इसी से जब अकस्मात् एक दिन उन्होंने एक जराग्रस्त, दीन- दुःखी भिखारी को देखा तो उसकी बडी़ गहरी प्रतिक्रिया हुई। अभी तक तो वे संसार के सब लोगों को अपनी ही तरह सुखी और आमोद- प्रमोद में जीवन व्यतीत करने वाला समझते थे, पर जब उनको अनुभव हुआ कि संसार का वास्तविक रूप ऐसा नहीं है और उसमें अनगिनत व्यक्ति अभावग्रस्त, कष्टपूर्ण और तरह- तरह की व्याधियों से व्याकुल जीवन व्यतीत करते हैं तो उनके कोमल हृदय को बडा़ धक्का लगा और वे इस समस्या का मनन करने तथा उसके प्रतिकार का उपाय ढूँढ़ने लगे।
गौतम का हृदय आरंभिक अवस्था से ही सब प्राणियों के लिए संवेदनशील था और वे किसी का कष्ट नहीं देख सकते थे। इस संबंध में एक उपाख्यान बहुत प्रसिद्ध है कि, एक दिन उनके एक निकट संबंधी देवदत्त ने बाण चलाकर उड़ते हुए हंस को घायल कर दिया और वह पंख फड़फडा़ता हुआ गौतम के पास ही आ गिरा। उसे देखकर इनके मन में बडा़ करुणा- भाव उत्पन्न हुआ और वे तुरंत ही उसे उठाकर शरीर पर हाथ फेरने लगे। इतने में देवदत्त आ पहुँचा और उसने अपना मारा हुआ हंस माँगा, पर इन्होंने देने से इनकार किया और अंत में यह विवाद राजा सुद्धोदन के समीप पहुँचा। वहाँ पर गौतम ने यह दलील दी कि- मारने वाले से बचाने वाला सदैव बडा़ हुआ करता है, इसलिए इस हंस पर देवदत्त का नहीं मेरा अधिकार है और मैं इसकी प्राण रक्षा करूँगा। इनका यह कथन सबने ठीक बतलाया और यह भी अनुभव किया कि जब ये एक पक्षी के प्रति इतनी आत्मीयता का भाव रखते हैं तो संसार में पीडि़त मानवता के प्रति कल्याण- भावना क्यों न रखेंगे?
इनके पिता ने इनकी गंभीर मनोवृत्ति को देखकर शीघ्र ही इनका विवाह यशोधरा नाम की राजकुमारी से कर दिया था, जो बडी़ सुंदर और पतिपरायणा थी। वह भी उनको सदा राजमहलों के वैभवशाली औरआमोदयुक्त जीवन में लुभाए रखने की चेष्टा किया करती थी, तो भी जैसे- जैसे बुद्ध को निरीक्षण और मनन द्वारा संसार की वास्तविक अवस्था का ज्ञान होता गया, उनको उस राजसी जीवन से विरक्ति होती गई। वे अपने मन में यही सोचा करते थे कि- जब संसार में हमारे ही आस- पास के स्थानों में इतने अधिक व्यक्ति भोजन, वस्त्र, मकान औषधि, परिचर्या के बिना कष्ट सहन कर रहे हैं तो मुझे इन सुरम्य महलों में रंगरलियाँमनाने का क्या अधिकार है? यह कहाँ की मानवता है कि एक तरफ तो अनेक नरतनधारी भूखे, नंगे, रोगीपीडि़त पडे़ कराह रहे हों और दस- बीस राजवंशीय व्यक्ति सुरा और सुंदरियों का आस्वादन करते हुए असंख्य धन तथा मानव- श्रम की बर्बादी कर रहे हों? नहीं, यह स्पष्ट अन्याय है। जब तक सबको साधारण जीवन- निर्वाह की सुविधा न मिल जाए, तब तक किसी को यह आधिकार नहीं कि वह सार्वजनिक धन और जीवनोपयोगी सामग्री का ऐसा दुरुपयोग करे।