पितरों को श्रद्धा दें, वे शक्ति देंगे

​​​पितर : अदृश्य सहायक

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आइन्स्टाइन कहते हैं—‘‘पदार्थ की सूक्ष्मतर सत्ता तक जब मेरी कल्पना और अनुभव शक्ति पहुंच जाती है तो मुझे यह विश्वास सा होने लगता है कि वहां पहले से ही कोई विचार और परिवर्तन करने वाली चेतन सत्ता विद्यमान् है। मैंने तो केवल उसके साथ एकाकार किया है। अब मुझे विश्वास होने लगा है कि यह कोई अदृश्य जगत की सूक्ष्म किन्तु महान शक्तिशाली सत्ता है।’’

आध्यात्मिकता का उद्देश्य भी परमात्मा अथवा विश्व की किसी महान् रक्षा करने वाली शक्ति के साथ जोड़ना है। ब्रह्माण्ड का अस्तित्व और इसका सत्य जिसके अन्तर्गत सम्भवतः लाखों विश्व हैं—जिनका कोई अन्त नहीं है, हमारी इन्द्रियों और बुद्धि के अनुभव की वस्तु है। ऊपर से देखने पर तो यह पता चलता है कि ब्रह्माण्ड अव्यवस्थित है पर जब सूर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, हर्शल प्लूटो और अन्य ग्रह-नक्षत्रों की गतिविधियों पर दृष्टि दौड़ाते हैं तो लगता है, सब कुछ व्यवस्था और नियम के अन्तर्गत चल रहा है। जिससे स्पष्ट पता चलता है कि सबको जोड़ने वाली एक शक्ति है, जो प्रकृति अथवा बुद्धि का कोई अंश नहीं है वरन् वह नितान्त स्वतन्त्र, निर्लेप, बन्धनमुक्त है। मनुष्य में स्वयं भी उसी शक्ति का प्रकाश विद्यमान है। किन्तु वह मांस-मज्जा की कारा में दंधकर अपने को उन्हीं से जुड़े संवेदनों तक सीमित मान बैठता है। जैसा कि श्री सी.डब्लू. लेडबीटर ने ‘‘इनविजिबुल हेल्पर्स’’ में लिखा है—उच्चतर लोगों में क्रियाशील अशरीरी पितर-सत्ताएं जब मनुष्यों को देखती हैं, तो वे उन्हें अस्ति-मांस के पिण्ड में कैद हो गया देखकर दुःखी भी होती हैं, करुणाभिभूत भी। सामान्य जन मृत व्यक्ति को सुख-आनन्द से वंचित हो गया मान बैठता है, जब कि वे सत्ताएं देखती हैं कि अपनी संकीर्णताओं में घिरा शरीरधारी मानव ही सहज आनन्द से वंचित है। ऐसे वंचितों में से जो भी आनन्दपूर्ण प्रकाश की दिशा में बढ़ते हैं, या जिनमें भी बढ़ने की सम्भावना होती है, अथवा जो कषाय-कल्मषों से अधिक लिप्त नहीं होते, उनको सहायता देने के लिए वे पितर-सत्ताएं सदैव जागरूक रहती हैं।

निर्दोष बच्चों तथा सज्जनवृत्ति के लोगों की संकट के समय में ये पितर-सत्ताएं आकस्मिक सहायता प्रदान करती हैं और विपत्तियों के पहाड़ के नीचे दबने पर भी उनका बाल-बांका नहीं होता।

इन पितर-सत्ताओं की करुणा और शक्ति के परिचय-प्रमाण देने वाली घटनाएं आये दिन बड़ी संख्या में देखी सुनी जाती हैं।

श्री लेडबीटर ने अपनी उपरोक्त पुस्तक में ऐसे अनेक उदाहरण और अनुभव प्रस्तुत किए हैं—

‘‘एक बार लन्दन की हालबर्न सड़क में भयंकर आग लग गई थी। उसमें दो मकान जलकर राख हो गये। उस घर में एक बुढ़िया को जो धुएं के कारण दम घुट जाने से पहले ही मर गई थी छोड़कर शेष सबको बचा लिया गया। आग इतनी भयंकर लगी थी कोई भी सामान नहीं निकाला जा सका।’’

‘‘जिस समय दोनों मकान लगभग पूरे जल चुके थे, तब घर की मालकिन को याद आया कि उसकी एक मित्र अपने बच्चे को एक रात के लिये उसके पास छोड़कर किसी कार्यवश कालचेस्टर चली गई थी। वह बच्चा अटारी पर सुलाया गया था और वह स्थान इस समय पूरी तरह आग की लपटों से घिरा हुआ था, आग की गर्मी से उस समय पत्थर भी मोम की तरह पिघला कर टपक रहे थे।’’

‘‘ऐसी स्थिति में बच्चे के जीवन की आशा करना ही व्यर्थ था फिर उसकी खोज करने कौन जाता। पर एक आग बुझाने वाले ने साहस साधा, उपकरण बांधे और उस कमरे में जो पहुंचा, जहां बच्चा लिटाया गया था। उस समय तक फर्श का बहुत भाग जल कर गिर गया था किन्तु आग कमरे में गोलाई खाकर अस्वाभाविक और समझ में न आने वाले ढंग से खिड़की की तरफ निकल गई थी। उस गोल सुरक्षित स्थान में बच्चा ऐसा लेटा था, जैसे कोई अपनी मां की गोद में लेटा हो। बाहर का दृश्य देखकर यह भयभीत अवश्य था पर उसकी तरफ एक भी आग की चिनगारी बढ़ने का साहस न कर रही थी। जिस कौने पर बच्चा सोया था, वह बिल्कुल बच गया था। जिस पटिये पर खाट थी, वह आधे-आधे जल गये थे पर चारपाई के आस-पास कोई आग न थी, वरन् एक प्रकार का दिव्य तेज वहां भर रहा था। जब तक आग बुझाने वाले ने बच्चे को सकुशल उठा नहीं लिया, वह प्रकाश अपनी दिव्य प्रभाव बिखराता रहा पर जैसे ही वह बच्चे को लेकर पीछे मुड़ा कि आग वहां भी फैल गई और दिव्य तेज अदृश्य हो गया।’’

बर्किंघर शायर में बर्नहालवीयो के निकट हुई, एक घटना में इस तरह का दैवी हस्तक्षेप लगभग एक घण्टे तक दृश्यमान् रहा। एक किसान अपने खेत पर काम कर रहा था। उसके दो छोटे-छोटे बच्चे भी थे, जो पेड़ के नीचे छाया में खेल रहे थे। किसान को ध्यान रहा नहीं दोनों बालक खेलते-खेलते जंगल में दूर तक चले गये और रात्रि के अंधेरे में भटक गये।

इधर किसान जब घर पहुंचा और बच्चे न दिखाई दिये तो चारों तरफ खोज हुई। परिवार और पड़ौस के अनेक लोग उस खेत के पास गये, जहां से बच्चे खोये थे। वहां जाकर सब देखते हैं कि दीप-शिखा के आकार का एक अत्यन्त दिव्य नीला प्रकाश बिना किसी माध्यम के जल रहा है, फिर वह प्रकाश सड़क की ओर बढ़ा यह लोग उसके पीछे अनुसरण करते चले गये। प्रकाश मन्दगति से चलता हुआ, उस जंगल में प्रविष्ट हुआ जहां एक वृक्ष के नीचे दोनों बच्चे सकुशल सोये हुए थे। मां-बाप ने जैसे बच्चों को गोदी से उठाया कि प्रकाश अदृश्य हो गया।

दैनिक ‘हिन्दुस्तान’ में छपी एक घटना इस प्रकार है—

‘‘जबलपुर । भक्त प्रहलाद के काल में घटी उस घटना की पुनरावृत्ति इस कलियुग में हुई, जिसमें कुम्हार के जलते हुए भट्टे में ईश्वर में ईश्वर ने बिल्ली और उसके बच्चों की रक्षा की थी। अन्तर केवल यह था कि वे बिल्ली के बच्चे थे और इस बार चिड़िया के अण्डे। पन्ना जिले के धर्मपुर स्थान में कच्ची ईंटों को पकाने के लिये एक बड़ा भट्ठा लगाया गया। भट्टे को जिस समय बन्द किया गया और आग लगाई गई, किसी को पता नहीं चला कि ईंटों के बीच एक चिड़िया ने घोंसला बनाया है और उसमें अपने अण्डे सेये हैं। एक सप्ताह तक भट्ठा जलता रहा और ईंटें आंच में पकती रहीं, आठवें दिन जैसे ही भट्टा खोला गया एक चिड़िया उड़कर बाहर निकल भागी। बाद में पाया कि उस स्थान पर जहां घोंसला था, आग पहुंची ही नहीं। वहां की ईंटें कच्ची थीं। यह घटना देखकर वहां के प्रत्यक्ष-दर्शियों को विश्वास करना पड़ा कि अदृश्य सत्ताओं का अस्तित्व है।’’

मात्र संयोग ही नहीं

बिहार में एकबार जोरदार भूकम्प आया। कई दिन तक रह रहकर पृथ्वी कांपी और जब स्थिर हुई तब पता चला कि नगर के नगर ध्वस्त हो चुके हैं। हजारों व्यक्तियों की जानें गई इस दुर्घटना में। मुंगेर नगर में उस दिन बाजार थी। दोपहर का समय था हजारों व्यक्ति क्रय-विक्रय करने में तल्लीन थे तभी आया भूचाल और उन हजारों दुकानदारों तथा खरीददारों को मकानों के मलबे में दाब कर चला गया।

पीछे आये सहायता दल सिपाही-सैनिक और समाज सेवी संस्थायें। मलबे की खुदाई प्रारम्भ हुई। एक दो दिन तक तो कुछ लोग जीवित कुछ चोट खाये निकलते रहे पर तीसरे दिन जो लाशें निकलनी शुरू हुई तो फिर पन्द्रह दिन तक लाशें ही निकलती रहीं ढेर लग गया मृतकों का।

गिरे हुये मकानों का मलबा निकालने का काम अभी तक बराबर चल रहा था। एक स्थान पर काम चल रहा था, एकाएक कुछ लोग चौंके क्योंकि नीचे से आवाज आ रही थी—‘‘थोड़ा धीरे से खोदना। 15 दिन तक जमीन में दबे रहने पर भी यह कौन जीवित बचा है इस आश्चर्य और विस्मय से सभी का मन भर गया। सावधानी से मिट्टी हटाई जाने लगी।’’

कई बड़ी-बड़ी धत्रियां तथा शहतीरें निकालने के बाद निकल एक अधेड़ आयु का व्यक्ति केले के छिलकों में पड़ा हुआ, एक भी चोट या खरोंच नहीं थी उसे सबसे आश्चर्य भरी बात तो यह थी ढेर सारी मिट्टी और तख्तों के नीचे दबे उस आदमी ने बिना खाये पिये सांस लिए 15 दिन कैसे काट दिये।

उसी से पूछा गया—भाई तुम कैसे बच निकले तो उसने आप बीती घटना इस प्रकार सुनाई—

‘‘मैं आया था—केले बेचने, इस मकान की दालान के सिर नीचे पर टोकरी रखे खड़ा था कि भूचाल आ गया। छत टूट कर ऊपर आ गिरी मैं दब गया टोकरी कुछ इस प्रकार उल्टी कि सारे केले उसके नीचे आ गये और इस तरह वे पिचलने या सड़ने गलने से बच गये। इसी में से निकाल-निकाल कर केले खाता रहा।’’

‘‘पेट के नीचे का भाग कुछ इस तरह मिट्टी से पट गया कि सिरोभाग से कमर भाग का सम्बन्ध ही टूट गया। टट्टी पेशाब की बदबू से इस प्रकार बचाव हो गया।’’ ‘‘एक बार पृथ्वी फिर हिली और उसके साथ ही हिला यह मलबा, न जाने कैसे एक सूराख हो गया वह हलकी सी धूप की गर्मी भी देता रहा और शुद्ध हवा भी। अब जीते रहने के लिए एक ही वस्तु आवश्यक रह गई थी वह थी पानी। दैवयोग से पृथ्वी तिबारा कांपी तब इस दुकान का फर्श टूटा और उसके साथ ही पानी की एक लहर इधर आ गई और इस गड्ढे को पानी से ऊपर तक भर गई। हवा और धूप यों छेद से मिल गये। केले पास थे ही, पानी भी परमात्मा ने भेज दिया। यह सब व्यवस्थायें भगवान् ने जुटा दीं तो मुझे विश्वास हो गया कि मुझे अभी नहीं मरना।’’

‘‘इसी विश्वास के सहारे आज तक जीवित रहा। आज का दिन आखिरी दिन है जबकि सब केले समाप्त हो गये हैं, पानी नहीं बचा है, रोशनी भी नहीं आ रही थी पर आप सब लोग आ गये सो मैं आप लोगों को भगवान् की मदद ही मानता हूं।’’ इतना कहकर उसने कृतज्ञता की दो बूंद आंखों से लुढ़का दीं।

इस घटना का वर्णन महात्मा आनन्द स्वामी ने ‘एक ही रास्ता’ पुस्तक में किया है इस तरह की घटनायें बताती हैं कि अदृश्य सत्ताएं सत्पुरुषों और पीड़ितों की मदद के लिए सदैव आगे आती हैं।

वेल्स की मुख्य सड़क से 22 वर्षीया युवती पैपिटा हैरिसन अपने पिता के जन्म-दिवस समारोह में भाग लेने लन्दन जा रही थी। अचानक कार एक बर्फ की चट्टान से टकरा गई, फिर एक दीवार तोड़कर एक खेत में घुस गई। दुर्भाग्य से खेत ढलान पर था, कार वहां से लुढ़की और 80 फुट नीचे नदी में जा गिरी। दुर्भाग्य ने वहां भी पीछा न छोड़ा, नदी में पास ही 20 फुट गहरा जल प्रपात था, कार उसमें जा गिरी, इस बीच वह डूबने के लिये प्रयत्न करने लगी तो ऐसा जान पड़ा, किसी ने हाथ पकड़ कर ऊपर उठा लिया हो। वह बाहर निकल आई।

सन् 1874 की बात है। इंग्लैण्ड का एक जहाज धर्म प्रचार के सिलसिले में—न्यूजीलैण्ड के लिये रवाना हुआ। उसमें 214 यात्री थे। वह विस्के की खाड़ी से बाहर ही निकला था कि जहाज के पेंदे में छेद हो गया। मल्लाहों के पास जो पम्प थे तथा दूसरे साधन थे उन, सभी को लगाकर पानी निकालने का भरपूर प्रयत्न किया, पर जितना पानी निकलता था उसे भरने की गति तीन गुनी तेज थी।

निराशा का वातावरण बढ़ता जाता था। जब जहाज डूबने की बात निश्चित हो गई तो कप्तान ने सभी यात्रियों को छोटी लाइफ बोटों में उतर जाने और उन्हें खेकर कहीं किनारे पर जा लगने का आदेश दे दिया। डूबते जहाज में से जो जाने बचाई जा सकती हों, उन्हें ही बचा लिया जाय। अब इसी की तैयारी हो रही थी। तभी अचानक पम्पों पर काम करने वाले आदमी हर्षातिरेक से चिल्लाने लगे। उन्होंने आवाज लगाई कि जहाज में पानी आना बन्द हो गया। अब डरने की कोई जरूरत नहीं रही। यात्रियों ने चैन की सांस ली और जहाज आगे चल पड़ा। काल्पर्सडाक बन्दरगाह पर उस जहाज की मरम्मत कराई गई तब पता चला कि उस छेद में एक दैत्याकार मछली पूंछ फंसकर इतनी कस गई थी कि न केवल छेद ही बन्द हुआ वरन् मछली भी घिसटती हुई साथ चली आई।

इस घटना से ऐसा लगता है कि ईसाई धर्म को मानने वाली किन्हीं पितर—सत्ताओं ने ही यह विलक्षण सहायता पहुंचाई होगी।

कई बार ऊपर से दीखने वाली विपत्ति के पीछे भी दिव्य अनुग्रह छिपा रहता है। तात्कालिक हानि कालांतर में हानि उठाने वालों को भी सुखद सिद्ध होती है और साथ ही दूसरों का भी उससे भला होता है। इसलिए प्रत्येक हानि को दुर्भाग्य सूचक या दैवी कोप ही नहीं मान लेना चाहिए।

लीसवे का समुद्री प्रकाश स्तम्भ आजकल जहां खड़ा है वहां किसी जमाने में जहाजों के लिये भारी खतरा था। उस उथलेपन में फंसकर अनेकों जलयान या तो नष्ट हो जाते थे या क्षतिग्रस्त। उस स्थान पर प्रकाश स्तम्भ खड़ा करना भी सम्भव नहीं हो रहा था क्योंकि वहां की जमीन बालू की थी।

सन् 1771 में एक जहाजी दुर्घटना हुई। एक रुई से लदा अमेरिकी जहाज—दुर्भाग्य का शिकार होकर उसी दलदल में फंसकर नष्ट हो गया। कुछ विचित्र संयोग ऐसा हुआ कि रुई, बालू और उस जल के विचित्र सम्मिश्रण से वह रुई पत्थर जैसी कठोर हो गई। फलस्वरूप उसी की नींव पर प्रकाश स्तम्भ खड़ा किया गया जिससे भविष्य में उस क्षेत्र में जहाज नष्ट होने की आशंका समाप्त हो गई। उस एक जहाज के डूबने से जो प्रकाश स्तम्भ बना उसके कारण अमेरिकी जहाज भविष्य के लिये उस तरह की दुर्घटना के शिकार होने से सदा के लिए बच गये और अन्य यानों को भी उस तरह के संकट से छुटकारा मिल गया। अभिशाप को वरदान में बदलने वाली दुर्घटना यह आशा दिलाती है कि किसी अनिष्ट के पीछे मंगल भी छिपा हो सकता है।

बहुत संभव है कि उदार अशरीरी आत्माओं ने ही दुर्घटनाग्रस्त जलयानों की क्षति से लोगों को बचाने के लिए इस रीति से रास्ता बनाया हो।

एक भारवाहक उच्छृंखल गधा एक रात चुपके से घर से खिसक गया। उसके मालिकों ने उसे कई दिन ढूंढ़ने के बाद मुश्किल से एक जगह खड़ा पाया। अमेरिका की इट्टाही पहाड़ियों की जिस सुरम्य घाटी में यह गधा खड़ा था वहां कुछ देर सुस्ताने के बाद उसके मालिक रुके और वे लोग उसे घर ले चलने के लिये घसीटने लगे, पीटा भी पर वह अड़ियल बनकर खड़ा हो गया और लौटने से इनकार करने लगा।

मालिकों ने ध्यान से देखा तो दीखा कि वहां रजत सीसिया धातु की बहुत बड़ी खान है। इस पहाड़ी पर उन्होंने कब्जा कर लिया, इन दिनों के अमेरिकी कानून के अनुसार खाली जगह पर कब्जा करने वाले ही उसके मालिक हो जाते थे। कब्जा होने के बाद मालिकों की सरकारी स्वीकृति के लिये अर्जी दी गई। सन् 1865 में इस प्रकार की अर्जियों की सुनवाई करने वाले इदाही अदालत के न्यायाधीश श्री नार्मन वक ने सारी कथा ध्यान पूर्वक सुनी और उपरोक्त दोनों व्यक्तियों को कब्जा देते हुए अपने फैसले में यह भी लिखा कि इस खान का असली शोध कर्त्ता और कब्जा करने वाला वह गधा है इसलिये आमदनी के एक बड़े अंश की अधिकारी वह गधा है।

यह स्थान आज वंकर पहाड़ी तथा सुल्ली खान के नाम से प्रसिद्ध है। इसकी सम्पत्ति अब 43 अरब डालर से भी अधिक है। अड़ियल गधा अपने शोध उपहार की आमदनी का एक बड़ा अंश प्राप्त करता रहा।

इस कम्पनी के मालिकों ने गधे के नाम की सम्पत्ति को परमार्थ प्रयोजनों के लिये सुरक्षित रखा और उससे वहां कितने ही लोकोपयोगी कार्यों की नींव डाली गई। अदृश्य सहायता का ऐसा ही सदुपयोग होना भी चाहिए।

अदृश्य सत्ताओं द्वारा चिकित्सा-सहायता हेतु मार्ग दर्शन

फिलीपीन में एक आश्चर्यजनक चिकित्सक है—टोनी एप गोआ। उसकी चिकित्सा प्रणाली इस युग के चिकित्सा शास्त्रियों को अचरज में डालती है। वे उसे देखने जाते हैं। उसकी प्रणाली देखते हैं, तो चकित रह जाते हैं पर समझ नहीं पाते कि उसका कारण क्या है और यह सब कैसे सम्भव होता है।

27 वर्षीय तान्त्रिक टोनी चिकित्सा व्यवसाय करता है। मुख्य रूप से वह शल्य चिकित्सक है। ट्यूमर, केन्सर, मोतियाबिन्द के आपरेशन करता है और विकृत माद्दा शरीर में से निकाल कर बाहर रख देता है। उसके पास न चाकू है न कैंची न सुई फिर भी आपरेशन करते रहा एक अद्भुत काम है। जो जादू जैसा प्रतीत होता है।

टानी क्लेजन के कुवाओं इलाके में दो मंजिल मकान में रहता है। ऊपर अपने परिवार सहित खुद रहता है नीचे उसका अस्पताल है। विभिन्न रोगों से ग्रस्त आपरेशन योग्य रोगी ही उसके पास आते हैं। उन्हें वह एक मेज पर लिटाता है मन्त्र पढ़ता है। चाकू का काम उसका हाथ ही करता है। काटने-फाड़ने चीरने की क्रिया वह उंगली से करता है। ट्यूमर, केन्सर, गांठ, मवाद आदि को भीतर से निकाल कर बाहर रख देता है। इसके बाद वह बिना सुई के घाव को जोड़ देता है। इस बीच उसका चचेरा भाई एल्फ्रेडो उसके साथ रहता है और तौलिया देने—चीजें उठाने जैसे काम करता रहता है। थोड़ा खून तो निकलते देखा जाता है पर रोगी को दर्द जरा भी नहीं होता और आपरेशन ठीक और सम्पन्न हो जाता है। प्रतिदिन ऐसे 10 से लेकर 20 तक आपरेशन उसे करने पड़ते हैं।

रोगियों की—प्रशंसकों की सारी भीड़ उसे घेरे रहती है। पहले वह फिलीपीन की राजधानी मनीला में रहता था। ख्याति के साथ-साथ भीड़ बढ़ी तो उसने वह स्थान छोड़ दिया। नई जगह में उसने नाम का बोर्ड आदि कुछ नहीं लगाया है तो भी लोगों ने पता वहां पर लगा लिया और रोगी वहां भी पहुंचते हैं। जो आधुनिक आपरेशनों से सम्भव है वह कर देने का दावा टोनी भी करता है। उसकी चिकित्सा विधि देखने डॉक्टर वैज्ञानिक आते हैं और सारे क्रिया-कृत्य के फोटो फिल्म ले जाते हैं पर इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाते कि यह असम्भव दीखने वाली बात सम्भव कैसे हो पाती है।

टोनी सपगोआ अपने इस कार्य का श्रेय किसी देवता को देता है। कहता है—उसका अद्भुत रक्षक जो कराता है वह वही करता है। आपरेशनों में वही उसके साथ रहता है और सहायता करता है। इसके अतिरिक्त उस देवता के बारे में कुछ अधिक नहीं बताता।

मियामी फ्लोरिडा के वेल्क पेरा साइकोलोजी रिसर्च फाइण्डेशन के प्रतिनिधि डा. बनर्जी वहां गये। यह सब देखा—क्रिया-कलाप के फोटो भी लाये पर इस निष्कर्ष पर न पहुंच सके कि यह सब कैसे और क्या कर संभव होता है?

अन्ध विश्वास कहकर अवहेलना न करें श्रद्धा-कृतज्ञता भी जीवित रखें

अन्ध-विश्वास की मोटी परिभाषा है बिना प्रमाण युक्त कारणों की किन्हीं मान्यताओं को स्वीकार कर लेना। इस संदर्भ में मनीषियों के अन्यान्य प्रतिपादन भी हैं। रायल इन्स्टीट्यूट आफ लंदन में विज्ञान और अन्ध-विश्वास विषय पर अपना निबन्ध पढ़ते हुए रेवेन्डर चार्ल्स किंग्सले ने उसे ‘अज्ञात का भय’ सिद्ध किया। उनका मतलब शायद उन देवी देवताओं या भूत-प्रेतों से था जो भेंट-पूजा ऐंठने के लिए डराने, धमकाने और आतंकित करने वाले माने जाते हैं। पर उनका यह प्रतिपादन भी एकाकी था। प्राचीन यूनान में प्रत्येक नदी, वृक्ष, पर्वत आदि में देवात्मा मानी जाती थी और उससे मात्र शुभ-कामना की आशा की जाती थी। यह आत्माएं डराती नहीं, वरन् स्नेह, सहयोग प्रदान करती हैं। यूनानियों की देव-मान्यता अन्ध-विश्वास कही जा सकती है, पर उसका कारण ‘अज्ञात का भय’ नहीं माना जा सकता।

नेशनल कालेज आयरलेण्ड के प्राध्यापक सर वारंट ने कार्य और कारण की संगति बिठाये बिना किन्हीं मान्यताओं को अपना लेना अन्ध विश्वास बताया है। इस परिधि में अनेकानेक धार्मिक प्रचलन और कथा-पुराणों में बताये हुए सन्दर्भ भी आ जाते हैं। शकुन एवं मुहूर्त भी इसी वर्ग के हैं। छींक हो जाने की, काम बिगड़ने की सूचना मानना यद्यपि बहु प्रचलित मान्यता है, पर खोजने पर ऐसा कोई कारण समझ में नहीं आता जिसमें छींक आने और काम बिगड़ने की परस्पर संगति बिठाई जा सके।

भूतकालीन मान्यताओं को यदि तथ्य पूर्ण नहीं सिद्ध किया जा सके तो उन्हें अग्राह्य ठहरा देना चाहिए, इस सिद्धान्त पर इन दिनों बुद्धिजीवी वर्ग का बहुत जोर है। इतने पर भी यह नहीं कहा जा सकता कि जो तथ्य आज उपलब्ध हैं वे ही अन्तिम हैं, आगे ऐसे आधार प्रस्तुत नहीं होंगे जिनसे आज अन्ध-विश्वास समझी जाने वाली बातें कल तथ्यपूर्ण सिद्ध हो सकें। तर्क, विवेक, कारण और प्रमाणों को उचित महत्व दिया जाना चाहिए पर चिन्तन में यह गुंजाइश भी छोड़ी जानी चाहिए कि शोध की प्रगति किन्हीं भूतकालीन मान्यताओं को सही भी सिद्ध कर सकती है। उचित यही है कि हम प्रमाणित सिद्धान्तों को स्वीकार करते हुए मस्तिष्क को इसके लिए खुला हुआ रखें कि अतीत की अध्यात्म संबंधी मान्यताओं को भविष्य में सही सिद्ध हो सकने की सम्भावना है। सामाजिक कुरीतियों के रूप में जो हानिकारक प्रचलन हैं उन्हें निस्संकोच हटाया जाय, पर अध्यात्म मान्यताओं के सम्बन्ध में उतावली न बरती जाय। तत्वदर्शी ऋषियों के अनुभव सहज ही उपहासास्पद नहीं ठहरा दिये जाने चाहिए और उन्हें तत्काल अन्ध-विश्वासों की श्रेणी में नहीं गिन लेना चाहिए।

पिछले दिनों योग सम्बन्धी प्राचीन मान्यताओं को अप्रामाणिक ठहराने वालों को अपनी बात पर पुनर्विचार करना पड़ा है और अत्युसाही खण्डन प्रवृत्ति से पीछे हटना पड़ा है।

डा. मेस्मर की मेस्मरिज्म और जेम्स ब्रेयड की हिप्नोटिज्म जब प्रयोगशाला में सही सिद्ध होने लगी, तब उस आधार पर रोगियों को बेहोश करके आपरेशन किये जाने लगे और अचेतन मस्तिष्क का चमत्कारी उपयोग किया जाने लगा तो योग की इन शाखाओं को मान्यता मिली और समझा जाने लगा कि मानवी विद्युत से सम्बन्धित अन्य प्रतिपादनों में भी तथ्य हो सकता है और वे अगले दिनों प्रमाणित ठहराये जा सकते हैं।

क्लौरिंगटन ने ‘ईविल आई’ सिद्धान्त के अनुसार यह सिद्ध किया है कि नेत्रों में बेधक दृष्टि होती है और उसे विशेष उपायों से समुन्नत करके दूसरों को अच्छे या बुरे प्रभाव के अन्तर्गत लाया जा सकता है। यह सिद्धान्त लगभग उसी स्तर का है जिसके अनुसार ‘नजर लगने’ की पुरानी मान्यता को अन्ध-विश्वास ठहरा दिया गया है।

चार्ल्स बाइविन ने इच्छा शक्ति एवं एकाग्रता की शक्ति को जादुई चमत्कारों से लेकर शारीरिक, मानसिक रोगों की निवृत्ति तक के लिए प्रयुक्त करके दिखाया और बताया है कि यह शक्ति मानवी क्षमताओं में अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इसके प्रयोग से व्यक्तित्व को प्रतिभाशाली बताने की दिशा में आशातीत सफलता पाई जा सकती है और अपने में ऐसी विशेषताएं उत्पन्न कर सकते हैं जिन्हें अद्भुत कहा जा सके। इस सन्दर्भ में उनके प्रयोगों ने दर्शकों को चकित कर दिया है। यह मन्त्र शक्ति के सम्बन्ध में कहे जाने वाले चमत्कारी वर्णनों की पुनरावृत्ति है।

सोसाइटी फार साइकिकल रिसर्च के अध्यक्ष जी.एन. टीरेल ने अपनी खोजों में ऐसे प्रमाणों के पहाड़ लगा दिये हैं जिनमें प्रेतात्माओं के अस्तित्व एवं क्रिया-कलाप के लगभग वैसे ही प्रमाण मिले हैं जैसे कि जीवित मनुष्यों के होते हैं। ठीक इसी प्रकार की शोधें स्प्रिचुअल सोसाइटी आफ ब्रिटेन की है उसके संचालक भी अपनी संग्रहीत प्रमाण सामग्री में प्रेतात्माओं के अस्तित्व को इस प्रकार सिद्ध करते हैं जिससे अविश्वासियों को भी विश्वास करने के लिए बाध्य होना पड़े। यह प्रतिपादन प्रायः उन्हीं बातों को पुष्ट करता है जिन्हें बताने के कारण झाड़-फूंक करने वाले ओझा लोगों का अथवा भूत-प्रेत की बातें करने वालों को अन्ध-विश्वासी कहा जाता रहा है।

स्वप्नों के मिथ्या होने की बात बुद्धिजीवी वर्ग में कही जाती रही है। पर जब कितने ही उदाहरण ऐसे मिलते हैं जिनमें स्वप्न में देखी गई बात यथार्थ निकली अथवा स्वप्न में मिली सूचना भविष्य कथन बनकर सामने आई तब परामनोविज्ञान के विश्लेषणकर्त्ताओं को मनुष्य की अतीन्द्रिय शक्ति का स्वप्नों के साथ एक सीमा तक घुला रहने की बात स्वीकार करनी पड़ी। स्वप्न फल बताने वालों को अन्ध-विश्वासी ही कहा जाता रहे, आज के प्रस्तुत प्रमाणों को देखते हुए यह बात न्याय संगत प्रतीत नहीं होती। मेन्टल टेलीपैथी—क्लेयर वायस आदि ऐसी अध्यात्म विधा सामने आती जा रही हैं जो भूतकालीन चमत्कारवाद की सत्यता मानने के लिए फिर वापिस लौट चलने का निमन्त्रण देती हैं। मैटा फिजिक्स विज्ञान का जिस क्रम से विकास हो रहा है उसे देखते हुए लगता है वह दिन बहुत दूर नहीं रह गया जब मस्तिष्क विद्या हमें प्रत्याहार, ध्यान, धारणा, समाधि जैसे योगाभ्यासों को न केवल सही आधार पर विनिर्मित सिद्ध करेगी, वरन् यह भी बतायेगी कि उपासना, साधना की पद्धतियां जीवन के अन्तरंग और बहिरंग दोनों पक्षों के विकास उपयोगी है और सहायक भी।

ऐसी दशा में हमें अन्ध-विश्वासों की सीमा निर्धारित करते हुए प्राचीन आध्यात्मिक मान्यताओं के सम्बन्ध में थोड़ा उदार दृष्टिकोण ही रखना चाहिए और विज्ञान बुद्धि द्वारा यथार्थता तक पहुंचने के लिए जितनी प्रतीक्षा की आवश्यकता है उसे बिना उतावली के पूरी होने देना चाहिए।

अदृश्य शक्तियों, उदार पितरों देव—सत्ताओं और प्रजापतियों द्वारा सहयोग—मार्ग दर्शन दें सकता भी ऐसा ही एक सत्य है। प्राचीन आध्यात्मिक मान्यताओं में से यह भी एक है और पूर्णतः वास्तविक है। अन्ध विश्वास नहीं। उसे अन्ध विश्वास मान बैठना हठवादिता तो है ही, अकृतज्ञता भी है। इसलिए अदृश्य सहायकों के प्रति गहन श्रद्धा-भाव की आवश्यकता है, न कि प्रामाणिक घटनाक्रमों एवं तथ्यों की अवहेलना करने की।
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