विज्ञान को शैतान बनने से रोकें

‘सांस मत लो इस हवा में जहर है’

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वाशिंगटन के बाजारों में ‘‘गैस मास्क’’ पहने हुए नवयुवकों का एक जुलूस निकला। प्रदर्शनकारियों के हाथ में तख्तियां थीं ‘‘सांस मत लो। इस हवा में जहर हैं।’’ डिव्राइट नदी पर स्थित एक इस्पात मिल के दरवाजे पर वहां की स्त्रियों ने धरना दिया। यह स्त्रियां गले में तख्तियां बांधे बैठी थीं, हमारे ‘‘सुन्दर परिवार को जहर पिलाकर मत मारो।’’

कनेक्टिक्ट के कालेज में छात्रों ने एक जुलूस निकाला ‘उसमें एक गाड़ी पर पेट्रोल इंजन रखा हुआ था। उस पर बड़े-बड़े पोस्टर लगे थे—‘‘हवा को जहरीली बनाकर अगणितों को मौत की आग में धकेलने वाला शैतान यही है।’’ इंजन को भारी भीड़ के सामने गड्ढा खोद कर दफनाया गया, उसकी कब्र बनाई गई और उस पर लिखा गया—‘शैतान का सन्तरी।’

लोस ऐजल्स के क्रीड़ांगन के समीप बहुत बड़े-बड़े सूचना पटल लगे हैं जिनमें चेतावनी दी गई है—‘‘डू नौट ब्रीद टू डीप’’ अर्थात् यहां गहरी सांस मत लीजिये। इस तरह की चेतावनियां, सावधानी-संकेत, जुलूस व व्यवस्थायें किसी सनक का परिणाम नहीं, अपितु आज के अत्यन्त बुद्धिमान माने जाने वाले मनुष्य के लिये एक गम्भीर चुनौती है कि वह अपने द्वारा उत्पन्न पर्यावरण प्रदूषण को आप सुलझाये अन्यथा अपने ही चिराग से निकला जिन्न—अपनी ही मानवीय संस्कृति को निगल जाने को तैयार है। भारतीय संस्कृति में वायु, जल और अन्न को धरती के तीन रत्न कहा गया है आज यह सभी कारखानों के धुयें, चिमनियों के द्वारा उगले जा रहे कार्बन, भट्टियों की धमक और दूसरे दूषित पदार्थों के कारण इस हद तक विषाक्त हो चले हैं कि—विचारशील लोगों का चिन्तित होना स्वाभाविक है। वस्तुतः परिस्थितियां इन प्रदर्शनों से लाख गुना अधिक गम्भीर हैं इस स्थिति की ओर हर व्यक्ति का ध्यान जाना आवश्यक नहीं अनिवार्य है।

पर्यावरण-प्रदूषण के परिणाम क्या होते हैं? 1952 में पूरे लन्दन में चार दिन तक धुएं की धुन्ध छायी रही। इससे प्रायः 4 हजार व्यक्तियों का प्राणान्त हो गया। 1945 में अमरीका के डनोरा शहर में इसी तरह की धुएं की धुन्ध (स्मांग) छायी रही, सैकड़ों लोग श्वसनतन्त्र के रोगों से ग्रस्त हो गये। दोनों जगह कारण एक ही था—कोयले के उपयोग से—कारखानों से—निकली सल्फर-डाई-ऑक्साइड गैस।

जापान की राजधानी टोकियो में पुलिस को हर आधे घन्टे बाद ऑक्सीजन-टैंकों से ऑक्सीजन का सेवन करना पड़ता है, क्योंकि मोटरों के धूम-धमाके से कार्बन-मोनो-ऑक्साइड की मात्रा घट जाती है।

जापान की राजधानी टोक्यो में सड़कों पर चलने वाले वाहनों की संख्या कभी-कभी बढ़ जाती है तो वहां धुआं इतनी बुरी तरह से छा जाता है कि सरकारी तौर पर उसकी घोषणा करनी पड़ती है सरकारी कर्मचारी उसकी घुटन से बचने के लिये गैस मास्क (एक प्रकार का यन्त्र जो हवा का दूषण छानकर शुद्ध हवा की श्वांस नली में जाने देता है) पहनना पड़ता है। 1966 में टोकियो में 65 बार इस तरह की चेतावनी दी गईं। ट्रैफिक पुलिस को आध-आध घन्टे बाद अपनी ड्यूटी छोड़ कर चौराहों की बगल में बनी ऑक्सीजन टंकियों में जाकर ऑक्सीजन लेनी पड़ती थी। कई बार ऐसा हुआ जब सिपाहियों ने भूल की वे ऑक्सीजन लेने नहीं गये तो कई-कई सिपाही एक साथ मूर्छित हो होकर गिरे।

जापान में सौ व्यक्तियों के पीछे एक व्यक्ति अनिवार्य रूप से व्रांकाइटिस (श्वांस नली में सूजन की बीमारी) का रोगी है उसका कारण और कुछ नहीं यह धुंआ ही है जिसे कल कारखाने व यातायात के वाहन उगलते रहते हैं। यहां के अमेरिकन सैनिकों में इन दिनों एक नया रोग चमक रहा है जिसका नाम ‘‘तोक्यो योकोहामा डिसीज’’ रखा गया है उसका कारण भी डॉक्टर वायु की इस गन्दगी को ही बताते हैं। इस बीमारी में सांस लेने में घुटन, खांसी और अपच आदि लक्षण होते हैं।

अमेरिका के ब्राजील राज्य में साओपालो और रायो डि जेनेरो दो पड़ौसी नगर हैं। 1916 के आस-पास साओपालो की जितनी जनसंख्या थी अब आबादी उससे दो गुनी अधिक पचास लाख हो गई है जनसंख्या वृद्धि के समानान्तर ही वहां कल-कारखाने और फैक्ट्रियां भी बढ़ी हैं अनुमान है कि उक्त अवधि में साओ पालो में पांच हजार नये कल-कारखाने स्थापित हुये हैं इसके विपरीत रायो डि जेनेरो की नगर-कॉरपोरेशन ने सन् 1873 में दी गई पत्रिकाओं की ‘‘आर्गेनिक डस्ट’’ चेतावनी (इस चेतावनी में पहले ही यह कहा गया था कि यदि कल-कारखाने बढ़े तो उनका धुंआ मनुष्य जाति के लिए भयंकर खतरा बन जायेगा) को ध्यान में रखकर औद्योगिक प्रगति को बढ़ने नहीं दिया। अब स्थिति यह है कि साओ पालो के आकाश में प्रतिदिन दस टन हाइड्रोफ्लूओरिक एसिड और लगभग एक हजार टन सल्फ्यूरिक एनडाइड्राइड वायु में घुल रहा है और उससे नगर में ब्रांकियल (श्वांस नली सम्बन्धी बीमारी) से मरने वालों की संख्या भी दुगुनी हो गई है। प्रातःकाल लोग घरों से खांसते हुये निकलते हैं—इस स्थिति की भयंकर अनुभूति करने वाले मेड्रिड के लोग कहते हैं ‘‘हम प्रातःकाल की सांस के साथ उतना दूषित तत्व पी लेते हैं जितने से कोई एक डीजल इंजन दिन भर सुविधापूर्वक चलाया जा सकता है। एक ओर साओ पालो धुयें में घुट रहा है दूसरी ओर रायो डि जेनेरो के लोग अभी भी इस दुर्दशा से बचे हुए हैं।

पेन्सिलवेनिया (अमेरिका) में मोनोनग सेला नामक नदी के किनारे डोनोरा नामक एक छोटी-सी औद्योगिक बस्ती है, यहां कल-कारखाने बहुत हैं। यों यहां इन फैक्ट्रियों का धुंआ आमतौर से छाया रहता है और उसे सहन करने में लोग अभ्यस्त भी हो गये हैं, पर 28 अक्टूबर 1971 को तो वहां स्थिति ही विचित्र हो गई। धुएं और धूलि भरी धुन्ध ऐसी छाई कि चार दिन तक बरसाती घटाओं जैसी अंधियारी छाई रही। किसी ने यह जाना ही नहीं कि दिन निकल आया। दिन में भी रात लगती रही, कालोंच इतनी बरसी कि सड़कों पर उसकी परतें जम गईं और निकलने वालों के पैर उस पर स्पष्ट रूप से छपने-उभरने लगे। हवा में गन्धक मिली हुई तेज गन्ध सूंघी जा सकती थी। सड़क पर कारें चलना बन्द हो गया। बीमारों से अस्पताल खचाखच भरे थे। डॉक्टर अपनी जान बचाने के लिये कहीं दूर चले जाने के लिये पलायन करने लगे। गले की खराबी, सिर में चक्कर, उलटी, आंखों की सूजन आदि रोगों से उस 18 हजार आबादी की छोटी-सी बस्ती में 6 हजार बीमार पड़े। इनमें से कितनों को ही मौत के मुंह में जाना पड़ा।

ऐसी ही एक घटना घटी मेक्सिको के रोजारिका क्षेत्र में। बस्ती तो सिर्फ 15 हजार की है, पर वहां हाइड्रोजन सलफाइड तथा दूसरी तरह के कारखाने बहुत हैं। एक दिन किसी गलती से कारखाने की गैस बन्धन तोड़ा कर एक घण्टे के लिये खुले आकाश में भ्रमण करने के लिये निकल पड़ी। इतनी सी देर में उसने सारे नगर को हिला दिया। 320 तो अस्पताल में भरती हुए जिनमें से कितने ही तो घर लौटे नहीं उन्हें वहीं प्राण गंवाने पड़े।

ऐसी ही विपत्ति एक बार लन्दन में आई। दिसम्बर का महीना था। यकायक काले धुएं के बादल आसमान में घिर आये। उनकी सघनता इतनी अधिक हो गई कि दस फुट से आगे कुछ भी दीख नहीं पड़ता था। आसमान में वायुयानों का उड़ना और जमीन पर मोटरों का चलना असम्भव हो गया। सूरज आसमान में एक धुंधली बत्ती की तरह लटकता भर दीखता था, रोशनी उसमें से निकल ही नहीं रही थी। हवा में सल्फर डाइ-ऑक्साइड जैसी अनेकों विषाक्त वस्तुयें घुली थीं। सांस लेना कठिन हो रहा था। इससे कितने बीमार पड़े यह गिनना तो कठिन है, पर मौत का लेखा-जोखा यह है कि उन्हीं 4-5 दिनों में 4 हजार तुरन्त मर गये और बीमारों में से 8 हजार कुछ ही दिन में चल बसे। सन् 56 में ऐसा ही एक और वायु दूषण लन्दन पर बरसा था, जिसमें एक हजार व्यक्ति मरे थे। इसके कुछ दिन पहले ऐसा ही एक और झोंका चार सौ की जान ले चुका था। न्यूयार्क में सन् 63 में दो सौ इसी कुचक्र में फंसकर मरे थे। सन् 66 में 168 लोग मरे। वायु में बढ़ी हुई धुन्ध तथा विषाक्तता को देखकर स्वास्थ्य अधिकारियों ने लोगों को घरों में बन्द रहने की ही सलाह दी। सड़कों पर तो इतनी कालोंच बरस रही थी कि उसका सांस के साथ भीतर जाना खतरे से खाली नहीं था। लोग सब काम छोड़कर यह विपत्ति टलने तक घरों में ही बन्द बैठे रहे।

धुंआ उगलने वाली कारखानों की भट्टियां बन्द की गईं, मोटरें चलना रोका गया, घरों में चूल्हे जलाने पर पाबन्दी लगी। अच्छा हुआ मौसम सुधर गया अन्यथा स्थिति को देखते हुए 40 लोगों को इस विपत्ति के चपेट में आने का अनुमान लगा लिया गया था।

वेलजियम की म्यूजा घाटी में लोहे के कल-कारखाने अधिक हैं। उस क्षेत्र में विशेष रूप से और अन्य क्षेत्रों में सामान्य रूप से धुंए से भरा कुहासा छाया, धुन्ध और घनी होती गई। तीन दिन तक यही स्थिति रही। लोगों के दम फूलने लगे, खांसी हुई, दमा जैसी बीमारी उमड़ी, अनेकों लोग बीमार पड़े। अस्पताल भर गये डाक्टरों के यहां भीड़ लग गई और देखते-देखते उसी घुटन में 63 व्यक्तियों को प्राणों से हाथ धोना पड़ा। मृतकों में बूढ़ों और बच्चों की संख्या अधिक थी।

कारखानों और दूसरी भट्टियों का धुंआ निकल कर आकाश में छाने लगता है। अवसर पाते ही वह धरती की ओर झुक जाता है और ‘थर्मला इन्वर्शन’ (ताप व्युत्क्रमण) का अवसर पाते ही धुन्ध के रूप में बरसने लगता है। जब तक वायु गर्मी से प्रभावित रहती है तब तक धुंए धुन्ध के कारण हवा के साथ ऊपर उठते रहते हैं, पर जब शीतलता के कारण वायु नम होती है तो धूलि का उठाव रुक जाता है और वह वायु दूषण नीचे की ओर ही गिरने लगता है। हवा का बहाव बन्द हो जाने पर तो यह विपत्ति और भी बढ़ जाती है।

अमरीका के कैलीफोर्निया राज्य में एक ऐसा स्थान है जो समुद्र तल से 280 फुट नीचा है। यह स्थान एक ओर तो अत्यन्त गर्म और बालू से भरा है दूसरी ओर समुद्र तल से इतना नीचा होने के कारण इस क्षेत्र का सारा धुंआ यहां वर्ष भर छाया रहता है।

धुंये में कार्बन डाइ-ऑक्साइड जैसी गैसें होती हैं। हाइड्रोजन सबसे हलकी गैस है इसलिये वह वायु मंडल की सबसे ऊपरी सतह पर आच्छादित रहती है उसी प्रकार कार्बन डाई-ऑक्साइड भारी होने के कारण सबसे निचला स्थान ढूंढ़ती है यह स्थान संसार भर में सबसे नीचा होने के कारण यहां से कार्बन डाई-ऑक्साइड कभी कम नहीं होती। शीत ऋतु का-सा कोहरा वर्ष भर भरा रहता है। कोई भी पक्षी, कोई भी मनुष्य वाहन या जीव-जन्तु वहां जाकर आज तक वापिस नहीं लौटा। उसकी विषैली धुन्ध में लोग घुट-घुट कर, तड़प-तड़प कर मर जाते हैं। यह घाटी करोड़ों मन हड्डियों और नर-कंकालों से पटी हुई है इसीलिये उसे ‘‘मृत्यु घाटी’’ कहते हैं। यहां जाकर आज तक कोई सही सलामत नहीं लौटा।

समुद्र तल से इतना निचला होने के कारण यहां कार्बन डाई-ऑक्साइड जमा है इसका अर्थ यह नहीं कि यह विषैली गैस केवल वहीं है। आजकल धरती में धुंआ इतना अधिक बढ़ रहा है कि उसके विषैले प्रभाव से हिमालय जैसे कुछ ही ऊंचे स्थान बच रहे होंगे शेष संसार में तो यह धुंआ मौत घाटी की तरह ही बढ़ता जा रहा है। उसके कारण हजारों तरह की बीमारियां मानसिक रोग और मृत्युदर बढ़ती जा रही है। विश्व की आबादी 6 अरब हो जाने की तो चिन्ता हुई। उसके लिये तो दुनिया भर के देश अपने यहां प्रथक परिवार-नियोजन मन्त्रालय खोल कर इस समस्या के समाधान में रत हैं जब कि उससे भी भयंकर है धुंए की यह समस्या—उस पर आज किसी का भी ध्यान नहीं जा रहा।

जेट विमानों से जो धुंआ निकलता है उसमें ईंधन (फ्यूल) के रूप में पेट्रोल जलता है और कार्बन मोनो ऑक्साइड तथा कार्बन डाई-ऑक्साइड बनाता है। इसमें कार्बन मोनो ऑक्साइड तो एक प्रकार का विष ही है जब कि कार्बन डाई-ऑक्साइड भी कम विषैली नहीं होती। यह जेट तो धुआं छोड़ने वाले यन्त्रों का एक छोटा घटक मात्र है। अपने आप चलने वाले आटोमोबाइल्स, मोटरें,, कारें, साइकिलें, डीजल इंजन, पम्प, रेलवे इंजन, फैक्ट्रियों के कम्बस्चन इंजन, फैक्ट्रियों की चिमनियां सब की सब कार्बन डाई-ऑक्साइड निकालती हैं। कार्बन डाई-ऑक्साइड भारी गैस है, हाइड्रोजन का परमाणु भार एक है। तो उसका 44, उसे पौधे ही पचा सकते हैं, मनुष्य तो उससे मरता ही है सो अब जो स्थिति उत्पन्न हो रही है उससे सब ओर आज नहीं तो कल वही मृत्युघाटी के लक्षण उत्पन्न होने वाले हैं।

सन् 1963 की उस घटना को न्यूयार्क निवासी भूले नहीं हैं जिसमें वायु के दबाव से विषाक्त धुंध छाई रही और 400 व्यक्तियों के देखते-देखते दम घुट गये। सन् 52 के दिसम्बर में लन्दन में इसी धुन्ध ने कहर ढाया था और महामारी की तरह अनेकों को रुग्ण बनाया था अनेकों को मौत की गोद में सुलाया था।



इतने पर भी मानवीय बुद्धि पीछे लौटने को तैयार होती दिखाई नहीं देती। विकास के नाम पर विनाश के साधन बढ़ते ही जा रहे हैं।

आज अमेरिका के वायु मंडल में प्रतिदिन हाइड्रो कार्बन नाइट्रोजन, कार्बन मोनो ऑक्साइड, सल्फर ऑक्साइड, सीसे के कण आदि विषैले तत्वों की 200000000 टन मात्रा भर जाती है। कई बार तापमान गिर जाने से मौसम में ठंडक आ जाती है जिससे यह धुआं ऊपर नहीं उठ पाता, ऐसी स्थिति में सघन बस्तियों वाले लोग जहां पेड़ पौधों का अभाव होता है ऐसे घुटने लगते हैं जैसे किसी को कमरे में बन्द करके भीतर धुआं सुलगा दिया गया हो। यह धुन्ध इतना ही नहीं करती, उसमें रासायनिक प्रतिक्रियायें भी होती हैं। इसके फलस्वरूप, नाइट्रोजन डाई ऑक्साइड, ओजोन और पऔक्सि आक्ल नाइट्रेट नामक विषैली गैसें पैदा हो जाती हैं। उससे फेफड़ों के रोग आंखों की बीमारियां और खांसी गले के रोग असाधारण रूप से बढ़ते हैं अमेरिका में इस बीमारियों से हवा के दूषण का 60 प्रतिशत हिस्सा मोटरों का और 30 प्रतिशत उद्योगों का है। अन्तरिक्ष यात्रियों ने पृथ्वी से 70 मील ऊपर जाकर धरती को देखा तो लोस ऐंजल्स सरीखे औद्योगिक नगर गन्दी धुन्ध से बेतरह ढके दिखाई पड़े।

इस दृष्टि से ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रान्स, वेलजियम जहां औद्योगीकरण देर से चल रहा है स्थिति बहुत ही बुरी है। जर्मनी में सल्फर डाई-ऑक्साइड गैस की मात्रा बढ़ जाने से 1,30,000 एकड़ वन सम्पदा नष्ट हो रही है और उससे 210000000 वार्षिक की क्षति हो रही है। स्विट्जरलैंड में इन दिनों कपड़ा मिलों की संख्या चौगुनी हो गई है। फलस्वरूप स्विस झीलों की स्थिति भयावह बन गई है। इन बीस वर्षों में उनमें फास्फेट 10 गुना और प्लवक 30 गुना बढ़ गया है।

जर्मनी के फेडरल रिपब्लिक में हिसाब लगाया गया है कि उस देश के उद्योग हर साल 2 करोड़ टन विषाक्त द्रव्य हवा में उड़ाते हैं। इनमें कोयले की गैस, तेल की गैस तथा जमीन खोदकर इन पदार्थों को निकालते समय उड़ने वाली गैसें मुख्य हैं। कार्बन मोनोक्साइड 20 लाख टन, सल्फ्युरिक ऑक्साइड 25 लाख टन, नाइट्रस ऑक्साइड 30 लाख टन और हाइड्रो कार्बन की 25 लाख टन मात्रा धूलि बनकर आसमान में उड़ती है और उसकी प्रतिक्रिया प्राणियों के लिये विघातक होती है।

भारत की केन्द्रीय सार्वजनिक स्वास्थ्य इंजीनियरिंग अनुसन्धान संस्था के निर्देशक प्रो. एस. जे. आरसी वीना के अनुसार भारत में पश्चिमी देशों की तुलना में मोटरों की संख्या तो कम है, पर धुंए की मात्रा लगभग एक समान है। कलकत्ता के सर्वेक्षण से पता चला यहां के वायु मंडल में कार्बन मोनो ऑक्साइड गैस की मात्रा 35 है जब कि न्यूयार्क में 27 है। इसका कारण पुरानी और भोंड़ी बनावट की मोटरों द्वारा अधिक धुंआ फेंकना है। कारखाने की चिमनियां भी घटिया कोयला जलाती हैं और सफाई के संयन्त्र न लगाकर वायु विषाक्त के अनुपात में और भी अधिक वृद्धि करती हैं।

‘‘ड्राइव मैगजीन’’ के फरवरी 67 अंक में दिये आंकड़ों के अनुसार एक कार सात साल में इतना धुंआ उगल डालती है कि उसके कार्बन डाई-ऑक्साइड से ईसाइयों के प्रसिद्ध गिरजाघर सेंटपाल का गुम्बद दो बार, मोनो ऑक्साइड से तीन कमरों वाले बंगले को नौ बार, नाइट्रोजन से एक डबल डैकर बस दो बार भरी जा सकती है। इस सात वर्ष को छान कर यदि उसका शीशा (लेड) काढ़ (एक्स्ट्रेक्ट) कर लिया जाये तो वह एक गोताखोर के सीने को ढकने के लिये पर्याप्त होगा।

यह नाप-तौल तो एक कार से उत्पन्न विषयवर्द्धक धुयें की है जबकि अकेले इंग्लैंड में डेढ़ करोड़ मोटर गाड़ियां हैं। 1980 तक इनकी संख्या साढ़े चार करोड़ तक हो जाने का अनुमान है। अमरीका के पास कारों की संख्या इंग्लैंड से बहुत अधिक है कहते हैं 12 सेकेंड में अमरीका में एक बच्चा पैदा हो जाता है जबकि यहां कारों का उत्पादन इतना अधिक है कि एक कार हर पांच सेकेंड बाद तैयार हो जाती है। अपने संगठन परिवार के एक सदस्य श्री आनन्द प्रकाश इन दिनों अमरीका के टैक्सास राज्य में ह्यूस्टन नगर (यहीं नासा स्पेन रिसर्च सेन्टर है जहां से अन्तरिक्ष के लिये केप कैनेडी से अन्तरिक्ष यान उड़ते हैं) के एक मस्तिष्क एवं तन्तुज्ञान प्रयोगशाला में शोध-कार्य कर रहे हैं अमेरिका सम्बन्धी तथ्यों की उनसे सदैव जानकारी मिलती रहती है। 26।12।69 के पत्र में उन्होंने लिखा है यहां कारों की संख्या बहुत अधिक है और उनकी संख्या इस गति से बढ़ रही है कि प्रत्येक 20 कारों में एक नई कार अवश्य होगी। यातायात की इस वृद्धि पर चिन्ता करते हुए 26 जनवरी 69 के ‘‘संडे स्टैन्डर्ड’’ ने लिखा है कि पिछले वर्ष केवल अमरीका के न्यूयार्क शहर में गैर जहाजों के धुयें में 36000000 टन की वृद्धि हुई है।

27 जुलाई 1967 के एक प्रसारण बी.बी.सी लन्दन ने बताया कि लन्दन में यातायात की वृद्धि यहां तक हो गई है कि कई बार ट्रैफिक रुक जाने से 17-17 मील की सड़कें जाम हो जाती हैं। यहां के सिपाहियों को जो ट्रैफिक पर नियन्त्रण करते हैं अन्य वस्त्रों के साथ मुंह पर एक विशेष प्रकार का नकाब (मास्क) भी पहनना पड़ता है, यदि वे ऐसा न करें तो उन सड़कों पर उड़ रहे मोटरों के धुयें में 5 घन्टे खड़ा रहना कठिन हो जाये। इन क्षेत्रों में स्थायी निवास करने वालों के स्वास्थ्य मनोदशा और स्नायविक दुर्बलता के बारे में तो कहा ही क्या जा सकता है? आज सारे इंग्लैंड में इतना अधिक धुंआ छा गया है कि वहां की प्रतिवर्ग मीटर भूमि पर प्रति वर्ष एक किलोग्राम राख जमा हो जाती है।

मोटरें, इंजिन मिल और फैक्ट्रियां अकेले इंग्लैंड और अमरीका में ही नहीं सारी दुनिया में है और बढ़ रही हैं। सन् 1900 की जांच के अनुसार सारे संसार में पहले ही 230000000000 टन कार्बन गैस छा गई थी अब उसकी मात्रा बीस गुने से भी अधिक है। रेडियो विकिरण का दुष्प्रभाव उससे अतिरिक्त है। धुयें का यह उमड़ता हुआ बादल एक दिन ऐसा भी आ सकता है जब सारी पृथ्वी को ही मृत्युघाटी की तरह गर्म और ऐसा बना दे कि यहां किसी के भी रहने योग्य वातावरण न रह जाये। बहुत होगा तो पेड़-पौधे खड़े उस धुयें को पी रहे होंगे मनुष्य तो लुप्त-जीवों की श्रेणी में पहुंच चुका होगा।

कल-कारखाने रेलवे इंजन, ताप बिजली घर, मोटरें, वायुयान इन की संख्या द्रुत गति से बढ़ती जा रही है। इनमें जलने वाले पेट्रोल, डीजल, कोयले से निकलने वाली कार्बन मोनो-ऑक्साइड और सल्फर डाइऑक्साइड जैसी भयंकर गैसें वायुमंडल को दिन-दिन अधिक विषाक्त करती जा रही हैं। नगरों की बढ़ती हुई जनसंख्या, वाहनों की धमाचौकड़ी, कारखानों की रेल-पेल, घरों में ईंधन का अधिक खर्च, हरियाली की कमी आदि कारणों से हवा में हानिकारक तत्वों का परिमाण बढ़ता ही चला जा रहा है। धूलि एवं धुयें में इनका बाहुल्य रहता है। सांस के साथ वे शरीरों में प्रवेश करते हैं और उन्हें दुर्बल एवं रुग्ण बनाते चले जाते हैं।

अकेले दिल्ली नगर की रिपोर्ट यह है कि वहां ट्रक, बस, मोटर, आदि के साइलेन्सर प्रतिदिन 20 हजार पौंड से भी ज्यादा सल्फर डाई-ऑक्साइड गैस हवा में फेंकते हैं। अकेला ताप बिजली घर 95 पौंड ऐसी गैस नित्य पैदा करता है जो शरीर के लिये ही नहीं इमारतों और लोहे के पुलों के लिये भी हानिकारक है। आगरे का ताजमहल उन नगर की गैसों के कारण गलता चला जा रहा है। उसे देर तक सुरक्षित रखने के लिये ऐसे घोल पोतने की बात सोची जा रही है जिससे उस सुन्दर संगमरमर की क्षरण रोका जा सके। कार्बन मोनो ऑक्साइड गैस यदि हवा में सात सौवें भाग में होगी तो उसमें सांस लेने वाला मर जायगा। यदि उसका लाखवां भाग होगा तो उस क्षेत्र के प्राणी बीमार पड़ जायेंगे।

औद्योगिक शहरों के ऊपर छाई धुन्ध कभी भी देखी जा सकती है। उसमें कार्बन, सल्फेट, नाइट्रेट, सीसा, हाइड्रो-कार्बन के योगिकों की भरमार रहती है। धूलि और धुंआ मिलकर एक ऐसी ‘स्मांग’ चादर तानते हैं जिसके नीचे रहने वाले न केवल मनुष्यों का वरन् पेड़ पौधों का भी दम घुटने लगता है। उनका स्वाभाविक विकास बुरी तरह अवरुद्ध हो जाता है।

औद्योगिक कारखाने निरन्तर कार्बन डाइ-ऑक्साइड, सल्फर ऑक्साइड, डाइ-ऑक्साइड, क्लोरीन, जली हुई रबड़ जैसे लगभग 3000 प्रकार के विष उत्पन्न करते हैं। यह हवा में छा जाते हैं और उस प्रदेश में सांस लेने वालों को उसी हवा में सांस लेने के लिए विवश रहना पड़ता है। बेचारों को यथार्थता का पता भी नहीं चलता कि इन शहरों में दीखने वाली चमक-दमक के अतिरिक्त यहां वायु में विषाक्तता भी है जो उनके स्वास्थ्य की जड़ें निरन्तर खोखली करती चली जाती है।

कारखानों से निकल कर हवा में सल्फर डाइ-ऑक्साइड कार्बन-मोनोक्साइड, स्माग रिएक्टैन्ट, कार्बन डाइ-ऑक्साइड, ओजोन और बारीक कण मिलते हैं। साथ ही कार्बन-कण, सीसे के कण, धातुओं वाले कारखानों से धातु कण आदि भी शामिल होते रहते हैं।

सल्फर डाइ-ऑक्साइड गैस से एम्फीसिमा, हृदय रोग आदि हो जाते हैं। हवा नम हुई तो इसी गैस से सल्फ्यूरिक अम्ल बन जाता है, जो भवनों और वनस्पतियों को क्षति पहुंचाता है तथा फौलाद को भी बरबाद कर देता है।

कार्बन मोनो ऑक्साइड गैस रक्त के हीमोग्लोबीन में मिलकर रक्त की ऑक्सीजन धारण क्षमता में कमी ला देती है। इससे मोटर चलाते समय थकान आ जाती है। दुर्बलता मिलती और सिर चकराने की घटनाएं भी इससे बढ़ जाती हैं।

फिर इन जहरीली गैसों से धुएं के धुन्ध बनते हैं, जिससे कैंसर, श्वसन-तन्त्र के विभिन्न रोग, हृदय रोग आदि फैलते हैं। ओजोन से वनस्पति क्षतिग्रस्त होती हैं। बारीक कणों से वस्तुएं मैली हो जाती हैं, आंखों की देखने की शक्ति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और श्वसन-तन्त्र में विकार आता है। इंजनों में धक्के करने के लिए पैट्रोल में शीशा मिलाया जाता है किन्तु उसके कारण जो जहरीला धुंआ उत्पन्न होता है उससे वायुमण्डल की विषाक्तता दिन-दिन बढ़ती जा रही है।

वायु में धुएं के बढ़ने का अर्थ होता है उसकी कीटाणु नाशक शक्ति का नाश। स्पष्ट है वायु में कीटाणुओं को मारने वाली क्षमता नष्ट होगी तो कीटाणु भारी मात्रा में बढ़ेंगे और कृषि नष्ट करेंगे। अमेरिका के सबसे अधिक वायु प्रदूषण वाले इन क्षेत्रों में कृषि-कीटाणुओं की यहां तक भरमार पाई जाती है कि कभी किसी खेत में कीटाणुनाशक औषधि न पहुंचे तो उससे एक दाना भी बचकर न आये, जब डी.डी.टी. जैसी कीटाणुनाशक दवाओं के प्रयोग से अन्न विषैला बनता है, दोनों ही समस्यायें भयंकर हैं उनसे बचाव का एक ही उपाय है धुंआ बढ़ाने वाले उद्योगों का स्थान लघु कुटीर उद्योग और हस्त शिल्प ले लें तथा यज्ञों का विस्तार न केवल भारतवर्ष वरन् सारे विश्व में किया जाये।

कैलीफोर्निया में धुएं के कुहरे से 15 मिलियन (1 करोड़ 50 लाख रुपये) डालर्स की फसलों को प्रत्यक्ष नुकसान पहुंचता है अप्रत्यक्ष क्षति 132 मिलियन डालर आंकी गई है यही समस्या अन्य राज्यों में भी है।

जान टी. मिडिल्टन (डाइरेक्टर यूनिवर्सिटी स्टेटपाइड एअर पॉल्यूशन रिसर्च सेन्टर) का कहना है कि फोटो केमिकल्स वाले वायु दूषण से सभी 27 स्टेट्स प्रभावित हुए हैं पर कोलम्बिया के कुछ जिले सर्वाधिक। इनकी फसलें तो पिछले दिनों नष्ट होते-होते बचीं। इसके अतिरिक्त डस्ट पार्टीकल्स, ठोस और द्रव केमिकल्स जिनमें तेल और कोयला मिला होता है उनसे सम्मिश्रित कोहरा भी फसलों को प्रभावित करता है। गैसों से हुआ वायु प्रदूषण जिनमें हाइड्रोकार्बन्स, नाइट्रोजन ऑक्साइड, फ्लोरिड्स, सल्फर डाइ-ऑक्साइड शामिल हैं वह भी फसलों को नष्ट करता है। सूडान घास शंकर के कणों, दालें, पान, अलफाफा ओट्स, मूंगफली, एप्रिकाट्स, सिटरस, अंगूर, प्लम्बस अर्चिट्रस पेटूनियस, स्पैन ड्रेगन्स, लार्कस और रे ग्रास की जांच करने पर पता चला है कि वे वायु प्रदूषण से विशेष रूप से प्रभावित होते हैं यदि इनको इससे न बचाया जा सका तो एक दिन वह आ सकता है कि जब ये पूरी तरह विषाक्त होने लगेंगे और इनको अन्य कड़ुवे जंगली फलों के समान अखाद्य मान लिया जायेगा।

19 वीं शताब्दी के अन्त में पृथ्वी मंडल पर कार्बन गैस धुंए की मात्रा 360000000000 टन थी, संडे स्टैन्डर्ड के 26 जनवरी 1969 अंक ने इसमें वृद्धि पर चिन्ता करते हुए लिखा है कि अकेले अमरीका के न्यूयार्क शहर में ही एक वर्ष में 36000000 टन धुंए की वृद्धि हुई जब कि संसार में कितने शहर हैं और उनमें धुंआ-उद्योग कितना बढ़ रहा है इसके सुविस्तृत आंकड़े निकाले जायें तो यही कहा जा सकेगा कि संसार एक ऐसी प्रलय की ओर जा रहा है जिसमें जल वृद्धि उपल वृष्टि न होकर केवल धुंआ इतना सघन छा जायेगा कि मनुष्य उसी में तड़फड़ा कर मर जायेगा।

धुंए की समस्या आज शहरी क्षेत्रों की ही समस्या नहीं रह गयी, उसके दुष्प्रभाव अब गांवों की ओर भी लपट मारने लगे। एक व्यक्ति बीड़ी-सिगरेट पीता है जहां तक मानवीय स्वतन्त्रता की बात है बीड़ी-सिगरेट क्या, लोग अफीम तक खाते हैं यदि बीड़ी-सिगरेट का धुंआ पीकर लोग बाहर निकालें तब तो ठीक पर वे 3/4 धुंआ पेट से बाहर उगल कर शेष वायु को भी गन्दा बनाते हैं तो दूसरे विचारशील लोगों का यह नैतिक अधिकार हो जाता है कि वे अपने और भावी पीढ़ी की स्वास्थ्य रक्षा के लिए उनको न केवल समझाकर वरन् संघर्ष करके भी रोकें। यही बात ग्रामीण किसानों के भी पक्ष में है शहरों द्वारा बढ़ रही धुंए की दाब को कम न किया गया तो वही गन्दा और विषैला धुंआ खेती को नष्ट कर डाल सकता है इस स्थिति में यन्त्रीकरण के प्रभाव को प्रत्येक तरीके से निरस्त करना हम सबका नैतिक कर्त्तव्य हो जाता है।

जो फसलें अधिक सम्वेदनशील होती हैं जैसे फूल, सरसों, अरहर आदि वह धुंए से बहुत जल्दी प्रभावित होती हैं न्यूजर्सी और कैलीफोर्निया में इसके प्रत्यक्ष उदाहरण देखने में आये हैं।

अगले दिनों कारखाने अणु शक्ति से चलाने की बात सोची जा रही है, पर उसमें विकरण का दूसरे किस्म का खतरा है। उस दिशा में कदम बढ़ाते हुए इस खतरे को ध्यान में रखना होगा कि अणु शक्ति से उत्पन्न विकरण भी एक संकट है। एक माध्यम से दूसरे माध्यम में जाते हुए रेडियो एक्टिविटी की विषाक्तता में हजारों गुनी वृद्धि हो जाती है इस तथ्य को वैज्ञानिक भली-भांति जानते हैं।

विश्व स्वास्थ्य संघ के डाक्टरों की रिपोर्ट के अनुसार संसार के रोगियों की मृत्यु में अन्य रोगियों तथा फेफड़े के रोगियों का अनुपात पांच और एक का है, हर पांच रोगियों में एक क्षय या फेफड़े के कैंसर से मरता है। 15 वर्ष की आयु से ऊपर की गणना करें तब तो फेफड़े के रोगों से मरने वालों की संख्या एक तिहाई हो जाती है।

फेफड़ों का स्वास्थ्य सीधे-सीधे वायु से सम्बन्ध रखता है। निसर्ग ने प्राणियों को वायु का अकूत भाण्डागार दिया है और पग-पग पर उसको स्वच्छ रखने की व्यवस्था की है, इतना होने पर भी यदि फेफड़े का रोग मानव जाति को इतना संत्रस्त कर रहा हो तो समझना चाहिए मनुष्य कहीं कोई भयंकर भूल कर रहा है।

भारतवर्ष में प्रति मिनट एक रोगी क्षयरोग (फेफड़े के रोग) से मरता है अर्थात् एक दिन में 1440 और प्रति वर्ष 131490 लोगों की मृत्यु टी.बी. से होती है। यह आंकड़े कोई 26 वर्ष पुराने हैं जब कि इन दिनों वायु प्रदूषण के साथ रोगों में भी असाधारण वृद्धि हुई है। अनुमान है कि इस समय देश में 70-80 लाख व्यक्ति क्षय रोग से पीड़ित हैं 1965 में टी.बी. की जांच करने वाला बी.सी.जी. टीका 86.3 लाख व्यक्तियों को लगाया गया। जांच से 54.34 लाख व्यक्ति अर्थात् कुल आबादी का दो तिहाई भाग किसी न किसी रूप में क्षयग्रस्त था। उस समय तक देश में 34517 रोग शैयाओं से युक्त 427 क्षय रोग अस्पताल थे। अब उनकी संख्या तिगुनी-चौगुनी बढ़ गई है। अस्पताल बढ़ने से रोगियों की संख्या कम होनी चाहिए थी किन्तु बात हुई उल्टी अर्थात् अस्पतालों की खपत के लिए रोगियों की संख्या भी बढ़ी जो इस बात का प्रमाण है कि संकट अत्यधिक गम्भीर है उसकी जड़ को ठीक किये बिना रोग पर नियन्त्रण पा सकना सम्भव नहीं।

फेफड़े के रोगों का—क्षय रोग का सीधा सम्बन्ध प्राण वायु से है और वायु प्रदूषण ही उसका प्रमुख कारण है, पर यह बात अन्य देशों पर जहां मशीनीकरण बहुत तेजी से हुआ लागू होती है।

स्वास्थ्य-विशेषज्ञों की सामयिक चेतावनी

रोम की राष्ट्रीय अनुसन्धान समिति के अनुसन्धान निर्देशक श्री रावर्टो पैसिनो ने संरक्षण समस्याओं पर आयोजित एक सम्मेलन में ‘दी फैक्टस आफ इन्डस्ट्रियलाइजेशन आन दी एन्वायरमेंट’ विषय पर एक निबन्ध पढ़ा। इसमें उनने जल-वायु दूषण से उत्पन्न समस्याओं से आक्रान्त योरोप की दयनीय दुर्दशा का चित्र खींचा। उन्होंने कहा—उद्योगीकरण की घुड़दौड़ में लोग यह भूल गये हैं कि उसके साथ जो खतरे जुड़े हैं उनका भी ध्यान रखें। सम्पत्ति उपार्जन की इच्छा इतनी अनियन्त्रित नहीं होनी चाहिए कि उसके बदले व्यापक जीवन संकट का खतरा मोल लिया जाय।

अमेरिका की सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा तथा राष्ट्रीय केन्सर संस्था ने औद्योगिक नगरों के वायु मंडल का विश्लेषण करके पता लगाया है कि उसमें जो पायरीन जैसे इस प्रकार के तत्वों की भरमार है वह मनुष्यों और जानवरों में केन्सर उत्पन्न करते हैं।

गत बीस वर्षों में फेफड़ों के केन्सर की चार सौ प्रतिशत वृद्धि हुई है। डाक्टरों का कहना है कि मौअर गाड़ियों तथा कारखानों की चिमनियों से निकलने वाला धुंआ इसका प्रमुख कारण है। अमेरिका की वायु दूषण संस्था ने पता लगाया है कि उस देश के कारखाने पर रोज एक लाख टन प्राणघातक सल्फर डाइ-ऑक्साइड गैस उगलते हैं। नौ करोड़ मोटर गाड़ियों से निकलने वाली 2।। लाख टन कार्बन मोनो ऑक्साइड का दैनिक योगदान इसके अतिरिक्त है। मोटरों के धुंए में ‘ट्रट्राइथाइल लेड’ मिला होता है वह मनुष्यों के स्नायु मंडल में अस्त-व्यस्तता और दिमाग में गड़बड़ी उत्पन्न करता है। पेट्रोल में शीशे की मात्रा बढ़ती जाने से विषाक्तता और भी अधिक बढ़ी है।

परीक्षणों से पता चला है कि मोटरों के धुंए का प्रभाव शराब से भी अधिक घातक होता है। इस दुष्प्रभाव को इंग्लैंड के स्वास्थ्य सम्बन्धी आंकड़े देखकर सहज ही समझा जा सकता है। 24 नवम्बर सन् 67 को लन्दन से प्रसारित मानसिक स्वास्थ्य अनुसन्धान निधि की वार्षिक रिपोर्ट में बताया गया है कि इंग्लैंड में मानसिक रोग से पीड़ित व्यक्तियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। इस समय ‘‘मति विभ्रम’’ नामक मानसिक रोग से पीड़ित व्यक्तियों की संख्या 60 हजार के लगभग है। इनमें से अधिकांश ड्राइवर और घने धुंए वाले क्षेत्र के ही लोग हैं।

इसी प्रकार 1906 में धुंए से फेफड़े के कैंसर के कुल 100 रोगी लन्दन में थे इसके 60 वर्ष बाद 1966 में उस अनुपात से 12000 हजार ही संख्या होनी चाहिए थी जब कि पाई गई 27 हजार। अब यह वृद्धि और भी अधिक है।

आने वाले समय में यह धुंआ पृथ्वी में अनेक अप्रत्याशित भयंकर परिवर्तनों के लिए वातावरण तैयार कर रहा है। इटली का पदुआ नगर कला की दृष्टि से सारे संसार में प्रसिद्ध है। गिओटी के बनाये भित्ति चित्रों को, पिटी पैलेस, पांटीवेकियो तथा दि वैसेलिका आफ सान लोरेंजों (यह सब वहां की प्रसिद्ध इमारतें हैं) आदि नष्ट होते जा रहे हैं। वैज्ञानिक सर्वेक्षण बताते हैं यह सब वायु की अशुद्धि के कारण हैं। इन ऐतिहासिक स्थानों के रख रखाव में काफी धन और परिश्रम खर्च होता है तब भी वायु की गन्दगी से वे अपने आपको बचा नहीं पाते तो खुले स्थानों की सुरक्षा की तो कोई बात ही नहीं उठती। इन स्थानों में यह विषैली रासायनिक प्रक्रियाएं वायु दुर्घटनाओं, बीमारियों का ही कारण न होगी, वरन् भूकम्प, पृथ्वी-विस्फोट समुद्र में तूफान आदि का कारण भी होंगी। नई सन्तान पर उसका असर गर्भ से ही होगा। अमेरिका में अभी से विकलांग कुरूप और टेढ़े-मेढ़े बच्चों की पैदाइश प्रारम्भ हो गई हैं कुछ दिनों में खरदूषण, त्रिशिरा, मारीच जैसी टेढ़ी, कुबड़ी, भयंकर सन्तानें उत्पन्न हों तो कुछ आश्चर्य न होगा। वायु की अशुद्धि से मनुष्य जीवन का अन्त बहुत निकट दिखाई देने लगा है उससे कैसे बचा जाये अब इस प्रश्न को उपेक्षित नहीं किया जा सकता।

नहीं तो प्रलय के लिये तैयार रहें

कारखानों और वाहनों में जितना ईंधन इन दिनों जलाया जा रहा है और उससे जितनी अतिरिक्त गर्मी उत्पन्न हो रही है उसका संकट कम करके नहीं आंका जाना चाहिए। वर्तमान क्रम चलता रहा तो आगामी 25 वर्षों में वातावरण में कार्बन डाइ-ऑक्साइड की मात्रा अत्यधिक बढ़ जायगी और उसकी गर्मी से ध्रुव प्रदेशों की बर्फ तेजी से पिघलने लग जायगी। इसका प्रभाव समुद्रतल ऊंचा उठने के रूप में सामने आता जायगा और वह क्रम यथावत चला तो सारी बर्फ गल जाने पर समुद्र का जल लगभग 400 फुट ऊंचा उठ जायगा और वह संकट धरती का प्रायः आधा भाग पानी में डुबो कर रख देगा। वह आज के क्रम से बढ़ते हुए समुद्री संकट को 25 वर्ष बाद ही उत्पन्न करना आरम्भ कर देगा और 400 वर्षों में वह संकट उत्पन्न हो जायगा, जिसके कारण आज के वैज्ञानिक उत्साह को मानवी विनाश के लिए उदय हुआ अभिशाप ही माना जाने लगे।

शहरों में सड़कों पर दौड़ने वाले द्रुतगामी वाहन, बिजली का प्रयोग, थोड़ी जगह में अधिक मात्रा में जलने वाली आग, घिच-पिच में श्वांस तथा शरीरों की गर्मी, कल-कारखाने आदि कारणों से तापमान ग्रामीण क्षेत्र की अपेक्षा कहीं अधिक बढ़ा रहता है। बिजली के पंखे तापमान नहीं गिराते केवल हवा को इधर से उधर घुमाते हैं, चुस्त एवं एक के ऊपर एक कपड़े लादने के फैशन ने शरीरों के इर्द-गिर्द की गर्मी बढ़ी-चढ़ी रहती है। पक्के मकान और पत्थर की सड़कों में तपन रहती ही है। इस बढ़े हुए तापमान में शहरों के निवासी अपनी स्वाभाविक शारीरिक क्षमता को गंवाते चले जा रहे हैं।

बढ़ते हुए वायु प्रदूषण का परिणाम यह हो सकता है कि पिछली हिम प्रलय की तरह फिर एक हिम युग सामने आ खड़ा हो और लम्बी अवधि के लिए धरती का एक बड़ा भाग प्राणियों के रहने योग्य न रहे, उस पर प्रचंड शीत की सत्ता स्थापित हुई दीखने लगे।

अमेरिका के वातावरण एजेन्सी के मौसम विशेषज्ञ विलियम कांव का कथन है कि यदि 5 करोड़ टन दूषित पदार्थ अपने वायु मंडल में और मिल गये तो पृथ्वी का तापमान 11 अंश सेन्टीग्रेड गिर जायगा। जिससे वृक्ष, वनस्पतियां और कोमल शरीर वाले प्राणियों का जीवित रहना कठिन पड़ जायगा। तब दुनिया में प्रायः आधी हरियाली नष्ट हो जायगी।

डा. अर्ल, डब्ल्यू वारेट ने हिसाब लगाया कि वायु मंडल में 25 लाख टन दूषित पदार्थ घुस चुके हैं। 5 करोड़ टन के संकट बिन्दु तक पहुंचने में यों अभी 20 गुना अधिक दूषण घुसने के लिए कुछ समय लगेगा, पर प्रदूषण जिस क्रम से बढ़ रहा है उसे देखते हुए शायद हजार वर्ष भी इन्तजार नहीं करना पड़ेगा और हिम प्रलय की विभीषिका धरती निवासियों के सामने आ खड़ी होगी। यह प्रदूषण धुन्ध की तरह छा जायगा और सूर्य की किरणें उस छतरी को भेदकर कम मात्रा में ही भूतल तक पहुंच पावेंगी। ऐसी दशा में हिम युग आने की सम्भावना स्पष्ट है।

इतना तो हम सब करें ही

सरकारों को अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए टैक्स चाहिए। इस अर्थ युग में जन-स्वास्थ्य के लिए गम्भीर चिन्तन कौर करे? जड़ सूखती रहे और पत्तियों पर पानी छिड़का जाता रहे जैसी उपहासास्पद स्थिति आज बनी हुई है। सरकारें जितना धन स्वास्थ्य संरक्षण पर खर्च करती हैं उतने को जीवन के रचनात्मक उत्थान में लगाया जाता तो आज स्थिति यह न होती। उपार्जन के नाम पर विष को बढ़ते रहने की छूट देकर हजार प्रयत्नों से भी स्वास्थ्य बचाया नहीं जा सकता अतएव अपनी सुरक्षा व्यवस्था के लिए जनसत्ता को स्वयं ही कटिबद्ध होना पड़ेगा। न केवल मशीनीकरण की तीव्र गति को, जनसंख्या वृद्धि को अपितु कुछ और भी सहयोग देना होगा जिससे प्रदूषण को कम तो किया ही जा सके, लोगों को मशीनों की जगह कुटीर उद्योग अपनाने तथा उन्हीं से बनी वस्तुएं ग्रहण करने की भी आदत डालनी चाहिए।

वायु शुद्धि के लिए वृक्ष अत्यन्त उपयोगी हैं वे गन्दी हवा स्वयं पी जाते हैं और बदले में स्वच्छ हवा देते हैं, पर उन बेचारों को भी बुरी तरह काटा जा रहा है। वन सम्पदा नष्ट हो रही है और उनकी जगह नित नये कारखाने खुलते जा रहे हैं।

कृषि के लिए जमीन की बढ़ती हुई मांग को पूरा करने के लिए जंगलों का सफाया होता जा रहा है। इधर लकड़ी की जरूरत, भी जलाने के लिए, इमारती आवश्यकता तथा फर्नीचर के लिए बढ़ी है। लकड़ी के कोयले की भी खपत है। इस तरह बढ़ती हुई आवश्यकताएं वन सम्पदा को नष्ट करने में लग गई हैं। पुराने वृक्ष कटते चले जा रहे हैं, नये लग नहीं रहे हैं। सन् 1962 में संसार के बाजारों में 1 अरब घन मीटर लकड़ी की जरूरत पड़ी। अनुमान है कि 1985 तक यह मात्रा दूनी हो जायगी। यदि काटना जारी रहा और उत्पादन की उपेक्षा की गई तो वृक्ष रहित दुनिया कुरूप ही नहीं अनेक विपत्तियों से भरी हुई भी होगी।

वृक्ष और वनस्पति वर्षा में तथा नदी-नालों के प्रवाह में मिट्टी के बह जाने को रोकते हैं। जल के तेज बहाव को बाढ़ों को नियन्त्रित करते हैं। इटली का दुःखद उदाहरण हमारे सामने है। वहां कई शताब्दियों से वन सम्पदा की बरबादी ही होती चली आ रही है। फलस्वरूप भूमि की भी भारी क्षति हुई। अकेली आर्वो नदी ही हर साल 2 करोड़ 60 लाख क्विन्टल मिट्टी बहा ले जाती है और समुद्र में पटक आती है। नवम्बर 66 की प्रलयंकर बाढ़ ने एक प्रकार से तबाही ही खड़ी करदी। तब कहीं वन सम्पदा की बर्बादी के खतरे को लोगों ने समझा। विशेषज्ञों ने बताया है कि यदि इटली को इस तरह बाढ़ों से बचना है तो उसे 86 लाख एकड़ में वृक्ष लगाने होंगे। अन्वेषण ने सिद्ध किया है कि वन सम्पदा से युक्त भूमि में बाढ़ का खतरा 50 प्रतिशत कम रहता है जहां काटने में ही उत्साह हो वहां कितनी ही वृक्ष वनस्पतियों का वंश ही लुप्त होता चला जाता है। स्विट्जरलैंड के आर्गोविया प्रान्त में इसी शताब्दी में लगभग 400 वन सम्पदा की उपयोगी जातियों का अस्तित्व ही समाप्त हो गया।

वायु शुद्धि का दूसरा उपाय था हवन। उस प्रयोग में अणु विकरण तक को शुद्ध करने की शक्ति थी। गोपालन भी ऐसे संकटों से रक्षा करता था, पर सभ्यता के नाम पर अब हवन दकियानूसीपन कहा जाता है और गोपालन की जगह गो मरण को महत्व दिया जा रहा है।

वर्धा की मैत्री पत्रिका में केन्द्रीय मन्त्री श्री के.के. शाह के साथ रूसी वैज्ञानिक शिष्ट मंडल की वार्ता का वह सारांश छपा है—जिसमें रूसी वैज्ञानिकों ने यह कहा था कि—गाय के दूध में एटमिक रेडियेशन से रक्षा करने की सबसे अधिक शक्ति है। अगर गाय के घी को अग्नि में डालकर उसका धुंआ पैदा किया जाय—जिसको भारतीय भाषा में हवन कहते हैं तो उससे वायु मंडल में एटॉमिक रेडियेशन का प्रभाव बहुत कम हो जायगा। इतना ही नहीं गाय के गोबर से लिपे हुए मकान में रेडियेशन घुसना बहुत कठिन है।

वायु को निरन्तर गन्दी बनाते जाने का—और उसकी शुद्धि उपायों से विमुख रहने का हमारा रवैया अन्ततः अपने लिए ही घातक सिद्ध होगा।

यज्ञों द्वारा वायु मंडल के परिष्कार और जलवायु नियन्त्रण की बात को अब हास्यास्पद समझा जाता है, पर दरअसल आलोच्य यज्ञ करने और कराने वाले नहीं, वे तो आज नहीं तो कल निश्चित रूप से विश्व-संरक्षक माने ही जाने वाले हैं, दर-असल निन्दनीय तो आज की भौतिकता की वह बाढ़ है जो मनुष्य जाति को यान्त्रिकता के रोग और धुंए की घुटन से भरती ही जा रही है। वायु दूषण आज की मुख्य समस्या है उसे न रोका गया तो मानव अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है।

टैक्सास विश्व-विद्यालय का क्रीड़ांगन बढ़ाया गया। इसके लिए आस-पास के बहुत से वृक्ष काटे गये। इसका विरोध भी किया गया कि इस शिक्षा केन्द्र के लिए हरितमा की भी उपयोगिता है उसे नष्ट न किया जाय, पर किसी ने सुना नहीं। सायप्रस के दर्जनों विशाल वृक्ष काटकर धराशायी कर दिये गये। जब वह उपवन वृक्षों का बूचरखाना बन रहा था तो एक स्नातक कटे हुए वृक्ष के कोंतर में एक दिन तक विरोध प्रदर्शन के लिए बैठा रहा उसके हाथ में पोस्टर था, ‘‘ट्रीज एण्ड पिपल बिलांग टू गेदर’’ अर्थात् वृक्ष और मानव साथ-साथ जीते हैं। वृक्षों का मरण प्रकारान्तर से मनुष्यों का ही मरण है। इस बात को ध्यान में रखते हुए वृक्षों की संख्या तेजी से बढ़ाई जानी चाहिए। अपने घरों के आस-पास तथा जहां भी उपयुक्त स्थान मिले इसे इस युग का सर्वोपरि पुण्य मानकर वृक्षारोपण करने और दूसरों को भी इन तथ्यों की जानकारी देने की श्रेयष्कर परम्परा डालनी चाहिए।
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