बुद्ध क्रमशः देश के विभिन्न भागों में प्रचार करते हुए अपने राज्य में भी जा पहुँचे। महाराज शुद्धोदन अपने पुत्र की महान् कीर्ति को सुनकर अपने को परम कृतकृत्य और सौभाग्यशाली समझने लगे और उन्होंने बुद्ध का चिरस्मरणीय भव्य स्वागत किया। बुद्ध ने इस अवसर पर कोई प्रेम और स्नेह की भावना न दिखलाकर उसी भाव को प्रदर्शित किया, जिसे वे अन्य अपरिचित लोगों में प्रकट करते रहे थे। उन्होंने सबसे पहला कार्य तो यह किया कि अपने नियमानुसार नगर के बाहर मैदान में ठहरे और भोजन का समय होने पर अन्य भिक्षुओं के साथ भिक्षा माँगने निकले। राजा शुद्धोदन बडे़ व्यथित होकर उनके पास आए और कहने लगे,
"क्या मुझमें, आपको और अपके भिक्षुओं को भोजन कराने की सामर्थ्य नहीं है, जो आप घर- घर भिक्षा माँग रहे हैं?"
बुद्ध ने कहा- "महाराज, हमारे वंश का यही धर्म है।"
राजा- "भंते ! हमारा वंश क्षत्रिय- वंश है। हमारे वंश में कभी किसी ने आज तक भिक्षा नहीं माँगी।"
बुद्ध- "महाराज ! आपका वंश क्षत्रिय वंश होगा हमारा वंश तो 'बुद्धों' का वंश है।"
कपिलवस्तु में बुद्ध ने अपने पुत्र राहुल, पत्नी यशोधरा और भाई नंद को भी दीक्षा देकर संन्यासी बना दिया। इस प्रकार एक दृष्टि से उनके राज्य वंश का अंत ही हो गया। उन्होंने जिस बात को दूसरों के लिए कल्याणकारी समझा, उसे अपने परिवार पर भी पूरी तरह से लागू किया। पर आजकल प्रायः इससे उल्टी हालत देखने को आती है। लोग दूसरों को परोपकार, स्वार्थ, त्याग, सेवा धर्म का उपदेश देने में बडे़ निर्पुण होते हैं; पर स्वयं विपरीत मार्ग पर ही चलते हैं, यही कारण है कि इस समय प्रचार के बहुत अधिक साधन बढ़ जाने पर भी उपदेशकों को उतनी सफलता नहीं मिलती जितनी पहले किसी प्रकार के यात्रा- साधनों और प्रेस, अखबारआदि के बिना भी प्राप्त हो जाती थी।