पितरों को श्रद्धा दें, वे शक्ति देंगे

​​​पितर-सम्पर्क से लाभ ही लाभ

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वाशिंगटन के किसी चर्च में श्रीयुत् रेवरेन्ड आर्थर फोर्ड का भाषण था। मृतात्माओं को बुलाने और उनका जीवित मनुष्यों के साथ सम्बन्ध स्थापित करने में फोर्ड की उन दिनों अमेरिका में वैसी ही ख्याति थी जिस तरह भारतवर्ष में अहमद नगर के श्री बी0डी0 ऋषि और उनकी धर्म पत्नी की चर्चा रही है। श्रीमति रूथ मान्टगुमरी ने फोर्ड के बारे में अनेक बाते सुनी थीं वह स्वयं भी अमेरिका की प्रख्यात महिला थीं और जीन डिक्सन के सम्पर्क में आने के बाद से आत्मा, मृत्यु, परलोक पुनर्जनम आदि पर विस्तृत खोज कर रही थीं। एक दिन एक लाइब्रेरी में उन्हें श्री शेरवुड एडी की प्रसिद्ध पुस्तक ‘आप मृत्यु के बाद भी जीवित रहेंगे’ (यू विल सरवाइव आफ्टर डेथ) पढ़ी। उसमें फोर्ड की उपलब्धियों की विस्तृत चर्चा थी। श्री एडी विश्व के विख्यात लेखक थे। पूर्व में वाइ.एम.सी.ए. के संस्थापक भी वहीं थे, इसलिये श्रीमती रूथ मान्टगुमरी ने निश्चय किया कि जब एडी ने भी फोर्ड की उपलब्धियों को सत्य और प्रामाणिक माना है तो उनसे मिलकर निःसन्देह अनेक तथ्यों का पता लगाया जा सकता है। तभी से वे इस प्रयत्न में थीं कि कहीं फोर्ड से भेंट की जाये। सौभाग्य ही था कि आज फोर्ड स्वयं किसी आध्यात्मिक भाषण के सम्बन्ध में वाशिंगटन पधारे थे। श्रीमती रूथ मान्टगुमरी ने अवसर खोना ठीक नहीं समझा। वे फोर्ड से मिलीं और विस्तृत विचार-विमर्श के लिये और समय की मांग की। फोर्ड ने दो दिन बाद आने की स्वीकृति दें दी।

दो दिन बाद श्रीमती रूथ मान्टगुमरी फोर्ड से नियत स्थान पर फिर मिली और उनसे पूछा—क्या यह निश्चित है कि मृत्यु के बाद जीवन का अन्त नहीं हो जाता वरन् आत्मायें अपनी गतिविधियां और क्रिया-कलाप उसी प्रकार जारी रखती हैं, जिस तरह जीवित मनुष्य?

फोर्ड ने उत्तर दिया—‘‘मृत्यु के पश्चात् भी आत्मायें दूसरे लोकों में जाकर बराबर आध्यात्मिक उन्नति के प्रयत्न में रहती हैं, जब तक मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती तब तक उनका यह प्रयत्न बराबर चलता रहता है। आध्यात्मिक उन्नति के लिये यह आत्मायें दूसरे लोगों, विशेष कर अपने प्रियजनों को भी सन्देश पहुंचाना चाहती है पर उन सूक्ष्म संकेतों को सब लोग नहीं पकड़ पाते, इसलिये उनके सन्देश निरर्थक जाते रहते हैं, पर कई आत्मायें इतनी बलवान् होती हैं कि वे अपनी बात किसी माध्यम से व्यक्त और लिख भी सकती हैं।’’

श्रीमती रूथ इतनी आसानी से वह बातें मान लेने वाली नहीं थीं। प्रत्येक मनुष्य के जीवन में ऐसी जिज्ञासायें उठती हैं, किन्तु चिन्तन के अभाव में, विश्लेषण अथवा प्रमाणों के अभाव में वह रहस्य मुंदे के मुंदे रह जाते हैं। एक बार बालक नचिकेता को भी ऐसी ही प्रबल जिज्ञासा उठी थी, उसने भी यमाचार्य से ऐसा ही प्रश्न किया था—

ये यप्रेते विचिकित्सा मनुष्ये अस्तीत्येके नत्यमस्तीति चान्ये । एतद्विद्यामनुशिष्ट स्त्वयाहं वराणामेष वरस्तृतीयः ।। —कठ. उप. 1-10

‘‘आचार्य देव! मरे हुये मनुष्य के विषय में बड़ा भ्रम है। कुछ लोग कहते हैं, मृत्यु हो जाने पर भी जीव बना रहता है। कुछ कहते हैं, उसका नाश हो जाता है। सो आप मुझे उसका निश्चित निर्णय करके बताइये सत्य क्या है?’’

यमाचार्य ने नचिकेता को तब योगाभ्यास कराया और उसके द्वारा उसने यह जाना कि जीव किस प्रकार मृत्यु के उपरान्त यमलोक, प्रेतलोक, वृक्ष, वनस्पति आदि योनियों, भुवर्लोक आदि में जाता है और वहां की परिस्थितियों का वर्तमान की तरह उपयोग करता है।

अपनी बात फोर्ड ने समाप्त की तो श्रीमती रूथ मान्टगुमरी ने उनसे पूछा—क्या आप ऐसी किसी आत्मा को बुलाकर मुझसे परिचय करा सकते हैं, जिसे मैं पहले से जानती होऊं, जिससे मैं सत्य और असत्य का पता लगा सकूं?

फोर्ड एक सोफे पर आराम से बैठ गये। दोनों आंखें एक काले रूमाल से बांध लीं। रूथ ने पूछा क्या बत्ती बुझा देनी चाहिये पर फोर्ड ने कहा—उसकी कोई आवश्यकता नहीं है। थोड़ी देर बाद एक आवाज आने लगी, यह आवाज यद्यपि फोर्ड के मुख से ही आ रही थी पर उनकी आवाज से बिल्कुल भिन्न। उसने बताया यह लो श्रीमती रूथ तुम्हारे चाचा तुम से भेंट करना चाहते हैं। इनका नाम फ्रेन्ड बैनेट है। वह बहुत समय पहले अफरीका में पादरी (प्रीचर) थे।’’

श्रीमती रूथ तुरन्त बोलीं—‘‘नहीं, नहीं यह गलत है मेरे इस नाम के कोई चाचा नहीं थे, न ही इस नाम के किसी व्यक्ति को जानती हूं।’’ इसके बाद माध्यम (फोर्ड) ने फिर बोलना आरम्भ किया—वह भी तुम्हें नहीं जानते पर उनका कहना है कि तुम्हारे पति उन्हें खूब अच्छी तरह जानते हैं तुम्हारे पति का नाम ‘बाब’ है, तुम उनसे घर जाकर पूछना और हां, अब लो यह तुम्हारे पिताजी उपस्थित हैं। वे अपना नाम ‘ट्रा’ बता रहे हैं। श्रीमती रूथ यह सुनते ही चौंकी—वस्तुतः उसके पिता का यही नाम था।

माध्यम ने आगे बोलना आरम्भ किया—‘‘श्रीमती रूथ—आपके पिता आपको और आपकी माता जी को प्यार कहते हैं, वे बताते हैं कि जब उनकी मृत्यु हुई थी, तब तुम उनके पास नहीं थी। वे काफी बीमार थे और उनकी एकाएक मृत्यु हो गई थी। मर कर थोड़ी देर में उन्हें अपने रोग का भी पता नहीं रहा। वे स्वस्थ अनुभव कर रहे हैं वे कह रहे हैं—‘‘यहां किसी प्रकार की बीमारी नहीं है, मनुष्य हमेशा एक-सी अवस्था में रहता है, न वह बूढ़ा होता है, न बालक और न युवक। और हां देखो तुम्हारी माता जी यहां नहीं हैं, वे तुमसे काफी दूर हैं अभी कुछ दिन तक आयेंगी भी नहीं, उन्हें मैं देख रहा हूं, उनकी टांग में कई दिन से दर्द हो रहा है।’’

उक्त दोनों व्यक्तियों के अतिरिक्त कई और जानी, अनजानी आत्माओं का परिचय श्रीमती रूथ से कराया गया। अपनी पुस्तक ‘सत्य की खोज में’ (इन सर्च आफ ट्रुथ) में वे स्वयं लिखती हैं ‘‘कई पहचानी हुई आत्माओं की बातें इतनी सत्य थीं कि मैं आश्चर्य-चकित रह गई। मेरे पिताजी ने जो-जो बातें बताईं सब सच थीं। सचमुच ही जब वे बीमार थे तब मैं अखबार के काम से इजिप्ट गई थी मुझे इजिप्ट में ही तार द्वारा उनके निधन की सूचना दी गई थी। जब मैं लौट कर आई तब दो दिन बीत चुके थे पिताजी किसी बीमारी से ही मरे थे, यह भी मुझे अच्छी तरह मालूम है।’’

‘‘सायंकाल मैंने एकाएक माताजी को टेलीफोन किया तो उन्होंने बताया कि सचमुच उनके एक पैर में कई दिन से बुरी तरह से कष्ट है और उन्हें लौटने में काफी समय लगेगा। इसी प्रकार बाब ने मुझे बताया कि मेरी मौसी फ्रेंड बैनेट नाम के एक पादरी को ब्याही थी। वे कांगों (अफ्रीका) में ही रहते थे।’’

‘‘इन दोनों घटनाओं में श्रीमती रूथ ने जहां वर्तमान के सत्यों को स्वीकार किया है, वहां यह भी लिखा है कि यदि मृतात्माओं द्वारा बताई हुई भूत व वर्तमान की बातें सच होती हैं तो वे मृत्यु के अनन्तर अपने अस्तित्व के बारे में भी जो कुछ कहते हैं, उसे सत्य मानने से इनकार करना दुराग्रह ही होगा। उसे न मानकर मानव-समाज अपना अहित ही करता है क्योंकि उससे एक अत्यंत आवश्यक और उपयोगी वास्तविकता पर पर्दा पड़ जाता है।’’

‘‘माध्यम’’ के द्वारा मेरे पिता ने कहा था—मैं कहां एक ऐसे रहस्य का उद्घाटन करता हूं, जो विश्व की सबसे बड़ी आवश्यकता है, वह यह कि हम एक ऐसे संसार में रह रहे हैं जिसमें स्थूल की तरह सब कुछ दृश्य है, सब कुछ अनुभव गम्य है, जहां बराबर उन्नति होती रहती है। हम शून्य (वैकुअम) में नहीं रह रहे पर यहां सबको मनोरंजन से रहना पड़ता है यहां बेकार बैठकर कोई प्रसन्न नहीं रह सकता, जितना शरीर से काम कर सकता था उससे अधिक काम में अब भी कर सकता हूं। तुम जानती होगी मुझे गाने का शौक था, मैं अभी भी संगीत का अभ्यास करता हूं।’’

यह बातें सुनने वाले को अटपटी अवश्य लगती हैं, किन्तु देर तक अध्ययन और खोज करने के पश्चात् मुझे इनकी सत्यता में अविश्वास नहीं रह जाता। यह शब्द स्वयं श्रीमती रूथ मान्टगुमरी ने स्वीकार किया है और उसके साथ अमेरिका की उस जबर्दस्त घटना को जोड़ा है जिसके बारे में वहां बहुत दिन तक व्यापक हलचल मची रही। यह घटना भी फोर्ड ने माध्यम के द्वारा बताई—जिस समय श्रीमती रूथ को मृतात्माओं से परिचय कराया जा रहा था, माध्यम (फोर्ड जो मृतात्माओं को बुलाकर उनसे संकेत प्राप्त करके रूथ को बताता था) ने बताया—आपसे कोई जज बात करना चाहते हैं वह लैपटे शहर में आपके घर के समीप ही रहते थे, एक दिन अचानक कहीं गायब हो गये बाद में डूब जाने से उनकी मृत्यु हुई थी, उनका सड़ा हुआ ढांचा अब भी वहां पड़ा देखा जा सकता है।

श्रीमती रूथ ने वहां तो यही कहा कि मुझे ऐसे किसी पड़ौसी का पता नहीं है, किन्तु घर आकर उन्होंने लैफ्टे कूरियर जनरल के संपादक से टेलीफोन पर पूछा तो उसने बताया—‘‘हां हां आपके मकान के पास पार्किन्सन नामक एक सज्जन अवश्य रहते थे। वे ‘यूनाइटेड कोट आफ अपील्स’ में जज थे। वे एक बार एकाएक गायब हो गये। सात राज्यों के सम्मिलित प्रयत्नों के बाद भी उनका कहीं पता न चला। लेक शोर होटल के समीप मिशगन झील के किनारे उनका एक हैट और छाता अवश्य मिला था पर उनके डूबकर मर जाने का कोई प्रमाण न मिलने के कारण उनके स्थान पर कोई परमानेन्ट जज की नियुक्ति नहीं की गई थी। उनका वेतन उनके बैंक खाते में जमा किया जाता रहा है।’’

सबसे आश्चर्यजनक बात यह थी कि थोड़े दिन बाद ही उनका सड़ा हुआ ढांचा पानी में तैरता हुआ पाया गया। इन घटनाओं से इस बात की पुष्टि होती है कि जीवात्मा नहीं, शरीर मरता जीता है और मृत्यु के बाद भी जीवन का विकास-क्रम बन्द नहीं होता। गीता में भगवान् कृष्ण ने भी यही बात कही है—

न जायते म्रियते वा कदाचिन्नाय भूत्वा भविता वा न भूयः । —गीता 2 अध्याय ।20

अर्थात् यह आत्मा न तो कभी जन्म लेता है और न मरता है, वह तो अजन्मा, नित्य शाश्वत और पुरातन है, मरना-जीना तो शरीर का धर्म है, शरीर का नाश हो जाने पर भी आत्मा का नाश नहीं होता। योग वशिष्ठ में लिखा है—

न जायते म्रियते चेतनः पुरुषः क्वचित् । स्वप्न संभ्रमवद् भ्रांतमेतत्पश्यति केवलम् ।। —3।55।67

पुरुषश्चेतना मात्र स कदा क्लेव नश्यति । चेतन व्यतिरिक्तत्वे वदान्यक्तिं पुभान्भभेत् । —3।54।68

आत्मा न कभी जन्म लेता है और न मरता है। भ्रमवश स्वप्न की सी स्थिति का अनुभव किया करता है। पुरुष तो चेतन मात्र है नष्ट नहीं होता। लाखों शरीरों का नाश हो जाने पर भी चेतन आत्मा अक्षय स्थित रहता है।

व्यक्ति के सत्संस्कार—सम्पन्न होने पर यही अक्षय आत्मा उसकी मरणोपरान्त अवधि में ‘पितर’ रूप में क्रियाशील रहती है तथा अपनी आत्मोन्नति के लिए प्रयासरत रहने के साथ ही इस पृथ्वी के प्रति रागात्मक सम्पृक्ति रखने के कारण यहां भी स्वजनों या सत्पात्रों की आत्मोन्नति में मदद करने को सदैव प्रस्तुत रहता है। उन पितरों से सम्पर्क करने पर व्यक्ति को लाभ ही लाभ होता है हानि कुछ नहीं होती।

योग द्वारा सूक्ष्म शरीर के अदृश्य ज्ञान को स्थूल रूप में लाने की विद्या किसी समय भारतवर्ष में बहुत अधिक प्रचलित थी। लोग पितरों से जीवित मनुष्यों की तरह सम्बन्ध स्थापित कर लेते थे अब भी उस विद्या के जानकार छुट-पुट योगी है अवश्य, पर उनका दृष्टिकोण भी नितान्त स्वार्थपूर्ण और व्यवसायिक है। संसार के कल्याण अथवा एक नये विज्ञान की खोज का भाव उसमें नहीं पाया जाता, यह विद्या धीरे-धीरे पश्चिम को जा रही है। पिछले 100 वर्षों में वहां इस सम्बन्ध में विस्तृत खोजें हुई हैं। बड़े-बड़े पदार्थ वेत्ताओं ने यह माना है कि मृत्यु के बाद चेतना दूसरे कोषों जितना रहता है, प्रोफेसर क्रुक्स, ब्रन्टन और सर ओलिवर लाज ने इन विषयों पर बहुत अधिक लिखा है। दिव्य प्रेतात्माओं से लगभग देव स्तर का सहयोग प्राप्त किया जा सकता है। उनकी सामर्थ्य स्वल्प होते हुए भी सूक्ष्म जगत से सम्बन्धित होने के कारण कितनी ही बातों में इतनी बढ़ी-चढ़ी होती हैं कि सम्बद्ध मनुष्य उस सहयोग से आशाजनक लाभ प्राप्त कर सकते हैं। प्रेतात्मा की सहायता से अनेक लाभ मिलते रहे हैं।

वैज्ञानिकों में मूर्धन्य सर विलियम क्रुक्स और सर आलिवर लाज की मृतात्माओं से सम्पर्क स्थापित करने की खोजों को संसार भर में प्रमाणिक माना जाता है। वे लोग इस स्तर के नहीं थे जिन पर गप्पबाजी का आरोप लगाया जा सके।

सर ओलीवर लाज ब्रिटेन के माने हुए वैज्ञानिक रहे थे, उन्हें कई विश्वविद्यालयों की मूर्धन्य डिग्रियां और स्वर्ण पदक प्राप्त थे। वे ब्रिटिश ऐसोसियेशन के प्रधान थे। ईथर तत्व का पदार्थ के साथ क्या सम्बन्ध है, इस विषय पर उनकी खोज अत्यन्त प्रमाणिक मानी जाती है। उन्होंने विज्ञान के लिए आत्मा के अस्तित्व को भी एक आवश्यक अन्वेषण पक्ष माना था और स्वयं आगे बढ़कर इस सम्बन्ध में महत्वपूर्ण कार्य किया था। इसके लिए उन्होंने साइकिक रिसर्च सोसाइटी की स्थापना की और उसे बहुमूल्य योगदान देकर अभीष्ट प्रयोजन के लिए अधिक काम कर सकने योग्य बनाया। सर ओलिवर लाज अपनी शोध दृष्टि का समुचित प्रयोग करके न केवल आत्मा का अस्तित्व और मरणोत्तर जीवन की यथार्थता स्वीकार करने की स्थिति में पहुंचे थे, वरन् उन्होंने प्रेतात्माओं को साक्षात करने और उनके साथ संपर्क बनाने में भी सफलता प्राप्त की थी।

उनका पुत्र रेमण्ड प्रथम विश्व युद्ध में मारा गया था। मृतात्मा के साथ सम्पर्क बनाने और उसके माध्यम से अनेकों ऐसी अविज्ञात जानकारियां प्राप्त करने में सफल हुए जो परखने पर पूर्णतया सत्य सिद्ध हुईं। उनके एक समकालीन वैज्ञानिक सर विलियम कुकुस ने अपने प्रेतात्माओं सम्बन्धी निष्कर्षों का विवरण ‘रिसर्च इन द फेनोमिनस आफ स्प्रिचुअलिज्म’ में प्रकाशित कराया है। उसमें सर ओलिवर लाज के शोध कार्यों का भी उल्लेख हुआ है।

सर आलीवर लाज ने स्वर्गीय आत्माओं के अस्तित्व एवं क्रिया-कलाप सम्बन्धी जानकारी के लिए एक सुव्यवस्थित शोध संस्थान स्थापित किया था। उसमें आक्सफोर्ड विश्व-विद्यालय के सर अर्नेस्ट वनेट जैसे मूर्धन्य मनीषी सम्मिलित थे। इन शोध कार्यों का प्रसारण ब्रिटेन के रेडियो प्रसारण—बी.बी.सी. पर होता रहा है। सरलाज ने ब्रिटेन के अति प्रामाणिक लोगों के भूतों का अस्तित्व सिद्ध करने वाले अनुभवों का संग्रह एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित कराया था।

स्वीडन के शरीर शास्त्र, अर्थशास्त्र, खगोल विद्या, गणित में अठारहवीं सदी के माने हुए विद्वान् एमेनुअल स्वेडन वर्ग ने परलोक विद्या पर गहरी खोज की थी और मृतात्माओं से सम्बन्ध स्थापित करने में सफलता प्राप्त की थी। एक बार हालैण्ड के मृत राजदूत की विधवा पत्नी अपने पति द्वारा कहीं रखे गये दस्तावेजों के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करने के लिए उनके पास उपस्थित हुई। स्वेडनवर्ग ने मृतात्मा से सम्बन्ध स्थापित करके वह गुप्त स्थान बता दिया जहां वे महत्वपूर्ण दस्तावेज रखे हुए थे। मनोविज्ञान शास्त्र के जन्मदाता फेडरिक मायर्स ने अन्तःचेतना का एक विशेष स्तर स्वीकार किया है—‘सुप्रालिमिनल सेल्फ’ की व्याख्या करते हुये उन्होंने लिखा है—इस स्तर का विकास मनुष्य की अतीन्द्रिय अनुभूतियां करा सकती हैं। जो सर्व विदित नहीं हैं ऐसे रहस्यों को जान सकने की क्षमता मस्तिष्क के उस परिचेतना में चीज रूप से मौजूद रहती है जिसे सब लिमिनल सेल्फ कहते हैं। उन्होंने अपने निज के अनुभवों की चर्चा की है और मनुष्य चेतना के भीतर एक ऐसा तत्व है जिसके आधार पर दूरवर्ती छिपी हुई तथा भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं की जानकारी मिल सकती है। अप्रकट रहस्यों के प्रकटीकरण और अशरीरी आत्माओं के साथ सम्बन्ध जोड़ने की सम्भावना इस चेतना स्तर में होने की बात उन्होंने स्वीकार की है।

राजनेता, लब्ध प्रतिष्ठ लेखक और भारती भवन बम्बई के संचालक स्वर्गीय श्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुन्शी ने अपनी प्रेतात्माओं सम्बन्धी अभिरुचि तथा विश्वसनीयता की चर्चा करते हुए लिखा है—

मार्च 1930 में डांडी यात्रा के पूर्व हमने काश्मीर जाने का निश्चय किया था। हमने आत्मा से पूछा कि हमें कब जाना चाहिए। आत्मा ने उत्तर दिया—‘नहीं तुम जेल जा रहे हो।’ और सचमुच डांडी यात्रा शुरू हो गई, मैंने सत्याग्रह किया तथा गर्मियां आर्थर रोड जेल में बितायीं।

संसार के कितने ही अन्य सम्भ्रान्त व्यक्तियों ने दिवंगत आत्माओं के साथ सम्पर्क स्थापित करने में सफलता पाई है। ‘रिव्यू आफ रिव्यूज’ के सम्पादक डब्लू.टी. स्टैड जैसे विशिष्ट व्यक्तियों ने आत्मा से सम्पर्क की कला को एक आदरपूर्ण विषय बना दिया है। ‘शरलक होम्स’ के रचयिता सर आर्थर कोनन डायल भी मृतात्माओं से सम्पर्क किया करते थे। कहा जाता है कि सन् 1893 में पादरी जे.एच. जरोस ने सेन्ट पाल, बुद्ध, सुकरात, जेरी टेलर, जान मिल्टन, रोगर विलियम्स, लैसिंग, अब्राहम लिंकन, टैनिसन, ह्विटियर और फिलिप्स ब्रुक्स से सम्पर्क किया था।

इलाहाबाद से निकलने वाले अंग्रेजी दैनिक लीडर के स्वर्गीय सम्पादक श्री सी.वाई. चिन्तामणि प्रायः एक आत्मा के प्रभाव में आ जाया करते थे। वे स्वयं में उस आत्मा की उपस्थिति अनुभव करते थे।

‘एडवेन्चर्स आफ स्प्रिचुअलिज्म’ के लेखक बम्बई वासी री पोस्टन जी.डी. महालक्ष्मी वाला ने 3 सितम्बर 1925 को एक प्रसिद्ध परलोक विद्याविद् अमरीकी डा. पी. बल्स की आत्मा का, एक कोरा कागज रख कर आवाहन किया। पितर ने उस कागज पर हस्ताक्षर किए। वे हस्ताक्षर डा. पी. बल्स के पिछले हस्ताक्षरों से मिलाये गये। वे हू-बहू वैसे ही थे।

श्री प्रो. बी.डी. ऋषि इन्दौर में जज थे। धर्मपत्नी सुभद्रा देवी की मृत्यु ने उनमें मृत-पत्नी से वार्ता की इच्छा जगाई तथा वे इसी खोज में लग गये। वे सफल हुए व पूरा जीवन परलोक विद्या के लिए ही समर्पित कर दिया। उन्होंने कई पितरों को बुलाकर अत्यंत महत्वपूर्ण व्यक्तियों के समक्ष विभिन्न प्रमाणों सहित वार्तालाप किया-कराया था। वे ऐसे तथ्य उद्घोषित करतीं, जो नितांत निजी होते।

प्रसिद्ध पत्रकार एवं शिक्षा-शास्त्री पं. श्री नारायण चतुर्वेदी के पिता स्वर्गीय पं. द्वारिका प्रसाद चतुर्वेदी भी पितर सत्ताओं को बुलाने के प्रयोग करते थे। एक मेज पर वे पंचपात्र व एक चमची रख देते। मृतात्मा के आते ही पंचपात्र स्वयं बज उठता। फिर प्रश्नों के उत्तर प्राप्त किए जाते।

महाकवि विलियम ब्लैक के बारे में कहा जाता है कि माइकेल एजिलो-मोजेन-क्लीओ पेट्रा की स्वर्गीय आत्माओं के साथ रात्रि के एकान्त में वार्तालाप करते थे। वे आत्माएं आकर उनके साथ महत्वपूर्ण विषयों पर वार्तालाप करती थीं।

यदि सम्पर्क उचित माध्यम से किया जा सके तो मरणोपरांत आत्माएं उचित परामर्श, सहयोग, सान्निध्य देने में समर्थ रहती हैं। इसमें सन्देह नहीं है।

अमेरिका के प्रथम राष्ट्रपति अब्राहीम लिंकन अक्सर आत्मवादी कुमारी नैटीकोल बर्न को आदर पूर्वक व्हाइटहाउस में आमन्त्रित किया करते थे और उससे रणनीति तथा दूसरे महत्वपूर्ण तथ्यों पर परामर्श किया करते थे। उस लड़की पर कई पितरों की छायाएं छाई रहती थीं और वे इस स्तर की थीं कि किन्हीं रहस्यपूर्ण तथ्यों का उद्घाटन कर सकें। लिंकन ने कई बार अपनी कार्य पद्धति उनकी सहायता से बनाई थी और कई ऐसी रहस्यपूर्ण बातों का पता लगाया जिन्हें खोज सकना जासूसी जाल द्वारा भी सम्भव न हो सका।

पितरों से सम्पर्क कर उनसे दूरस्थ क्षेत्रों में वर्तमान में घट रही घटनाएं तथा सूक्ष्म जगत के अंतराल में पक रही भविष्यत्—सम्भावनाएं जानी जा सकती हैं। इसी प्रकार श्रेयस्कर तथा कल्याणकारी सन्मार्ग की जानकारी प्राप्त कर आत्मोत्थान की दिशा में बढ़ा जा सकता है। भौतिक लाभ भी पितरों की अनुग्रह पूर्ण सूचनाओं से प्राप्त किए जाते रहे हैं, तथा ऐसी सूचनाएं देते समय वे अपनी संस्कार जन्य श्रेष्ठता के कारण औचित्य-अनौचित्य पर भी प्रकाश डालने में कभी पीछे नहीं रहते। इस प्रकार इन श्रेष्ठ भावनाओं, विचारों एवं इच्छाओं वाले श्रद्धास्पद पितरों से संपर्क हर प्रकार लाभकारी ही सिद्ध होती है?

साधारण मृतात्माएं वे होती हैं, जो अपने स्वजनों-आत्मीयों, बन्धु-बांधवों से ही सम्बन्ध को उत्सुक रहती हैं। उनकी दुनिया सीमित ही रहती है। अपनेपन का उनका दायरा घर-परिवार तक ही सीमित रहता है। उनकी कामनाएं भी सीमित और साधारण होती हैं। परिजन-प्रियजन से मृत्यु के उपरान्त कुछ दिनों तक मिलते रहना, उन्हें छिटपुट जानकारियां दे देना, प्रणय-निवेदन कर देना, साथ-साथ थोड़ी देर रह लेना या मृत्यु के पूर्व की अपनी किसी वासना आकांक्षा की इस संपर्क द्वारा पूर्ति कर-करा लेना ही उनका उद्देश्य होता है प्रियतम पति या प्रियतमा—पत्नी से संपर्क करने वाली अथवा अपने प्रशंसकों को उत्तर लिखवाती रहने वाली मृतात्माएं इसी भूत-अवस्था में रह रही होती हैं। कुछ समय बाद इनकी आसक्ति का केन्द्र कहीं अन्यत्र हो जाता है। ‘माध्यम’ के माध्यम से इनका संपर्क हलका-फुलका सन्तोष ही दें पाता है और आत्मकल्याण में किञ्चिन्मात्र सहायक नहीं होता। भूतों के सम्पर्क ऐसे ही व्यर्थ होते हैं।

पितर आत्माएं इनसे भिन्न हैं। इनका उद्देश्य आत्म कल्याण के लिए पथ-प्रदर्शन करना, सत्परामर्श देना ही होता है। उनकी निज की कोई वासना नहीं होती। काई क्षुद्र प्रयोजन पितरों के इस सम्पर्क के पीछे नहीं होता। वे तो सन्मार्ग दिखलाने के लिए ही सम्पर्क करते हैं।

आत्म चेतना के विस्तार की दृष्टि से ये पितर-आत्माएं भी दो प्रकार की होती हैं। एक तो वे जो मृत्यु—पूर्व की अवधि के कुल-वंश के सगे-सम्बन्धियों को ही आत्मीय मानतीं, उनको ही सत्परामर्श देतीं, पथ-प्रदर्शन करतीं और लाभ पहुंचाती हैं। दूसरी वे उदार-पितर आत्माएं हैं, जिनकी आत्मीयता की परिधि अति विस्तृत हो चुकी होती है। जो सत्प्रवृत्तियों सद्भावनाओं के आधार पर सगापन मानती हैं। पूर्व के किसी परिचय-सम्बन्ध की उन्हें रंच मात्र अपेक्षा नहीं होती। जो सन्मार्गगामी हैं, सद्भाव सम्पन्न हैं, वही आत्मीय। ऐसी पितर-आत्माएं प्रत्येक उत्कृष्ट व्यक्ति को सहायता पहुंचाने को तत्पर एवं प्रस्तुत रहती हैं। वे किसी भी सत्पात्र से सम्पर्क करने में समान रूप से सन्तोष-आनन्द का अनुभव करती हैं।
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