पितरों को श्रद्धा दें, वे शक्ति देंगे

​​​प्रगति मार्ग के पथ-प्रदर्शक—पितर

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उदात्त आत्माएं पितर रूप में समस्त सत्पात्रों की सहायता के लिए सदैव प्रस्तुत रहती हैं। उनकी आत्मीयता की परिधि अति विस्तृत होती है। ये पितर सत्ताएं पात्रता देखती हैं, परिचय की पृष्ठभूमि नहीं। क्योंकि सत्पात्र का परिचय उन्हें तो मिल ही जाता है और दूसरे को अपना परिचय देने की उनकी कोई निजी आकांक्षा नहीं होती। वे तो कल्याण-पथ में नियोजित कर देना ही अपना कर्तव्य मानती हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी को एक पितर-सत्ता ने ही श्री हनुमान और भगवान् राम के दिव्य-दर्शनों की विधि सुनाई थी और उन्हें एक अनाथ भावनाशील बालक से एक भक्त महाकवि और सन्त बन जाने में विशेष भूमिका निभाई थी।

थियोसॉफिकल सोसाइटी की जन्मदात्री मैडम ब्लैवटस्की को चार वर्ष की आयु से ही पितर आत्माओं का सहयोग सान्निध्य प्राप्त होने लगा। वे अचानक अचानक आवेश में आकर ऐसी तथ्यपूर्ण बातें कहती जिन्हें कह सकना किन्हीं विशेषज्ञों के लिए ही सम्भव था। परिवार के लोग पहले तो उन्हें विक्षिप्त समझने लगे, पर जब उनके साथ देवात्माओं के प्रत्यक्ष सम्पर्क के प्रमाण देखने लगे तो उनकी विशेषता स्वीकार करनी पड़ी।

एक बार एक प्रेतात्मा ने उसके शरीर के कपड़े ही मजाक में बिस्तर के साथ सीं दिये। दूसरे लोगों ने जब वह सिलाई उधेड़ी तभी वे उठ सकीं। एक बार कर्नल हैनरी आल्काट उनसे मिलने आये तो वे सिलाई की मशीन से तौलिये सीं रही थीं और कुर्सी पर पैर पटक रही थी। आल्काट ने पैर पीटने का कारण पूछा तो उनने कहा एक छोटा प्रेतात्मा बार-बार मेरे कपड़े खींचता है और कहता कि मुझे भी कुछ काम दे दो। कर्नल ने उसी मजाक में उत्तर दिया कि उसे कपड़े सीने का काम क्यों नहीं दे देतीं? ब्लैवटस्की ने कपड़े समेट कर अलमारी में रख दिये और उनसे बातें करने लगी। बात समाप्त होने पर जब अलमारी खोली गई तो सभी बिना सिले कपड़े सिये हुए तैयार रखे थे।

मैडम ब्लैवेटस्की के कथनानुसार उनकी सहकारी मण्डली में सात-प्रेत थे, जो समय-समय पर उन्हें उपयोगी परामर्श और मुक्त हस्त सहायता करते थे। कर्नल आल्काट अमेरिका में अपने समय के अत्यन्त सम्मानित नागरिक और प्रसिद्ध वकील थे, उन्होंने मैडम से प्रभावित होकर उनके अध्यात्म कार्य में सदा भरपूर सहयोग दिया। ब्लैवेटस्की एक बार अपने सम्बन्धियों से मिलने के लिए रूस गई। वहां उसके भाई के कान में भी उनकी दिव्य शक्ति की चर्चा पहुंची। उसने इतना ही कहा कि मैं मात्र बहिन होने के कारण उनकी बातों पर विश्वास नहीं कर सकता। मैडम ने अपने भाई को एक हलकी-सी मेज उठाकर लाने के लिए कहा—वह ले आया। अब उन्होंने फिर कहा इसे जहां से लाये हो वहीं रख आओ। भाई ने भरपूर जोर लगाया पर वह इतनी भारी हो गई कि किसी प्रकार न उठ सकी। इस पर घर के अन्य लोग आ गये और वे सब मिलकर उठाने लगे इतने पर भी वह उठी नहीं। जब सब लोग थक कर हार गये तो मैडम ने मुस्करा कर उसे यथावत् कर दिया और मेज फिर पहले की तरह हलकी हो गई। उसे उठा कर आसानी से जहां का तहां रख दिया गया।

अशरीरी आत्माओं का अस्तित्व और उनके द्वारा मनुष्य को सहयोग यह एक तथ्य है। डरावनी या घिनौनी प्रकृति के भूत प्रेत कम ही होते हैं। साधारणतया उच्च आत्माएं मनुष्यों की सहायता ही करती हैं और अपनी उच्च प्रवृत्ति के कारण दूसरों को आगे बढ़ाने तथा खतरों से बचाने के लिये पूर्व संकेत भी करती हैं। जिस प्रकार उदार मनुष्य अकारण दूसरों की सेवा सहायता करने के लिये तैयार रहते हैं वैसे ही सूक्ष्म शरीरधारी आत्माएं लोगों को उपयोगी ज्ञान देने अथवा आत्मा का अस्तित्व शरीर न रहने पर भी बना रहता है यह विश्वास दिलाने के लिये कुछ व्यावहारिक सहयोग देती रहती हैं।

महान् सन्त सुकरात के बारे में बताया जाता है कि प्रारम्भिक जीवन में उन्हें धर्म-कर्म एवं अदृश्य जीवन पर कतई विश्वास नहीं था। एक दिन उन्हें एक प्रेत मिला। उसने अतीन्द्रिय दर्शन की क्षमता उनमें विकसित करने हेतु भगवत् भजन का परामर्श दिया। शीघ्र ही सुकरात की यह क्षमता विकसित हो गई। प्रेत उन्हें आजीवन विशिष्ठ मामलों में जानकारी व परामर्श देता रहा। इससे सुकरात सहस्रों व्यक्तियों का कल्याण करते। उन्होंने बताया तो यह तथ्य अपने साथियों को भी। पर साथी-सहयोगी प्रेत को देख नहीं सकते थे, अतः वे सुकरात के भविष्य-कथन आदि को उन्हीं की चमत्कारिक शक्ति मानने लगे।

प्लेटो, जेनोफेन, प्लुटार्क आदि विद्वानों ने सुकरात के जीवन की प्रामाणिक घटनाओं पर प्रकाश डाला है। उन सभी ने स्वीकार किया है कि—सुकरात ने अनेकों बार यह कहा—‘‘मेरे भीतर एक रहस्यमय देवता ‘डेमन’ निवास करता है और वह समय पर मुझे पूर्व सूचनाएं दिया करता है।’’ इस तथ्य की यथार्थता के अनेक प्रमाण उद्धरण भी उपरोक्त लेखकों ने प्रस्तुत किये हैं।

प्लूटार्क ने अपनी पुस्तक ‘‘दी जेनियो सोक्रिटिस’’ में एक घटना दी है—एक बार सुकरात अपने कई मित्रों के साथ एक रास्ते जा रहे थे। सहसा वे रुक गये और कहा इस रास्ते हमें नहीं चलना चाहिये खतरा है। कइयों ने उसकी बात मान ली और वह रास्ता छोड़ दिया पर कई इस साफ सुथरे रास्ते को छोड़ने के लिये तैयार न हुये। वे सुकरात की सनक को बेकार सिद्ध करना चाहते थे। वे कुछ ही दूर गये होंगे कि जंगली सुअरों का एक झुण्ड कहीं से आ धमका और उनमें से कइयों को बुरी तरह घायल कर दिया। प्लेटो ने अपनी पुस्तक ‘‘थीवीज’’ में एक प्रसंग दिया है—एक दिन एक तिमार्कस नामक युवक सुकरात के पास आया कुछ खाया पिया। जब चलने लगा तो सुकरात ने उसे रोका और कहा अभी तुम जाना मत, तुम्हारे ऊपर खतरा मंडरा रहा है। तीन बार उसने जाने की चेष्टा की पर तीनों बार सुकरात ने उसे पकड़ कर बल पूर्वक रोक लिया। पीछे वह नहीं ही माना और हाथ छुड़ा कर चला गया। दूसरे ही दिन उसने एक खून कर डाला और फांसी पर चढ़ाया गया। ऐसी ही अन्य कितनी ही घटनाएं हैं जिनमें सुकरात के उसके सहचर देवता ‘डेमन’ द्वारा पूर्वाभास दिये जाने तथा सहायता करने के प्रमाण मिलते हैं।

सुकरात पर जब मुकदमा चला और प्राणदण्ड दिया जाने लगा, उस समय उसके पास ऐसे प्रमाण थे और साधन थे, जिन से प्राणदण्ड से छुटकारा सम्भव था। ऐन्थेस की जेल से उसके मित्र एवं शिष्य भाग ले जाने हेतु भी पूर्ण तैयारी कर चुके थे। किंतु सुकरात ने न्यायालय में स्वीकार किया—अभी-अभी मेरा देवता, ‘डेमन’ मेरे कानों में कहकर गया है कि—मृत्यु दण्ड मिलेगा, उससे डरने की कोई बात नहीं है, ऐसा मृत्यु मनुष्य के लिए श्रेयस्कर होती है।

इंग्लैण्ड के राज घराने में प्रेतात्माओं की अनुभूतियों का वर्णन चार्ल्स डिकेन्स अपने उपन्यास मिस्ट्री आव एडविनहुड में किया है। पुस्तक के बीस अध्याय लिखकर ही वे स्वामी हो गये थे। मृत्यु के दो वर्ष बाद उन्होंने थामस जेम्स को लिखने का माध्यम बनाने के लिए तैयार किया और उनकी कलम से अपना शेष कार्य स्वयं पूरा कराया। श्रीमती जान कूपर का ‘टेल्का’ उपन्यास विशेष रूप से और अन्य सामान्य रूप से प्रख्यात हुए हैं। श्रीमती कूपर का कथन है इस लेखन में उन्हें किसी दिव्य आत्मा का मार्ग दर्शन और सहयोग मिलता रहा है।

अमेरिका की श्रीमती रूथ मान्टगुमरी का कथन है कि उनका ‘ए वर्ल्ड बियोन्ड ग्रन्थ’ स्वर्गीय आर्थर फोर्ड की आत्मा ने बोल-बोल कर लिखाया है।

इंग्लैण्ड के सुप्रसिद्ध लेखक तोएल कोवर्ड ने अपनी प्रख्यात रचना ‘दि व्लिथे स्प्रिट’ के सम्बन्ध में लिखा है कि यह लेखन उसने किसी अदृश्य साथी के सहयोग से लिखा है। ‘जान आफ आर्क’ ने अपने आत्मा परिचय में यह जानकारी दी थी कि उन्हें विशिष्ट काम करने की प्रेरणा और शक्ति किसी अदृश्य आत्मा से मिलती है।

ब्रिटिश कस्बे गलोसेस्ट-शायर में रहने वाली छियालीस वर्षीया पैट्रिशिया मूलतः कनाडा की रहने वाली लेखिका हैं। उनका कहना है कि कई वर्ष पूर्व वे महान नाटककार जार्ज बर्नार्डशा से आयरलैंड की किर्लानी झील के तट पर एक होटल के एक कमरे में मिली थीं और दोनों में प्यार हो गया। बर्नार्डशा अपनी मृत्यु के बाद भी प्रतिदिन रात में मेरे कमरे में आकर मुझसे मिलते हैं। मृत्यु उपरान्त पहली रात जब जब शां की आत्मा आई, तो दोनों ने एक वर्णमाला तैयार कर ली। उसी के आधार पर दोनों में बातें होती हैं। पेट्रीशिया जार्ज बर्नार्डशा को ‘बर्नी’ कहती हैं। उनके अनुसार बर्नी ने उन्हें एक अंगूठी विवाह की रस्म पर दी थी। यह विवाह बर्नार्ड शा की मृत्यु के बाद हुआ। वह अंगूठी पेट्रीशिया की हथेली पर हरदम चमचमाती रहती है। पेट्रीशिया के एक बच्चा भी है, जिसे वह शा का यानी अपने बर्नी का बताती है। हालांकि जार्ज बर्नार्ड शा की मृत्यु के 10 वर्ष बाद यह बच्चा हुआ है।

पेट्रीशिया के अनुसार वह इन दिनों जो कुछ भी साहित्य लिख रही हैं वह बर्नी की ही प्रेरणा से। उसके कमरे में जार्ज बर्नार्ड शा की एक बड़ी तस्वीर है। मकान में इस युग में भी कभी बिजली नहीं जलती। बारह कमरों वाले दो मंजिले मकान में सिर्फ दो-तीन कमरों में पुराने लैम्प टिमटिमाते हैं। शेष भाग घने अन्धकार में लिपटे रहते हैं। एकान्त में वह अक्सर अदृश्य ‘बर्नी’ से बातें करने लगती है।

संगीत-शिक्षक आत्मीय पितर

लन्दन की एक महिला रोजमेरी ब्राउन परलोक वेत्ताओं के लिए पिछली तीन दशाब्दियों से आकर्षण का केन्द्र रही है। वे संगीत में पारंगत हैं। बहुत शर्मीले स्वभाव की हैं भीड़-भाड़ से, सार्वजनिक आयोजनों से दूर रहती हैं और अपनी एकान्त साधना को शब्द ब्रह्म की साधना के रूप में करती है।

आश्चर्य यह है कि उनका कोई मनुष्य संगीत शिक्षक कभी नहीं रहा। उन्हें इस शिक्षा में अदृश्य मनुष्य सहायता देते रहे हैं और उन्हीं के सहारे वे दिन दिन प्रगति करती चली है। उनकी संगीत साधना तब शुरू हुई जब वे सात साल की थीं। उन्होंने एक सफेद बालों वाला—काले कोट वाला आत्मा देखा जो आकाश से ही उतरा और उसी में गायब हो गया। उसने कहा मैं संगीतज्ञ हूं तुझे संगीतकार बनाऊंगा। कई वर्ष बाद उसने विख्यात पियानो वादक स्वर्गीय फ्रांजलिस्ट का चित्र देखा वह बिलकुल वही था जो उसने आकाश में उतरते और उसे आश्वासन देते हुए देखा था।

बचपन में वह कुछ थोड़ा-सा ही संगीत सीख सकीं। पीछे वह विवाह के फेर में पड़ गईं और जल्दी ही विधवा भी हो गईं। उन दिनों उसकी गरीबी और परेशानी भी बहुत थीं, फिर वही मृतात्मा आई और कहा संगीत साधना का यही उपयुक्त अवसर है। उसने कबाड़ी के यहां से एक टूटा पियानो खरीदा और बिना किसी शिक्षक के संगीत साधना आरम्भ करदी। रोजमेरी ब्राउन का कहना है कि उसका अशरीरी अध्यापक अन्य संगीत विज्ञानियों को साथ लेकर उसे सिखाने आता है। उनके मृतात्मा शिक्षकों में वाख, बीठो, फेंन, शोर्य, देवुसी, लिश्ट, शूवर्ट जैसे महान् संगीतकार सम्मिलित हैं जो उसे ध्वनियां और तर्ज ही नहीं सिखाते उसका उंगलियां पकड़ कर यह भी बताते हैं कि किस प्रकार बजाने से क्या स्वर निकलेगा। गायन की शिक्षा में भी वे अपने साथ गाने को कहते हैं। वे यह सब प्रत्यक्ष देखती हैं पर दूसरे पास बैठे हुए लोगों को ऐसा कुछ नहीं दीखता। रोजमेरी ने एक जीवित शिक्षक को परीक्षक के रूप में रखा है। यह सिर्फ देखता रहता है कि उसके प्रयोग ठीक चल रहे हैं या नहीं। ऐसा वह इसलिए करती है कि कहीं उसकी अन्तःचेतना झुठला तो नहीं रही है। उसके अभ्यास सही हैं या गलत। पर वह दर्शक मात्र अध्यापक उसके प्रयोगों को शत प्रतिशत सही पाता है। रोजमेरी लगभग 400 प्रकार की ध्वनियां बजा लेती है। बिना शिक्षक के टूटे पियानो पर बिना निज की उत्कट इच्छा के यह क्रम इतना आगे कैसे बढ़ गया, इस प्रश्न पर विचार करते हुए अविश्वासियों को भी यह स्वीकार करना पड़ता है कि इस महिला के प्रयासों के पीछे निस्सन्देह कोई अमानवीय शक्तियां सहायता करती हैं।

रोजमेरी का जीवन गरीबी और कठिनाइयों से भरा था। वह एक स्कूल में रसोईदारिन का काम करती थी, उसी में से उसने समय निकाला और अपने अदृश्य सहायकों की सहायता से संगीत साधना का क्रम चलाया। लोगों ने उसके कथन में यथार्थता पाई तो उन्होंने स्वर्गीय आत्माओं द्वारा निर्देशित कुछ संगीत निर्देशावलियां नोट कराने का अनुरोध किया। उसने यह स्वीकार कर लिया। फलतः 3000 शब्दों की एक संगीत निर्देश माला प्रकाशित हुई। नाम है उसका टेन कमांडमेन्टर फरन्युजिशि येशन्स। इन निर्देशों के आधार पर जो ग्रामोफोन रिकार्ड (एल.पी.) बने हैं उन स्वर्गीय आत्माओं के संगीत से परिचित लोगों को इस सादृश्य से बहुत प्रभावित किया है। मनोविज्ञान शास्त्र के सुप्रसिद्ध शोधकर्ता री मारिस वार्व नेल की मान्यता है कि रोजमेरी को अतीन्द्रिय श्रवण और दर्शन की विलक्षण शक्ति प्राप्त है और वह उसी के सहारे प्रति कर रही है।

रणभूमि में प्रत्यक्ष सहायता-मार्गदर्शन

एक तो युद्ध स्थल उस पर घनघोर अंधेरी रात और भयानक शीत ऐसा लगता था वीभत्सता साकार होकर व्याप्त हो गई हो। एक तम्बू के अन्दर कुछ सैनिक कोयले की अंगीठी जलाये बैठे आंच ले रहे हैं। उनका वायरलेस सेट पास ही रखा है। युद्ध अभी खामोश है इसलिये सब अपने-अपने घरों की याद कर रहे हैं ऐसी ही चर्चा में वे सब संलग्न हैं तभी वायरलेस पर कमाण्डर का हुक्म आता है अपनी उत्तर वाली चौकी की सहायता के लिए तुरन्त प्रस्थान करो।

घटना जम्मू-काश्मीर की है सन् 1961 जब भारत का पाकिस्तान से युद्ध हुआ। यह सभी जवान जिस स्थान पर बैठे हैं चौकी वहां से 15 मील दूर है। सवेरा होने से पहले ही वहां पहुंचता है सवेरा हो जाने पर दुश्मन देख सकता था मार सकता था अतएव कैसी भी कठिनाइयों में सवेरा होने तक चौकी पहुंचना आवश्यक था। अतएव वहां से उसी प्रकार तत्परता पूर्वक आगे बढ़े जिस तरह मृत्यु को कभी न भूलने वाले योगी मनुष्य जीवन को अस्त-व्यस्त तरीके से नहीं व्यवस्थित अनुशासन पूर्वक और तत्परता से जीते हैं।

13 नवम्बर की बात है। ठण्डक के दिन थे। 10 सिपाहियों की छोटी-सी टुकड़ी अपने अस्त्र संभाले नक्शे के सहारे आगे बढ़ रही थी। वायरलेस से कमाण्ड-पोस्ट का सम्पर्क बना हुआ। सम्वादों का आदान-प्रदान भी ठीक-ठीक चल रहा था कि एकाएक ऐसा स्थान आ पहुंचा जहां से आगे बढ़ना नितान्त कठिन हो गया। सारा स्थान बर्फ से ढक गया था। युद्ध में सैनिक नक्शों में नदी नाले टीले, वृक्ष आदि संकेतों के सहारे बढ़ते हैं पर बर्फ ने पृथ्वी के सभी निशान मिटा डाले थे। नदी—झरने सब जम चुके थे। पेड़-पौधे तक बर्फ से ढके थे ऐसी स्थिति में आगे बढ़ना मुश्किल हो गया। सभी सैनिक निस्तब्ध खड़े रह गये सोच नहीं पा रहे थे क्या किया जाये?

कहते हैं युद्ध के समय अदृश्य आत्माओं की भावनाओं की सम्वेदनशीलता बढ़ जाती है। द्वितीय महायुद्ध के दौरान अतीन्द्रिय अनुभूतियों, मृतात्माओं के विलक्षण क्रिया-व्यापार सम्बन्धी सैकड़ों घटनाओं के प्रामाणिक विवरण सैनिक रिकार्ड्स में पाये जाते हैं। यह घटना भी उसी तरह की है और प्रकाश डालती है कि मृत्यु के बाद भी आत्मा का चेतन शरीर का नाश नहीं होता। यदि आत्मा तुरन्त मृत्योपरान्त नींद में नहीं चली जाती और उसकी कोई प्रबल कामना भी नहीं होती तो वह सांसारिक कर्तव्यों में जीवित व्यक्तियों को जीवित व्यक्तियों भांति ही सहायता पहुंचा सकती है। यह घटना उस तथ्य की पुष्टि में ही दी जा रही है। इस टुकड़ी में जो दस सैनिक थे उन्हीं में से एक श्री गिरजानन्द झा—मस्ताना के द्वारा प्रस्तुत यह घटना 1962 के एक धर्म-युग अंक में भी छपी थी।

अभी सैनिक इस चिन्ता में ही थे कि अब किस दिशा में कैसे बढ़ा जाये कि किसी की पद-ध्वनि सुनाई दी। अब तक आकाश में चन्द्रमा निकल आया। आशंका से भरे सैनिकों ने देखा सामने एक ऑफिसर खड़ा है। कन्धे पर दो स्टार देखने से लगता था वह लेफ्टिनेंट हैं। देखते ही सैनिकों ने उन्हें सैल्यूट किया। सैल्यूट का उत्तर सैल्यूट से ही देकर लेफ्टिनेंट साहब बोले—देखो आगे का रास्ता भयानक है तुम लोगों को कुछ मालुम नहीं है। चौकी दूर है सवेरा होने में कुल चार घन्टे बाकी हैं इसलिये बिना देर किये तुम लोग मेरे पीछे-पीछे चले आओ। यह कहकर वे पीछे मुड़े—सैनिकों ने देखा लेफ्टिनेंट साहब की कमीज में पीठ पर गोल निशान है लगता था उतना अंश जल गया था। बिना किसी नक्शे के सहारे लेफ्टिनेंट साहब आगे-आगे ऐसे बढ़ते जाते थे मानो वह सारा क्षेत्र उनका अच्छी तरह घूमा हुआ हो। सिपाही परेशान भी थे और चिन्तित भी कि यह अजनबी ऑफिसर इस इलाके के इतने माहिर क्यों हैं। कभी-कभी आशंका भी हो जाती थी कि कहीं कोई दुर्घटना तो होने वाली नहीं है। चुपचाप चलने में खामोशी और उदासी सी अनुभव हो रही थी। उस उदासी को दूर करते हुए कमाण्डर ने बताया मेरी पीठ पर यह निशान जो तुम लोग देख रहे हो वह कल की गोलाबारी का है—हम लोग हमले की तैयारी में थे तभी पाकिस्तानी सेना ने गोलाबारी शुरू कर दी। सब लोग जमीन पर लेट गये, तभी एक बम आकर उधर फटा। उसी का एक टुकड़ा मेरी पीठ पर गिरा कमीज जल गई......। इससे आगे कुछ और कहने से पूर्व उन्होंने बातचीत का रुख मोड़कर कहा—तुम लोग शायद आत्मा की अमरता पर विश्वास न करते हो पर मैं करता हूं मरने के बाद आत्मायें अपने जीवन विकास की तैयारी करती हैं, जिसकी जो इच्छायें होती हैं उसी तरह के जीवन की तैयारी में वे जुट जाती हैं कोई इच्छा न होने पर भगवान् अपनी ओर से प्रेरित करके उसे आगे के क्रम में नियोजित करते हैं।

बात-चीत करते-करते रास्ता कट गया और रात भी। जिस चौकी पर पहुंचना था वह कुछ ही फर्लांग पर सामने दिखाई दें रही थी ऑफिसर रुका, उसके साथ ही सभी सिपाही भी रुक गये उसने पीछे मुड़ कर कहा—देखो अब तुम लोग अपने स्थान पर आ गये अब तुम लोग जाओ हम यहां से आगे नहीं जा सकते। सैनिकों ने सैल्यूट किया और आगे की ओर चल पड़े। ऑफिसर ने सलामी लीं पर आगे नहीं बढ़ा। सैनिकों ने दस गज आगे जाकर फिर पीछे की ओर उत्सुकता पूर्वक देखा कि साहब किधर जा रहे हैं किन्तु वे आश्चर्य चकित थे कि वहां न तो कोई साहब था और न ही कोई व्यक्ति। दूर-दूर तक दृष्टि दौड़ाई पर कहीं कोई दिखाई न दिया।

सिपाही चौकी पर पहुंचे जहां कमाण्डर उनकी प्रतीक्षा कर रहा था। रात में वायरलेस सम्पर्क टूट गया था सैनिक कमाण्डर ने आते ही पूछा—तुम लोग इस बीहड़ मार्ग में इतनी जल्दी कैसे आ गये। तो उन्होंने बताया कि एक लेफ्टिनेंट इन्हें यहां तक लेकर आये वे एक फर्लांग पहले कहीं अदृश्य हो गये।

लेफ्टिनेंट?—उन्होंने आश्चर्य पूर्वक कहा यहां तो कोई भी लेफ्टिनेंट नहीं तुमको जिस व्यक्ति ने रास्ता दिखाया उसका हुलिया क्या था। सिपाहियों ने एक ही हुलिया बताया, कमाण्डर आश्चर्य चकित रह गया उनका कथन सुनकर, क्योंकि जिस लेफ्टिनेंट के बारे में उन्होंने बताया, उनकी मृत्यु उसी स्थान पर एक ही दिन पहले गोला लगने से हो गई थी।

गोला लगने के बाद लेफ्टिनेंट की मृत्यु हो गई। युद्ध के समय कोई इच्छा या वासना न होना स्वाभाविक है। उस समय चित्तवृत्तियां एकाग्र रहती हैं। ध्यानस्थ एकाग्रता के साथ हुई मृत्यु के बाद लेफ्टिनेंट की जीवात्मा को मृत्यु के बाद ही नींद नहीं आई उस समय भी उन्हें अपने कर्तव्य का भाव बना रहा। उन्होंने देखा कि इन सैनिकों को सहायता की आवश्यकता है तभी उन्होंने अपने ही मृत शरीर में फिर से अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति द्वारा प्राणों का प्रवेश कर उससे उतनी देर काम ले लिया। टूटे-फटे शरीर को यद्यपि देर तक रहना कठिन था तथापि प्राण शक्ति द्वारा उतनी देर तक पूर्व शरीर को काम में लेकर उन्होंने देश भक्ति और कर्तव्य भावना का आदर्श रखा साथ ही सूक्ष्म शरीर की सत्ता और उसकी महान् महत्ता को भी प्रमाणित कर दिया।

पितर-सत्ताएं ऐसी ही परमार्थ-परायणता, कर्तव्य भावना और निस्पृहता के साथ अपने सूक्ष्म शरीर द्वारा प्रत्यक्ष मार्गदर्शन एवं सहायताएं किया करती हैं।

सच्ची श्रद्धा और भक्ति भावना के साथ पितरों का स्मरण किया जाय तो वे अशरीरी किन्तु अति समर्थ सत्ताएं निश्चय ही सत्प्रयोजनों में मदद के लिए आगे आ जाती हैं। इस सन्दर्भ में द्वितीय महायुद्ध की एक घटना विलक्षण प्रमाण है। इस युद्ध-श्रृंखला में मोन्स लड़ाई का यह प्रामाणिक और सुरक्षित युद्ध दस्तावेज विद्यमान है—

इस युद्ध में ब्रिटिश सेना बुरी तरह मारी-काटी गई। कुल 500 सैनिक शेष रहे थे। जर्मन सेनायें उन्हें भी काट डालने की तैयारी में थीं। उनकी संख्या उस समय दस हजार थी। ब्रिटिश सैनिकों में से एक सिपाही ने कभी सेंट जार्ज की तस्वीर एक होटल में देखी थी। यह तस्वीर एक प्लेट में कढ़ी थी और उसके नीचे लिखा था—‘‘सेंट जार्ज इंग्लैण्ड की सहायता करने को उपस्थित हों’’ वह कभी इंग्लैण्ड के प्रख्यात सेनापति थे और अपने कई हजार सैनिकों के साथ युद्ध में मारे गये थे। उनकी याद आते ही सैनिकों ने अपनी सम्पूर्ण भावना और आत्म-शक्ति से सेंट जार्ज का स्मरण किया और दूसरे क्षण स्थिति कुछ और ही थी। बिजली सी कौंधी और 500 सैनिकों के पीछे कई हजार श्वेत वस्त्रधारी सैनिकों की-सी आभा दिखाई देने लगी। दूसरे ही क्षण दस हजार सेना मैदान में मरी पड़ी थी। रहस्य तो यह था कि किसी भी सैनिक के शरीर में किसी भी अस्त्र का कोई चोट या घाव तक नहीं था। इस घटना ने इंग्लैण्ड में एक बार तहलका मचा दिया कि सचमुच मृत्यु के उपरान्त आत्मा का अस्तित्व नष्ट नहीं होता वरन् रूपान्तर होता है और यह आत्मायें अदृश्य होते हुए भी स्थूल सहायतायें पहुंचा सकती हैं।

वह गरीब देखते-देखते लखपति बन गया

अमेरिका के एक दरिद्र व्यक्ति आर्थर एडवर्ड स्टिलबैल ने अपनी जिन्दगी 40 डालर प्रति मास जैसी कुलीगीरी की छोटी-सी नौकरी से आरम्भ की और वह प्रेतात्माओं की सहायता से उच्च श्रेणी के यशस्वी धनवान विद्वानों की श्रेणी में सहज ही जा पहुंचा।

पन्द्रह वर्ष की आयु से ही उसके साथ छह प्रेतों की एक मण्डली जुड़ गई और जीवन भर उसका साथ देती रही। इन छह प्रेत में तीन इंजीनियर एक लेखक एक कवि और एक अर्थ विशेषज्ञ था। इनके साथ उसकी मैत्री बिना किसी प्रयोग परिश्रम के अनायास ही हो गई और वे उसे निरन्तर उपयोगी मार्गदर्शन कराते रहे। प्रेतों ने उसकी लगी लगाई नौकरी छुड़वादी और कहा चलो तुम्हें बड़ा आदमी बनावेंगे। प्रेतों ने उसे अपने रेल मार्ग बनाने—अपनी नहर खोदते—अपना बन्दरगाह बनाने के लिए कहा। बेचारा आर्थर स्तब्ध था कि नितान्त दरिद्रता की स्थिति में किस प्रकार करोड़ों, अरबों रुपयों से पूरी हो सकने वाली योजनाएं कार्यान्वित कर सकने में सफल होगा, पर जब प्रेतों ने उसे सब कुछ ठीक करा देने का आश्वासन दिया तो उसने कठपुतली की तरह सारे काम करते रहने की सहमति देदी और असम्भव दीखने वाले साधन जुटने लगे।

आर्थर पूरी तरह प्रेतों पर निर्भर था। उसके पास न तो ज्ञान था न अनुभव और न साधन। फिर भी उसके शेखचिल्ली जैसे सपने एक के बाद एक सफलता की दिशा में बढ़ते चले गये और धीरे-धीरे अपनी सभी योजनाओं में जादुई ढंग से सफल होता चला गया। 26 सितम्बर 1928 को वह मरा तो अपनी अरबों की धन राशि छोड़कर मरा। उसकी अपनी पांच लम्बी रेलवे लाइनें थीं। जहाजों के आने-जाने की क्षमता से सम्पन्न विशालकाल नहर पोर्ट आर्थर का वह स्वामी था। उसी के नाम एबना पोर्ट आर्थर बन्दरगाह भी उसका अपना था और भी उसके कितने ही अरबों रुपयों की पूंजी के अर्थ संस्थान थे।

उसने साहित्य के तथा कविता के प्रति प्रसिद्ध तीस ग्रन्थ भी लिखे। जो साहित्य क्षेत्र में भली प्रकार सम्मानित हुए।

आर्थर से उसकी सफलताओं का जब भी रहस्य पूछा गया तो उसने अपने संरक्षक प्रेतों की चर्चा की और बताया प्रत्येक महत्वपूर्ण योजना, अर्थ साधनों की अर्थ व्यवस्था, कठिनाइयों की पूर्व सूचना, गतिविधियों में मोड़-तोड़ की सारी जानकारी और सहायता इन दिव्य सहायकों से ही मिलती रही है। उनकी अपनी योग्यता नगण्य है। साहित्य सृजन के सम्बन्ध में भी उसका यही कथन था कि यह कृतियां वस्तुतः उसके लेखक और कवि प्रेत सहायकों की ही हैं। उसने तो कलम कागज भर का उपयोग करके यह प्राप्त किया है।

उदार पितर सत्ताएं अपने सहयोग से मनुष्य की समृद्धि और प्रगति को ऐसे ही सम्भव बनाती हैं।

कुछ पितर सहज उदारता और सात्विक स्वभाव वश सत्पात्रों को अनायास ही सहयोग-सत्प्रेरणा उड़ेल देते हैं। कुछ को उनके अनुकूल दिव्य सहयोग मार्ग दर्शन के दायित्व ही सृष्टि-संचालक विराट सत्ता द्वारा उसी प्रकार सौंप दिये जाते हैं। जिस प्रकार मनुष्य को इस सृष्टि-व्यवस्था को अधिकाधिक सुन्दर-समृद्ध बनाने के दायित्व सौंप रखे गये हैं और अधिकांश मनुष्य भले ही अनुत्तरदायित्व की पराकाष्ठा का परिचय देते हों किन्तु प्राणवान, परिष्कृत लोग तो अपनी दायित्व का निर्वाह करते ही हैं।

कुछ पितर ऐसे भी होते हैं, जो आत्माविभक्ति की आकांक्षा पूरा करने के लिए अनुकूल माध्यम स्वयं चुनते हैं। लेखन-संगीत-कला आदि के क्षेत्रों में अदृश्य सहयोग कई बार ऐसी पितर-सत्ताओं द्वारा भी प्रदान किया जाता है।

किसी पूर्वकृत उपकार के बदले प्रत्युपकार करने की पवित्र भावना के कारण भी कुछ पितरों द्वारा सम्बन्धित लोगों को आकस्मिक सहायता दी जाती है।

श्रीमती बीजरूस से सम्बन्धित घटना है। यह 70 वर्षीया वृद्धा कलात्मक सृजन की नवीन प्रेरणा पाने की अभिलाषा से सन् 1936 में पेरिस पहुंचे। वहां कई महीने रही, घूमी, पर कोई भी नवीन प्रेरणा वहां के वातावरण और व्यक्तियों-कलाकारों-कलाकृतियों के सम्पर्क से उसे नहीं मिली। वह कोई किशोरी तो थी नहीं। दुनिया देख चुकी थी। अपने विषय का गहन अध्ययन करती रही थी। इसलिए उसने पाया कि इन दिनों पेरिस में कलक्षेत्र में जो कुछ भी है वह पुरातन प्रेरणाओं से रहित है। अभिनव-प्रेरणा के योग्य वहां कुछ न था।

महीनों की व्यर्थता ने उन्हें मात्र व्यग्रता दी। उन्हें वहां आना निरर्थक ही प्रतीत हुआ। रात में ठीक से नींद भी न आती।

ऐसी ही उदासी और मानसिक थकान से भरी एक रात में वे करवटें बदलते देर तक जगती रहीं। आखिर उन्हें नंदी आ गई। गहरी नींद के तीन घन्टे बीते, तभी जैसे किसी ने उन्हें जगा दिया। वे स्वयं को तरोताजा अनुभव कर रही थीं जैसे नई ताजगी और नया प्रकाश उनके भीतर भर गया हो। तभी उनकी अन्तःप्रेरणा उन्हें स्टूडियो की ओर चलने को कहने लगीं। उन्हें कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। परन्तु मानो वे विवश थीं।

वे स्टूडियो पहुंची और अंधेरे में ही कागज पर ब्रुश चलाने की अविज्ञात प्रेरणा ने उन्हें ऐसा ही करने को बाध्य कर दिया। वे यह देखकर चकित भी थीं और पुलकित भी कि उनके हाथ स्वतः बड़ी तेजी से चल रहे हैं। वे स्पष्ट अनुभव कर रहीं थीं कि वे इस समय किसी अविज्ञात शक्ति का माध्यम मात्र है और जो हो रहा है, उस पर उनका वश नहीं है। देर तक यह होता रहा। तब उनका हाथ स्वतः रुक गया और उसी अन्तःप्रेरणा से वे फिर अपने बिस्तर पर जा पहुंची, लेट गईं और सो गईं। सब कुछ मानो विवशता में घटित हो रहा था।

सुबह वे जगी, तब उन्हें रात्रि का घटनाक्रम याद आया। उत्सुकता उमड़ पड़ी। वे स्टूडियो की ओर बढ़ गईं। वहां जाकर निपट अन्धेरे में अनायास बन गए उस चित्र को देखा तो विस्मय-विमुग्ध हो उठी। किसी अज्ञात सुन्दरी का अनुपम चित्रांकन था वह। उन्हें लगा कि कभी उन्होंने यह चित्र कहीं किसी प्रख्यात कलाकार द्वारा बना देखा है। पर स्मृति पूरी तरह साथ नहीं दे रही थी।

चित्र को कला-बाजार में लाने से पहले वे अपनी इस जिज्ञासा को शान्त कर लेना चाहती थी कि वह असामान्य और उत्कृष्ट कलाकृति इस विचित्र ढंग से बनी कैसे? उन्होंने ऐसी महिला से सम्पर्क किया जो प्रेत विद्या विशारद के रूप में प्रसिद्ध थी। उससे यह निवेदन किया कि इस रहस्य का पता लगाए।

उस महिला ने अपनी सम्पर्क विद्या द्वारा पता लगाकर जो कुछ बताया वह यों है—‘‘सम्पर्क के दौरान गोया की प्रेतात्मा ने आकर बताया कि मैं अपने अंतिम दिनों में सन् 1828 ई. में स्पेन के अपने विरोधियों से दूर रहने के लिए दक्षिणी फ्रांस में उक्त महिला के पति के पूर्वजों के घर पर रहा था। उन दिनों असहाय था। उस स्थिति में दी गई मदद का मैं बदला चुकाना चाहता था, पर आज तक मेरे उपयुक्त कोई अवसर न मिला। अब उन कलाकार-महिला को मानसिक कष्ट में देखकर यह अवसर अपने अनुकूल पाया तथा ऐसी प्रेरणा दी तथा इस कृति का सृजन सम्भव बनाया, जो मेरी कृति ‘ग्वालिन’ से साम्य रखती हैं।’

सचमुच उस कृति का साम्य ‘ग्वालिन’ से था, जो प्रख्यात चित्रकार गोया की विशिष्ट कला-कृतियों में से एक है। यह तो श्रीमती वीज-रूस को याद आ गया, पर गोया के जीवन के बारे में उन्हें और कुछ ज्ञात नहीं था। उनकी उत्सुकता बढ़ चुकी थी। अतः उन्होंने गोया की जीवनी एक पुस्तकालय से लेकर पढ़ी। तब स्पष्ट हुआ कि गोया ने अपने जीवन के अन्तिम दिन श्री रोजेरिग्रो वीज के घर बिताए थे, जो श्रीमती बीज-रूस के श्वसुर थे। माध्यम-महिला के बताए विवरणों की पूर्ण पुष्टि हो गई। इस मामले की जांच अमेरिकी मनःशास्त्री डॉक्टर स्टीवेन्सन कर चुके हैं व प्रामाणिक ठहराया है। इससे स्पष्ट होता है कि गोया की आत्मा ने, जिसे स्वर्गस्थ पितर ही कहा जायगा, इस प्रकार अपनी कृतज्ञता व्यक्त की व प्रत्युपकार किया। यहीं यह भी स्पष्ट होता है कि पितरों की अपनी भी सीमाएं होती हैं। उनका जो व्यक्तित्व विकसित हो चुका होता है, उसी के तारतम्य में ही वे अशरीरी रूप में भी कार्य कर सकते हैं। गोया की आत्मा ने कलाकृति के सृजन के रूप में सहयोग देना ही सुगम पाया।

इस प्रकार पितर अपनी क्षमता-योग्यता, रुचि-स्वभाव, संस्कार तथा आकांक्षा के अनुसार जीवन के विविध क्षेत्रों में सत्पात्रों को सहायता-सहयोग करते रहते हैं। इसके लिए आन्तरिक सात्विकता, सौम्यता, मृदुता तथा पितरों के पति श्रद्धा-सद्भावना से सम्पन्न होना अधिक अनुकूल सिद्ध होता है।

अविज्ञात की अनुकम्पा के प्रति अकृतज्ञ न हों!

उपनिषद् के ऋषि का अनुभव है कि आत्मा जिसे वरण करता है उसके सामने अपने रहस्यों को खोलकर रख देता है। इस उक्ति का निष्कर्ष यह है कि रहस्यों का उद्घाटन चेतना की गहराइयों से होता है। मानवी संसार की सामयिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जब जितने अनुदान आवश्यक होते हैं उसी अनुपात से कोई अविज्ञात अपने अनुदान इस धरती पर उतारता रहता है। यह अवतरण जिनके माध्यमों से होता है वे सहज ही श्रेयाधिकारी बन जाते हैं।

वैज्ञानिक आविष्कारों का श्रेय यों उन्हें मिलता है जिनके द्वारा वे प्रकाश में आने योग्य बन सके। किन्तु यहां यह विचारणीय है कि क्या उसी एक व्यक्ति ने उस प्रक्रिया को सम्पन्न कर लिया? आविष्कर्त्ता जिस रूप में अपने प्रयोगों को प्रस्तुत कर सके हैं उसे प्रारम्भिक ही कहा जा सकता है। सर्वप्रथम प्रदर्शन के लिए जो आविष्कार प्रस्तुत किये गये वे कौतूहलवर्धक तो अवश्य थे, आशा और उत्साह उत्पन्न करने वाले भी—पर ऐसे नहीं थे जो लोकप्रिय हो सकें और सरलतापूर्वक सर्वसाधारण की आवश्यकता पूरी कर सकें। रेल मोटर, टेलीफोन, हवाई जहाज आदि के जो नमूने पंजीकृत कराये गये उनकी स्थिति ऐसी नहीं थी कि उन्हें सार्वजनिक प्रयोग के लिए प्रस्तुत किया जा सके यह स्थिति तो धीरे-धीरे बनी है और उस विकास में न्यूनाधिक उतना ही मनोयोग और श्रम पीछे वालों को भी लगाना पड़ा है जितना कि आविष्कर्ताओं को लगाना पड़ा था। संसार के महान् आन्दोलन आरम्भिक रूप में बहुत छोटे थे उनके आरम्भिक स्वरूप को देखते हुए कोई यह अनुमान नहीं लगा सकता था कि कभी वे इतने सुविस्तृत बनेंगे और संसार की इतनी बड़ी सेवा कर सकेंगे। किन्तु अविज्ञात ने जहां उन आन्दोलनों को जन्म देने वाली प्रेरणा की निर्झरणी का उद्गम उभारा, किसी परिष्कृत व्यक्ति के माध्यम से उसे विकसित किया, साथ ही इतनी व्यवस्था और भी बनाई कि उस उत्पादन को अग्रगामी बनाने के लिए सहयोगियों की श्रृंखला बनती बढ़ती चली जाय। ईसा, बुद्ध, गांधी आदि के महान आन्दोलनों का आरम्भ और अन्त—बीजारोपण और विस्तार देखते हुए लगता है यह श्रेय-साधन किसी अविज्ञात के संकेतों पर चले और फले फूले हैं। इन अविज्ञात शक्तियों में पितर-सत्ताओं का भी समावेश है।

जिन आविष्कर्त्ताओं को श्रेय मिला उन्हें सौभाग्यशाली कहा जा सकता है। गहरे मनोयोग के सत्परिणाम क्या हो सकते हैं इसका उदाहरण देने के लिए भी उनके नामों का उत्साहवर्धक ढंग से उल्लेख किया जा सकता है। गहराई में उतरने की प्रेरणा भी उस चर्चा से कितनों को ही मिलती है। पर यह भुला न दिया जाना चाहिए कि उस आविष्कारों आरम्भों के रहस्य प्रकृति ही अपना अन्तराल खोलकर प्रकट करती है। हां इतना अवश्य है कि इस प्रकार के रहस्योद्घाटन हर किसी के सामने नहीं होते। प्रकृति की भी पात्रता परखनी पड़ती है। अनुदान और अनुग्रह भी मुफ्त में नहीं लूट जाते, उन्हें पाने के लिए भी उपयुक्त मनोभूमि तो उसे श्रेयाधिकारी को ही विनिर्मित करनी पड़ती है।

आविष्कारों की चर्चा इतिहास पुस्तकों में जिस प्रकार होती है वह बहुत पीछे की स्थिति है। आरम्भ कहां से होता है यह देखना हो तो पता चलेगा कि उन्हें आवश्यक प्रकाश और संकेत अनायास ही मिला था। इनमें उनकी पूर्ण तैयारी नहीं के बराबर थी। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो यह भी कह सकते हैं कि उन पर इलहाम जैसा उतरा और कुछ बड़ा कर गुजरने के लिए आवश्यक मार्ग दर्शन देकर चला गया। संकेतों को समझने और निर्दिष्ट पथ पर मनोयोग पूर्वक चल पड़ने के लिए तो उन आविष्कर्ताओं को प्रतिभा को सराहना ही पड़ेगा।

बात लगभग दो हजार वर्ष पुरानी है। एशिया माइनर के कुछ गड़रिये पहाड़ी पर भेड़ें चरा रहे थे। उनकी लाठियों के पेंदे में लोहे की कीलें जड़ी थीं। उधर से गुजरने पर गड़रियों ने देखा कि लाठी पत्थरों से चिपकती है और जोर लगाने पर ही छूटती है। पहले तो इसे भूत प्रेत समझा गया फिर पीछे खोजबीन करने से चुम्बक का विज्ञान यहीं से आरम्भ हुआ। आज तो चुम्बक एक बहुत बड़ी शक्ति की भूमिका निभा रहा है।

यह गड़रिये चुम्बक का आविष्कार करने का उद्देश्य लेकर नहीं निकले थे और न उनमें इस प्रकार के तथ्यों को ढूंढ़ निकालने और विश्वव्यापी उपयोग के लायक किसी महत्वपूर्ण शक्ति को प्रस्तुत कर सकने की क्षमता ही थी।

न्यूटन ने देखा कि पेड़ से टूट कर सेब का फल जमीन पर गिरा। यह दृश्य देखते सभी रहते हैं, पर न्यूटन ने उस क्रिया पर विशेष ध्यान दिया और माथा-पच्ची की कि फल नीचे ही क्यों गिरा, ऊपर क्यों नहीं गया? सोचते सोचते उसने पृथ्वी की आकर्षण शक्ति का पता लगाया और पीछे सिद्ध किया कि ग्रह नक्षत्रों को यह गुरुत्वाकर्षण ही परस्पर बांधे हुए है। इस सिद्धान्त के उपलब्ध होने पर ग्रह विज्ञान की अनेकों प्रक्रियाएं समझ सकना सरल हो गया।

पेड़ से फल न्यूटन से पहले किसी के सामने न गिरा हो ऐसी बात नहीं। असंख्यों ने यह क्रम इन्हीं आंखों से देखा होगा पर किसी अविज्ञात ने अकारण ही उसके कान में गुरुत्वाकर्षण की सम्भावना कह दी और उसने संकेत की पूंछ मजबूती से पकड़ कर श्रेय प्राप्त कराने वाली नदी पार कर ली।

अब से 300 वर्ष पुरानी बात है। हालैंड का चश्मे बेचने वाला ऐसे ही दो लैंसों को एक के ऊपर एक रखकर उलट-पुलट का कौतुक कर रहा था दोनों शीशों को संयुक्त करके आंख के आगे रखा तो विचित्र बात सी दिखाई पड़ी। उसको गिरजा बहुत निकट लगा और उस पर की गई नक्कासी बिल्कुल स्पष्ट दीखने लगी। दूरबीन का सिद्धान्त इसी घटना से हाथ लगा और अब अनेक प्रकार के छोटे बड़े दूरबीन विज्ञान की शोधों में महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं।

चश्मे बेचना एक बात है और दूरबीन दूसरी। दोनों के बीच सिद्धान्त और व्यवहार का कोई सीधा तालमेल नहीं है। फिर भी संकेत देने के लिए इस संगति भर से काम चल गया। प्रकृति ने एक रहस्य उसके ऊपर उड़ेल ही दिया।

अभी पूरे सौ वर्ष भी नहीं हुए सन् 1895 की बात है। प्रो. राब्टजन अपनी प्रयोगशाला में एक हवा रहित कांच की नली में होकर विद्युत-प्रवाह छोड़ने सम्बन्धी प्रयोग कर रहे थे। संयोगवश उसी कमरे में अन्यत्र फोटोग्राफी प्लेटें बन्द बक्से में रखी थीं। प्लेटें जब काम में लायी गईं तो उन पर प्रयोग समय के दृश्य अंकित पाये गये। बन्द बक्से में घटना चित्र कैसे पहुंचे इस खोज से ‘‘ऐक्स-रे’’ का आविष्कार हो गया। सभी जानते हैं कि आज रोगों के निदान और सर्जरी में एक्स किरणों की सहायता से उतारे जाने वाले चित्रों का कितना अधिक योगदान है।

एक्स-रे के आविष्कार का श्रेय जिस व्यक्ति को मिला उसे सौभाग्यशाली कहने में हर्ज नहीं, पर प्रयोगशाला में ऐसा सुयोग जानबूझ कर नहीं बनाया था। उस संयोग के पीछे कोई अविज्ञात ही काम कर रहा होगा। अन्यथा ऐसे-ऐसे संयोग आये दिन न जाने कितने सर्वसाधारण के सामने आते रहते हैं। उसकी ओर ध्यान जाने का कोई कारण भी नहीं होता।

बात आविष्कारों की हो या आन्दोलनों की, श्रेय साधनों का शुभारम्भ ‘अविज्ञात’ की प्रेरणा से होता है। इस अविज्ञात को ब्रह्म कहा जाय या प्रकृति इस पर बहस करने की आवश्यकता नहीं, श्रेय लक्ष्य है। प्रगति अभीष्ट है। वह आत्मा के—परमात्मा के—उद्गम से आविर्भूत होता है। एक सहयोगी श्रृंखला का परिपोषण पाकर विकसित होता है। यह सहयोग पितरों स्वर्गीय श्रेष्ठ आत्माओं द्वारा भी प्राप्त होता है देवसत्ताओं द्वारा भी तथा सर्वोच्च सत्ता की अव्यक्त प्रेरणा द्वारा भी।

गड़रियों ने जब अग्नि का आविष्कार किया, उस समय पहले तो आग की चिनगारियों को उन्होंने भूतों का ही उपद्रव समझा, पीछे पितरों की कृपा मान उत्सव मनाया, आनन्दित हुए और पितरों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की।

श्रद्धा-भाव रखने तथा श्रेष्ठ जीवन क्रम अपनाए रहने पर उच्च स्तरीय पितर-सत्ताएं सचमुच ऐसे ही महत्वपूर्ण सहयोग-अनुदान, प्रकाश-प्रेरणाएं प्रदान करती हैं, जो व्यक्ति एवं समाज के जीवन को सुख-सुविधाओं से भर देती हैं। उन पितरों की अपेक्षा यही रहती है कि इन उदार अनुदानों का दुरुपयोग न हो। परमेश्वर की भी तो मनुष्यों से यही अपेक्षा रहती है। पर कृतघ्न मनुष्य इतनी-सी अपेक्षा भी पूरी नहीं कर पाता।
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