महात्मा गौत्तम बुद्ध

परमार्थ परायण कार्यकर्ताओं का संगठन

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बुद्ध जानते थे कि जब तक सच्चे कार्यकर्ताओं का एक संगठन तैयार न होगा तब तक उनके सिद्धांतों का समुचित प्रसार होना संभव नहीं। यद्यपि आरंभ में ही उनके शिष्यों की संख्या कई सौ तक पहुँच गई थी और वे एक संघ के रूप में उनके साथ भ्रमण करते थे, पर वे उस समय के वातावरण से प्रभावित होकर एक- दूसरे की देखा- देखी दीक्षा लेते चले गए थे। उच्च कोटि की परमार्थ भावना वाले 'भिक्षु' उनमें थोडे़ ही थे। इसलिए जब राजगृह में रहने वाले संजय नामक परिव्राजक के दो विद्वान् और परमार्थ परायण शिष्य 'उपतिष्य' और कोलितउनके पास परिव्राजक बनने को उपस्थित हुए, तो उन्होंने उनको प्रसन्न्नतापूर्वक दीक्षा दी।

ये दोनों अपने गुरू के पास रहकर परंपरागत ढंग से प्रचलित शास्त्रों का अध्ययन कर रहे थे, पर सामान्य कर्मकांड और पूजा- उपासना के विधान से उनको संतोष नहीं होता था। वे जीवन और विश्व संबंधी सच्चे ज्ञान की खोज में थे, और उन्होंने आपस में प्रतिज्ञा की थी कि- "जिस किसी को पहले अमृत (ज्ञान) की प्राप्ति हो, वह दूसरे को उसकी सूचना दे।" 

 एक दिन 
उपतिष्य ने अश्वजित नामक बौद्ध भिक्षु को 'त्रिचीवर' (भिक्षुओं के तीन वस्त्र) धारण करके और पात्र लेकर राजगृह में भिक्षार्थ फिरते हुए देखा। उनके संयमपूर्ण ढंग और शांतियुक्त मुखमुद्रा को देखकरउपतिष्य पर बडा़ प्रभाव पडा़ और उन्होंने यह जानना चाहा कि, किस गुरु के उपदेश से उनको ऐसा ज्ञान प्राप्त हुआ है? इसलिए वे एक जिज्ञासु की भाँति उनके पीछे चलने लगे और जब अश्वजित भिक्षा ग्रहण करके अपने स्थान पर पहुँचे तो उपतिष्य ने कहा- "आयुष्मान् ! आपकी आकृति अत्यंत शांत और सुदंर है। छवि- वर्ण परिशुद्ध है। आप किसको अपना गुरु बनाकर प्रव्रजित हुए हैं। आपका शास्ता अर्थात् 'मार्गदर्शक' कौन है? आप किसके धर्म को मानते हैं? 
अश्वजित- "आयुष्मान् ! मैं शाक्यवंशीय महाश्रमण गौतम को अपना गुरु बनाकर प्रव्रजित हुआ हूँ और उन्हीं के धर्म को मानता हूँ।"

उपतिष्य- "उनका धार्मिक सिद्धांत क्या है?" 
अश्वजित- "मैं इस धर्म में अभी नया ही प्रव्रजीत हुआ हूँ, इसलिए विस्तार्पूवक तो बतला नहीं सकता, पर संक्षेप में उनका सिद्धांत यह है"- 
ये धम्मा हेतुप्पभवा तेसंहेतु तथाहगतोआह तेसंचयो निरोधो एवं वादी महासमणो 
अर्थात्- "जो धर्म (बाह्याचार की दृष्टि से) निर्मित किए गए हैं, वे सब निरोध वाले (नाशवान् या अस्थायी )हैं।"


उपतिष्य ने इसको सुना तो उनके ज्ञाननेत्र खुल गए। वे समझ गए कि जो धर्माचरण ऊपरी क्रियाकांडोकी पूर्ति के लिए किया जाता है तथा जो पूजा- उपासना किसी लौकिक या पारलौकिक कामना को लक्ष्य में रखकर की जाती है, उससे सच्चा आत्ज्ञान और आत्म- शांति प्राप्त नहीं हो सकती। इसलिए जब तक संसार के पदार्थों को क्षणभंगुर समझकर, उनके प्रति आसक्ति का त्याग नहीं किया जाएगा और समस्त जीवन व्यवहारों में परमार्थ- भावना का समावेश नहीं किया जाएगा, तब तक आत्म- मार्ग में प्रेवेश हो सकना कठिन ही है। यह सोचकर वह अपने मित्र कोलित के पास पहुँचा और उसे भी यह शुभ समाचार सुनाया। उसने भी इस सिद्धांत की यथार्थता को अनुभव किया और वे उसी दिन शिष्य- भाव से बुद्ध के पास उपस्थित हुए। 
बुद्ध ने उनको देखते ही समझ लिया कि ये सत्यज्ञान की खोज में ही यहाँ आए हैं और सच्चे हृदय से उनका अनुगमन करना चाहते हैं। उन्होंने उनसे पुछा तो दोनों ने विनयपूर्वक वंदना करके कहा- "भगवन् ! हमें प्रव्रजित करें, दिक्षा दें। 

बुद्ध ने कहा- "आओ भिक्षुओं 
! धर्म तो स्पष्ट और सरल है। जब मनुष्य अनेक प्रकार की कामनाओं और इच्छाओं को त्यागकर कल्याण भावना से धर्म की सीधी- सादी शिक्षाओं पर आचरण करने लगता है तो उसे स्वयं ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है और वह भव- बंधनों से छुटकारा पा जाता है।" 

 दोनों को उसी समय 
प्रव्रजित करके उनके नाम सारिपुत्र और मौद्गल्यायन घोषित किए गए। उन्होंने संघ में सरल भाव से सेवा करने और सब प्रकार की परिस्थितियों में निर्विकार रहकर कर्तव्यपालन में लगे रहने का जो आदर्श उपस्थित किया, उससे बौद्ध संघ की बडी़ प्रगति हुई और जनता की दृष्टि में उसकी प्रतिष्ठाबढी़। उनकी आंतरिक सेवा भावना का यह परिणाम हुआ कि थोडे़ ही समय में वे बुद्ध के प्रमुख शिष्य और कार्यकर्ता बन गए और आज भी बुद्ध- जगत् में उनका बडा़ नाम और सम्मान है। एक बार जब बुद्ध जी ने एक अन्य प्रिय शिष्य आनंद से पूछा- "क्या तुमको सारिपुत्र आच्छे लगते हैं?" तो उसने कहा- "भंते ! कौन ऐसा मुर्ख, दुष्टचित्त और मूढ़ है, जिसे सारिपुत्र अच्छे नहीं लगते। आयुष्मान् सारिपुत्र पंडित है, महाप्रज्ञावान् हैं, अल्पेच्छुक हैं, संतोषी हैं, निर्लिप हैं, प्रयत्नशील हैं, प्रवत्ता हैं, पाप नाश करने वाले हैं। ऐसे सारिपुत्र किसे अच्छे नहीं लगेंगे?"

कुछ वर्ष पश्चात् जब 'धर्म' की अधिकाधिक सेवा करते हुए नालंदा के समीप 'नालक' ग्राम में रोगग्रस्त होकर सारिपुत्र का देहांत हो गया तो आनंद ने बुद्ध जी के पास पहुँचकर इसकी सूचना उनको दी और कहा- "यह सुनकर मेरा शरीर तो मानो जड़़ हो गया। चारों ओर अंधकार छा गया। धर्म की तो बात क्या दिशाएँ तकसूझनी बंद हो गई !"

बुद्ध- "क्यों आनंद, ऐसा किसलिए कहते हो? क्या सारिपुत्र शील को अपने साथ ले गये? समाधि को अपने साथ ले गये? प्रज्ञा को अपने साथ ले गये? विमुक्ति को अपने साथ ले गये? मुक्ति के ज्ञान- दर्शन को अपने साथ ले गये? 

 आनंद- "नहीं 
भंते ! सारिपुत्र, शील समाधी, प्रज्ञा, विमुक्ति- किसी को अपने साथ नहीं ले गये, पर वे मेरे उपदेशक थे, धर्म के ज्ञाता थे, अपने सहकारियों पर उनकी बडी़ कृपा रहती थी। मैं उनकी उस करुणा, दया, कृपा का ही स्मरण करता हूँ।"

 बुद्ध- "आनंद ! जिस प्रकार किसी बडे़ भारी बडे़ भारी वृक्ष के खडे़ रहते उसका सबसे बडा़ सारयुक्त तना टूटकर गिर जाए, उसी प्रकार बौद्ध संघ के लिए सारिपुत्र का निर्वाण हो जाना है, पर यह कब संभव है कि जिसकी रचना हुई है, जो अस्तित्व में आया है, उसका विनाश न हो? नहीं आनंद ! यह नहीं हो सकता। इसलिए अपने दीपक आप बनो। किसी दूसरे का आश्रय मत देखो। धर्म को ही अपना दीपक समझो, उसका ही आश्रय ग्रहण करो।"

सदाचारी और परोपकारी महापुरुषों का सम्मान करना, उनकी सेवा- सहायता के लिए सैदेव उद्यत रहना प्रत्येक सज्जन का कर्तव्य है, पर अपने को उन पर इतना आश्रित करना उचित नहीं कि उनके अभाव में संसार शून्य ही जान पड़ने लगे। संसार में रहना या उसे छोड़ सकना तो मनुष्य के वश की बात नहीं, इसलिए प्रत्येक स्थिति में जगत् की नश्वरता को समझकर अपने चित्त को संतुलित रखना ही बुद्धिमान् व्यक्ति का कर्तव्य है। बुद्ध भी सारिपुत्र के महान् गुणों को पुरी तरह समझते थे और उनसे स्नेह रखते थे, पर वे यह भी जानते थे कि जो पैदा हुआ है, उसका अंत होना अनिवार्य है और ऐसे अवसर पर अत्यधिक मोह दिखाकर कर्तव्य में ढील करना उचित नहीं कहा जा सकता। इसीलिए आनंद को बुद्ध ने यही समझाया कि संसार में महत्त्व सद्गुणों का ही है और हम सारिपुत्र का सम्मान ऐसे सद्गुणों के कारण ही करते थे। इसलिए मरणोपरांत उनके प्रति सम्मान प्रकट करने का मार्ग यही है कि उन सद्गुणों का अधिक से अधिक पालन किया जाए। 

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