क्या धर्म अफ़ीम की गोली है

विज्ञान भावनाशील बने और धर्म तथ्यानुयायी

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मोटेतौर से प्रतीत होता है कि विज्ञान और अध्यात्म के आधारभूत सिद्धान्तों में मौलिक अन्तर है इसलिए उनका समन्वय कदाचित कभी भी सम्भव न हो सकेगा। अन्तर को देखकर प्रस्तुत निष्कर्ष पर पहुंचने वाले मनीषियों का कहना यह है कि विज्ञान आग्रही नहीं है वह तथ्यों को खुले मस्तिष्क से तलाश करता है। पूर्वाग्रहों से मुक्त रहता है और जब जो प्रामाणिक आधार मिलते हैं उनके सहारे सिद्धान्तों का निर्धारण करता है। इसके विपरीत अध्यात्म में पूर्वाग्रहों की ही भरमार है। तर्क के लिए गुंजाइश नहीं है। शास्त्र अथवा आप्त पुरुष ही सब कुछ हैं। उन्हीं की खींची रेखाओं की परिधि में घूमने के लिए धार्मिक अथवा अध्यात्मवादी को सीमित रहना पड़ता है। तर्कों के झरोखे में झांकने वालों की धार्मिकता को पतिव्रत को तोड़ने वाला घोषित कर दिया जाता है। ऐसी दशा में तथ्यों का निर्धारण करने को जब तक दोनों की स्थिति एक न हो तब तक समन्वय कैसे संभव होगा? या तो विज्ञान अपने तथ्यों को प्रामाणिकता देने वाली प्रवृत्ति छोड़ अथवा धर्म को परम्परा आग्रह अपनाये रहने से विरल किया जाय तभी वह स्थिति बनेगी जिसके आधार पर दोनों को साथ चलने अथवा सहयोग करके सत्य की शोध में समन्वित मार्ग अपनाने की बात बन सके।

कथन को सच मानने को मन तभी करता है जब कि दोनों की मूल प्रकृति को समझने में भ्रम बना रहे। यह अड़चन उथले चिंतन से सही मालूम पड़ती है और उस समय भी ठीक लगती है जब धर्म पक्ष के विकृत रूप को ही उसका आधारभूत सिद्धान्त मान लिया जाय। गहराई में उतरने पर धर्म और विज्ञान दोनों ही ऐसे तथ्यों पर आधारित दीखते हैं, जिन पर अविश्वास करने या मिलजुल कर साथ-साथ न चल सकने की आशंका करने का कोई कारण नहीं हो।

विकृतियां तो न्याय और कानून के क्षेत्र में भी बनी रहती हैं। इससे उनकी उपयोगिता या आवश्यकता से इन्कार नहीं किया जा सकता। उत्पादन और व्यवसाय में भी आये दिन बदमाशियां चलती हैं इसी कारण उन कार्यों को बन्द तो नहीं कर दिया जाता। धार्मिक क्षेत्र में निहित स्वार्थों को घुस पड़ने और अवांछनीय प्रथा परम्परा चला देने का अवसर मिल जाता है जब कि उसे क्षेत्र के अनुयायी तर्क और तथ्यों को जानने की आवश्यकता नहीं समझते। यदि वे धर्माध्यक्षों के उद्देश्य और प्रतिपादनों के फलितार्थ पर विवेकपूर्वक विचार करना सीखें तो फिर धर्म क्षेत्र की उपयोगिता भी विज्ञान क्षेत्र की तरह ही अक्षुण्ण बनी रह सकती है। धर्म की मूल प्रवृत्ति अन्धविश्वासी या दुराग्रही नहीं है। जिस श्रद्धा तत्व के आधार पर अन्धेरगर्दी फैलती रहती है उसका भी आधार श्रेष्ठता के साथ जुड़ा हुआ है। श्रेष्ठता के प्यास को श्रद्धा कहते हैं। श्रद्धा की अवधारणा जहां भी करनी हो वहां सर्वप्रथम श्रेष्ठता है या नहीं इसको कसौटी पर कसना होता है। यह परख जागृत रखी जा सके तो श्रद्धा के शोषण की सम्भावना न रहेगी और धर्म को अवैधानिक तर्क विरोधी अथवा अप्रामाणिक कहे जाने का अवसर न आने पावेगा।

धर्म भी एक विज्ञान है। चेतना को अनुशासित रखना और उसे प्रयोजनों में नियोजित करना उसका उद्देश्य है। चेतना की सामर्थ्य प्रकृति क्षेत्र में भरी पदार्थ सम्पदा एवं शक्ति धाराओं से किसी भी प्रकार कम नहीं है। प्रकृति सम्पदाओं को खोज निकालने और उनका सदुपयोग कर सकने की क्षमता पदार्थों में नहीं है। वह तो चेतना ही कर सकता है। विचारणाएं, भावनाएं और प्रवृत्तियां चेतना की ही चमत्कारी धाराएं हैं। पदार्थों की जड़ता को चेतना जैसी सुखद स्थिति में उभार लाने का श्रेय चेतना को ही है। सर्व विदित है विचार संस्थान की उत्कृष्टता से ही व्यक्ति का अन्तरंग आनन्दित और बहिरंग समुन्नत बन पाता है उसमें त्रुटि रहेगी तो विकृत चिन्तन के फल स्वरूप मनुष्य उद्विग्न और दरिद्र ही बना रहेगा। पिछड़ेपन और शोक संकट से उसे छुटकारा मिल ही न सकेगा। भले ही परिस्थितियां उसके अनुकूल हों अथवा साधनों का बाहुल्य सामने प्रस्तुत हो। व्यक्ति को सुविकसित और समाज को सुव्यवस्थित बनाये रहना इस बात पर निर्भर है कि लोक चेतना का धारा प्रवाह किस दिशा में चल रहा है। इस तथ्यों पर ध्यान देने से धर्म चेतना को वैज्ञानिक उपलब्धियों की तरह ही श्रेयष्कर माना जायगा। इतनी बड़ी उपयोगिता यदि अवैज्ञानिक, अप्रमाणित मानी जाने की स्थिति में बनी रहे तो उसे मनुष्य जाति का दुर्भाग्य ही कहा जायगा। धर्म को प्रखर बनाये रहने के लिए उसके साथ यथार्थवादी विज्ञान दृष्टि का जुड़े रहना आवश्यक है। यह कार्य दोनों के समन्वय से ही हो सकता है।

ठीक इसी प्रकार विज्ञान को उस भाव सम्वेदना को अपनाकर चलना होगा जो विचार संस्थान की नहीं भाव संस्थान की उत्पत्ति कही जा सकती है। विज्ञान को मात्र बुद्धिवादी बने रहने से भी उसकी उपलब्धियां तो मिलती रह सकती हैं, पर उपयोगिता नष्ट हो जायगी और वे सूत्र सूख जायेंगे जहां से अन्वेषणों के मूलभूत स्फुरण का उद्भव होता है।

आविष्कारों के बारे में समझा यह जाता है कि वे प्रयोगशालाओं की देन है अथवा वे बुद्धिमत्ता के कारण उपलब्ध हुए हैं, पर बात इतनी उथली नहीं है। प्रत्येक आविष्कार की सम्भावना का आरम्भिक विचार अंतःस्फुरणा से उठा है। बुद्धि का काम पूर्व प्रचलनों का ऊहापोह करना है। पूर्ववर्ती अस्तित्व के बिना उसकी दौड़ आगे बढ़ती ही नहीं। मस्तिष्कीय संरचना में ऐसे विचारों के उद्भव की गुंजाइश नहीं है जिन्हें मौलिक कहा जा सकेगा। विज्ञान का विस्तार, बुद्धि और साधन सामग्री के सहारे होने की बात सच है, पर यह सच नहीं है कि आविष्कारों से भी पूर्व अन्तःकरण में उठने वाली अन्तःस्फुरणाएं भी मस्तिष्क ही उगा सकता है। यदि ऐसा होता तो पूर्ववर्ती बुद्धिमानों ने उन सब आविष्कारों को बहुत पहले ही कर लिया होता जो अब क्रमशः प्रत्यक्ष होते चले जा रहे हैं। न्यूटन से पहले भी चिरकाल से पेड़ों पर से फल जमीन पर गिरते हुए मूर्खों से लेकर विद्वानों तक सभी देखते रहे हैं, पर उतने भर संकेत से पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति का आभास पाना, विश्वास करना और अन्ततः उसे खोज निकालना न्यूटन की बुद्धि का नहीं अन्तःस्फुरणा का आधार है। इसी प्रकार अन्यान्य सभी आविष्कार अपने प्रारम्भिक रूप में जब चिन्तन क्षेत्र में उतरे तब उनका अवतरण स्थल उस परत से कहीं गहरा था जिसे मस्तिष्क सम्पदा कहते हैं। यह अन्तःकरण ही है जो न केवल वैज्ञानिक उपलब्धियों का आधारभूत कारण है, वरन् मानवी व्यक्तित्व की उत्कृष्टता और सामाजिक संगठनों का उद्गमस्रोत भी यही है। यदि अन्तःकरण तत्व को मनुष्य से छीन लिया जाय तो उससे न वैज्ञानिक शोधों की आरम्भिक अनुभूति पाने की क्षमता रहेगी और न पशु आचरणों से ऊंचे उन आधारों को अपनाने की आशा की जा सकेगी, जिसे मानवी संस्कृति कहा जाता है। सर्वतोमुखी प्रगति का श्रेय जितना शारीरिक और मानसिक श्रमशीलता को दिया जाता है उससे भी अधिक संस्कृति को मिलना चाहिए।

संस्कृति भी वैज्ञानिक उपलब्धि है। अन्तःस्फुरणा उत्पन्न करने वाला अन्तराल प्रकृति प्रदत्त अनुदान नहीं है वरन् विज्ञान की तरह ही मानवी पुरुषार्थ का प्रतिफल है। धर्म तत् को विज्ञान की आत्मा में गुंथा देखा जा सकता है। ऐसा न होता तो वैज्ञानिकों में भी स्वार्थपरता और विलासिता जैसे दुर्गुण छाये रहते और वे शोध प्रयत्नों में योगियों जैसी तत्परता और तन्मयता का समावेश न कर सके होते। विज्ञानी में योगी और तपस्वी के दोनों लक्षण पाये जाते हैं। वह सत्य का शोधक भी होता है और व्यक्तिगत, ललक लिप्साओं से ऊंचा उठकर शोध प्रयत्नों में दत्तचित्त रहने वाला तपस्वी भी होता है। इन प्रयासों में उसे जो संकट सहने और खतरे उठाने पड़ते हैं वे चेतना की उत्कृष्टता के, बिना संभव नहीं हो सकते। विज्ञानी भले ही ईश्वरवादी नहीं धार्मिक तो निश्चित रूप से होता है। भले ही वह किसी मत सम्प्रदाय का अनुसरण न करता हो। धर्म के बिना विज्ञान अपंग है और विज्ञान के बिना धर्म अन्धा। दोनों परस्पर सहयोग न करेंगे तो वे अपूर्ण ही बने रहेंगे और उतने उपयोगी सिद्ध न हो सकेंगे जितना कि मिल-जुलकर काम करने पर हो सकते हैं। दोनों के बीच जो दिशा विरोध दीखता है वह सतही है। गहराई तक उतरने पर भिन्नता घटती और समता बढ़ती जाती है। गंगा और यमुना का मध्यान्तर लम्बा है पर गंगोत्री और जमुनोत्री की दूरी कम है यदि हिमालय की भीतरी जल सम्पदा तक पहुंचा जा सके तो प्रतीत होगा कि दोनों के उद्गम भिन्न स्थानों पर होते हुए भी उनकी धारायें एक ही विशाल जलाशय से अनुदान प्राप्त करती हैं। धर्म और विज्ञान की प्रवाहमान धाराएं अलग-अलग हैं—उनके कार्य क्षेत्र भिन्न हैं इतने पर भी दोनों के मध्य मौलिक समानता विद्यमान है और दोनों को पूर्ण बनने के लिए पारस्परिक सहयोग की नितान्त आवश्यकता है।

अध्यात्म क्षेत्र में जिन रहस्यमयी उपलब्धियों की चर्चा होती रहती है, उन सिद्धियों और चमत्कारों का आधार विज्ञान की किसी ऐसी धारा के साथ कल नहीं तो परसों जुड़ा हुआ पाया जायगा जो प्रकृति के अन्तराल में विद्यमान तो है पर अभी प्रकाश में नहीं आई है। यहां अद्भुत का कोई अस्तित्व नहीं। सब कुछ सुव्यवस्थित है। जिस व्यवस्था के कारणों को हम नहीं जान पाते वही अद्भुत लगता है। आरम्भ में अग्नि का प्रकटीकरण भी दैवी चमत्कार था। पीछे उसके रहस्य विदित हो जाने पर प्रकृति का एक सामान्य उपक्रम उसे मान लिया गया। ठीक इसी प्रकार वैयक्तिक चेतना की गहरी परतों से जब कभी कोई स्रोत फूट पड़ते हैं तो वे दैवी प्रतीत होते हैं। अनुसंधान को अपनाये रहा जाय तो उस सूत्र के सहारे वहां पहुंचने में सफलता मिलती है जहां चेतना की किन्हीं गहरी परतों से वैयक्तिक चमत्कारों का उत्पादन होता है। इसी प्रकार इस विशाल ब्रह्माण्ड में संव्याप्त चेतना के समुद्र का स्वरूप और उपयोग समझा जा सके तो वह आधार मिल सकता है जिसे दिव्य लोकों में बरसने वाले वरदानों की संज्ञा दी जाती है। वैयक्तिक विभूतियों और दैवी अनुकम्पा की चमत्कारी सिद्धियों की चर्चा होती रहती है और उन्हें अभौतिक कहा जाता रहता है, किन्तु तथ्य यह है कि जो इंद्रियगम्य या बुद्धिगम्य हैं वह सभी मौलिक हैं। अध्यात्म के नाम पर चलने वाली साधनाओं को अथवा उपलब्धियों को भौतिक क्षेत्र से बाहर समझना भूल है। पदार्थों की सहायता से जो किया जाता है अथवा जिनकी अनुभूति मन समेत ग्यारह इन्द्रियों द्वारा होती है उन्हें अभौतिक कहने का साहस बालबुद्धि तो कर सकती हैं, पर तत्वदर्शन के गले उसे नहीं उतारा जा सकता। इसी प्रकार विज्ञान के उद्भव, अनुसंधान, अभिवर्धन और उपयोग में आदर्शों को तिलांजलि नहीं दी जा सकती है। इस प्रकार धर्म और विज्ञान एक ही उदर से जन्मे दो सहोदर भाइयों की तरह समझे जा सकते हैं और उनमें परस्पर सहयोग से मिलकर काम करने की पूरी गुंजाइश है। देव और दानवों के सहयोग से समुद्रमन्थन किए जाने और उसके फलस्वरूप चौदह रत्न मिलने की पौराणिक गाथा को अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय की आवश्यकता का प्रतिपादन करते हुए पाया जा सकता है।

विज्ञान अब विगत शताब्दी की तरह अप्रत्यक्ष की सत्ता से इन्कार करने में दुराग्रही नहीं रहा है। मैटा फिजिक्स और पैरासाइकालाजी की अगणित शाखा प्रशाखायें इस अनुसंधान में संलग्न हैं कि अतीन्द्रिय अनुभूतियों के मूल में किन तथ्यों का समावेश है। गणितज्ञ सी.ए. डार्विन ने अपने ग्रन्थ ‘दि न्यू कंसेयशंस आफ मैटर’ में कहा है—अपने जमाने में वैज्ञानिक क्षेत्र की यह एक बड़ी क्रान्ति है कि जो अप्रत्यक्ष है उसकी सत्ता को भी अनुसंधान के क्षेत्र में सम्मिलित कर लिया गया है। विज्ञानी हर्बर्ट डिगल ने स्वीकारा है वे दिन बीत गए जब विज्ञान का क्षेत्र मात्र तथ्यों तक सीमित था। अब उसका कार्य क्षेत्र कहीं आगे बढ़ गया है और रहस्यों को भी अनुसंधान के उपयुक्त आधारों का मान लिया गया है। अन्तरिक्ष विज्ञानी एडिगृन के कथनानुसार विज्ञान के रहस्यों को भी अनुसंधान के उपयुक्त आधारों का मान लिया गया है। अन्तरिक्ष विज्ञानी एडिगृन के कथनानुसार विज्ञान के रहस्यों को भी तथ्यों में सम्मिलित कर लिया है इसका अर्थ है उनने अपने में अध्यात्म के सुरक्षित सीमा क्षेत्र तक पहुंचने और उसमें प्रवेश करने की हिम्मत जुटाली है।

इन दिनों विज्ञान ने विधिवत् रहस्यवाद को अपने कार्यक्षेत्र में सम्मिलित किया है पर पूर्ववर्ती विज्ञान-वेत्ता उस सन्दर्भ में सर्वथा अनुदार नहीं रहे हैं वे अपने शोध-प्रयत्न धर्म और विज्ञान दोनों ही दिशाओं में नियोजित किये रहे हैं और उनके समन्वय की सम्भावना पर विश्वास करते रहे हैं। पैरासेल्सस, ब्रूनो, पैस्काल, न्यूटन आदि की गणना इसी वर्ग के वैज्ञानिकों में की जा सकती है। प्लेटो अपने समय का प्रख्यात समन्वयवादी था। उसने दार्शनिक चर्चा करने के लिए आने वाले जिज्ञासुओं के लिए यह शर्त रखी थी कि उनका गणित का जानकार होना आवश्यक है। उसके दरवाजे पर एक तख्ती टंगी रहती थी, जिस पर लिखा था—‘‘जिसे गणित न आता हो वह भीतर न आये।’’

धर्म को विज्ञान सम्मत अर्थात् बुद्धिसंगत बनाने और तथ्यों की कसौटी पर कसने का प्रतिपादन करने वाले अनेकों सुधारक समय-समय पर होते रहे हैं। धर्म क्षेत्र में चिरकाल से चलती आने वाली क्रान्तियां इस तथ्य को प्रमाणित करती हैं कि अन्धानुसरण नहीं तथ्यों की कसौटी पर श्रद्धा और परम्परा को कसा जाना आवश्यक है। भगवान बुद्ध की ख्याति इसी रूप में थी कि उनने बुद्धिवाद का प्रतिपादन किया था और तथ्यों की कसौटी पर खरी न उतरने वाली परम्पराओं को अस्वीकार करने के लिए जन-मानस को भड़काया था। इस श्रंखला में प्राचीन एवं अर्वाचीन समाज सुधारकों को इसी वर्ग में गिना जा सकता है।

विग्रह का अन्त और समन्वय का आरम्भ हर क्षेत्र में आवश्यक समझा जा रहा है और उसके लिए सर्वत्र अपने-अपने स्तर के प्रयत्न अपने-अपने ढंग से चल रहे हैं। धर्म और विज्ञान के सहयोग की आवश्यकता भी युग की पुकार है। हमें इच्छा और अनिच्छा से इस दिशा में बढ़ना ही होगा। विज्ञान को भावनाशील और धर्म को तथ्यानुवर्ती होने की आवश्यकता है इस यथार्थता को जितनी अच्छी तरह समझा जाने लगेगा उतनी ही तेजी और मजबूती के साथ दोनों महान् शक्ति धाराओं के सुखद समन्वय का दिन निकट आता चला जायगा।

आदिम काल से मनुष्य ने पशु के आहार, निद्रा, भय, मैथुन की सीमित परिधि से आगे बढ़कर जब अपने इर्द-गिर्द के वातावरण को समझने का प्रयत्न किया होगा तो उसे भय लगा होगा। आग का गोला सूर्य, आकाश में चमकने वाले चांद-तारे, दिन-रात का चक्र, बादलों की घटाएं, बिजली की कड़क, नदियों की चाल, समुद्र की लहरें, सिंह और सर्पों के उत्पात, जन्म और मरण जैसी विस्मयजनक हलचलों को उसने किन्हीं अदृश्य अतिमानवों की करतूत समझा होगा और उनके कोप से बचने एवं सहायक बनाने के लिए पूजा उपक्रम का कुछ ढंग सोचा होगा। सम्भवतः यहीं से उपासनात्मक अध्यात्म का आरम्भ हुआ है। एकाकी स्वेच्छाचार ने समूह में रहने की प्रवृत्ति अपनाई होगी, अन्यथा सहयोग का अभिवर्धन और टकराव का समाधान ही सम्भव न होता। धर्म यहीं से चला है। अब हम धर्म और अध्यात्म को दो धाराओं में बांटते हैं, पूर्व काल में दोनों एक थे। भय के बाद लोभ की प्रवृत्ति पनपी। उसने अति-मानवों से, देवताओं से अभीष्ट लाभ पाने की आशा रखी होगी। उनसे अवरोधों को दूर करने और वांछित फल प्रदान करने का सहयोग मांगा होगा। तब मानव अपने पुरुषार्थ की तुच्छता और आकांक्षाओं की प्रबलता का का वह तारतम्य नहीं बिठा पा रहा होगा जिसे पशु-पक्षी सहज ही बिठा लेते हैं। उपलब्ध परिस्थितियों और निजी आकांक्षाओं का वे सहज ही ताल-मेल बिठा लेते हैं और जो कुछ है उसी में सन्तुष्ट रह कर अपनी प्रकृति को तदनुरूप ढाल लेते हैं। मनुष्य की आकांक्षाएं बढ़ीं और समाधान सीमित रहे। ऐसी परिस्थिति में किन्हीं अदृश्य अतिमानवों का—देव-दानवों का पल्ला पकड़ना उसने उचित समझा होगा। देवाराधन के स्वरूप उस विकास युग में भय के थोड़ा-थोड़ा छुटकारा पाने और लोभ-लालच की परिधि में प्रवेश करने का बना होगा। स्वर्ग-नरक, शाप-वरदान, जिन अदृश्य शक्तियों द्वारा दिया जाता है उनके कोप से बचना और प्रसन्न करके लाभान्वित होना तब एक दिव्य कौशल रहा होगा। उन्हीं दिनों मन्त्र-तन्त्र के—देव परिकर के रूप, विधान गढ़े गये। उन्हें दैवकृत माना जाता रहा इसी आधार पर अमुक विधान का खण्डन अमुक का मंडन क्रम चलता रहा।

धर्म के विकास का इतिहास मनुष्य की चेतना के—चिन्तन के साथ-साथ कदम से कदम मिलाकर चलता आया है। भय और लोभ की व्यक्तिवादी आकांक्षाओं से आगे बढ़कर मनुष्य अधिकाधिक समाज पर निर्भर होते चलने की स्थिति में यह समझने के लिए बाध्य हुआ कि समूहगत हलचलें मनुष्य को अत्यधिक प्रभावित करती हैं। पारस्परिक सहयोग असहयोग के, नीति पालन और उल्लंघन के क्रियाकलाप अधिकाधिक सुविधा-असुविधा उत्पन्न करते हैं। सुख और दुख यही परिस्थितियां उत्पन्न करती हैं। अतएव व्यक्ति और समाज की नीति-मर्यादाओं को अधिक सबल अधिक परिष्कृत बनाया जाय। इस मान्यता ने नीति के, उपकार के तत्व ज्ञान को धर्म में सम्मिलित किया और इसके लिए आचार शास्त्र का विकास हुआ। धर्म की व्याख्या, नीति-पालन एवं उदारता के लिए उत्साह प्रदर्शन के रूप में की गई। यह और भी अधिक महत्वपूर्ण कदम था। इससे आगे और भी विकसित स्थिति आती है जब ‘आत्मवत् सर्व भूतेषु’ की—‘सूत्रे माणि गणा इव’ की मान्यता की आधार शिला रखी गई। यह ब्रह्मविद्या का युग है। एक ही आत्मा सब में समाया हुआ है—सब में अपनी ही सत्ता जगमगा रही है—अपने भीतर सब है—सब में एक ही आत्मा का प्रतिबिम्ब है। सब अपने और ‘अपना’ सब का है। यह विश्व मानव की, विश्व परिवार की एकात्म अद्वैत बुद्धि सचमुच धर्म की अद्भुत और अति उपयोगी दैन है। बढ़ती हुई समाज निर्भरता का सन्तुलन इसी मान्यता के साथ बैठता है। बढ़ी हुई जनसंख्या—वैज्ञानिक उपलब्धियों ने संचार और द्रुतगामी वाहनों के जो साधन प्रस्तुत किये हैं उनने सुविस्तृत क्षेत्र में फैली हुई दुनिया का फैलाव सिकोड़ कर रख दिया है। अब कुछ घण्टों में ही धरती के एक छोर से दूसरे छोर तक पहुंचा जा सकता है। कोई देश अपने पड़ौसियों के कारण ही नहीं—दूर देशों की आन्तरिक परिस्थितियों के कारण भी प्रभावित होता है। व्यक्ति की प्रगति और अवगति अब उसके निजी पुरुषार्थ पर निर्भर नहीं वरन् सामाजिक परिस्थितियां उसे बनने, बदलने के लिए विवश करती हैं। व्यक्ति की सत्ता समाज की मुट्ठी में केन्द्रित होती चली जा रही है। व्यक्ति पूरी तरह समाज यंत्र का पुर्जा मात्र बन गया है। इस परिस्थितियों में यदि व्यक्ति को समाजनिष्ठ बनने के लिए कहा जाय, उसे अपनी प्रगति अवगति को समाज के उत्थान-पतन के रूप में जोड़ने के लिये कहा जाय तो यह सर्वथा उचित और सामयिक है।

जो परिस्थितियां आज अनिवार्य हो गई हैं कुछ समय पहले ही उनकी सम्भावना दूरदर्शियों ने भांप ली थी और धर्म एवं अध्यात्म को अधिकाधिक समाजनिष्ठ बनाना आरम्भ कर दिया गया। अहंकार को, स्वार्थ को, परिग्रह को—घृणा-वासना को त्यागने के लिए कहने का तात्पर्य व्यक्तिवाद की कड़ी पकड़ से अपनी चेतना को मुक्त करना ही हो सकता है। सेवा, परोपकार, जन-कल्याण, दान-पुण्य, त्याग-बलिदान के आदर्श मनुष्य को समाजनिष्ठ बनाने के लिए विनिर्मित हुए हैं। व्यक्तिवाद को झीना करने और समाजवाद को परिपुष्ट करने के लिये सुविकसित अध्यात्म एक अच्छी पृष्ठभूमि तैयार करता है। उसमें संयम की, तप की, तितीक्षा की, पवित्रता की, मितव्ययिता की, शालीनता की, सज्जनता की, सन्तोष और शान्ति की वे धाराएं सम्मिलित की गई हैं जो मनुष्य को अपने लिए अपनी शक्तियों का न्यूनतम भाग खर्च करने की प्रेरणा देती हैं और तन-मन, धन का जो भाग इस नीति को अपनाने के कारण बचा रहता है उसे जन-कल्याण में खर्च करने की ओर धकेलती हैं।

ईश्वर का स्वरूप भी अब भयंकर, वरदाता, नीति-निर्देशक की क्रमिक भूमिका से आगे बढ़ते-बढ़ते इस स्थिति पर आ पहुंचा है कि हम विराट् ब्रह्म के—विश्व दर्शन के रूप में उसकी झांकी कर सकें और श्रद्धा-विश्वास जैसे उत्कृष्ट चिन्तन को भवानी शंकर की उपमा दे सकें। अग्निहोत्र की व्याख्या यदि जीवन यज्ञ के—सर्वमेध के साथ जोड़ी जाने लगी है तो यह अत्यन्त ही सामयिक परिभाषा का प्रस्तुतीकरण है। क्रिया-काण्ड को यदि भाव परिष्कार का प्रतीक संकेत कहा जाय तो वस्तुतः यह प्राचीन ईश्वर की अविकसित मनः स्थिति को आधुनिक ईश्वर की परिष्कृत चेतना ही कहा जायगा। अब प्रसाद खाकर या प्रशंसा सुनकर प्रसन्न होने वाले ईश्वर की मान्यता का स्वरूप बदल रहा है। प्रतिमाओं का दर्शन करने, नदी, तालाबों में नहाने, मन्त्रों के जपोच्चार से—चित्र-विचित्र कर्म काण्डों से अब ईश्वर के प्रसन्न होने की बात पर केवल बहुत पिछड़े लोग ही विश्वास करते हैं। विचारशील वर्ग का ईश्वर उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व के साथ एकाकार हो गया है और उसकी पूजा श्रेष्ठ व्यक्तित्व एवं समाज के लिए प्रस्तुत किये गये अनुकरणीय अनुदानों के रूप में ही मानी जानी जा रही है। ईश्वर के प्रति यह विकसित धारणा मनुष्य जाति के साथ-साथ प्रगति पथ पर बढ़ता हुआ साहसिक चरण है।

मध्ययुग ईश्वर को एक सर्वतन्त्र स्वतन्त्र रूप में दे दिया गया। ऐसा विश्वास किया जाने लगा कि ‘वह’ जिस पर चाहे प्रसन्न होकर आशीर्वाद दे तथा अप्रसन्न होकर जिसे चाहे श्राप देना ही उसका काम है। भेंट-पूजा, स्तवन आदि की वह मनुष्य से आकांक्षा करता था। यह मान्यता अब विकसित होकर स्वस्थ रूप में सामने आयी है। अब नीति पालन और परोपकार को ईश्वर की प्रसन्नता का आधार समझा जाने लगा है। ईश्वर को एक नियम एक व्यवस्था के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। इस व्यवस्था में समस्त जड़-चेतन जकड़ा है। यहां तक कि ईश्वर ने अपने को भी नियम-व्यवस्था के बन्धनों में बांध लिया है। आधुनिक मान्यता ईश्वर के प्रति यह बन चली है कि अब उसे पूजा-उपचार मात्र से नहीं वरन् सद्भाव सम्पन्न एवं सत्कर्म परायण व्यक्तित्व के आधार पर ही प्रभावित किया और पाया जा सकता है।

धर्म और ईश्वर जिस क्रम से विकास पथ पर चल रहे हैं उसे देखते हुए अगले दिनों नास्तिक और आस्तिक का झगड़ा दूर हो जायगा। धर्म और विज्ञान के बीच जो विवाद था उसका हल निकल आवेगा। साम्प्रदायिक विद्वेष को भी गुंजाइश न रहेगी। पिछले और पिछड़े सम्प्रदाय अपने-अपने ईश्वरों के अलग-अलग आदेशों को पृथक प्रथा-परम्पराओं के रूप में मानते थे और मतभेद रखने वालों को तलवार के घाट उतारते थे। अब वैसी गुंजाइश नहीं रहेगी। सद्भावना एवं सज्जनता की परिभाषाएं यों अभी भी कई तरह की जाती हैं पर उनमें इतना अधिक मतभेद नहीं है जिनका समन्वय न किया जा सके।

दुनिया अब एक धर्म, एक आचार, एक संस्कृति, एक राष्ट्र, एक भाषा के आधारों को अपनाकर एकता की ओर चल रही है। ऐसी दशा में एक सर्वमान्य ईश्वर और उसका एक सर्वसमर्थित पूजा विधान भी होना ही चाहिए। अब इस दिशा में अधिक आशाजनक स्थिति उत्पन्न होने जा रही है। लगता है धर्म और ईश्वर अब एक हो जायेंगे। पिछले दिनों ईश्वर अलग था—धर्म उसे प्रसन्न करने की प्रक्रिया थी। अब दोनों मिलकर एक हो जायेंगे। धार्मिक ही ईश्वर भक्त माना जायगा और ईश्वर भक्त को धार्मिक बनना पड़ेगा। दूसरे शब्दों में इसे अद्वैत सिद्धि कह सकते हैं। अनेकता और बहुरूपता के कारण जो मतिभ्रम और विद्वेष उत्पन्न होता है वह जब संसार के विविध क्षेत्रों में से मिटाया जा रहा है तो फिर ईश्वर और धर्म का क्षेत्र भी क्यों अछूता रहेगा। धर्म और कर्म का मर्म समझने वाले ब्रह्मपरायण व्यक्ति ईश्वर को निर्विवाद स्थिति तक पहुंचा कर ही रहेंगे।

यही बात विज्ञान के लिये भी है। उसे भी अब मात्र मनुष्य की पार्थिव इन्द्रियों की सुख सुविधा तक ही सीमित न रहकर अन्तःकरण की शान्ति को भी एक प्रबल पक्ष के रूप में स्वीकार करना चाहिए। तथा अपनी रीति-नीति ही नहीं गतिविधियां भी इस तरह निर्धारित करनी चाहिए जिसमें मूल जीवन सत्ता और उसकी अपेक्षाओं आकांक्षाओं की अवहेलना न हो यह बात विज्ञान और धर्म के पारस्परिक गठबन्धन से ही सम्भव है वही अगले दिनों होने जा रहा है।
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