पितरों को श्रद्धा दें, वे शक्ति देंगे

आत्मीयों को पितरों के अनुग्रह अनुदान

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सन् 1967 की दिसम्बर की ठण्डी रात्रि थी। श्रीमती एकले ‘हउसन’ नदी के किनारे स्थित अपने मकान की बालकनी में खड़ी अपने पति को खाना होते देख रही थीं। यह वहीं विक्येरिया कालीन मकान था जो वर्षों से खाली पड़ा था। झूठ या सच प्रायः हर व्यक्ति यह कहता था इस भवन में भूत निवास करते हैं। एक दिन खेत जाते समय श्री एकले की नजर इस पर पड़ी। वे इन बातों पर विश्वास नहीं करते थे। वे प्रतिदिन यह विचार करते कि इतना भव्य मकान वीरान पड़ा है। केवल इसलिये कि लोग इसे भुत बाड़ा समझ बैठे हैं। रोज इसे खरीदने का विचार करते और अंततः इसे एक दिन उन्होंने कार्य रूप में परिणित कर दिया। मकान उन्होंने स्वयं खरीद लिया।

उसी रात्रि श्रीमती एकले को ऐसा प्रतीत हुआ कि कोई उनके बहुत समीप खड़ा है। इतना समीप कि उसकी सांसें उनकी गर्दन को स्पर्श कर रही हैं। भूतों से संबंधित सभी कल्पनाएं उनके मस्तिष्क में घूम गईं व भयभीत होकर वे वहां से जैसे ही भागने को पीछे मुड़ी, उन्होंने देखा कि एक छाया उनके मार्ग में खड़ी है। इस छाया से क्षीण ध्वनि फूटी—‘‘तुम डर कर भागो नहीं। अभी तक जितने भी व्यक्ति इस घर में आये हैं—भयभीत होते रहे हैं, जबकि हमारा उद्देश्य मनुष्यों की सहायता करना, उनसे सहानुभूति अर्जित करना है’’ इस शब्दों से श्रीमती ऐकले को साहस मिला। वे आश्वस्त हुई और बोली—‘‘आप लोग कौन हैं—कितने व्यक्ति हैं व इस रूप में क्यों आपको भटकना पड़ रहा है?’’ छाया ने जवाब दिया कि हम लोग 3 व्यक्ति हैं जो तुम्हारे वंश के ही हैं। तुम्हारा यहां आना एक संयोग मात्र नहीं है। हमारे द्वारा एकले को दी गयी विचार रूप में प्रेरणा ही तुम्हें यहां लायी है मरणोत्तर जीवन में एक योनि ऐसी होती है जिसमें उच्च अशरीरी आत्माएं सहायक आत्माओं के रूप में सूक्ष्म जगत में भ्रमण करती रहती हैं व सभी की सहायता करती हैं। जब इस मकान को भुतहा ठहरा दिया गया तो हमने उचित समझा कि तुम्हें यहां बुलाया जाय।’’श्रीमती एकले काफी देर तक अपने वंशज पितर से बात करती रहीं। बात का विषय मोड़ तथाकथित प्रेत ने हउसन नदी के दृश्य की सुन्दरता की चर्चा आरंभ कर दी व श्रीमती एकले उसे इतना दत्तचित्त हो देखने लगीं कि उन्हें स्मरण ही नहीं रहा कि कब वह छाया वहां से चली गई।

यह बहुचर्चित घटना जो उन दिनों अखबार की सुर्खियों का विषय बनी, रीडर्स डाइजेस्ट के मई 1877 अंक में भी छपी है व इसमें इस प्रथम साक्षात्कार के बाद इन सहयोगी आत्माओं से मिले कई अनुदानों की चर्चा है। ऐसी घटनाएं आज के मनुष्य को, जो भौतिकवाद में डूबा पड़ा है, मरणोत्तर जीवन की सचाई से अवगत कराती हैं। एक उच्च श्रेणी देवता की होती है व एक निचली श्रेणी प्रेत की। इन दोनों के मध्य पितर योनि होती है ऐसा हमारे शास्त्रकारों का मत है इनके प्रति श्रद्धा का अर्थ इनसे सहयोग एवं शुभ कामनाएं प्राप्त करना है। इनसे भयभीत होना नहीं। डरावनी या घिनौनी प्रकृति के भूत प्रेत कम ही होते हैं। अतृप्त आकांक्षाओं व वासनाओं वाले भूत प्रेत ही मनुष्यों को परेशान करते हैं। इन अशरीरी आत्माओं का अस्तित्व सिद्ध करने वाली घटनाएं एक तथ्य निश्चित ही स्पष्ट करती हैं कि वैज्ञानिकों का यह कथन मरने के बाद जीवन समाप्त हो जाता है’’ गलत है। इन पितरों का अस्तित्व सिद्ध करने के विषय में भारतीय दर्शन अतीत काल से अपनी मान्यताएं प्रतिपादित करता आया है। पर जब इस तरह की प्रामाणिक घटनाएं घटती हैं, तब स्वाभाविकतः भौतिकवादियों को मरणोत्तर जीवन, आस्तिकता धार्मिकता के पग में सद्गति देनी पड़ती है।

एकले परिवार ने पड़ोसियों की आशा के विपरीत उस घर में ही बने रहने का निर्णय लिया। आये दिन घर के किसी न किसी सदस्य की भेंट इन अदृश्य आत्माओं से होती रही व अपनी सहायक मनोवृत्ति का परिचय देती रही।

कई बार ये पितर मजाक के मूड में होते। हाथ से मुंह में जा रहा नाश्ता कोई अज्ञात छाया अपने मुंह में झपट लेती एवं सब एक साथ हंस पड़ते। ऐसा प्रतीत होता है कि इनको सिंथिया से विशेष लगाव था जो ‘एकले’ की बड़ी पुत्री थी। यदि वह पढ़ाई हेतु सवेरे नियत समय पर न उठती तो उसका बिस्तर जोरों से हिलने लगता। जब तक वह उठकर बैठ न जाती बिस्तर हिलता रहता। छुट्टियों में सिंथिया ने सोते समय प्रार्थना की ‘कृपया मुझे देर तक सोते रहने देना।’ आत्माओं ने बात मानली व काफी देर तक थकी हारी सिंथिया सोती रही। सिंथिया ने अक्सर एक राजकालीन वेशभूषा में घूम रही महिला की छाया को अपने कमरे में देखा। 1976 में सिंथिया के विवाह के बाद श्रीमती एकले ने कमरे में प्रवेश करते ही आवाज सुनी ‘‘हमारी ओर से भी सिंथिया के लिये कुछ भेंट है जो आशीर्वाद स्वरूप उसे दे देना।’’ उन्होंने एक अल्मारी खोली व उसमें एक सुन्दर नक्काशी किया चांदी के चम्मचों का जोड़ा पाया। सिंथिया को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई तो औरों की भेंटों के साथ ही उन्हें अपने पितरों से सोने की अंगूठी भी मिली। यह घटना इन पितरों द्वारा एकले परिवार को आत्मीयता-वश दी गई, सहायता एवं सहानुभूति दर्शाती है वे उस परिवार द्वारा इनके प्रति दी जाने वाली श्रद्धा का महत्व प्रतिपादित करती है।

मृत व्यक्ति द्वारा आत्मीयों से सम्पर्क की प्रतिपादक एक अन्य घटना ‘‘मृत्यु के पश्चात् मनुष्य जिन्दा रहता है’’ (मैन्स सखाइवल आफ्टर डेथ) में एस.पी.आर. की रिपोर्टस् से उद्धृत हुए करते पादरी—सी.एल. ट्वीडेल ने दी है।

आइओवा नगर में रहने वाले एक किसान श्री मिकाइल कौनले की मृत्यु हो गई। मिकाइल बड़ा सम्पन्न व्यक्ति था पर वह हमेशा गन्दे कपड़े पहनता था। उसकी मृत्यु भी गन्दे कपड़ों में ही हुई। एक कमीज, जो महीनों से नहीं धोई गई थी पहने उसकी संदिग्ध अवस्था में मृत्यु हो गई। इस मृत्यु की जांच करने वाले अफसर ने शव को देखकर कहा इसके पुराने कपड़े तो यहीं मुर्दाघर में फेंक दिये जायें और इसे साफ कपड़ा पहनाकर मेरे घर भेज दिया जाय। किसान के बेटे ने ऐसा ही किया। सफेद कपड़े पहनाकर लाश अफसर के घर भेज दी गई। लड़का जैसे ही अपने घर लौटा कि अपनी बहन बेहोश पाई। काफी देर बाद होश में आने पर उसने बताया मैंने अभी-अभी पिताजी को साफ कपड़ों में देखा। वैसे कपड़े वे कभी नहीं पहनते थे। वे मुझसे कह रहे थे मेरी पुरानी कमीज मुर्दाघर में पड़ी है उसमें कुछ बिल और रुपये हैं।’’

लड़की के इस बयान को घर और पड़ौस वालों ने भी तब तो बकवास कहा पर जब लड़के ने बताया कि हां सचमुच ही उनके पुराने कपड़े उतरवा कर मुर्दाघर में फिंकवा दिये गये हैं तो लोगों की आतुरता भी बढ़ी। लोग मुर्दाघर गये। कमीज उठाकर देखी गई उसमें भीतर बड़ी सावधानी से एक थैली सी हुई थीं उसमें बिल भी थे और रुपये भी। इस घटना से सभी आश्चर्यचकित रह गये और वहां उपस्थित सभी लोगों ने माना कि मृत्यु के पश्चात् भी चेतना अपनी बौद्धिक क्षमता के साथ जीवित रहती है तथा आत्मीयों से सम्पर्क कर उन्हें अवश्य सूचनाएं देकर लाभ पहुंचाती है।

ये पितर-आत्माएं अपने स्वजन आत्मीयों से अनुराग आकर्षण तो रहती हैं किंतु हीनता-दुष्टता से मुक्त होने के कारण उनका यह अनुराग भोग-वासना परक नहीं, अपितु सहायता परक होता है।

भोग के लिए उत्सुक वासना की आग से उत्तप्त मृतात्माएं तो स्वजनों को अपनी छिछोरी चेष्टाओं से आतंकित करतीं और उनकी चेतना पर दबाव डालकर उन्हें अनुचित क्रिया कलापों के लिए बाध्य करती देखी जाती हैं। ये दुरात्माएं कुत्सित दुरभिलाषाएं भी पालती हैं कि अमुक प्रियजन रुग्ण होकर मर जाए और अकालमृत्यु तथा प्रेत-आवेश के कारण हमारी ही बिरादरी में खिंच आए तो हम गर्हित वासना-भोग की कल्पनाएं साथ-साथ कर सकें।

सत्संस्कार-सम्पन्न पितर-आत्माएं भी आत्मीयों से सम्पर्क की इच्छुक रहती हैं किंतु उनका उद्देश्य भूतों से सर्वथा विपरीत रहता है। वे सत्परामर्श एवं विवेक पूर्ण मार्गदर्शन देकर सच्चे सात्विक अनुराग का परिचय देती हैं।

अनसुनी चेतावनी

स्काटलैंड का राजा जेम्स चतुर्थ इंग्लैंड पर प्रायः आक्रमण कर बैठता था। अंतिम आक्रमण के बाद उसे एक पूर्वज की अदृश्य आत्मा आमास रूप में दिखाई पड़ी। उसने स्पष्ट चेतावनी देते हुए कहा—‘‘भविष्य में तुमने कोई और आक्रमण किया तो तुम्हें जान से हाथ धोना पड़ेगा। राजा ने उस चेतावनी की उपेक्षा कर दी और अगला आक्रमण किया। परिणाम वही हुआ युद्ध स्थल में ही उसकी मृत्यु हो गई।

ऐसी ही एक घटना फ्रांस के सम्राट हेनरी चतुर्थ की है।

सम्राट् हेनरी चतुर्थ एक दिन सायंकाल अपने राजोद्यान में भ्रमण कर रहे थे। घूमते-घूमते थोड़ा आगे बढ़ जाने से लौटने में देर हो गई। सूर्य डूब गया। झुरमुट हो गई। एक प्रकाश जैसी छाया-आकृति उन्हें सामने और अपने आस-पास चक्कर सी काटती दिखाई दी। हेनरी पहले तो कुछ झिझके पर शीघ्र ही सम्भल गये और पूछा—कौन हो? छाया बोली—मैं तुम्हारा शुभेच्छु और आत्मीय हूं। और यह बताने आया हूं कि तुम्हारी हत्या का षड़यंत्र रचा जा रहा है। शीघ्र ही मार दिए जाओगे। कर सकते हो तो बचाव का अभी कोई प्रबन्ध कर लो।

उत्सुकता वश हेनरी ने पूछा—आप प्रेत क्यों हुए? यह बात शरीर न होने पर कैसे जान गये? क्या आप मेरे षड़यन्त्रकारियों को मार नहीं सकते?

इस पर प्रेत ने उत्तर दिया—शरीर की मृत्यु हो जाने पर भी इच्छा-शरीर उत्तेजित बना रहता है, यही हमारी स्थिति है अधिकांश प्रेत अपने लोगों का भला ही करने की सोचते हैं, हम आपके षड़यंत्रकारियों को जानते हैं जो आपकी हत्या करना चाहते हैं। उन्हीं की चेतावनी देने हम आये हैं। यह कहकर वह छाया वहां से अदृश्य हो गई। हेनरी चतुर्थ ने अपने सभी दरबारियों को यह घटना सुनाई तो सब लोग हंस पड़े और बोले—श्रीमान् जी! आपने दिवास्वप्न देखा होगा। आपकी हत्या भला कौन करेगा, किन्तु सारे फ्रान्स और संसार ने सुना कि उसके कुछ ही दिन बाद उनकी सचमुच हत्या कर दी गई।

भयानक आकृति प्रेतात्मा ने भला किया

इससे भिन्न एक घटना यह है—इंग्लैण्ड की डफरिन और अवा रियासतों के सामन्त लार्ड डफरिन कभी भारतवर्ष के वायसराय रह चुके थे, कनाडा के गवर्नर जनरल और रोम के राजदूत रहने का भी उन्हें सौभाग्य मिला था। सन् 1891 में वे पेरिस के राजदूत नियुक्त हुए। एक दिन उन्हें एक मित्र ने आयरलैण्ड में एक दावत दी। रात के बारह बजे तक भोज चला। इसके बाद उनके लिये अत्यन्त सजे हुए एकान्त कमरे में विश्राम की व्यवस्था कर दी गई, लार्ड डफरिन अभी लेटे ही थे कि सारा कमरा एकाएक तीव्र प्रकाश से भर गया। यों उस दिन पूर्णमासी थी। बाहर चन्द्रमा पूरे वेग से छिटक रहा था तो भी कमरे के सभी दरवाजों और खिड़कियों पर पर्दा पड़ा था भीतर प्रकाश जाने की कोई सम्भावना नहीं थी। बल्ब बुझे हुए थे। लार्ड डफरिन को आशंका हुई, वे उठे सब तरफ देखा कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं। फिर लेटे ही थे कि वहीं पहले जैसा तीव्र प्रकाश अनुभव हुआ। उन्होंने अच्छी तरह परखा कि वे जाग रहे हैं और होश में हैं। फिर खड़े होकर खिड़की से झांककर देखा तो कुछ ही गज की दूरी पर एक आकृति अपने कन्धे पर एक शव होने के कठघरे जैसा बोझ लिये दिखाई दी। वह कराह-सी रही थी। लगता था बोझ भारी है, उसे जाने में कष्ट हो रहा है।

उन दिनों प्रयोगशालाओं के लिये शवों की बड़ी आवश्यकता रहती थी। वैज्ञानिक मुंह मांगे दाम देते थे, इसलिए फ्रांस में मुर्दों की चोरी की एक आम हवा चल पड़ी थी। डफरिन ने सोचा कोई मुर्दा चोर है सो साहस करके वे आगे बढ़े और पास पहुंचते ही ललकार कर पूछा—‘‘कौन हो?’’ आकृति ने उनकी ओर थोड़ा घूर कर देखा तो वे स्तब्ध रह गये। इतना भयानक चेहरा लार्ड डफरिन ने पहले कभी न देखा तो भी उन्होंने साहस किया और आक्रमण के लिए जैसे ही थोड़ा आगे बढ़े कि वह आकृति वहीं अन्तर्धान हो गई। न कोई व्यक्ति था, न कोई बोझ। टार्च के सहारे दूर तक देखा पृथ्वी पर पैरों के कहीं चिह्न भी नहीं थे। लार्ड डफरिन तब कुछ डरे। यह एक अविस्मरणीय घटना थी। वे कमरे में लौटे और उसी समय जो कुछ जैसा देखा था, वैसे ही डायरी में नोट कर दिया। फिर वे रात भर सो नहीं सके। कुछ दिन में बात आई गई हो गई।

कुछ वर्ष बीते लार्ड डफरिन तब पेरिस में राजदूत ही थे, एक दिन सभी राजनैतिक व्यक्तियों को भोज दिया गया। पेरिस के ग्रान्ड होटल में उसका प्रबन्ध किया। समय पर सब लोग होटल के समीप इकट्ठे हुए। ऊपर होटल तक ले जाने के लिये ‘लिफ्ट’ तैयार थी। वरिष्ठ होने के नाते सब बार्ड डफरिन की ही प्रतीक्षा में थे।

नियत समय पर जैसे ही वे उस लिफ्ट के पास पहुंचे वर्षों पूर्व देखी हुई वही भयानक आकृति वहां उपस्थित पाई। उस दिन की सारी घटना एक सेकिंड में मस्तिष्क में नाच गई। वे पीछे हट गये, अपने सेक्रेटरी से भोज में सम्मिलित होने से इनकार करते हुए, वे लौट पड़े और सीधे होटल के मैनेजर के पास जाकर पूछा—लिफ्ट पर किसे नियुक्त किया गया है? जब तक वह कोई उत्तर दें एक धड़ाम की आवाज आई, सब लोग लिफ्ट की ओर दौड़े। देखा लिफ्ट बीच में ही कटकर टूट गई है, सारे सवार अतिथि गिरकर चूर-चूर हो गये हैं। डफरिन के अतिरिक्त सभी लोग मर चुके थे। यह समाचार फ्रांस के सभी समाचार-पत्रों ने छापा और यह स्वीकार किया कि भूत की सत्ता सचमुच कुछ न कुछ है—उसका विज्ञान कुछ भी होता हो? लुई आन्स्पैचर द्वारा यह घटना ‘‘रीडर्स डाइजेस्ट’’ पत्रिका में भी छपी थी।

उस भयानक आकृति के डफरिन को आयरलैण्ड में शव ढोने वाला बक्सा ले जाते जैसी अशुभ स्थिति में दिखने पर भी उनका अनिष्ट न करना इस अनुमान को बढ़ाता है कि दूसरों के लिए वह कितना भी अशुभ रहा हो, किन्तु डफरिन के प्रति उसके मन में आत्मीयता का कोई कोना सुरक्षित था।

पेरिस के ग्रान्ड होटल में वह छाया-रूप में ही लिफ्टमैन के निकट विद्यमान रहा होगा। और लोगों को वह भयानक आकृति नहीं दिखी। नियमित ड्यूटी वाला लिफ्टमैन ही दिखा। मात्र लार्ड डफरिन को वह भयानक पुरुष दिखा। इसका अर्थ है कि वह अपनी भयानक गतिविधियों में प्रकृति-वश जुटा रहकर भी डफरिन को मूक चेतावनी देना चाहता था। कई प्रेतत्व विद्या विशारदों के अनुसार वह कोई लार्ड घराने का ही क्रूरकर्मी पूर्वज रहा होगा। जिसे मृत्यु के बाद भी ऐसे ही कठोर दायित्व सौंपे गये। श्री लेडबीहट ने भी ‘इनविजिबुल हेल्पर्स’ में यही लिखा है, जिस आत्मा के जो कार्य अधिक अनुकूल होते हैं उन्हें परलोक में वैसे ही दायित्वों के निर्वाह का प्रशिक्षण देकर फिर वैसी ही भूमिका सौंप दी जाती है। अपनी सीमा में बंधे हुए भी उस क्रूरकर्मी पितर ने डफरिन को तो चेतावनी देकर उनका हित ही साधा। डफरिन ने उस मूक चेतावनी या गुप्त संकेतपूर्ण आभास को समझ लिया और उसकी उपेक्षा नहीं की, इससे वे लाभान्वित हुए। यों, उस आकृति की भयानकता भी इतनी अधिक थी कि डफरिन का सहम जाना अनिवार्य ही था।

ममता भरा मार्गदर्शन

श्री लेडबीहर ने अपनी पुस्तक ‘‘इनविजिबुल हेल्पर्स’’ में लन्दन के पादरी डा. जान मेसन नील का एक संस्मरण बताया कि एक महिला अपने दो बच्चे छोड़कर मर गई। कुछ दिनों बाद उसका पति बच्चों के साथ अपने एक मित्र के घर घूमने गया। दोनों दोस्त गपशप में मशगूल हो गये। बच्चे खेलने लगे।

खेलते-खेलते बच्चे उस मकान के एक उपेक्षित कोने की सीढ़ियों पर जा पहुंचे। वे सीढ़ियां तहखाने को जाती थीं। बच्चे नीचे उतर रहे थे, तभी उन्हें उनकी मां आती दिखी। मां ने उनसे कहा कि ‘वहां नहीं जाओ। चलो, ऊपर चलो।’ मां की बात सुनकर वे बच्चे लौटकर ऊपर आए। तब तक उन दोनों मित्रों का ध्यान इस बात की ओर जा चुका था। बच्चों के पिता के मित्र घबड़ा उठे कि मित्र के बच्चे कहीं तहखाने की तरफ तो नहीं गए। वे लोग उधर लपके तो बच्चे सीढ़ियों पर मिले। तहखाने में एक पुराना कुंआ था। सीढ़ियां उसी तक जाती थीं। बच्चे उनमें उतरते चले जाते तो कुंए में जा गिर सकते थे और तब प्राण गंवा बैठते। इसलिए मित्र घबड़ाते हुए दौड़ से पड़े। बच्चों ने बताया कि ‘‘अभी-अभी मां मिली थी। उसी ने ऊपर आने को कहा था। फिर जाने कहां चल दी।’’

ये सदाशयी आत्माओं द्वारा अपने आत्मीयों के मार्गदर्शन करने उनके ऊपर अपनी आत्मीयता पूर्ण छाया बनाए रखने के उदाहरण हैं। ऐसी हजारों प्रामाणिक घटनाएं देखीं तथा लिपिबद्ध की जा चुकी हैं, जो मरणोपरान्त जीवन का तथा उस अवधि में भी उदार आत्माओं द्वारा आत्माओं के संरक्षण-पथ प्रदर्शन का विवरण प्रस्तुत करती हैं। नैपोलियन बोनापार्ट जिन दिनों सेंट हेलेना द्वीप में था, उसे भी एक पितर-सत्ता ने उसकी मृत्यु की सूचना दी थी, जिसे उसके साथियों ने अमान्य कर दिया था। पर अन्त में नैपोलियन की मृत्यु ठीक उसी दिन उन्हीं परिस्थितियों में हुई, जो प्रेत ने बताई थी। सम्भवतः उस पितर का बोनापोर्ट के प्रति विशेष लगाव था।

अनेक सिद्ध पुरुष अपने दूरस्थ शिष्यों को अपनी सूक्ष्म सत्ता से प्रत्यक्ष मदद पहुंचाते हैं। प्रसिद्ध आर्य समाजी सन्त स्व. श्री आनन्द स्वामी के पुत्र लेखक—पत्रकार श्री रणजीत ने कुछ समय पहले अपने संस्मरण—लेख में यह बताया था कि किस प्रकार उनके पिता ने उन दिनों, जब कि वे जीवित थे और भारत में थे तथा श्री रणजीत विदेश में प्रवास पर थे, एक बार भयानक खड्ड में गिर पड़ने से चेतावनी देकर उन्हें रोका था। अन्य कई अवसरों पर भी उनकी मदद व मार्गदर्शन का कार्य उनके पिता ने किया था। जबकि वे उस समय उनसे सैकड़ों मील दूर हुआ करते थे।

विकसित आत्म सामर्थ्य के ये लाभ सिद्ध पुरुषों द्वारा आत्मीय जनों को अनायास ही पहुंचाए जाते रहते हैं। यही स्थिति पितरों की है। ऐसी शरीरी अशरीरी उच्च आत्माओं के प्रति श्रद्धा-भाव रखना उचित भी है और आवश्यक भी।

अधिक उच्चकोटि की पितर आत्माएं तो जीवित महामानवों-महायोगियों की तरह ही उदात्त होती हैं। उनके लिए अपने-पराए जैसा कोई भेदभाव होता ही नहीं। जहां भी आवश्यकता एवं पात्रता दिखी, वहीं उनके अनुग्रह-अनुदान बरसने लगते हैं। जरूरत उनके अनुकूल बनने उत्कृष्ट जीवन और प्रगाढ़ श्रद्धा-भाव अपनाने की होती है। मृत्यु के बाद भी जीवन का अस्तित्व बना रहता है। परिपक्व मृत्यु होने पर चेतना कुछ समय के लिए विश्राम में चली जाती है जिस प्रकार दिन भर का थका मांदा व्यक्ति प्रगाढ़ निद्रा में सो लेता है तो उसे फिर से नयी ताजगी मिल जाती है उसी प्रकार मृत्यु के बाद जीव की अवस्था के अनुरूप वह 2 माह से 2 वर्ष तक विश्राम लेने के पश्चात् नया जन्म धारण कर लेता है। पर कई बार नींद पूरी तरह नहीं आती। अफीमची और शराबी लोगों की नींद उखड़ी-उखड़ी होती है ऐसे लोगों को मृत्यु के समय भी पूरी नींद नहीं आती और वे नया जन्म लेने पर भी थके-थके से अस्त व्यस्त होते हैं जिन्हें नींद पूरी आ जाती है और जिनके मन शुद्ध और पवित्र होते हैं वे अन्य जन्मों में बाल्यावस्था से ही पूर्व जन्मों की स्मृतियां दोहराने लगते हैं।

जिनकी इन्द्रिय वासनाएं प्रबल होती हैं या जिनकी मृत्यु हत्या या आत्म-हत्या जैसी होती है वे एक प्रकार से निचोड़े गये शहद की भांति होते हैं। शहद का छत्ता काटकर रख दिया जाये तो उसका शहद अपने आप टपक आता है वह नितान्त शुद्ध होता पर निचोड़े जाने पर उसमें मोम आदि का अंश भी आ जाता है उसी प्रकार ऐसी मृत्युओं में स्थूल अवयव भी बने रहते हैं, ऐसी ही आत्माएं प्रेत, पिशाच, भूत, बेताल, किन्नर और यक्ष होते हैं यह मरघट अपने शवों तथा जिनके प्रति उनकी स्वाभाविक आसक्ति होती है, उनके पास घूमते आते जाते भी रहते हैं पर जिनके शरीर में अग्नेय-अणु अधिक होते हैं उनके पास इस तरह की गन्दी आत्मायें नहीं जा पाती हैं और जब नींद टूटती है तो वे अपनी आसक्ति के अनुरूप निम्नगामी योनियों में चले जाते हैं।

विश्राम के बाद देव आत्मायें या जिनकी गति ऊर्ध्वमुखी—अच्छे कामों में रही होती है जिनके शरीरों का आणविक विकास प्रकाश पूर्ण हो गया होता है वे दिव्य लोगों को चली जाती हैं और जब तक वहां रहने की इच्छा होती है तब तक रहती हैं पीछे इच्छानुसार अच्छे घरों में जन्म लेकर लोक सेवा पुण्य परमार्थ और नेतृत्व आदि उत्तरदायित्व सम्भालती हैं पर जिनका मन अशुभ संस्कारों वाला रहा होता है वे अधोगामी लोगों में रहकर निम्नगामी योनियों में चले जाते हैं। इस प्रकार संसार में गुण कर्म का यह प्रवाह, प्रकृति की जटिलता के समान स्वयं भी जटिल रूप में चलता रहता है।

पितर आत्माएं वे हैं जिनकी ऊर्ध्वमुखी गति होती है। वे कई बार विश्राम की अवधि में कुछ लम्बे समय तक भी रही आती हैं। उस अवधि में वे स्वयं तो प्रकाशपूर्ण वातावरण में रहते ही हैं, दूसरे स्वजनों या जिनके प्रति उनके मन में आकर्षण होता है, उनको भी समय-समय पर प्रकाशपूर्ण मार्ग दर्शन एवं अनुग्रह-अनुदान देते रहते हैं।
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