गौतम की यह विचारधारा क्रमशः परिपक्व होती चली गई। यद्यपि उनके पिता राजा शुद्धोदन ने भरसक इस बात का प्रयत्न किया कि राजकुमार के सामने संसार की दुर्दशा का कोई चित्र न आने पाये, न उनको ज्ञान- वैराग्य की बातों को सुनने का अवसर दिया जाए तो भी गौतम ने दो- चार बार संयोग से जो दीन, दुःखी, रोगी और मृत व्यक्तियों को देख लिया उसी से उनके भीतर विचारमंथन आरंभ हो गया और अपनी तर्क- बुद्धि तथा न्याय- पथ पर चलने वाली मनोभावना के द्वारा उन्होंने शीघ्र ही यह समझ लिया कि अगर संसार से इस अन्याय और दुरावस्था को मिटाना है तो इसके लिए सबसे पहली आवश्यकता यही है कि इस राजपाट के झंझट और बंधन को दूर हटाया जाए, क्योंकि जब तक इसमें रहा जाएगा तब तक पीडि़त मानवता की सेवा- सहायता करना तो दूर उनके निकट जा सकना भी संभव नहीं हो पाएगा। इसलिए उन्होंने महलों में रहते हुए भी अपने जीवन को सादा बनाना आरंभ कर दिया और राज्य के बंधनों को तोड़कर स्वतंत्र होने का निश्चय कर लिया।
कुछ समय पश्चात् जब यशोधरा ने एक पुत्र को जन्म दिया, तब गौतम पर इसकी प्रतिक्रिया भिन्न रूप में ही हुई। एक तरफ तो समस्त राज्य में हर्षोल्लास और मांगलिक उत्सवों की धूम मची हुई थी और दूसरी ओर गौतम इसे एक नए बंधन के रूप में अनुभव कर रहे थे। वे सोचते थे कि अभी तक तो हम स्त्री और पिता के प्रेम के कारण घर को न छोड़ सके, अब यदि इस पुत्र का प्रेम भी बढ़ गया तो गृहत्याग करके अपने को विश्व कल्याण के कार्य के लिए समर्पित कर देना और भी कठिन हो जाएगा। इसलिए उन्होंने शीघ्र से शीघ्र राजसी जीवन को त्यागने का निश्चय कर लिया और जिस दिन उनका पुत्र राहुल सात दिन का ही था, वे आधी रात के समय चुपचाप घर को छोड़कर चल दिए। यह मार्ग उनको इसलिए अपनाना पडा़, क्योंकि उनके पिता राज्य की मर्यादा के ख्याल से इस बात की अनुमति देने को कदापि तैयार न थे और हर तरफ से यह प्रयत्न कर रहे थे कि गौतम राजभवन से बाहर न जा सकें। उधर गौतम के मन में प्रतिदिन यह धारणा बलवती होती जाती थी कि- यदि मैं अन्य लोगों की तरह विषय- भोग में ही लगा रहा और अपनी ईश्वर प्रदत्त शक्तियों को लोक- कल्याण के लिए उपयोग में न ला सका तो यह एक बहुत बडा़ प्रमाद या अपराध होगा।