क्या धर्म अफ़ीम की गोली है

धर्म की सत्ता और उसकी महान-महत्ता

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‘धृ’ धातु में ‘मन’ कृदन्त लगाकर ‘‘धर्म’’ शब्द बना है। इसका अर्थ होता है—धारण किये जाने वाला, आचरण करने योग्य! ‘‘धार्यते जनैरिति धर्म’’—मनुष्यों द्वारा जिसे धारण किया जाता है, अर्थात् मनुष्य मात्र जिसे अपने आचरण में लाए वह ही ‘धर्म’ कहलाता है। धर्म को धारण करने वाला, धर्म का अपने जीवन में आचरण करने वाला, धर्म के आधार पर अपने जीवन को जीने वाला व्यक्ति ‘‘धार्मिक’’ कहलाता है। इस दृष्टि से ‘‘धर्म’’ वह होगा जिसका आचरण करने से, जिसको धारण करने से मनुष्य जीवन सुव्यवस्थित रूप से चलता रहे व जिसके अनुसार चलने से मनुष्य अपने निर्दिष्ट लक्ष्यानुसार जीवन निर्वाह करता हुआ अपने मनुष्य जीवन को सार्थक बनावे।

भगवान् ने जब मनुष्य को बनाया तो उसकी मनुष्य मात्र से यह अपेक्षा थी कि वह अपना स्वयं का ऐसा मर्यादापूर्ण आदर्श जीवन बनाये जिससे स्वयं उसका जीवन तो सफल हो ही साथ ही जिस परिवार, जिस समाज व युग में वह है उस परिवार, समाज व युग की भी अपने कृत्यों अपने आचरणों से सुव्यवस्थित बनाए रख सके। इस दृष्टि से धर्म का लक्ष्य मनुष्य में शिवत्व का विकास करना है। स्वामी विवेकानन्द ने ‘‘राजयोग की टीका’’ नामक पुस्तक में बताया है कि धर्म का लक्ष्य मनुष्य में देवत्व या ईश्वरत्व की उपलब्धि ही है। धरती का हर मनुष्य इस तरह का आचरण करे कि उसका जीवन सुव्यवस्थित, सुनियोजित बना रहे, वह अपने कर्तव्य पथ पर चलता रहे धर्म के विपरीत आचरण व्यवहार न करे तो वह देवत्व तक पहुंच सकता है।

मनुष्य का विकास एवं अभ्युदय तो धर्म का ‘व्यष्टि’ परक तत्व है। धर्म का समष्टिपरक स्वरूप भी निर्धारित है। यदि हर मनुष्य धर्म द्वारा निर्धारित रीति से आचरण करे, अस्तेय, अपरिग्रह, अहिंसा जैसे सद्गुणों को अपने जीवन में अंगीकृत करले तो मनुष्य का यह ‘व्यष्टि परक’ गुण ही ‘समष्टि परक’ हो जाता है। जब सब मनुष्य धर्मानुकूल आचरण करने लगेंगे तो फिर कहीं कोई धर्म विपरीत आचरण न होने से ‘यही धर्म’ समष्टिपरक बन जावेगा। इसी लिए तो हमारे ऋषि मुनियों की यह मान्यता रही है कि यदि व्यक्ति सुधर जाय तो समाज भी बदल जाये। व्यक्ति से ही समाज बनता है—व्यष्टि से ही समष्टि बनती है—अतः यदि हर व्यक्ति अपने आपको धर्मनिष्ठ बनाले तो पूरा समाज व युग भी धर्मनिष्ठ बन ही जावेगा। यही धर्म का लक्ष्य भी है—व्यष्टि रूप में मनुष्य देवतुल्य बने व समष्टि रूप में यह धरती ही स्वर्ग बने।

इस दृष्टि से शायद स्वयं ‘धर्म’ को भी लोक या प्रजा की रक्षा करने वाला माना गया है। ‘‘धियते लोकोप्रजाः वा अनेन अथवा धरति लोकं प्रजाः वा इति धर्म’’ जो लोक अथवा प्रजा को धारण करता है अर्थात् लोक या प्रजा की स्थिति की रक्षा करने वाला तत्व है वह ‘धर्म’ है। धर्म के इस तरह दो रूप हैं। प्रथम यह कि धर्म मनुष्य को करने—आचरण करने—व्यवहार में लाने का तत्व है यह धर्म का ‘‘मानवाचार’’ का रूप है। धर्म का दूसरा रूप है ‘‘सामाजिक’’। अपने दूसरे रूप में धर्म सामाजिक स्थिति का आधार बनता है। व्यष्टि रूप में यदि धर्म को मानव मात्र ने अंगीकृत किया व अपना व्यक्तिगत जीवन धर्मानुरूप बनाया तो समष्टि रूप में यही धर्माचरण ऐसी सामाजिक स्थिति का निर्माण करता है कि जिससे मनुष्य का सामाजिक सांस्कृतिक स्वरूप व्यवस्थित बना रहता है वह पूरा समाज ही ऐसा बन जाता है जहां ‘‘एक के लिए सब व सबके लिए एक’’ का भाव व्याप्त रहता है। धर्म के इसी स्वरूप को राजनैतिक व आर्थिक क्षेत्र में ‘‘समता’’ ‘‘समानता’’ ‘‘समाजवाद’’ के नाम से सुना जाता है। किसी समय विशेष व समाज विशेष में धर्म की मान्यताएं—मर्यादाएं नैतिक मूल्य निर्धारित हो जाने पर यदि उस समाज के सभी घटक ‘धर्म’ का पालन करने लगेंगे तो फिर ‘धर्म’ पूरे समाज की रक्षा भी करेगा ही क्योंकि समाज के किसी एक अंग पर विपत्ति आ पड़ने पर दूसरे घटक इसकी विपत्ति को दूर करना अपना ‘धर्म’ ही मानते हैं। इसी तरह समाज के कमजोर वर्ग को समुन्नत करने विकसित करने के लिए विकसित वर्ग के प्रयास ‘धर्म’ ‘कर्तव्य’ मानकर ही किए जाते हैं। समाज या राष्ट्र पर या इसके किसी वर्ग पर कोई प्राकृतिक प्रकोप आ जाने पर दूसरे वर्ग के लोग अपनी धार्मिक भावना के वशीभूत होकर ही तो कर्तव्य प्रेरित होते हैं कि अपने समाज के अन्य भाइयों के कष्ट निवारणार्थ कुछ त्याग करें। इसी दृष्टि से धर्म का यह स्वरूप सर्वमान्य है कि धर्म प्रजा की व समाज की रक्षा करता है।

धर्म के इन दो तत्वों—मानवाचारण एवं समाज रक्षण को दृष्टि में रखते हुए ही धर्म की धारणा निश्चित रहती है। धारणा से अर्थ वह व्यवहार-जीवन पद्धति, मर्यादा आचार संहिता है जो ‘‘धर्म’’ स्वरूप मानी जावे तथा तदनुरूप ही इसका आचरण मनुष्य मात्र करे। इस दृष्टि से धर्म के प्रति समाज की जो ‘धारणा’ निश्चित हो वह ऐसी हो जो व्यक्तित्व परिष्कार, व्यक्ति कल्याण के साथ ही सामाजिक परिप्रेक्ष्य में भी अनुकूल हो। यहां ‘धर्म’ का अर्थ अपने जीवन निर्वाह के उद्देश्य से किया जाने वाला किसी प्रकार का श्रम ‘धर्म’ नहीं माना जा सकता। दस्यु जीवन बिताने वाले वाल्मीकि अपने परिवार के सदस्यों का पालन करने के लिए लूटपाट करने को ही ‘धर्म’ समझते थे। एक बार उन्होंने धन के लालच में सप्तऋषियों को पकड़ लिया। सप्तऋषियों ने पूछा ‘‘भाई असहाय लोगों को इस तरह मारना, लूटना तो पाप है, तुम यह सब क्यों करते हो’’ इस पर बाल्मीकि ने उत्तर दिया, ‘‘यह तो मेरी जीविका है अपने वृद्ध माता-पिता, पत्नी व सन्तान का पालन पोषण करना है, मैं इनके प्रति अपने कर्तव्य निर्वाह हेतु ही इस कार्य को करता हूं, यह तो मेरा धर्म है, जो मुझे करना ही पड़ता है। भला अपने पर आश्रित लोगों का पालन पोषण करना क्या पाप है’’ इस पर सप्त ऋषियों ने समझाया, ‘‘अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए दूसरों के हितों का हनन करना, अपना पेट भरने के लिए दूसरों को भूखों मारना, तड़पाना, अपनी पारिवारिक सुख समृद्धि के लिए दूसरे परिवारों को कष्ट व असुविधा में डालना, बिना श्रम किए दूसरों का श्रमार्जित धन-छीनकर उसका उपभोग करना धर्म नहीं माना जा सकता।’’

वाल्मीकि को बात समझ में आई वे सोचने लगे यह तो ठीक है कि वे मनुष्यों को मारकर उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने आश्रितों का पेट भर रहे हैं, परन्तु इससे दूसरों का उत्पीड़न होता है। कोई भी ऐसा कार्य जिससे दूसरों को पीड़ा हो, दूसरे के प्रति अन्याय हो, ‘धर्म’ नहीं माना जा सकता।इस प्रकार की अनुभूति ने वाल्मीकि को दस्यु से महर्षि बना दिया। ‘‘धर्म’’ का तत्व जब उनके जीवन में प्रविष्ट हुआ तो स्वयं उनका व्यक्तिगत परिष्कार तो हुआ ही समाज की भी रक्षा हुई कि जो वाल्मीकि दस्यु के रूप में समाज का उत्पीड़न करते थे वे ही ‘धर्म’ का साक्षात्कार कर ‘धर्म’ को अंगीकृत कर करोड़ों मनुष्यों के मार्गदर्शक बन गए।

धर्म के विषय में ऐसी ही भ्रान्त धारणा अर्जुन को भी थी। अर्जुन ने तो यहां तक कह दिया था कि यदि वह युद्ध में अपने मामा चाचा, श्वसुर, गुरु, गुरु भाई को मारेगा तो उसका आचरण धर्म विपरीत हो जायेगा। अर्जुन की ‘धर्म’ के प्रति यह धारणा उसके मोह का परिणाम था परन्तु श्री कृष्ण ने उसके धर्म के प्रति इस धारणा को अनुपयुक्त बताते हुए धर्म का सही स्वरूप बताया तथा उस समय की परिस्थिति में युद्ध करने को ही ‘धर्म’ निरूपित किया। हर मनुष्य अर्जुन की तरह ही सत् और असत् वृत्तियों में से किसी एक का वरण करने के लिए प्रायः किंकर्त्तव्य विमूढ़ ही रहता है। मनुष्य की असद् वृत्तियां बलवती होती हैं वे मनुष्य को असत् कार्य करने के लिए लालायित व आकृष्ट करती रहती हैं, परन्तु भगवान् कृष्ण रूपी विवेक से हम सत्-असत् उचित-अनुचित का निर्धारण कर धर्म तत्व का निर्धारण कर धर्ममान्य सद्वृत्ति को ही स्वीकार करते हैं। भगवान् कृष्ण का ‘यदा यदाहि धर्मस्य.....’ का वचन भी यही संकेत देता है कि अर्जुन की तरह जब मनुष्य सत्-असत् का निर्णय नहीं कर पाता मोहवश अधर्म को ही ‘धर्म’ मान बैठता है, भ्रमवश अनुचित को ही उचित समझने लगता है तो फिर उसका यह कार्य ‘धर्म’ की परिधि में नहीं रहता उसका कार्य न तो उसके अभ्युदय कल्याण में ही सहायक होता, और न उसके कार्यों उसके चिन्तन से सामाजिक व्यवस्था ही सुरक्षित रहती है, अर्थात् उस समय धर्म के प्रति मनुष्य की धारणा-विचारणा गलत हो जाने से ‘धर्म’ से होने वाले लाभ नहीं होते व इस तरह धर्म के प्रति विषाक्त धारणा बनाकर जो आचरण किया जाता है वह भी ‘श्रेय’ न होकर ‘प्रेय’ ही अधिक रहता है। अतः धर्म की यह एक प्रकार से क्षति ही हुई ऐसे में श्रीकृष्ण ने अपने अवतार लेने की घोषणा कर धर्म संस्थापनार्थ के रूप में यही बात कही है कि जब-जब ऐसी स्थिति होती है तब-तब मनुष्य यदि अपने विवेक का उपयोग करे, अपनी ऋतम्भरा प्रज्ञा का उपयोग कर उचित-अनुचित का निर्धारण करे तो धर्म की तथा धर्म को ध्येय मानकर किये जाने वाली आचरण की उपयोगिता व्यक्ति परिष्कार व समाज व्यवस्था की बनी रहेगी।

धर्म, मानव समाज और संस्कृति का मूलाधार है। इसी आधार-भूत तत्व के अनुसार संसार का ‘शुभ’ व ‘कल्याण’ टिका हुआ है। विश्व का कल्याण व मानव मात्र का ‘शुभ’ ‘धर्म’ वेष्ठित आचरणों में ही निहित है। अपने इस सार्वभौम स्वरूप के कारण पूरे विश्व का ‘धर्म’ तो एक ही है जिसे विश्वधर्म-मानव धर्म कुछ भी संज्ञा दी जा सकती है। सामान्यतया धर्म के इस सार्वभौम स्वरूप की असीमता को नासमझ मनुष्यों ने ‘धर्म’ की अनेकों सम्प्रदायों, जातियों, वर्गों द्वारा पालन की जाने वाली उपासना पद्धति, पूजा पद्धति, कर्मकाण्डों के प्रकार आदि की विविधता के कारण—इन सम्प्रदायों को ही धर्म मान लिया है। वास्तव में ‘धर्म’ तो एक ही है। ‘धर्म’ के लक्ष्यों तक पहुंचने के लिए जो अलग-अलग पद्धतियां प्रचलित हैं वे ‘धर्म’ नहीं वरन् सम्प्रदाय हैं। धर्म मानो महासागर है और सम्प्रदाय नदियां हैं जो विभिन्न स्थानों और दिशाओं से आकर इस महासागर में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से विलीन हो जाती हैं। यदि इन नदियों को ही भ्रमवश कोई सागर समझले व अपने सागर की महत्ता का ही ढिंढोरा पीटने लगे तो पीटने पर नदी सागर तो बन नहीं सकती। धर्म का तो एक ही लक्ष्य है—‘सत्य’ ‘शिव’ ‘सुन्दर’ अर्थात् ऐसे आचरण जो सत्य हों, शुभ हों, कल्याणकारक हों तथा सुन्दर हों। धर्म के इस लक्ष्य की उपलब्धि के लिए विभिन्न मार्ग—पूजा, उपासना, अनुष्ठान आदि की व्यवस्था विभिन्न सम्प्रदायों में प्रचलित रहती हैं। इनमें से किसी सम्प्रदाय में कोई पद्धति विशेष अधिक प्रभावशाली प्रतीत होती है किसी में कम। इसी से हम इन पद्धतियों के प्रभावी होने न होने को यह मान लेते हैं मानो अमुक धर्म अमुक से श्रेष्ठ अथवा निम्नतर है। वास्तव में धर्म तो अपने स्थान पर स्थिर, अटल, शाश्वत है उस तक पहुंचने के मार्ग अपेक्षाकृत सुविधाजनक अथवा कष्टप्रद हो सकते हैं, परन्तु उनके कारण ‘धर्म’ प्रभावित नहीं होता।

धर्म के प्रति एक भ्रान्ति इसके अंग्रेजी के अनुवाद ने उत्पन्न करदी, अंग्रेजी में धर्म को ‘‘रिलीजन’’ कहा गया, वास्तव में शब्द रिलीजन से जो ध्वनि निकलती है उससे संकीर्णता का आभास होता है। ‘धर्म’ जब से ‘‘रिलीजन’’ माना जाने लगा तो इसका अर्थ यही लगाया जाने लगा कि यह एक विशेष प्रकार की पूजा-आराधना पद्धति में आस्था-विश्वास रखने वाला तथा एक विशेष प्रकार के मार्ग पर यन्त्रवत् चलने वाला सम्प्रदाय विशेष है। विद्वान बैबूर ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दुइज्म एट ए ग्लान्स’ में लिखा है, ‘‘रिलीजन शब्द का अर्थ यह विश्वास और पूजा विधि है। किसी समुदाय विशेष के सिद्धान्तों में विश्वास करना तथा उस सम्प्रदाय द्वारा निर्दिष्ट कुछ विशेष पूजा अनुष्ठान आदि का पालन करना ही पश्चिम की दृष्टि में धार्मिक कहे जाने वाले व्यक्ति के लिए पर्याप्त है।’’ शब्द रिलीजन से एक ऐसे संकुचित व अपूर्ण भाव का बोध होता है कि उससे ‘धर्म’ तत्व समाहित नहीं होता। धर्म का अनिवार्य तत्व उसकी उदारता, महानता, सार्वभौम सत्ता में निहित है। जबकि ‘रिलीजन’ में इस तरह के भाव प्रकट नहीं होते।

धर्म एक अपरिवर्तनशील शाश्वत सत्ता है। धर्म सार्वभौम शक्ति है। जिसका लक्ष्य ही, ‘‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया’’ है। धर्म की एक ऐसी सत्ता है जिसकी शक्ति व सीमाएं असीम हैं। वह राजसत्ता से कई गुना अधिक व्यापक व शक्तिमान है। अपने छोटे से भौगोलिक क्षेत्र में निश्चित परिधि में ही राजसत्ता काम करती है परन्तु धर्म सत्ता का कार्य क्षेत्र समूचा विश्व है व इसकी शक्ति अपरिमेय है। विश्व का हर मानव इस धर्म सत्ता की प्रजा है व हर मानव स्वयं ही शासक भी है। धर्म सत्ता का कार्यक्षेत्र न केवल मानव मात्र स्थूल शरीर तक ही है वरन् उसके मन, चिन्तन, स्वभाव, गुण व उसकी आत्मा तक विस्तृत है। यदि हर मनुष्य इस सत्ता के आधीन अपने को सम्बद्ध करले, इस सत्ता के अनुशासन में रहे, अपना गुण, कर्म स्वभाव बना लें तो वह स्वयं सत्तामय हो जाय।

धर्म धारणा से यथार्थ बोध—

धर्म किन्हीं विशेष अभिरुचि के या फालतू समय वालों के मन बहलाव का माध्यम है अथवा उसका कोई सार्वजनिक उपयोग भी है। इस प्रश्न के उत्तर में हमें धर्म का स्वरूप और उद्देश्य समझने का प्रयत्न करना होगा और यह जानना होगा कि क्या तथाकथित धर्माध्यक्षों द्वारा अपने-अपने ढंग से किया गया बहुमुखी प्रतिपादन ही धर्म है अथवा उसके पीछे व्यक्ति और समाज की उपयोगी मार्गदर्शन की तथ्यपूर्ण क्षमता भी है।

सर जूलियन हेस्कले ने अपने ग्रन्थ ‘रिलीजन विदाउट रिविलेशन’ में धर्म सम्प्रदायों के सम्मिलित सत्य और असत्य की समीक्षा करते हुए लिखा है सत्य, ज्ञान और सौन्दर्य के अभिव्यक्तियों से जो धर्म जितना पिछड़ा हुआ है उसे उतना ही झूठा और नीचा समझा जाना चाहिए। सालोमन रीनाइक की यह उक्ति एक खीज भर है, जिसमें उन्होंने धर्म पर ‘‘मानवी क्षमताओं पर रोक लगाने’’ का आक्षेप किया है। वस्तुतः वैसा है नहीं। धर्म की मूल आत्मा न्याय, कर्त्तव्य एवं औचित्य का समर्थन करती है। प्रथा परम्पराएं तो धर्म के आवरण मात्र हैं। जिन्हें समय-समय पर बदले जाने की आवश्यकता पड़ती है।

देशभक्ति ही सब कुछ नहीं है। विश्व भक्ति उससे भी ऊपर है। समाज का कितना ही महत्व क्यों न हो, बहुमत की मान्यताओं के समर्थन में कुछ भी क्यों न कहा जाता रहे, अन्ततः विवेक ही सबसे ऊपर है। उसे देश भक्ति से भी ऊंचा स्थान मिलना चाहिए। बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय के आधार पर विधान कुछ भी क्यों न बनते रहें, उच्च आदर्शों का स्थान सबसे ऊंचा है, भले ही उनके समर्थन में नीति निष्ट व्यक्तियों की थोड़ी-सी ही संख्या क्यों न हो?

धर्म दुधारी तलवार है। यदि वह अपरिपक्व दर्शन और संकीर्ण साम्प्रदायिकता का समर्थन भर करता है तो वह हानिकारक है। किन्तु यदि उसमें नीति निष्ठा का समुचित समावेश है तो उसके द्वारा मनुष्य और समाज का हित साधन ही होगा।

विज्ञान और धर्म के शोध विषय पृथक हैं। एक पदार्थ की गहराई को खोजता है। दूसरा चेतना के मर्म स्थल को। इतने पर भी दोनों का मूल प्रयोजन एक है—सत्य की शोध। इसके लिए आवश्यक है कि मस्तिष्क को किन्हीं पूर्वाग्रहों से जकड़ कर न रखा जाय। पिछले लोग क्या सोचते क्या कहते और क्या करते रहे हैं इसकी जानकारी उत्तम है, उसके सहारे तथ्यों तक पहुंचना पड़ता है, पर यह मानकर नहीं चला जा सकता कि जो जाना या माना गया है उसमें संशोधन या सुधार की गुंजाइश नहीं है। तथ्यों को स्वीकार करने की शोध दृष्टि में यह साहस रहता है कि यदि प्रचलित स्वीकृतियों से भिन्न प्रकार के तथ्य सामने आते हैं तो उनके स्वीकार करने में इसलिए असमंजस न करना पड़ेगा कि अब तक के चिन्तन को झुठलाना पड़ेगा।

तर्कहीन मनःस्थिति का नाम धार्मिकता नहीं है। आंखें बन्द करके किसी के भी वचन को गले नहीं उतारना चाहिए। अपने लोग कहते हैं या पराये—बात संस्कृत या अरबी भाषा में कही गई है अथवा बोलचाल की भाषा में, इससे कुछ बनता बिगड़ता नहीं। स्वीकार करने योग्य वही है जिनमें तथ्य जुड़े हुए हों और जिसे विवेक की कसौटी पर खरा सिद्ध किया जा सके। बिना खोज परख के जो धर्म के नाम पर किसी मान्यता या प्रथा को स्वीकार करले वह स्वस्थ दृष्टि नहीं है। धार्मिक मन सत्य का उपासक होता है उसे औचित्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं चाहिए। भले ही इसके लिए उन्हें पूर्वजों की अथवा उपदेशकों, ग्रन्थों अथवा साथियों की ही अवहेलना क्यों न करनी पड़े।

जीवन का अर्थ है संघर्ष, परिस्थितियों का आरोह, अवरोह, जिसे परिवर्तन भी कहा जा सकता है। अर्थात् परिवर्तन ही जीवन है और जीवन ही परिवर्तन। जीवन में दैत्यता, कुटिलता के आकस्मिक एवं अप्रत्याशित आक्रमणों को सहन करना अस्वाभाविक नहीं। परेशानियों, कष्टों और आपदाओं की आंधी आती है तो मानव शक्ति को कुण्ठित कर देती है फलस्वरूप बुद्धि निष्क्रिय हो जाती है, नैराश्य पूर्ण मानसिकता मनुष्य को किंकर्तव्य विमूढ़ बना देती है, ऐसी विषम परिस्थिति में, असहाय, निरुपाय व्यक्ति वह चिन्तन करता है कि हमारा सहायक कौन हो सकता है? हमारी रक्षा कौन कर सकता है? हमारा उद्धार कौन कर सकता है? साथ ही सत्पथ ज्ञान कौन करा सकता है? उत्तर एक ही है—धर्म। सुख शान्ति की परिस्थितियों का जनक भी धर्म है। कहना न होगा कि जिस दिन इस जगत से धर्म की समाप्ति हो जायगी उस दिन सर्वनाश को कोई न रोक सकेगा। पाश्चात्य मनीषी थामसन अपनी समष्टि दृष्टि से धर्म को परिभाषित करते हुये कहता है कि ‘‘सम्पूर्ण विश्व मेरा देश है सम्पूर्ण मानवता मेरा बंधु है और सम्पूर्ण भलाई मेरा धर्म है।’’

वर्तमान युग में धर्म के प्रति लोगों की अनास्था बढ़ रही है जिसका परिणाम यह हो रहा है कि नैतिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों, मान्यताओं में भी अवमूल्यन निरन्तर होता जा रहा है। अधर्माचरण के कारण मनुष्य की सुख-शान्ति भंग होती जा रही है, सर्वत्र असन्तोष का वातावरण व्याप्त है।

चतुर्दिक् भटकने के उपरान्त, दृष्टि में एक ही उपाय परित्राण में सहायक सिद्ध हो सकता है—‘धर्म’। वेद, उपनिषद्, स्मृति, पुराण आदि धर्मशास्त्रों में इसी तत्व का निरूपण हुआ है। धर्म प्रधान युग अर्थात् सत्प्रवृत्तियों की बहुलता वाला युग ‘सतयुग’ कहलाता है, सतयुग में सुख और सम्पन्नता का आधार धर्म होता है।

भगवान् राम जब वन-गमन के लिए तत्पर हुए तो जीवन रक्षा की कामना से उन्होंने माता कौशिल्या से आशीर्वाद की आकांक्षा व्यक्त की। विदुषी माता ने उस समय यह कहा कि—‘हे राम! तुमने जिस धर्म की प्रीति और नियम का पालन किया है, जिसके अनुसरण से तुम बन जाने को तत्पर हुए हो, वही धर्म तुम्हारी रक्षा करेगा।’ जो व्यक्ति धर्म का पालक पोषक होता है वही सच्चा धर्मात्मा कहलाने का अधिकारी है। धर्म-निष्ठ व्यक्ति के अन्तःकरण में वह शक्ति होती है जो असंख्य विघ्न-बाधाओं, प्रतिगामी शक्तियों को पराजित कर देती है। धार्मिक मनुष्य के जीवन में एक विशेष प्रकार का विलक्षण आह्लाद भरा रहता है, वह सर्वत्र सौरभ बिखेरता चलता है, उसकी उमंग एवं उल्लास से आस-पास का वातावरण भी प्रभावित होता है। धर्म की प्राणवत्ता निर्जीव को भी सजीव बनाने में समर्थ होती है। ‘जीवट’ सच्चे धार्मिक का प्रधान लक्षण होता है। वस्तुतः धर्म मनुष्य का वह अग्नि तेज है जो प्रकाश उत्पन्न करता है, उसमें क्रियाशीलता एवं जिजीविषा जागृत रखता है। धर्मशील व्यक्ति विभिन्न विपदाओं, विघ्न−बाधाओं में भी हिमालय के समान अटल एवं समुद्र के सदृश धीर गम्भीर रहता है। संक्षेप में कहा जाय तो धर्म जीवन का प्राण और मानवीय गरिमा का पर्याय है उससे ही मानव जाति की सुख-शांति और व्यवस्था अक्षुण्ण रह सकती है।

धर्म एक अपरिवर्तन शील शाश्वत सत्ता है। यह एक सार्वभौम शक्ति है जिसका लक्ष्य ही सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया है। धर्म एक ऐसी सत्ता है जिसकी शक्ति एवं सीमाएं असीम हैं वह राजसत्ता से कई गुना अधिक व्यापक व शक्तिमान है। राज सत्ता तो अपने छोटे से भौगोलिक क्षेत्र में निश्चित परिधि में ही कार्य करती है। धर्म सत्ता का कार्य क्षेत्र समूचा विश्व है। विश्व का हर मानव उस सत्ता की प्रजा है व हर मानव स्वयं शासक भी है। धर्म सत्ता का कार्य क्षेत्र न केवल मानव के स्थूल शरीर तक सीमित है वरन् उसके मन, चिन्तन, स्वभाव, गुण एवं उसकी आत्मा तक विस्तृत है। यदि हर मनुष्य इस सत्ता के अधीन अपने को सम्बद्ध करले, इस सत्ता के अनुशासन में रह अपना गुण, कर्म, स्वभाव बना ले तो वह सत्तामय हो जाय।
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