपनी रुग्णताओं से जरूर छुटकारा प्राप्त कर लेते।

डॉक्टर विलियम हार्वर्ड का कथन है—एक ही रोग के निदान में डाक्टरों की विभिन्न सम्मतियां पाई जाती हैं और वे इलाज भी अलग-अलग तजवीज करते हैं। इससे यह स्पष्ट है अभी किसी रोग के सम्बन्ध में अथवा उसकी चिकित्सा के सम्बन्ध में कोई निश्चित सिद्धान्त निर्धारित नहीं किये जा सके। वस्तुतः हम सब लोग अंधेरे में भटक रहे हैं और रोगियों पर प्रयोग मात्र करके काम चला रहे हैं।

लन्दन के चिकित्सा शास्त्री ईवान्स ने लिखा है—हमारा व्यवसाय जिस स्थिति में है उसे निश्चित और असन्तोषजनक ही कह सकते हैं। उसके मूल सिद्धान्तों में भारी परिवर्तन करने की आवश्यकता है।

प्रसिद्ध फ्रांसीसी शरीर शास्त्रवेत्ता डा. मेजाडी का कथन है—यों हम चिकित्सा शास्त्र को विज्ञान की श्रेणी में गिनते हैं, पर उसमें विज्ञान जैसी कोई बात नहीं है। विज्ञान में कुछ सिद्धान्त निश्चित होते हैं और उनके परिणाम भी निश्चित रहते हैं, पर चिकित्सा के सम्बन्ध में ऐसा कुछ भी नहीं है। अभी तो सब कुछ अनुमान, कल्पना और प्रयोग की अनिश्चित स्थिति में ही चल रहा है।

दक्षिण अमेरिका के ब्राजीन राज्य में फोर्टालीजा नगर में एक नवीन आविष्कृत इन्जेक्शन के प्रभाव से देखते-देखते 22 व्यक्ति मर गये। इसी नगर में पागल कुत्तों के काटने के इलाज के लिए बने टीके से लगभग 100 व्यक्तियों की मौत हो गई। जो मरने से बच गये वे पागलों जैसी स्थिति में जा पहुंचे। सरकार ने इस दवा को रेडियो से हानिकारक घोषित किया और उसके प्रयोग पर प्रतिबन्ध लगाया।

अमेरिका में ‘डाइएथिलीन ग्लाइकोज’ नामक दवा ने 100 से भी अधिक आदमी मार डाले तब सरकार ने ‘फेडरल-फूडड्रग एण्ड कास्मेटिक एक्ट बनाया और इस तरह के नुस्खों पर रोक लगाई गई। फ्रांस में ‘डाइ आयडोएथिल’ नामक दवा के सेवन से—एकत्रित सबूतों के अनुसार 102 आदमी मरे तब उसे भी रोका गया। अमेरिका में केन्सर की दवा ‘कैविओ जेन’ को जब हानिकारक पाया गया तब उसका लाइसेन्स रद्द किया गया।

पिछली बार फ्लू का जब व्यापक फैलाव हुआ तब उसके लिए एक नये निरोधक टीके का आविष्कार हुआ और उसका तेजी से निर्माण भी हुआ और प्रयोग भी। इसकी प्रतिक्रिया जांचने के लिए जो कोई बैठा उसके विशेषज्ञों की एक मीटिंग सेन्फ्रासिस्को में हुई। बोर्ड के अधिकारी डॉक्टर रानज ने कहा कि—‘फ्लू से जितने लोग मरेंगे उससे ज्यादा इस टीके के कारण मर जायेंगे। संस्था के अध्यक्ष ने स्पष्ट शब्दों में कहा—इस टीके का अन्धाधुन्ध प्रयोग एक प्रकार से उन्मादियों जैसी करतूत है। इसी की पुष्टि में ‘जनरल आफ अमेरिकन मेडीकल ऐसोसिएशन ने भी डाक्टरों को चेतावनी दी कि इसके अन्धाधुन्ध प्रयोग से जनता पर हानिकर प्रतिक्रिया की ही अधिक सम्भावना है।’ ऐस्पिरिन और पेन्सलिन का इन दिनों जो अन्धाधुन्ध व्यवहार किया जा रहा है उसके परिणामों से ब्रिटिश मेडीकल ऐसोसिएशन के सदस्यों ने चिन्ता व्यक्ति की है। डॉक्टर हेचिन्स ने तो झल्लाकर यहां तक कहा है—नित नये नामों से निकलने वाली इन अवांछनीय दवाओं के रोकने के लिए क्या कुछ नहीं किया जा सकता।

इसे एक दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि रोग निवारण की धुरी अब मारक औषधियों के साथ जुड़ गई है जब कि प्रत्येक ईमानदार चिकित्सक का कार्य यह होना चाहिए कि रोगी को अप्राकृतिक गतिविधियों से विरत होने और सरल सौम्य जीवनयापन करने की प्रक्रिया अपनाने के लिए जोर दें और उसे समझायें कि स्थायी रूप से रोग मुक्ति पा सकना इतना परिवर्तन किये बिना सम्भव हो ही नहीं सकता।

एक रोग हलका करने के लिए दस नये रोग आमन्त्रित करना, एक समय का कष्ट घटाने के लिए सदा के लिए चिरस्थयी रुग्णता को शरीर में प्रश्रय देना यदि बुद्धिमत्ता हो तो ही मारक औषधियों की प्रशंसा की जा सकती है। यदि शरीर को समर्थ बनाने एवं शुद्ध रक्त की नाड़ियों में अभिवृद्धि करके निरोगिता एवं दीर्घजीवन अभीष्ट हो तो चिकित्सा विज्ञानियों को एन्टीबायोटिक्स दवाओं के गुणगान करने की अपेक्षा सात्विक जीवन की गरिमा समझानी पड़ेगी और संयत आहार विहार अपनाने के लिए जन-मानस तैयार करना होगा। इस उलट-पुलट में बढ़े-चढ़े चिकित्सा विज्ञान को बढ़ा-चढ़ा अज्ञान मान कर चलना होगा और उसके नित नये विकास का जो उन्माद छाया हुआ है उसे नियन्त्रण में लाने की बात सोचनी पड़ेगी।

आज के चिकित्सा विज्ञान में ऐसे अनेक विषयों का समावेश है जिनका विशेषज्ञ होने की दृष्टि से तो कुछ उपयोग भले ही हो, पर स्वास्थ्य रक्षा और स्वास्थ्य सम्वर्धन के लिए उनका सामान्यतः कुछ विशेष उपयोग नहीं है।

मेकेनो थेरैपी, इलैक्ट्रो थेरैपी, थर्मोथेरैपी, रेडियो थेरैपी, बाइब्रोथेरैपी, थल्मोथेरैपी, एमम्ब्रयोलाजी, फिजियोलाजिकल केमिस्ट्री, टाक्सिकालाजी, पथोलाजिकल हिस्टालाजी, वैक्टीरियालाजी, गायनोकोलाजी, वायोकेमिस्ट्री आदि इतने अधिक विषयों का डाक्टरी शिक्षण में समावेश करने से शिक्षार्थी का मस्तिष्क उन्हीं उलझनों में फंस कर रहा जाता है। वह प्रकृति के अनुसरण और सौम्य आहार-बिहार की उपयोगिता एवं रीति-नीति जैसे सामान्य किन्तु अति महत्वपूर्ण विषय को समझने से वंचित रह जाता है।

यह ठीक है कि सामूहिक टीका अभियान ने बच्चों को विभिन्न रोगों से बचाया। पर इससे एलर्जी की नई समस्या पैदा हो गई। शरीर में इन टीकों के प्रति अति सम्वेदनशीलता की प्रवृत्ति पैदा होने लगी।

डिप्पीरिया, कुकरखांसी, अधरंग, टेट्नस, चेचक, प्लेग आदि संक्रामक रोगों में कमी आई है। लेकिन श्वास तथा आन्त्रीय संक्रमणों के लगभग 1 अरब मामले अभी भी प्रति वर्ष सामने आ रहे हैं। एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के अधिकांश देश लाक्षणिक रोगों की लपेट में हैं। इन्फ्लुएन्जा, संक्रामक हैपेटाइट आदि से सम्बन्धित प्रभावपूर्ण पगों की दिशा में आज भी नई खोजों की जरूरत है। ‘‘आस्ट्रेलियन साइन्स न्यूजलैटर’’ नामक पत्रिका के अनुसार एस्पिरिन का अधिक प्रयोग गैस्ट्रिक अल्सर (पेट का फोड़ा) का कारण बनता है। इस रोग से ग्रस्त 23 रोगियों का अध्ययन किया गया। इन सभी ने एस्पिरिन को अत्यधिक मात्रा में सेवन किया था।

न्यू साउथ वेल्स के रायल न्यू कैसिल अस्पताल के जोन डूगन ने पेट के फोड़े के 350 रोगियों का अध्ययन किया। इनमें से 349 के रोग का कारण एस्पिरिन का अति सेवन पाया गया।

आमाशय-गृहणी के रक्त-स्राव से पीड़ित 568 रोगियों में से 29 प्रतिशत भी एस्पिरिन दवाओं के नियमित प्रयोग कर्त्ता पाये गये। दवाएं जिन पदार्थों से बनती हैं वे हमारे स्वाभाविक खाद्य नहीं हैं। उनमें मानवी प्रकृति के प्रायः प्रतिकूल तत्व ही भरे रहते हैं। उत्तेजना उत्पन्न करने और अन्धे हाथी की तरह अपनी तथा शत्रु की सेना को कुचल डालने की क्षमता भर उनमें होती है। आवश्यकतानुसार दवाओं के मारण मन्त्र का प्रयोग इस मान्यता के साथ किया जा सकता है कि जहां उनसे रोगांश मरेगा वहां जीवन-रस को भी समान रूप से क्षति पहुंचेगी। अस्तु आपत्ति धर्म की तरह यदि दवाओं का उपयोग भी करना पड़े तो अनिवार्य आवश्यकता के समय, सीमित मात्रा और सीमित समय तक ही उनका उपयोग करना चाहिए। उपचार के समय यह ध्यान रखा जाय कि रोगों की जड़ काटने के लिए संग्रहीत मलों को बाहर निकालने वाले उपवास, वस्ति जैसे शोधक उपाय ही स्थायी समस्या हल करते हैं। औषधियों से रोग मुक्ति की इस प्रतारणा से बचकर यही प्राकृतिक मार्ग अपनाने में ही सुरक्षा और लाभ है।

दवा से रोग दबते भर हैं—जाते नहीं

शरीर की मूल प्रकृति बीमार होने की नहीं है। सृष्टि के असंख्य प्राणियों को अपने-अपने ढंग के शरीर मिले हैं वे निर्धारित आयु तक बिना किसी व्यथा बीमारी के जीवित रहते हैं। मृत्यु, दुर्घटना आदि तो अपने हाथ की बात नहीं, पर बीमारी का उत्पादन अपना निजी है, उसे अपनी रीति-नीति बदलकर आसानी से रोका जा सकता है। स्वास्थ्य सुरक्षा की सर्वविदित नीति यह है कि प्रकृति के अनुरूप अपना आहार-विहार, रहन-सहन बनाये रखा जाय जैसा कि सृष्टि के सभी प्राणी बनाये रखते और चैन से जीते हैं। इन्द्रियों का संयम बरता जाय, दिनचर्या ठीक रखी जाय, श्रम और आराम का सन्तुलन रहे, मस्तिष्क को उत्तेजनाओं से बचाये रखा जाय, स्वच्छता का ध्यान बना रहे तो इन मोटे नियमों का पालन भर करने से बहुत हद तक छुटकारा मिल सकता है। स्व उपार्जित बीमारियों का ही बाहुल्य रहता है—बाहर से तो बहुत कम आती हैं। मौसम का प्रभाव, वंशगत विकार, दूत, दुर्घटना आदि कारणों से भी अप्रत्याशित रोग हो सकते हैं, पर उनका अनुपात बहुत स्वल्प रहता है। उन्हें अपवाद भर समझा जा सकता है। मूल उत्पत्ति तो अपनी ही उच्छृंखलता से होती है। अव्यवस्थित और विकृत आदतों का शिकार होकर ही मनुष्य बीमार पड़ता है। आमतौर से औषधि उपचार ही रोग निवारण के लिए प्रयुक्त होता है, पर ध्यान रखने योग्य बात यह है कि उसमें लाभ की मात्रा से कम हानि की मात्रा नहीं है।

मारक औषधियां घातक अस्त्र की तरह हैं जिनमें मार-काट मचाने की क्षमता तो है, पर इतनी बुद्धि नहीं है कि कुश्ती लड़ रहे दो पहलवानों में से एक को बचाने दूसरे को गिराने की भूमिका निभा सकें। उसके लिए मित्र शत्रु का अन्तर करना सम्भव नहीं। आग लगती है तो उपयोगी, अनुपयोगी दोनों को ही जलाती है। शरीर में रोग कीटाणु किसी एक जगह इकट्ठे नहीं बैठे रहते जहां हमला करके उन्हें मार गिराया जा सके, स्वस्थ रक्त कण उन विषाणुओं से गुत्थम-गुत्था करने में जुटे होते हैं। ऐसा कोई उपाय अभी तक नहीं ढूंढ़ा जा सका जो मात्र विषाणुओं को तो मारे, पर स्वस्थ संरक्षकों को बचा ले। औषधियां पाचन तन्त्र में होकर रक्त में पहुंचती हैं अथवा सुई लगाकर सीधी रक्त में प्रवेश कराई जाती हैं। हर हालत में रक्त में भी ऐसी विषाक्तता का समावेश करना पड़ता है जो रोग कीटाणुओं का संहार कर सके। स्पष्ट है कि इस मरण अनुष्ठान का प्रभाव आक्रमण और संरक्षक दोनों ही पक्षों पर समान रूप से पड़ता है। दोनों की ही हानि समान रूप से होती है। ऐसी दशा में शत्रु नाश के सौभाग्य के साथ-साथ मित्र नाश की क्षति भी उठानी पड़ती है। संरक्षण तत्व घट जाने से शरीर की निरोधक सामर्थ्य घट जाती है फिर पुराने शत्रुओं को उभरने और नये को घुस पड़ने के लिए खाली मैदान हाथ लगता है और वे फिर अधिक निश्चिन्ततापूर्वक अपनी विनाश लीला रचते हैं। या इतना अवश्य होता है कि स्वस्थ कण विजातीय तत्वों को भार भगाने का जो प्रबल प्रयत्न करते थे और जिसकी अनुभूति तीव्र रोगों के रूप में होती थी वह नहीं होती। निरोध से असमर्थ शरीर रोगों के आक्रमण का मन्द प्रतिरोध करता है अस्तु जीर्ण रोगी ऐसे ही कुसमुसाते रहते हैं, जोर से रोते-चिल्लाते नहीं। किन्तु इससे क्या, जीवनी शक्ति घट जाने से क्रियाशीलता तो नाम मात्र को ही रह जाती है। थका-हारा, क्षत-विक्षत शरीर किसी प्रकार मरण के दिन पूरे करता है, उनमें पुरुषार्थ की क्षमता ही नहीं रहती है। ऐसे लोग पूरी जिन्दगी भी नहीं जी पाते उन्हें अकाल मृत्यु से मरना पड़ता है।

पूरी या अधूरी तरह संज्ञा शून्य करने वाली दवाओं के नाम रूप बढ़ते जाते हैं। इसके लिए अनेकों रसायन ढूंढ़ लिये गये हैं। अब अकेली अफीम ही इस कार्य को पूरा नहीं करती उनकी अनेकों सहेलियां मैदान में आ गई हैं जो उसका हाथ बंटाती और बोझ हलका करती हैं। ‘एस्प्रीन’ प्रसिद्ध दवा है जो सिर दर्द को राहत पहुंचाती है। अफीम के सत्व की सुइयां लगाकर अभी भी वेदना की अनुभूति को रोक दिया जाता है। निद्रा लाने वाले रसायन भी लगभग यही करते हैं। इस उपचार से रोगी का चिल्लाना तो दूर हो जाता है, पर रोग की विनाश लीला में कोई अन्तर नहीं पड़ता। पीड़ा में जहां कष्ट होता है वहां एक लाभ भी है कि उससे निवारक संघर्ष तीव्र होता है और रोग की निवृत्ति में भारी सहायता मिलती है। कष्ट की अनुभूति घट जाने से उस मोर्चे पर युद्ध सैनिक भेजने और विकृति को परास्त करने की चिन्ता से मस्तिष्क को छुट्टी मिल जाती है। फलतः रोगों को अपनी जड़ जमाने का अधिक अच्छा अवसर मिल जाता है। इस प्रकार शामक औषधियों से वेदना निग्रह में जितनी राहत मिलती है उतनी ही यह कठिनाई भी बढ़ती है कि प्रकृति का निरोधक संघर्ष शिथिल पड़ जाने से बीमारियां अपना अड्डा जमा कर बैठ जाने में सफल हो जाती हैं।

आपत्तिकालीन सुरक्षा के लिए औषधि ली जा सकती है। उन्हें न छूने जैसा दुराग्रह करने की आवश्यकता नहीं है। ध्यान रखने की बात इतनी ही है, मूल समस्या स्वास्थ्य रक्षा के नियमोपनियमों का पालन करने की है। उस ओर ध्यान न दिया गया तो औषधि उपचार का लाभ जादू का तमाशा देखने जैसी खिलवाड़ बनकर ही रह जायगा। मूल समस्या का चिरस्थायी समाधान उतने भर से हो नहीं सकेगा। प्रकृति का अनुसरण करने और आहार-विहार के नियमों का कठोरतापूर्वक पालन करने से ही निरोग जीवन जी सकना सम्भव हो सकता है।

स्वास्थ्य सम्वर्धन के लिए टानिकों का—पौष्टिक आहारों का—आसरा तकने से काम नहीं चलेगा। यदि उनके सहारे बलिष्ठता संभव रही होती तो साधन सम्पन्न लोगों में से एक भी कमजोर दिखाई न पड़ता, वे पैसा खर्च करके प्रचुर परिमाण में पुष्टाई खरीद लिया करते। तब संसार में एक भी धनवान व्यक्ति दुर्बल दिखाई न पड़ता। इसी प्रकार यदि औषधि उपचार से रोग निवृत्ति संभव रही होती तो कम से कम चिकित्सा व्यवसायी और औषधि निर्माता तो बीमार नहीं ही दिखाई पड़ते। वे दूसरों की तो उपेक्षा भी कर सकते थे, पर अपनी एवं अपने स्वजनों की रुग्णता क्यों सहन करते। अपने लिए तो अच्छी औषधियां बना ही सकते थे और निदान उपचार के सहारे अपने घर से तो बीमारियों को निकाल बाहर कर ही सकते थे, पर ऐसा होता कहां है। सच तो यह है कि चिकित्सकों के घरों में बीमारियां सामान्य लोगों की तुलना में कम नहीं कुछ अधिक मात्रा में ही घुसी रहती हैं। दूसरे लोगों को औषधियों पर जितना अविश्वास होता है, डाक्टरों के घरों में उससे कम नहीं अधिक ही अविश्वास पाया जाता है। सामान्य लोग तो औषधियों के स्वाद एवं पैसा होने के कारण भी उन्हें खाने से आना-कानी करते होंगे, पर चिकित्सकों के घर वाले जानते हैं कि मुद्दतों से जेब खाली करते रहने वाले और आये दिन दवाखाने पर खड़े रहने वाले रोगी जब इन औषधियों से कुछ राहत नहीं पा सके तो हमें ही उनसे क्या कुछ मिलने वाला है। इस अविश्वास के कारण ही उन घरों में दवादारू खाने के सम्बन्ध में उपेक्षा बरती जाती रहती है।

यदि बीमारियां सचमुच ही कष्टकारक लगती हों—उनके कारण होने वाली आर्थिक तथा दूसरे प्रकार की हानियां अखरती हों और उनसे पीछा छुड़ाना यदि वास्तविक रूप से अभीष्ट हो तो कारण और निवारण पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता होगी और यह देखना होगा कि अस्वस्थता के के विष वृक्ष की जड़ें कहां हैं। पत्ते तोड़ने से नहीं जड़ काटने से ही स्थायी निराकरण सम्भव हो सकेगा।

इलिच का कथन है—तथाकथित गुणकारी औषधियों का एक हानिकारक पक्ष भी है जिसे प्रकट नहीं किया जाता और गुण ही गुण गाये जाते रहते हैं। दोष अपना काम करते हैं। जहां गुण पक्ष से यत्किंचित् लाभ होता है वहां उसके विषाक्त प्रभाव से होने वाली हानि इतनी बड़ी होती है कि तुलना करने पर औषधि सेवन का लाभ कम और घाटा अधिक रहता है। बहु प्रचलित ‘पेन्सलीन’ के साथ एनर्जी उत्पन्न करने वाले तत्वों पर भी ध्यान दिया जा सके तो उसे प्रयोग करने से पूर्व सौ बार विचार करने और हर कदम फूंक-फूंक कर धरने की आवश्यकता पड़ेगी, कुछ समय पूर्व वेदना हीन प्रसव के लिए थियेल्डोपाइट नामक औषधि ने विश्व-व्यापी ख्याति कुछ ही समय में प्राप्त करली थी। किन्तु जब उसके प्रभाव से विकलांग बच्चे उत्पन्न होने की बाढ़ आई तो उसके निर्माण एवं प्रयोग पर कानूनी प्रतिबंध लगाये गये। इसी प्रकार एक अन्य औषधि क्लोरम फेनिकोल को भी निषिद्ध घोषित किया गया था। सौन्दर्य प्रसाधनों में प्रयुक्त होने वाली ‘हैक्सा क्लोरोफैन’ के कारण उत्पन्न होने वाली हानियां सामने आई तो सुन्दरता और कोमलता के नाम पर प्रयुक्त होने वाली इस दवा पर रोक लगाई गई।

रोग का होना यह प्रकट करता है कि शरीर में विजातीय द्रव्य भर गया है और उसके विरुद्ध जीवनी शक्ति ने खुली लड़ाई आरम्भ कर दी है, साथ ही यह भी जानकारी मिलती है कि आहार-विहार में घुस पड़ी विकृतियां शरीर के ढांचे की तोड़-फोड़ कर रही हैं। इस स्थिति के निराकरण के ऐसे सौम्य उपाय होने चाहिए जिससे जीवनी-शक्ति बढ़े और विषाणुओं को मिलने वाला परिपोषण बन्द हो जाय। इसके लिए संचित मल के निष्कासन एवं अवयवों को विश्राम देने वाले उपाय अपनाये जाने चाहिए। उस ओर उपेक्षा रखी जाय और रोग के ऊपरी लक्षण कष्ट को दबाया जाय तो इससे कुछ स्थायी समाधान न निकलेगा। बाढ़ का पानी मेढ़ा के एक रास्ते न सही दूसरे रास्ते बह निकलेगा। एक बीमारी अच्छे होते-होते दूसरी नई व्याधियां उठ खड़ी होती हैं इससे प्रकट होता है कि मात्र ऊपर से ही लीपा-पोती हुई है, विभीषिका अस्तित्व अपने स्थान पर यथावत मौजूद है।

रोगों की उत्पत्ति कई कारणों की मिली-जुली प्रतिक्रिया है। वर्तमान रोगों में से अधिकांश को साइको सोमेटिक—आधि-व्याधि का सम्मिश्रण कह सकते हैं, उनमें शारीरिक और मानसिक दोनों ही विकृतियां जुड़ी रहती हैं। उनमें सामाजिक एवं आर्थिक दबाव भी सम्मिलित रहते हैं। उनमें सामाजिक एवं आर्थिक दबाव भी सम्मिलित रहते हैं। परिवार की उलझनों और समस्याओं पर सोचने की शैली भी आन्तरिक सन्तुलन को बिगाड़ती है और उस गड़बड़ी का परिणाम कई प्रकार की चित्र-विचित्र बीमारियों में दृष्टिगोचर होता है। प्राचीन काल के रोग निर्धारण, निदान विज्ञान में बीमारियों के जो लक्षण बताये गये हैं, अब उनसे भिन्न प्रकार के रोग दृष्टिगोचर होते हैं। डॉक्टर इन्हें कई रोगों का सम्मिश्रण कहकर अपना समाधान कर लेते हैं। किन्तु वास्तविकता यह होती है कि शारीरिक विकृतियों के साथ-साथ मानसिक पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, बौद्धिक परिस्थितियों में विषमताएं घुस पड़ने के कारण उन्हें सप्रविकृति ‘सन्निपात’ नाम दिया जा सकता है। उन विचित्र रोगों का इलाज मात्र औषधियों से नहीं हो सकता, वरन् उसके लिए मानसिक सहानुभूति, आशा, उत्साह, विश्वास, साहस आदि उभारने से लेकर अन्यान्य समस्याओं के स्थायी अथवा कामचलाऊ समाधान खोजने होंगे। आज जिस प्रकार मल-मूत्र, रक्त आदि के परीक्षणों को महत्व दिया जाता है उसी प्रकार रोगी की मनःस्थिति एवं परिस्थिति जानने और उसका बहुमुखी समाधान खोजने की आवश्यकता पड़ेगी। यह समाधान जिस हद तक सम्भव हो सकेंगे रोगी की व्यथा उसी अनुपात से हलकी होती चली जायगी।

दवाओं की उपयोगिता एक सीमा तक ही है उनके भयंकर प्रचार से प्रभावित होकर उनकी दासता स्वीकार कर लेने का अर्थ मुट्ठी भर लोगों की जेबें भरना है। दवायें खाते रहें रोग बढ़ते रहें यह ऐसा ही हुआ जैसे—‘‘अन्धा रस्सी बंटता जाये- बछड़ा उसको खाता जाये’’ की कहावत। इस अज्ञान से बचने में ही अपनी समझदारी है।
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