पितरों को श्रद्धा दें, वे शक्ति देंगे

उच्च-स्वभाव-संस्कार वाली अशरीर आत्माएं—पितर

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मरने के बाद क्या होता है? इस प्रश्न के उत्तर में विभिन्न धर्मों में विभिन्न प्रकार की मान्यताएं हैं। हिन्दूधर्म शास्त्रों में भी कितने ही प्रकार से परलोक की स्थिति और वहां आत्माओं के निवास का वर्णन किया है। इन मत भिन्नताओं के कारण सामान्य मनुष्य का चित्त भ्रम में पड़ता है कि इन परस्पर विरोधी प्रतिपादनों में क्या सत्य है क्या असत्य?

इतने पर भी एक तथ्य नितान्त सत्य है कि मरने के बाद भी जीवात्मा का अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाता वरन् वह किसी न किसी रूप में बना ही रहता है। मरने के बाद पुनर्जन्म के अनेकों प्रमाण इस आधार पर बने रहते हैं कि कितने ही बच्चे अपने पूर्व जन्म के स्थानों सम्बन्धियों और घटनाक्रमों का ऐसा परिचय देते हैं जिन्हें यथार्थता की कसौटी पर कसने में यह विवरण सत्य ही सिद्ध होता है। अपने पूर्व जन्म से बहुत दूर किसी स्थान पर

जन्मे बच्चे का पूर्व जन्म के ऐसे विवरण बताने लगना, जो परीक्षा करने पर सही निकलें, इस बात का प्रमाण बताता है कि मरने के बाद पुनः जन्म भी होता है। मरण और पुनर्जन्म के बीच के समय में जो समय रहता है उसमें जीवात्मा क्या करता है? कहां रहता है? आदि प्रश्नों के सम्बन्ध में भी विभिन्न प्रकार के उत्तर हैं पर उनमें भी एक बात सही प्रतीत होती है कि उस अवधि में उसे अशरीरी किन्तु अपना मानवी अस्तित्व बनाये हुए रहना पड़ता है। जीवन मुक्त आत्माओं की बात दूसरी है। वे नाटक की तरह जीवन का खेल खेलती हैं और अभीष्ट उद्देश्य पूरा करने के उपरान्त पुनः अपने लोग को लौट जाती हैं। इन्हें वस्तुओं, स्मृतियों, घटनाओं एवं व्यक्तिओं का न तो मोह होता है और न उनकी कोई छाप इन पर रहती है। किन्तु सामान्य आत्माओं के बारे में यह बात नहीं है। वे अपनी अतृप्त कामनाओं, विछोह, संवेदनाओं, राग-द्वेष की प्रतिक्रियाओं से उद्विग्न रहती हैं। फलतः मरने से पूर्व वाले जन्मकाल की स्मृति उन पर छाई रहती है और अपनी अतृप्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने के लिए ताना-बाना बुनती रहती हैं। पूर्ण शरीर न होने से वे कुछ अधिक तो नहीं कर सकतीं, पर सूक्ष्म शरीर से भी वे जिस-तिस को अपना परिचय देती हैं। इस स्तर की आत्माएं भूत कहलाती हैं। वे दूसरों को डराती या दबाव देकर अपनी अतृप्त अभिलाषाएं पूरी करने को सहायता करने के लिए बाधित करती हैं। भूतों के अनुभव प्रायः डरावने और हानिकारक ही होते हैं। पर जो आत्माएं भिन्न प्रकृति की होती हैं, वे डराने, उपद्रव करने से विरत ही रहती हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति भवन में समय-समय पर जिन पितरों के अस्तित्व अनुभव में आते रहते हैं उनके आधार पर यह मान्यता बन गई है कि वहां पिछले कई राष्ट्रपतियों की प्रेतात्माएं डेरा डाले पड़ी हैं। इनमें अधिक बार अपने अस्तित्व का परिचय देने वाली आत्मा अब्राहमलिंकन की है।

ये आत्माएं वहां रहने वालों को कभी कोई कष्ट नहीं पहुंचाती। वस्तुतः उपद्रवी आत्माएं तो दुष्टों की ही होती हैं।

मरण समय में विक्षुब्ध मनःस्थिति लेकर मरने वाले अक्सर भूत-प्रेत की योनि भुगतते हैं, पर कई बार सद्भाव सम्पन्न आत्माएं भी शान्ति और सुरक्षा के सदुद्देश्य लेकर अपने जीवन भर सम्बन्धित व्यक्तियों को सहायता देती—परिस्थितियों को संभालती तथा प्रिय वस्तुओं की सुरक्षा के लिए अपने अस्तित्व का परिचय देती रहती हैं। पितृवत् स्नेह, दुलार और सहयोग देना भर उनका कार्य होता है।

पितर ऐसी उच्च आत्माएं होती है जो मरण और जन्म के बीच की अवधि को प्रेत बन कर गुजारती हैं और अपने उच्च स्वभाव संस्कार के कारण दूसरों की यथासम्भव सहायता करती रहती हैं। इनमें मनुष्यों की अपेक्षा शक्ति अधिक होती है। सूक्ष्म जगत से सम्बन्ध होने के कारण उनकी जानकारियां भी अधिक होती हैं। उनका जिनसे सम्बन्ध हो जाता है उन्हें कई प्रकार की सहायताएं पहुंचाती हैं। भविष्य ज्ञान होने से वे सम्बद्ध लोगों को सतर्क भी करती हैं तथा कई प्रकार की कठिनाइयों को दूर करने एवं सफलताओं के लिए सहायता करने का भी प्रयत्न करती है।

ऐसी दिव्य प्रेतात्माएं अर्थात् पितर सदाशयी सद्भाव सम्पन्न और सहानुभूति पूर्ण होती हैं। वे कुमार्ग गामिता से असन्तुष्ट होतीं तथा सन्मार्ग पर चलने वालों पर प्रसन्न रहती हैं।

पितर वस्तुतः देवताओं से भिन्न किन्तु सामान्य मनुष्यों से उच्च श्रेणी की श्रेष्ठ आत्माएं हैं। वे अशरीरी होती हैं, देहधारी से सम्पर्क करने की उनकी अपनी सीमाएं होती हैं। हर किसी से वे सम्पर्क नहीं कर सकतीं। कोमलता और निर्भीकता, श्रद्धा और विवेक दोनों का जहां उचित संतुलन-सामञ्जस्य हो ऐसी अनुकूल भावभूमि ही पितरों के सम्पर्क के अनुकूल होती है। सर्व साधारण उनकी छाया से डर सकते हैं जबकि डराना उनका उद्देश्य नहीं होता। इसलिए वे सर्व साधारण को अपनी उपस्थिति का आभास नहीं देतीं। वे उपयुक्त मनोभूमि एवं व्यक्तित्व देखकर ही अपनी उपस्थिति प्रकट करतीं और सत्परामर्श, सहयोग-सहायता तथा सन्मार्ग—दर्शन करती हैं।

अवांछनीयताओं के निवारण अनीति के निराकरण की सत्प्रेरणा पैदा करने तथा उस दिशा में आगे बढ़ने वालों की मदद करने का काम भी ये उच्चाशयी ‘पितर’ आत्माएं करती हैं। अतः भूत-प्रेतों से विरक्त रहने उनकी उपेक्षा करने और उनके अवांछित-अनुचित प्रभाव को दूर करने की जहां आवश्यकता है वहीं पितरों के प्रति श्रद्धा-भाव दृढ़ रखने, उन्हें सद्भावना भरी श्रद्धांजलि देने तथा उनके प्रति अनुकूल भाव रखकर उनकी सहायता से लाभान्वित होने में पीछे नहीं रहना चाहिए।

पितरों के भी अनेक स्तर होते हैं और उसी के अनुरूप वे सहायता करते हैं।

श्री सी. डब्ल्यू. लेडवीटर ने अपनी पुस्तक ‘इन विजिकुल हेल्पर्स’ में लिखा है कि सात लोगों में से ऊपरी छह लोकों से सम्बन्धित छह तरह की पितर आत्माएं होती हैं और प्रत्येक स्तर के दायित्व तथा गतिविधियां भिन्न-भिन्न होती हैं। प्रकृति, संस्कार, योग्यता एवं अभिरुचि के अनुरूप ये पितर सहायता एवं मार्ग दर्शन का काम करते हैं। श्री लेडबीटर ने अपनी उपरोक्त पुस्तक में विश्व के विभिन्न समुदायों में प्रचलित पितरों सम्बन्धी, धारणाओं के विवरण प्रस्तुत करते हुए यह स्पष्ट किया है कि पुरानी यूनानी एवं रोमन सभ्यता में ये आस्थाएं जहां धूमिल अस्पष्ट धारणाओं के रूप में विद्यमान हैं वहीं ईजिप्ट—मिश्र तथा चीन की सांस्कृतिक आस्थाओं में पितरों से सम्बन्धित विस्तृत कथाओं तथा कर्मकाण्डों की विद्यमानता है। ईजिप्ट-सभ्यता के धर्म ग्रन्थों का सार-सन्दर्भ ‘द बुक आफडेड’ नामक ग्रन्थ में संग्रहीत है। उसमें पितरों की गतिविधियों, उनके द्वारा दी जाने वाली सहायताओं के सैकड़ों मामले विस्तार से दिए गए हैं। किन्तु पितरों की गतिविधियों का निरूपण करने वाले नियम तथा प्रक्रियाएं स्पष्ट रूप में नहीं दी गई हैं।

श्री लेडबीटर ने अपनी पुस्तक में कहा है कि हिंदुओं में श्राद्ध की जो प्रक्रिया प्रतिष्ठित है, तथा उनसे सम्बन्धित जो विवरण हैं, वे सर्वाधिक प्रामाणिक एवं वैज्ञानिक हैं। किन्तु अब वे भी मात्र कर्मकांडों के रूप में अवशिष्ट हैं और परम्परागत रीति-रिवाज बनकर रह गए हैं। उनके पीछे सन्निहित तत्व ज्ञान को अधिकांश हिन्दू भूल चुके हैं। इसलिए न तो वे स्वयं ही उस प्रक्रिया द्वारा पितरों से समुचित और पर्याप्त लाभ प्राप्त कर पाते, नहीं पितरों एवं स्वर्गीय आत्माओं को ही अपनी श्रद्धा—भावना का उचित लाभ पहुंचा पाते हैं।

श्री लेडवीटर ने स्पष्ट किया है कि इन अशरीरी आत्माओं से सम्पर्क का मूल आधार संकल्प एवं विचार ही हैं। जड़ वस्तुओं और निष्प्राण कर्मकाण्डों के माध्यम से पितरों से आदान-प्रदान का क्रम नहीं चल सकता। क्योंकि वह सारा व्यापार भावनात्मक एवं विचार परक ही है। कर्मकांड की प्रक्रियाएं आवश्यक तो हैं, किन्तु वे उपकरण हैं, उनका प्रयोग होता है, वे स्वयं इन प्रयोगों के संचालन एवं परिणामों के प्रतिपादन में असमर्थ हैं बिना ज्ञान के उपकरणों का उचित प्रयोग और सही परिणामों की प्राप्ति असम्भव है। अतः आवश्यकता पितरों की सत्ता के सही स्वरूप को समझने और उनसे सम्पर्क की पात्रता स्वयं में विकसित करने की है? वैसा हो सके, तो उनसे—देव स्तर का सहयोग प्राप्त किया जाकर जीवन को अधिक समृद्ध, सार्थक एवं सफल बनाया जा सकता है।

दिव्य प्रेतात्मा से कभी-कभी किन्हीं-किन्हीं का सीधा सम्बन्ध उनके पूर्वजन्मों के स्नेह सद्भाव के आधार पर हो जाता है। कई बार वे उपयुक्त सत्पात्रों को अनायास ही सहज उदारता वश सहायता करने लगते हैं किन्तु ऐसा भी सम्भव है कि कोई व्यक्ति अपने आपको साधना द्वारा प्रेतात्माओं का कृपा पात्र बनाले और अपने साथ अदृश्य सहायकों का अनुग्रह जोड़कर अपनी शक्ति को असामान्य बनाले एवं महत्व पूर्ण सफलताएं प्राप्त करने का पथ-प्रशस्त करें।

पितरों के अनेक वर्ग हैं और देवसत्ताओं की ही तरह उनके क्रिया कलापों के क्षेत्र भी भिन्न-भिन्न हैं। प्रत्यक्ष मार्ग दर्शन, गूढ़ संकेत, दिव्य प्रेरणाएं तथा आकस्मिक सहायताएं उनसे उपलब्ध होती हैं। विपत्ति से त्राण पाने, सन्मार्ग पर अग्रसर होने और मानवीयता के क्षेत्र को विस्तृत करने, सामाजिक प्रगति का पथ प्रशस्त करने में उनके दिव्य-अनुदान देवी वरदान बनकर सामने आ सकते हैं। सूक्ष्म शक्तियों के रूप में वैसे भी वे क्रियाशील रहते ही हैं और अनीति-अत्याचार अन्याय के क्रम को आकस्मिक अप्रत्याशित रीति से उलट देने की चमत्कारी प्रक्रिया कई बार उनके अनुग्रह से ही सम्पन्न हुआ करती है। ऐसे श्रेष्ठ पितर सचमुच श्रद्धा-भाजन हैं। इस संदर्भ में एक नया पक्ष और भी है। वह यह है कि जीव सत्ता अपनी संकल्प शक्ति का एक स्वतंत्र घेरा बनाकर खड़ा कर देती है और जीव को अन्य जन्म मिलने पर भी वह संकल्प सत्ता उसका कुछ प्राणांश लेकर अपनी एक स्वतन्त्र इकाई बना लेती है। और इस प्रकार बनी रहती है, मानो कोई दीर्घजीवी प्रेत ही बनकर खड़ा हो गया हो। अति प्रचंड संकल्प वाली ऐसी कितनी ही आत्माओं का परिचय समय-समय पर मिलता रहता है लोग इन्हें ‘पितर’ नाम से देव स्तर की संज्ञा देकर पूजते पाये जाते हैं। वे अपने अस्तित्व का प्रमाण जब तब इस प्रकार देते रहते हैं कि आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। इतने पुराने समय में उत्पन्न हुई वे आत्माएं अभी तक अपना अस्तित्व बनाये हुए हैं, यह प्रेत विद्या के लोगों के लिए भी अचम्भे की बात है, क्योंकि वे भी प्रेतयोनि को स्वल्पकालीन मानते हैं। अब उन्हें भी एक नये ‘पितर’ वर्ग को मान्यता देनी पड़ी है। जो मात्र भूत-प्रेत नहीं होते, वरन् अपनी प्रचंड शक्ति का दीर्घकाल तक परिचय देते रहते हैं।

हजारों वर्ष पूर्व उत्पन्न आत्माएं अभी तक प्रेतावस्था में ही हों, यह मानना असंगत और असमीचीन हैं? वे अभी तक निश्चय ही नये जन्म लेकर नयी गतिविधियों में जुट चुकी होंगी। ऐसी स्थिति में यही स्पष्ट होता है कि प्रचंड संकल्प-सत्ता जीवात्मा की प्राण-शक्ति का एक अंश लेकर एक नई ही शक्तिशाली इकाई बना डालती है। यह प्राणवेग से भरपूर सत्संकल्पात्मक इकाई अपने आवेग की सामर्थ्य के अनुसार ही एक निश्चित समय तक सक्रिय रहती है। वह समय उस प्राण सत्ता के लिए कुछ अधिक न होते हुए भी हमारे लिए हजारों वर्षों का होने से हमें चमत्कारिक लग सकता है। संकल्प सत्ता के साक्षात विग्रह स्वरूप ये पितर इकाइयां अपनी संरचना में सन्निहित तत्वों के अनुरूप ही गति विधियां करती हैं, अन्य नहीं। अर्थात् ये कुछ सीमित प्रयोजनों में ही मददगार हो सकती हैं। प्रयोजनों के जिन ढांचों से इन संकल्प सत्ताओं का अधिक परिचय-लगाव होता है उनकी पूर्ति में वे विशेष सहायक सिद्ध हो सकती हैं। प्रार्थना-उपासना, ईश्वर-आराधना, सामाजिक कर्त्तव्य विशेष आदि में आकस्मिक सहायता के रूप में ऐसी ही पितर-सत्ताओं का अनायास अनुग्रह बरसा करता है।

पितरों के ऐसे अनुग्रह-अनुदान संकल्प की प्रखरता, सत्प्रवृत्तियों से अनुराग और विराट करुणा के परिणाम होते हैं। ये दैवी तत्व न केवल पितरों की विशेषताएं होती हैं, अपितु मनुष्य की भी वास्तविक विभूतियां हैं।

सामान्य स्थिति में आकर्षण

अपनत्व का प्रभाव मृत्यु के तत्काल बाद ही देखा जाता है। नेपोलियन बोनापार्ट को अपनत्व का प्रभाव मृत्यु के तत्काल बाद ही देखा जाता है। नेपोलियन बोनापार्ट को अपनी मां से गहरा प्यार था। जिस समय उसकी मृत्यु हुई उसकी मां उससे सैकड़ों मील दूर थी। वह फ्रांस में था, मां रोम में। उस दिन मां ने देखा—नेपोलियन सहसा आया है। पैर छूकर कह रहा है कि ‘‘मां! अभी ही तो मुझे झंझटों से फुरसत मिल पाई।’’ थोड़ी देर बाद वह अंतर्धान हो गया। बाद में पता चला कि उसका उसी दिन उसी समय निधन हुआ था।

प्रख्यात कवि बायरन ने भी एक ऐसे ही अनुभव का विवरण लिखा है। एक फौजी कप्तान ने रेल यात्रा में रात को सहसा नींद उचटने पर अपने छोटे भाई को पायताने बैठे देखा। वह भाई वेस्टइंडीज में नियुक्त था। कप्तान ने समझा कि कहीं वे स्वप्न तो नहीं देख रहे हैं। उन्होंने अपने जगे होने की आश्वस्ति के लिए हाथ बढ़ाकर भाई को छूना चाहा। उनके हाथ में उसका कोट छू गया तो लगा कि वह कोट पानी से तर है। तभी वह भाई अदृश्य हो गया। बाद में तीसरे दिन खबर मिली कि उसकी उसी समय समुद्र में डूब जाने से मृत्यु हुई थी जब वह वहां दिखा था।

परामनोवैज्ञानिकों को अपने अनुसंधानों के दौरान ऐसे अनेक साक्ष्य मिले हैं जिनसे यह पता चलता है कि मृत व्यक्ति सैकड़ों-हजारों मील दूर स्थित अपने आत्मीयों के पास मृत्यु के तत्काल बाद देखा गया। कई बार व्यक्ति नहीं दिखाई देता उसकी आवाज सुनाई पड़ती है।

इंग्लैंड के चार्ल्स मैथ्यूज समुद्री जहाज सेवा में कर्मचारी थी। एक रात वे ड्यूटी पर गये। उससे कुछ घंटे बाद उनकी पत्नी और उनकी पड़ोसिन दोनों को चार्ल्स की आवाज सुनाई पड़ी। पड़ोसिन ने सुना कि चार्ल्स उससे कह रहे हैं कि इसका यानी उनकी पत्नी का ध्यान रखना। पत्नी को लगा कि वे उसे पुकार रहे हैं। हुआ यह था कि उस रात जहाज डूब गया था और उसी के साथ श्री मैथ्यूज भी।

इससे सर्वथा भिन्न एक अन्य घटना है। कैलीफोर्निया के एक पुलिस अधिकारी को एक बार उसके कुछ ही दिनों पूर्व मृत मित्र की छाया दिखी। इस छाया ने उससे कहा कि तुम तुरन्त मैकडोनाल्ड एवेन्यू पहुंचो। वहां स्ट्रीम लाइनर से एक ट्रक टकराकर उलट गया है और उसके ड्राइवर की छाती चकनाचूर हो गई है। पुलिस अधिकारी वहां पहुंचा। तब तक वहां वैसा कुछ भी घटित न हुआ था। उसे लगा कि मैंने दिवास्वप्न देखा है। वह लौटने को था। तभी वहीं घटना घटी। स्ट्रीम लाइनर से सामने से आ रहा ट्रक टकराया और ड्राइवर की छाती छलनी हो गई।

इस तरह के प्रमाणों से यह पता चलता है कि मानवीय चेतना जब तक शरीर से ही तादात्म्य अनुभव करती रहती है तब तक तो वह सीमाबद्ध रहती है पर शरीर से निकलते ही वह सर्वव्यापी हो जाती है। उसकी संचरण और सम्प्रेषण क्षमता फिर निबंध हो जाती है। वह कहीं भी आ जा सकती है। यद्यपि अपने संस्कारों के कारण वह सर्वप्रथम अपने आत्मीय के पास पहुंचती है।

कई बार वह आत्मीय के पास न पहुंच कर सर्वप्रथम वहां पहुंचती है, जहां उसका मृत्यु के तत्काल पूर्व ध्यान जाता है। पूना के एक बड़े वकील को एक बार देर रात में दफ्तर बंद करते समय एक परिचित व्यक्ति दरवाजे पर दिखा। उन्होंने उसके आने का कारण पूछते हुए अन्दर आने को कहा। तभी वह अदृश्य हो गया। वे चकरा गये। इसके बाद बिस्तर पर जाकर लेट गये। दो-तीन घंटे बाद उस व्यक्ति के रिश्तेदारों ने दरवाजा खटखटाया। वकील साहब बाहर निकले। तब उन्हें बताया गया कि उस व्यक्ति के घर कुछ लोग गये थे। उन्होंने कहा कि आपको अभी ही वकील साहब ने बुलाया है। नगर पालिका के चुनाव के बारे में कोई खास चर्चा करनी है। सुबह वे जरूरी काम से बम्बई चल देंगे। वहां वकील साहब के घर और लोग भी हैं, आपसे भी चर्चा करनी है। वह व्यक्ति चल दिया और अभी तक नहीं लौटा। इसी से वे सब ढूंढ़ने आये थे। लोगों ने समझ लिया कि छल किया गया है। प्रातः पता चला कि रात को उन लोगों ने उसकी हत्या कर दी। इससे यह स्पष्ट हुआ कि मृत व्यक्ति को वकील साहब का नाम लगाकर बुलाया गया था अतः उसके चित्त में यह बात थी और मृत्यु के तत्काल बाद उसकी आत्मा वहां पहुंची थी।

लेखिका शेला आस्ट्रेन्डर को एक बार उनकी एक सहेली मृत्यु के तत्काल बाद दिखी। वह सहेली कई मील दूर दूसरे शहर में उसी समय मरी थी। मृत्यु की खबर दूसरे दिन मिली।

इससे चेतना की निस्सीमता का परिचय मिलता है। ऐसा नहीं है कि मृत्यु के उपरान्त ही, मानवीय चेतना इस प्रकार निर्बन्ध होती है। वरन् यदि संकीर्णता के मानसिक बन्धन दूर कर दिये जायें, तो जीवित अवस्था में भी चेतना की इन शक्तियों का अनुभव किया जा सकता है और लाभ उठाया जा सकता है।

ये घटनाएं विरल या अपवाद नहीं हैं। ऐसे लोगों की कमी नहीं, जो दूरस्थ परिजनों की तीव्र संवेदना से, याद करने पर, उनके पास आभास रूप में देखे जाते हैं। ऐसे भी लोग हैं, जो भावाकुल होकर जब किसी प्रियजन का स्मरण करते हैं, तो वह उन्हें अपने सामने उस स्थिति में दिखता है, जिसमें वह उस समय होता है। बाद में पत्र मिलने पर या प्रत्यक्ष भेंट होने पर इस तथ्य की पुष्टि होती है। विशेषकर नारियों को दूराभास और दूरानुभूति प्रायः होती रहती है।

परामनोविज्ञानी हैराल्ड ने ऐसे अनेक वृत्तान्तों का संकलन किया है, जिनमें महिलाओं को दूरस्थ भाई या पति की बीमारी, या मृत्यु का आभास हुआ और वह सत्य निकला। मनःशास्त्री हेनब्रुक ने भी यही कहा है कि यों, ये क्षमताएं होती मनुष्य मात्र में हैं। नारियों में सौम्यता मृदुता और सहृदयता के आधिक्य के कारण यह सामर्थ्य अधिक विकसित पायी जाती है।

बीज रूप में यह सामर्थ्य प्रत्येक व्यक्ति में सन्निहित है। आवश्यकता है, मन को संकीर्ण सीमाओं के बन्धनों से मुक्त करने की। ऐसा करने पर पानी में तेल की बूंद की तरह प्रत्येक व्यक्ति की अनुभव-संवेदना का क्षेत्र दूर तक फैल जाता है। सामान्यतः अपने शरीर और मन की दीवालों से टकरा टकराकर ही व्यष्टि-चेतना की तरंगें लौटती रहती हैं तथा सीमित क्षेत्र में ही हिलोरें लेती रहती हैं। परन्तु यदि अनुभूति और संवेदना के स्तरों पर ये दीवालें हटा दी जायें, तो अनन्त चेतना-समुद्र से उन लहरों का सम्पर्क हो जाता है।

श्रेष्ठ संस्कारों वाली पितर—आत्माएं शरीर और मन की संकीर्णता रूपी दीवालों से मुक्त होती हैं इसलिए वे देशकाल को परिधि को लांघते हुए सत्पात्रों को अपना सूक्ष्म सत्ता की विशाल सामर्थ्य से लाभान्वित करती रहती है।

जीवन के अदृश्य रहस्य

योगवशिष्ठ में एक बहुत महत्वपूर्ण आख्यायिका आती है। यह उपाख्यान जीवन के अदृश्य रहस्यों और मृत्यु के उपरान्त जीवन परम्परा पर प्रकाश डालता है इसलिये समीक्षाकार इसे योगवशिष्ठ की सर्वाधिक उपयोगी आख्यायिका मानते हैं। वर्णन इस प्रकार है—

किसी समय आर्यावर्त में पद्म नाम का एक राजा राज्य करता था। लीला नामक उसकी धर्मशीला धर्मपत्नी उसे बहुत प्यार करती थी। जब कभी वह मृत्यु की बात सोचती वियोग की कल्पना से घबरा उठती। कोई उपाय न देखकर उसने भगवती की उपासना की और यह वर प्राप्त कर लिया कि यदि उसके पति की पहले मृत्यु हो जाये, तो पति की अन्तर्चेतना राज महल से बाहर न जाये। सरस्वती ने यह भी आशीर्वाद दिया कि तुम जब चाहोगी अपने पति से भेंट भी कर सकोगी। कुछ दिन बीते पद्म का देहान्त हो गया। लीला ने पति का शव सुरक्षित रखवा कर भगवती सरस्वती का ध्यान किया सरस्वती ने उपस्थित होकर कहा—भद्रे! दुःख न करो तुम्हारे पति इस समय यहीं हैं पर वे दूसरी सृष्टि में हैं उनसे भेंट करने के लिए तुम्हें भी उसी सृष्टि वाले शरीर (मानसिक-कल्पना) में प्रवेश करना चाहिये।

लीला ने अपने मन को एकाग्र किया, अपने पति की याद की और उस लोक में प्रवेश किया जिसमें पद्म की अन्तर्चेतना विद्यमान थी। लीला ने जाकर जो कुछ दृश्य देखा उससे बड़ी आश्चर्यचकित हुई। उस समय सम्राट पद्म इस लोक के 16 वर्ष के महाराज थे और एक विस्तृत क्षेत्र में शासन कर रहे थे। लीला को अपने ही कमरे में इतना बड़ा साम्राज्य और एक ही क्षण के भीतर 16 वर्ष व्यतीत हो गये देखकर बड़ा विस्मय हुआ। भगवती सरस्वती ने समझाया भद्रे—

सर्गे सर्गे पृथग् रूपं सन्ति सर्गान्तराण्यपि । तेष्वप्यन्तः स्थसर्गोधाः कदलीदल पीठवत् ।। योगवशिष्ठ 4।18।16-17 आकाशे परमाण्वन्तर्द्रव्यादेरणुकेऽपि च । जीवाणुर्यत्र तत्रेदं जगद् वेत्ति निजं वपुः ।। योगवशिष्ठ 3।44।34-35

अर्थात्—‘‘हे लीला! जिस प्रकार केले के तने अन्दर एक के बाद एक परतें निकलती चली आती हैं उसी प्रकार प्रत्येक सृष्टि के भीतर नाना प्रकार के सृष्टि क्रम विद्यमान है इस प्रकार एक के अन्दर अनेक सृष्टियों का क्रम चलता है। संसार में व्याप्त चेतना के प्रत्येक परमाणु में जिस प्रकार स्वप्न लोक विद्यमान है उसी प्रकार जगत में अनन्त द्रव्य के अनन्त परमाणुओं के भीतर अनेक प्रकार के जीव और उनके जगत विद्यमान हैं।’’

अपने कथन की पुष्टि में एक जगत दिखाने के बाद कहा—देवी तुम्हारे पति की मृत्यु 70 वर्ष की आयु में हुई है ऐसा तुम मानती हो इस से पहले तुम्हारे पति एक ब्राह्मण थे और तुम उनकी पत्नी। ब्राह्मण की कुटिया में उसका मरा हुआ शव अभी भी विद्यमान है यह कहकर भगवती सरस्वती लीला को और भी सूक्ष्म जगत में ले गई लीला ने वहां अपने पति का मृत शरीर देखा—उनको उस जीवन की स्मृतियां भी याद हो आईं और उससे भी बड़ा आश्चर्य यह हुआ कि जिसे वह 70 वर्ष की आयु समझे हुये थीं वह और इतने जीवन काल में घटित सारी घटनायें उस कल्प के कुल 7 दिनों के बराबर थीं। लीला ने देखा—उस समय मेरा नाम अरुन्धती था— एक दिन एक राजा की सवारी निकली उसे देखते ही मुझे राजसी भोग भोगने की इच्छा हुई। उस वासना के फलस्वरूप ही उसने लीला का शरीर प्राप्त किया और राजा पद्म को प्राप्त हुई। इसी समय भगवती सरस्वती की प्रेरणा से राजा पद्म जो अन्य कल्प में था उसे फिर से पद्म के रूप में राज्य-भोग की वासना जाग उठी, लीला को उसी समय फिर पूर्ववर्ती भोग की वासना ने प्रेरित किया फलस्वरूप वह भी अपने व्यक्ति शरीर में आ गई और राजा पद्म भी अपने शव में प्रविष्ट होकर जी उठे फिर कुछ दिन तक उन्होंने राज्य-भोग भोगे और अन्त में मृत्यु को प्राप्त हुए।

इस एक आख्यायिका से आत्मा की अकूत सामर्थ्य, देश काल की सापेक्षता, संकल्प की प्रचंड शक्तिमत्ता और जगत की अनंत रूपता रहस्यमयता सभी पर सुन्दर प्रकाश पड़ता है। हजारों वर्षों के उपरांत भी पितर-सत्ताओं का सक्रिय रहना देश-काल की सापेक्षता और संकल्प शक्ति की प्रखरता का परिणाम है। उनका सर्वव्यापी हो सकना और विशिष्ट सामर्थ्य सम्पन्न होना आत्मसत्ता की अकूत सामर्थ्य पर प्रकाश डालता है तथा इसी जगत् में, हमारे ही इर्द-गिर्द उनकी विद्यमानता जागतिक-संरचना की विलक्षणता को प्रकट करती है। संकल्प-साधना और श्रद्धा-भावना से इन पितर-सत्ताओं से सम्पर्क साधा जा सकता और लाभ उठाया जा सकता है।
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