प्राणियों का शास्त्रीय वर्गीकरण शरीरधारी और अशरीर दो भागों में किया गया है। अशरीरी वर्ग में—(1) पितर (2) मुक्त (3) देव (4) प्रजापति हैं। शरीरधारियों में (1) उद्भिज (2) स्वेदज (3) अंडज (4) जरायुज हैं।
चौरासी लाख योनियां शरीरधारियों की हैं। वे स्थूल जगत में रहती हैं और आंखों से देखी जा सकती हैं। दिव्य जीव जो आंखों से नहीं देखे जा सकते हैं उनका शरीर दिव्य होता है। सूक्ष्म जगत में रहते हैं। इनकी गणना तत्वदर्शी मनीषियों ने अपने समय में 33 कोटि की थी। तेतीस कोटि का अर्थ उनके स्तर के अनुरूप तेतीस वर्गों में विभाजित किये जा सकने योग्य भी होता है। कोटि का एक अर्थ वर्ग या स्तर होता है। दूसरा अर्थ है—करोड़। इस प्रकार यह भी कहा जा सकता है कि उस दिव्य सत्ताधारियों की गणना तेतीस करोड़ की संख्या में सूक्ष्मदर्शियों ने की होगी। जो हो उनका अस्तित्व है—कारण और प्रभाव भी।
जीवों के विकास क्रम को देखने से पता चलता है कि कितनी ही प्राचीन जीव जातियां लुप्त होती हैं और कितने ही नये प्रकार के जीवधारी अस्तित्व में आते हैं। फिर देश काल के प्रभाव से भी उनकी आकृति प्रकृति इतनी बदलती रहती है कि एक वर्ग को ही अनेक वर्गों का माना जा सके। फिर कितने ही जीव ऐसे हैं जिन्हें अनादि काल से जन-सम्पर्क से दूर अज्ञात क्षेत्रों में ही रहना पड़ा है और उनके सम्बन्ध में मनुष्य की जानकारी नहीं के बराबर है। कुछ प्राणी ऐसे हैं जो खुली आंखों से नहीं देखे जा सकते। सूक्ष्मदर्शी यन्त्रों से ही उन्हें हमारी खुली आंखें देख सकती हैं। इतने छोटे होने पर भी उनका जीवन-क्रम अन्य शरीरधारियों से मिलता जुलता ही चलता रहता है।
अपनी पृथ्वी बहुत बड़ी है उस पर रहने वाले जलचर—थलचर—नभचर कितने होंगे, इसकी सही गणना कर सकना स्थूल बुद्धि और मोटे ज्ञान साधनों से सम्भव नहीं हो सकती, केवल मोटा अनुमान ही लगाया जा सकता है, पर सूक्ष्मदर्शियों के असाधारण एवं अतीन्द्रिय ज्ञान से साधारणतया अविज्ञान समझी जाने वाली बातें भी ज्ञात हो सकती हैं। ऋषियों की सूक्ष्म दृष्टि ने अपने समय में जो गणना की होगी उसे अविश्वसनीय ठहराने का कोई कारण नहीं जब कि जीवन शास्त्रियों की अद्यावधि खोज ने भी लगभग उतनी ही योनियां गिनली हैं। इसमें कुछ ही लाख की कमी है जो शोध प्रयास जारी रहने पर नवीन उपलब्धियों के अनवरत सिलसिले को देखते हुए कुछ ही समय में पूरी हो सकती है, वरन् उससे भी आगे निकल सकती है।
देखे पहचाने जा सकने योग्य इन शरीरधारियों को मनीषियों ने चार भागों में विभक्त किया है—(1) उद्भिज (2) स्वेदज (3) अंडज (4) जरायुज।
उद्भिज वर्ग में पेड़-पौधे, लता गुल्म, घास, अन्न जड़ी-बूटियां आदि की गणना की जाती है। स्वेदज का मोटा अर्थ तो पसीने से उत्पन्न होने वाले ‘‘जूं’’ आदि का नाम लिया जाता है, पर वस्तुतः यह शब्द मेरुदण्ड रहित प्राणियों के लिए प्रयुक्त होता है, कीट-पतंग, मक्खी, मच्छर, टिड्डी, तितली आदि इसी वर्ग में आते हैं। अण्डज वे हैं जो अपने शरीर से अण्डा ही उत्पन्न कर सकते हैं। बच्चा उनके शरीर में नहीं पलता, वरन् अण्डे में विकसित होता और उसी को फोड़ कर शरीरधारी बनता है। इस वर्ग में मछलियां, पक्षी रेंगने वाले कीड़े आदि आते हैं। चौथे जरायुज जिन्हें पिण्डज भी कहते हैं वे जो माता के साथ नाल तन्तु से बंधे हुए उत्पन्न होते हैं। जन्म के समय ही जिनकी आकृति अपने जन्मदाताओं के अनुरूप होती है। मनुष्य और पशु इसी श्रेणी में गिने जा सकते हैं। यों स्वेदजों में से भी अधिकांश अण्डज ही होते हैं, पर उन्हें पृथक रीड़ रहित या रीड़ सहित होने के कारण पृथक वर्ग का गिना गया है।
शरीरधारियों की चौरासी लाख अथवा उससे न्यूनाधिक कितनी ही जातियां क्यों न हों, वस्तुतः उनका आरम्भिक जन्म एक ही रासायनिक तत्व से हुआ है। सृष्टि के आरम्भ में एक ही जीव रसायन था और वही अभी तक समस्त प्राणियों का संरचना का एकमात्र कारण है। परिस्थितियों ने लम्बे समय की क्रमिक विकास श्रृंखला में बांधकर उन्हें आगे बढ़ाया है। प्रगति की घुड़दौड़ में एक से अनेक बने हुए प्राणधारी अपनी दिशा और तीव्रता के सहारे विभिन्न स्तर के विभिन्न आकृति प्रकृतियों के बनते चले गये हैं।
सृष्टि के प्रारम्भ होने से पूर्व ब्रह्म एक था। उसने एक से बहुत होने की इच्छा की तदनुसार वह अपने आपको विभक्त कर बैठा और उन खण्ड-विखण्डों ने अपनी विभिन्न प्रकार की आकृति-प्रकृति बनाली। तदनुसार यह विश्व अनेकानेक जड़-चेतन पदार्थों में बनता, बढ़ना और विकसित परिष्कृत होता हुआ वर्तमान स्थिति तक आ पहुंचा।
जीवन विद्या का निष्कर्ष यह है कि विश्व-व्यापी चेतना अविच्छिन्न है। प्रत्येक प्राणी में वही समुद्र की लहरों की तरह छोटे-बड़े वर्गों में विभाजित हुई दृष्टिगोचर हो रही है।
प्राणियों के बीच पाया जाने वाला सहचर्य, सहयोग, स्नेह और सम्वेदन एक तथ्य है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। जड़ जगत में प्रत्येक पदार्थ अन्यान्य पदार्थों का सहयोग लेकर एवं देकर ही अपना अस्तित्व बनाये हुए हैं। यदि यह सहयोग सूत्र हट जाय तो प्रत्येक अणु-परमाणु अपने पृथक अस्तित्व में बिखरा-बिखरा दिखाई पड़ेगा फिर ऐसे किसी पदार्थ का आकार न बन सकेगा जिसे वस्तु नाम दिया जा सके या इन्द्रियों से देखा पकड़ा जा सके। सृष्टि सन्तुलन विद्या— इकॉलाजी यह सिद्ध करती है कि जड़ समझी जाने वाली प्रकृति का प्रत्येक घटक सहयोग के आदान-प्रदान क्रम को अपनाये हुए है और उसी आधार पर उसका अस्तित्व एवं विकास क्रम चल रहा है।
चेतना के सम्बन्ध में भी यही बात है। जीवधारियों की चेतना में विकास, उल्लास एवं क्रिया-कलाप न्यूनाधिक दिखाई पड़ता है। उसका कारण सहचर्य, स्नेह, सहयोग की न्यूनाधिकता ही है। मनुष्य को इस सहकारिता की अधिक मात्रा उपलब्ध हुई। फलतः उसकी बुद्धि का विकास क्रम द्रुतगति से चला। इसी आधार पर उसने अन्य पदार्थों एवं पदार्थों का अधिक अच्छा उपयोग करना सीखा—खड़े होने, बोलने खिलते एवं सोचने की क्षमता बढ़ाई—परिवार तथा समाज का ढांचा खड़ा किया और क्रमिक गति से आगे बढ़ते हुए वर्तमान स्थिति तक आ पहुंचा।
जिस प्रकार जीव रसायन के एक ही मूल आधार में अनेकानेक प्राणियों का जन्म एवं विकास हुआ है, उसी प्रकार एक ही चेतना तत्व जिसे प्राण कहते हैं—समस्त प्राणधारियों की चिन्तन शक्ति का—आत्मा का—मूलभूत आधार है। कपड़ा अनेक धागों से मिलकर बना होता है। चेतना के अनेक घटकों से मिला हुआ ही यह चेतन जगत है। अलग-अलग प्राणी दिखाई पड़ते हुए भी वे एक ही महाप्राण के अविच्छिन्न अंग हैं। सभी घटों में एक ही संव्याप्त आकाश पृथक-पृथक रूपों और सीमाओं में बंधा हुआ देखा जाता है। पृथक आत्मा वस्तुतः एक ही व्यापक आत्मा की भिन्न दीखने वाली पर वस्तुतः अभिन्न इकाइयां हैं। दृश्यमान अनेकता अपने मूल में अविच्छिन्न एकता को धारण किये हुए हैं।
परब्रह्म साक्षी, दृष्टा, अचिन्त्य एवं अनिर्वचनीय है। उसकी अनुभूति ही हो सकती है व्याख्या नहीं। शरीरी और अशरीर स्थूल और सूक्ष्म कहे जाने वाले समस्त प्राणी उसी में से उत्पन्न होते हैं और अन्ततः उसी में लय हो जाते हैं। जड़ और चेतन सृष्टि का—परा और अपरा प्रकृति का सृजेता एवं अधिपति वही है। उसी ब्रह्म महासागर की लहरें हमें विविध आकार-प्रकारों में ज्ञान-विज्ञान के माध्यम से अनुभव करते हैं।
दिव्य योनियों के चार वर्ग पितर, मुक्त, देव और प्रजापति हमारी तरह पंच तत्वों का दृश्यमान शरीर धारण किए हुए नहीं है अस्तु उन्हें हम चर्म चक्षुओं से नहीं देख सकते तो भी उन्हें सूक्ष्म शरीरधारी ही कहा जायगा। शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श की तन्मात्राएं उनके दिव्य शरीरों में विद्यमान रहती हैं अतएव वे शरीरधारी प्राणियों को एवं पंचतत्वों से बने हुए पदार्थों को प्रभावित कर सकते हैं। अपनी सीमा मर्यादा के अनुरूप अपनी सामर्थ्य का वे उपयुक्त अवसर पर प्रयोग भी करते हैं और सृष्टि संतुलन बनाए रखने में भूमिका का निर्वाह भी करते हैं प्रजापति वर्ग की वे दिव्यात्माएं होती हैं, जो केवल पृथ्वी का नहीं, वरन् समस्त ब्रह्मांड का—उसमें अवस्थित पृथ्वी जैसे असंख्यों चेतन प्राणधारियों वाले पिण्डों का और निर्जीव ग्रह-नक्षत्रों का सन्तुलन बनाते हैं। ब्रह्माण्ड में चल रही विविध क्रियाओं एवं उनकी प्रतिक्रियाओं की स्थापना और व्यवस्था उसी वर्ग की आत्माओं को सम्भालनी पड़ती है। उन्हें सृष्टा, पोषक-सहारक स्तर के कार्य ब्रह्मा, विष्णु, महेश की भूमिका में सम्पन्न करने पड़ते हैं।
देव वे जिन्हें सृष्टि सन्तुलन बनाये रहने का ईश्वर प्रदत्त विशिष्ट उत्तरदायित्व वहन करना पड़ता है। वे समय-समय पर विशेष प्रयोजनों के लिए—विशेष कलेवर धारण करके देवदूतों, महामानवों एवं अवतारी महापुरुषों के रूप में जन्म लेते हैं। समय की विकृतियों का निराकरण और अभीष्ट सत्प्रवृत्तियों का सम्वर्धन उनका प्रधान कार्य रहता है। धर्म की ग्लानि और अधर्म के अभ्युत्थान का समाधान—साधुता का परित्राण एवं दुष्कृतों का विनाश—इन अवतारी महामानवों का लक्ष्य रहता है। लोक-शिक्षण एवं नव-निर्माण के लिए उनके विविध क्रिया-कलाप होते हैं। सामयिक सन्तुलन ठीक हो जाने के उपरान्त वे अशरीरी रहकर विश्व-कल्याण के प्रयोजनों में निरत रहते हैं।
पितर वे हैं जो पिछला शरीर त्याग चुके किन्तु अगला शरीर अभी प्राप्त नहीं कर सके। इस मध्यवर्ती स्थिति में रहते हुए वे अपना स्तर मनुष्यों जैसा ही अनुभव करते हैं।
वे साधारण पितरों से कई गुना शक्तिशाली होते हैं जो लोभ-मोह के—राग द्वेष के—वासना तृष्णा के बन्धन काट चुके। सेवा सत्कर्मों की प्रचुरता से जिनके पाप प्रायश्चित्य पूर्ण हो गये। उन्हें शरीर धारण करने की आवश्यकता नहीं रहती। उनका सूक्ष्म शरीर अत्यन्त प्रबल होता है। अपनी सहज सतोगुणी करुणा से प्रेरित होकर प्राणियों की सत्प्रवृत्तियों का परिपोषण करते हैं। सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन में योगदान देते हैं। श्रेष्ठ कर्मों की सरलता और सफलता में उनका प्रचुर सहयोग रहता है। ये श्रेष्ठ आत्माएं मुक्त पुरुषों की होती हैं। उदार प्रवृत्ति वाले पितर भी अपनी सामर्थ्य के अनुसार मुक्त पुरुषों की ही गतिविधियों का अनुसरण करने का प्रयास करते रहते हैं।
मुक्त आत्माओं और पितरों के प्रति मनुष्यों को वैसा ही श्रद्धा-भाव दृढ़ रखना चाहिए, जैसा देवों—प्रजापतियों तथा परमात्म—सत्ता के प्रति मुक्तों, देवों-प्रजापतियों एवं ब्रह्म को तो मनुष्यों की किसी सहायता की आवश्यकता नहीं होती। किन्तु पितरों को ऐसी आवश्यकता होती है। उन्हें ऐसी सहायता दी जा सके, इसीलिए मनीषी-पूर्वजों ने पितर पूजन श्राद्ध-कर्म की परम्पराएं प्रचलित की थीं। उनकी सही विधि और उनमें सन्निहित प्रेरणा को जानकर पितरों को सच्ची भाव-श्रद्धांजलि अर्पित करने पर वे प्रसन्न पितर बदले में प्रकाश प्रेरणा, शक्ति और सहयोग देते हैं। पितरों को स्थूल सहायता की नहीं, सूक्ष्म भावनात्मक, सहायता की ही आवश्यकता होती है। क्योंकि वे सूक्ष्म शरीर में ही अवस्थित होते हैं।
हमारे शास्त्रों में मनुष्यों के तीन शरीर माने गये हैं। (1) स्थूल, (2) सूक्ष्म और (3) कारण शरीर। स्थूल शरीर वह है, जो हमें दिखाई देता है। जो पार्थिव अणु संकुलन से बना है, जिसे स्पर्श कर अनुभव करते हैं।
दूसरा सूक्ष्म शरीर—हल्का एवं सूक्ष्म परमाणुओं से बना होता है। यह परमाणु-विज्ञान में माने गये परमाणुओं से भिन्न होते हैं, सजीव एवं चेतन होते हैं। इसे प्राण शरीर भी कहा जाता है। इस शरीर में भी वर्षा, शीत, उष्णता, सुख-दुःख का अनुभव उसी तरह होता है, जिस तरह स्थूल शरीर में। किन्तु सूक्ष्म शरीर के पोषण के लिये अन्न की आवश्यकता नहीं होती। विचार और भाव उसका पोषण करते हैं, इसलिये सूक्ष्म शरीर के आने-जाने में समय नहीं लगता। वह क्षण मात्र में न्यूयार्क, जर्मनी, इटली या स्विट्जरलैंड पहुंच सकता है। साधी हुई विचार-शक्ति (मनोयोग) से बन्द अलमारियों की पुस्तकें तक पढ़ी जा सकती हैं।
अन्यान्य चमत्कारपूर्ण जानकारियां हासिल की जा सकती हैं, सूक्ष्म शरीर की सत्ता और महत्ता पर कहीं अन्यत्र विस्तृत प्रकाश डाला जायेगा। अभी इतना ही जानना चाहिए कि सूक्ष्म शरीर सभी जड़-वस्तुओं के लिए भी पारदर्शक होता है। पितर आत्माओं का शरीर सूक्ष्म शरीर का बना होता है। इस शरीर के आस-पास हल्के रंग का प्रकाश भी चारों ओर फैला रहता है। जो आत्मा जितनी अधिक पवित्र होती है, उसका प्रकाश भी अधिक फैल और चमकदार होता है। महापुरुषों के मुख-मण्डल पर प्रदर्शित तेजोवलय इसी पवित्रता और तेजस्विता का प्रतीक होता है।
हिन्दी-दर्शन की मान्यता यह है कि जब जीवात्मा स्थूल शरीर छोड़ देता है, तभी मृत्यु हो जाती है। अन्तःकरण चतुष्ट्य (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार) तथा कारण शरीर सहित जीवात्मा सूक्ष्म शरीर में ही होता है। इसलिये उसका वह व्यक्तित्व वहीं बना रहता है। यथासमय यही सूक्ष्म शरीर पुनर्जन्म ग्रहण करता है। यह भी कहा जाता है कि स्वाधीनावस्था में सूक्ष्म शरीर ही अलग होकर लोक लोकान्तरों की अनुभूतियां ग्रहण करता है।
कुछ जीवात्माएं महान् तेजस्वी, विकार रहित, निष्काम तथा इतनी संकल्पवान् होती है कि मृत्यु के उपरान्त किन्हीं लोकों में जा सकता है। स्थूल शरीर भी धारण कर सकते हैं, अपने सगे सम्बन्धियों को अथवा करुणावश किन्हीं भी मनुष्यों को सन्देश और प्रेरणायें भी दें सकते हैं। भगवान् कृष्ण ने शाक-ग्रस्त अर्जुन को अभिमन्यु के दर्शन कराये थे, तब अभिमन्यु ने अर्जुन से कहा था—‘‘इस संसार में कौन किसका? किसका पिता कौन पुत्र? सब जीव-कर्मवश शरीर धारण करते और फिर अपने लोक को लौट जाते हैं?’’
जगद्गुरु शंकराचार्य ने अपने सूक्ष्म-शरीर से ही माहिष्मती के मृत राजा के शरीर में प्रवेश किया था और काम कला का ज्ञान प्राप्त किया था। सन्त एकनाथ के यहां श्राद्ध के दिन ब्राह्मणों ने भोजन करने से इनकार कर दिया। तब उन्होंने अपने पितरों का आह्वान कर उन्हें साक्षात् भोजन कराया। इस घटना से सन्त एकनाथ को चमत्कारी व्यक्ति सिद्ध कर दिया था। सूक्ष्म शरीर के चमत्कार और भी आश्चर्यजनक हैं। वह लोकान्तरों में भी प्रसन्नतापूर्वक गमन कर सकता है।
यहां एक बात स्पष्ट कर देना आवश्यक होगा कि शरीर की बीज अवस्था बिल्कुल सूक्ष्म और अदृश्य है, उसे प्रकाशस्वरूप भी कह सकते हैं, उसकी ऊर्ध्वगति या अधोगति अच्छे और बुरे भावों, विचारों, संकल्पों एवं क्रिया-कलापों से होती है। इसलिये जीव के अन्यान्य ग्रहों में आवागमन का कारण भी सूक्ष्म रूप में विचार और भावनायें तथा स्थूल रूप में क्रिया कलाप, रहन-सहन और खान-पान होता है। अर्थात् स्वर्ग और नर्क की प्राप्ति या उनसे छूटना एक और स्थूल शरीर की शुद्धि पर भी आश्रित है और सूक्ष्म शरीर की शुद्धता पर भी।
यहां तक दो बातें निर्विवाद सत्य सिद्ध होती हैं—(1) पारलौकिक जीवन, (2) आवागमन की स्थिति में सुख और दुःख की अनुभूति। तब फिर हमें उपनिषदों की इस मान्यता की ओर लौटना ही पड़ता।
‘‘न ह्यन्ततरतो रूपं किंचन सिध्येत् । नो एतन्नाना । तद्यथा रथस्यारेष नेमिरर्पिता नाभावरा अर्पिता एवमेवैता भूत मात्राः प्रज्ञामात्रास्वर्पिता प्रज्ञामात्रा प्राणे अर्पिताः एव लोकपाल एष लोकधिपतिरेष सर्वेश्वरः स म आत्मेति विद्यात् स म आत्मेति विद्यात् ।’’
—कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषत् 9
अर्थात्—प्रज्ञामात्रा और भूतमात्रा के स्वरूप में कोई विभिन्नता नहीं है। जैसे रथ की नेमि अरों में और अरे रथ-नाभि के आश्रित रहते हैं, वैसे ही भूत मात्रायें, प्रज्ञामात्राओं में और प्रज्ञा-मात्रायें प्राण में स्थित हैं। यह प्राण ही अजर-अमर सुखमय और प्रज्ञामात्रा है। यद्यपि वह श्रेष्ठ कर्मों से न तो बढ़ता और न बुरे कर्मों से घटता है, किन्तु जो शुभ कर्म करते हैं, प्रज्ञा और प्राण रूप परमेश्वर उन्हें ऊपर के लोकों (स्वर्ग) में पहुंचाता है तथा जो बुरे कर्म करते हैं, उन्हें नीचे के लोकों (नर्क) में धकेल देता है।
पितर-लोक ऊपर का ही लोक माना जाता है। यहां अवस्थित आत्माओं में सात्विकता का प्राधान्य होता है। उसी सत्व-गुण का प्रकाश वे अपने सम्पर्क में आए सत्पात्रों को देते हैं। साथ ही, पितर मुक्त नहीं होते। अपनी उन्नति में सहयोग की उन्हें भी अपेक्षा होती है। सद्भावनाएं सम्प्रेषित करने पर उन्हें ऐसा ही भावात्मक सहयोग प्राप्त होता है। प्रकाशपूर्ण मार्ग दर्शन का सत्कर्म करने पर पितर भी सद्गति के अधिकाधिक अधिकारी बनते हैं। इसलिए उन्हें ऐसे सत्कर्म में सहयोग देना भी उनकी प्रगति में सहयोग देना ही है। ऐसा सहयोग पितरों से सम्पर्क कर, उनके प्रति कोमल भावनाएं पालकर तथा उनके सूक्ष्म संकेतों को समझ कर सन्मार्ग पर बढ़ते हुए सहज ही प्रदान किया जा सकता है। पितर-पूजन, श्राद्ध-तर्पण का यही अर्थ एवं महत्व है।
सर्वपितृ अमावस्या
पितृ-पक्ष का हिन्दू-धर्म और हिन्दू-संस्कृति में बड़ा महत्व है। जो पितरों के नाम पर श्राद्ध और पिण्डदान नहीं करता, वह सनातन धर्मी हिन्दू माना नहीं जा सकता। हिन्दू-शास्त्रों के अनुसार मृत्यु होने पर मनुष्य का जीवात्मा चन्द्रलोक की तरफ जाता है और ऊंचा उठकर पितृ-लोक में पहुंचता है। इन मृतात्माओं को अपने नियत स्थान तक पहुंचने की शक्ति प्रदान करने के लिए पिण्डदान और श्राद्ध का विधान किया गया है। श्राद्ध पितरों के नाम पर ब्राह्मण-भोजन भी कराया जाता है। इसके पुण्य-फल से भी पितरों का संतुष्ट होना माना गया है। धर्म-शास्त्रों में यह भी कहा है कि जो मनुष्य श्राद्ध करता है वह पितरों के आशीर्वाद से आयु, पुत्र, यश, बल, वैभव, सुख और धन-धान्य को प्राप्त होता है। इसीलिये धर्म-प्राण हिन्दू आश्विन मास के कृष्ण पक्ष भर प्रतिदिन नियम पूर्वक स्नान करके पितरों का तर्पण करते हैं। जो दिन उनके पिता की मृत्यु का होता है, उस दिन अपनी शक्ति के अनुसार दान करके ब्राह्मण-भोजन कराते हैं।
एक समय इस देश में श्राद्ध-कर्म का इतना प्रचार था कि उसके ध्यान में लोग अपने तन-बदल की सुधि भूल जाते थे। उन्हें बाल बनवाने, तेल लगाने, पान खाने आदि का भी अवकाश न मिलता था। उसी बात के चिह्न स्वरूप आज प्रायः सभी हिन्दू, चाहे वे श्राद्ध करने वाले न भी हों, इन कार्यों से पृथक रहना धर्मानुकूल मानते हैं। वैसे जिन लोगों के पिता स्वर्गवासी हो गये हैं, वे अमावस्या तक और जिनकी माता स्वर्गवासी हो गई हैं, वे मातृ-नवमी तक न तो बाल बनवाते हैं और न तेल लगाते हैं।
पितरों का पिण्डदान करने का सबसे बड़ा स्थान गया माना जाता है और जनता में ऐसी मान्यता है कि गया में पितरों को पिण्डदान कर देने पर फिर प्रति वर्ष पिण्ड देने की आवश्यकता नहीं रहती। यह भी कहते हैं कि महाराज रामचन्द्रजी ने गया आकर फल्गू किनारे अपने मृत पिता महाराज दशरथ का पिण्डदान किया था। कुछ भी हो इस प्रथा से इतना प्रत्यक्ष जान पड़ता है कि हिन्दुओं की सभ्यता प्राचीन काल में काफी ऊंचे दर्जे तक पहुंच चुकी थी और जीवित माता-पिता की सेवा करना ही अपना परम धर्म नहीं मानते थे, वरन् उनके मरने पर भी उनकी स्मृति-रक्षा करना अपना परम कर्तव्य समझते थे और इसके लिए 15 दिन का समय अलग दिया था। हिन्दुओं की इस प्रथा की प्रशंसा अन्य लोगों ने भी की। हिन्दुस्तान के मुगल सम्राट शाहजहां ने, जब उसे उसके लड़के औरंगजेब को लिखा था कि ‘‘तुम से तो हिन्दू लोग ही बहुत अच्छे हैं जो मरने के बाद भी अपने पिता को जल और भोजन देते हैं तू तो अपने जीवित पिता को भी दाना-पानी के बिना तरसा रहा है।’’
इस विषय पर विशेष विचार करने से यही प्रतीत होता है कि पितृ-पक्ष का महत्व इस बात में नहीं है कि हम श्राद्ध-कर्म को कितनी धूम-धाम से मनाते हैं और कितने अधिक ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं, वरन् उसका वास्तविक महत्व यह है कि हम अपने पितामह आदि गुरुजनों की जीवितावस्था में ही कितनी सेवा-सुश्रूषा, आज्ञापालन करते हैं। चाहे अन्य लोग इसका कुछ भी अर्थ क्यों न लगावें, पर हम तो यही कहेंगे कि जो व्यक्ति अपने जीवित पिता-माता आदि की सेवा नहीं करते, उल्टा उनको दुख पहुंचाते हैं, या उनका अपमान करते हैं, बाद में उनका पिण्डदान और श्राद्ध करना कोरा ढोंग है और उसका कोई परिणाम नहीं। क्योंकि अगर हमारे श्राद्ध का फल पितरों तक सूक्ष्म रूप से पहुंचता भी है तो वह तभी संभव है जब हम सच्ची भावना और एकाग्र चित्त से उस कार्य को करें। पर जो लोग जन्म भर अपने पिता-माता को हर तरह से कष्ट पहुंचाते रहे, उनको भला-बुरा कहते रहे, वे फिर किस प्रकार श्रद्धा और हार्दिक भावना से श्राद्ध आदि कर्म कर सकते हैं?
माता-पिता गुरुजनों के प्रति कृतज्ञता की भावना जीवन भर धारण किये रहना आवश्यक है। यदि इन गुरुजनों का स्वर्गवास हो जाय तो भी मनुष्य की वह श्रद्धा स्थिर रहनी चाहिये। इस दृष्टि से मृत्यु के पश्चात् पितृ यज्ञों में मृत्यु की वर्ष तिथि के दिन, पर्व समारोहों पर श्राद्ध करने का श्रुति स्मृतियों में विधान पाया जाता है।
श्रद्धा से श्राद्ध शब्द बना है। श्रद्धापूर्वक किये कार्य को श्राद्ध कहते हैं। श्राद्ध से श्रद्धा जीवित रहती है। श्रद्धा को प्रकट करने का जो प्रदर्शन होता है, वह श्राद्ध कहलाता है। जीवित पितरों और गुरुजनों के लिए श्रद्धा प्रकट करने—श्राद्ध करने के लिए, उनकी अनेक प्रकार से सेवा-पूजा तथा संतुष्टि की जा सकती है परन्तु स्वर्गीय पितरों के लिए श्रद्धा प्रकट करने का। अपनी कृतज्ञता को प्रकट करने का कोई निमित्त बनाना पड़ता है। यह निमित्त है—श्रद्धा, मृत पितरों के लिए कृतज्ञता के इन भावों का स्थिर रहना हमारी संस्कृति की महानता को ही प्रकट करता है। जिनके सेवा सत्कार के लिये हिन्दुओं ने वर्ष में 15 दिन का समय प्रथक निकाल लिया है पितृ भक्ति का इससे उज्ज्वल आदेश और कहीं मिलना कठिन है।
श्रद्धा तो हिन्दू धर्म का मेरु दण्ड है। हिन्दू धर्म के कर्मकाण्डों में आधे से अधिक श्राद्ध तत्त्व भरा हुआ है। सूर्य, चन्द्रमा ग्रह, नक्षत्र, पृथ्वी, अग्नि जल, कुंआ, तालाब नदी, मरघट, खेत, खलिहान, भोजन चक्की, चूल्हा, तलवार, कलम, जेवर, रुपया, घड़ा, पुस्तक, आदि निर्जीव पदार्थों की विवाह या अन्य संस्कारों में अथवा किन्हीं विशेष अवसरों पर पूजा होती है। यहां तक कि नाली या घूरे तक की पूजा होती है। तुलसी, पीपल, वट, आंवला आदि पेड़, पौधे तथा गौ, बैल, घोड़ा, हाथी, आदि पशु पूजे जाते हैं। इन पूजाओं में उन जड़ पदार्थों या पशुओं को कोई लाभ नहीं होता परन्तु पूजा करे वाले के मन में श्रद्धा एवं कृतज्ञता का भाव अवश्य उत्पन्न होता है। जिन जड़-चेतन पदार्थों से हमें लाभ मिलता है, उनके प्रति हमारी बुद्धि में उपकृत भाव होना चाहिये और उसे किसी न किसी रूप में प्रकट करना ही चाहिये। यह श्राद्ध ही तो है।
मरे हुए व्यक्तियों का श्राद्ध कर्म से कुछ लाभ है कि नहीं? इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि होता है, अवश्य होता है। संसार एक समुद्र के समान है जिसमें जल कणों की भांति हर एक जीव है। विश्व एक शिला है जो व्यक्ति एक परमाणु। जीवित या मृत आत्मा इस विश्व में मौजूद है और अन्य समस्त आत्माओं से सम्बन्ध है। संसार में कहीं भी अनीति, युद्ध, कष्ट, अनाचार अत्याचार हो रहे हों तो सुदूर देशों के निवासियों के मन में भी उद्वेग उत्पन्न होता है। जाड़े और गर्मी के मौसम में हर एक वस्तु ठण्डी और गर्म हो जाती है। छोटा सा यज्ञ करने पर भी उसकी दिव्य गन्ध व भावना समस्त संसार के प्राणियों को लाभ पहुंचाती है। इसी प्रकार कृतज्ञता की भावना प्रकट करने के लिये किया हुआ श्राद्ध समस्त प्राणियों में शान्तिमयी सद्भावना की लहरें पहुंचाता है। यह सूक्ष्म भाव तरंगें तृप्तिकारक और आनन्ददायक होती हैं। सद्भावना की तरंगें जीवित-मृत सभी को तृप्त करती हैं परन्तु अधिकांश भाग उन्हीं को पहुंचता है जिनके लिये वह श्राद्ध विशेष प्रकार से किया गया है।
स्थूल वस्तुएं एक स्थान से दूसरे स्थान तक देर में कठिनाई से पहुंचती हैं परन्तु सूक्ष्म तत्त्वों के सम्बन्ध में यह बात नहीं है। उनका आवागमन आसानी से हो जाता है। हवा, गर्मी, प्रकाश और शब्द आदि को बहुत दूरी पार करते हुए कुछ विलम्ब नहीं लगता। विचार और भाव इससे भी सूक्ष्म हैं। वह उस व्यक्ति के पास जा पहुंचते हैं जिसके लिए वह फेंके जायें। तर्पण का कर्मकाण्ड प्रत्यक्ष रूप से बुद्धिवादी व्यक्तियों के लिए कोई महत्त्व न रखता हो परन्तु उसकी महत्ता तो उसके पीछे काम कर रही भावना में है। भावना ही मनुष्य को असुर, पिशाच, राक्षस, शैतान या महापुरुष, ऋषि, देवता महात्मा बनाती है। इसी के द्वारा मनुष्य सुखी, स्वस्थ, पराक्रमी, यशस्वी तथा महान् बनते हैं और यही उन्हें दुःखी, रोगी दीन-दास, और तुच्छ बनाती हैं। मनुष्य और मनुष्य के बीच में जो जमीन आसमान का अन्तर दिखाई देता है, वह भावना का ही अन्तर है। यही कारण है कि हमारे पूर्वजों ने अपने धार्मिक कर्म-काण्डों का माध्यम इसी महान् शक्ति को बनाया है।
उपरोक्त कारणों के फलस्वरूप हिन्दू अपने पितरों के प्रति श्रद्धा, कृतज्ञता प्रकट करने और उनके प्रति अपनी भावनाओं को उत्तेजित करने के लिए वर्ष में पन्द्रह दिन का समय देते हैं। श्राद्ध को केवल रूढ़िमात्र से पूरा न कर लेना चाहिए वरन् पितरों के द्वारा जो हमारे ऊपर उपकार हुए हैं उनका स्मरण करके, उनके प्रति अपनी श्रद्धा और भावना की वृद्धि करनी चाहिये। साथ-साथ अपने जीवित पितरों को भी न भूलना चाहिये। उनके प्रति भी आदर, सत्कार और सम्मान के पवित्र भाव रखने चाहियें।
श्राद्ध में ब्राह्मणों को अन्न, वस्त्र, पात्र आदि का दान दिया जाता है। इसमें ध्यान देने योग्य बात यह है कि जिस व्यक्ति विशेष को आप जो वस्तुएं दान रूप में दें रहे हैं, वह शीघ्र ही उनके काम आने वाली हों, उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाली हों। ऐसा न हो कि आप रुपया खर्च करके दान दें और वह वस्तुएं उनके घर पर लम्बे समय तक बिना काम के पड़ी रहें।
यह बात युक्तिसंगत नहीं दीखती कि यदि किसी वृद्ध या वृद्धा की मृत्यु हो तो वृद्ध या वृद्धाओं को ही भोजन कराया जाय या दान दिया जाय या विधवा स्वर्गवास होने पर विधवाओं को ही दान दिया जाय। आवश्यकता को देख कर ही दान की महत्ता और लाभ सिद्ध होता है। भोजन कराते समय निर्धन विद्यार्थियों को फीस आदि के लिए भी स्थान रखना चाहिए। पितरों के लिये दिये गये दान द्वारा उनके जीवन का उत्थान होगा तो उनकी अन्तरात्मा से आपके पितरों के प्रति शान्तिदायक सद्प्रेरणाएं निकलेंगी। इसी प्रकार से सत्कार्यों में योग देने के लिए दान के अन्य उपाय सोचे जा सकते हैं।
तर्पण तो श्राद्ध में किया ही जाता है। इसके साथ-साथ पितरों की शान्ति के लिये ‘‘सूक्त संहिता’’ नामक पुस्तक में वर्णन पितृ सूक्त के मन्त्रों से हवन करना चाहिये क्योंकि हिन्दू धर्म में कोई भी शुभ या अशुभ कार्य हवन के बिना पूर्ण नहीं माना जाता। यह पुस्तक अखंड ज्योति प्रेस ने भी प्रकाशित कर दी है।
पितरों को सच्ची श्रद्धा दी जाएगी, उन्हें तृप्त रखा जाएगा, तो वे निश्चय ही शक्ति, प्रकाश, मार्ग दर्शन प्रेरणा, सहयोग एवं भावात्मक अनुदान देंगे।