क्या धर्म अफ़ीम की गोली है

विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय निश्चित

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विज्ञान में प्रौढ़ता और परिपक्वता आई है अस्तु शोधों ने नये आधार दिये हैं। अब ईश्वर को न मानने का आग्रह पुराने जमाने की बात हो गई नवीनतम समस्या यह है कि कहीं पदार्थ की सत्ता ही तो समाप्त होने नहीं जा रही है। विज्ञान पदार्थ के गुण और स्वरूप का निर्धारण करता है, पर जब पदार्थ की सत्ता का ही लोप हो जायगा तो फिर विज्ञान का अस्तित्व किस पर निर्भर रहेगा? मूर्धन्य वैज्ञानिक आज सोच रहे हैं कि भौतिकी का सारा ढांचा जो आंखों के सामने खड़ा है कहीं जादुई महल तो नहीं है। आधुनिक भौतिकी के अनुसंधानों ने अध्यात्म की उन अनन्त सम्भावनाओं के समर्थन की ही दिशा प्रशस्त की है, जिन्हें उन्नीसवीं शताब्दी से बीसवीं के पूर्वार्द्ध तक स्वप्निल कुहेलिका मात्र माना जाता था। ‘पदार्थ’ की सत्ता की खोज ने ‘परमाणु’ तक पहुंचाया और परमाणु की खोज बढ़ते-बढ़ते यह तथ्य प्रकाश में आया कि ये विद्युत तरंगों के संघात मात्र ही हैं और अब, अधुनातन अनुसंधानों द्वारा यही स्पष्ट होता है कि ये विद्युत-तरंगें भी अज्ञात तरंग समूहों का ही एक अंश मात्र हैं। इस तरह भौतिकी आज अज्ञात अनन्त तरंग-संघातों के तथ्य तक पहुंचकर अद्वैत वेदान्त की स्थापनाओं के अति निकट आ गई है। आधुनिक भौतिकीविद् इस स्थान पर आकर विस्मय और रहस्य से भर उठे हैं तथा उनमें जिज्ञासा और अन्वेषण का संकल्प और अधिक प्रखर हो गया है। क्योंकि वे स्पष्ट देख रहे हैं कि पदार्थ की मूल सत्ता के अन्वेषण क्रम में जिन अज्ञात तरंग संघातों की जानकारी तक वे आ पहुंचे हैं, वे तरंगें भी अपने मूल रूप में क्या हैं, यह जान सकना बहुत ही कठिन हो गया है, क्योंकि ये तरंग-समूह वस्तुतः मूल सत्ता नहीं कहीं जा सकतीं। अपितु इलेक्ट्रानिक कार्यविधि की हमारी जो जानकारी है, उसी की मानो यह मानसिक संरचना है।

इस तरह वस्तुपरक विश्व तो मनस और आत्मा के क्षेत्र में समाहित एवं विलुप्त होता जा रहा है। आज यदि किसी भौतिकीविद् से पूछा जाय कि यह जगत क्या है, तो वह यही उत्तर देगा कि हम अब तक ऊर्जा और ‘‘इलेक्ट्रानिक क्रियाविधि’’ की जो भी जानकारी प्राप्त कर सके हैं, उसी की कल्पना-सीमा में बांधने पर हम भले ही विश्व की मूल सत्ता को कुछ तरंग-समूहों का नाम देदें, पर सच बात तो यह है कि यह दुनिया ऐसी अज्ञात और अकथनीय तरंगों का संघात मात्र है, जिनके बारे में हम जो कुछ भी जानते हैं वही कह सकते हैं, पर इस निवेदन के साथ कि मूल स्वरूप उसका क्या है, यह हमें स्वयं ज्ञात नहीं। अर्थात् ‘कहत कठिन समुझत कठिन।’

इस प्रकार विज्ञान भी आज अध्यात्म की ही तरह विनम्र है और अपनी सीमाओं की घोषणा कर रहा है। बालबुद्धि का शोर अब थम गया है। यों विज्ञान दुराग्रही कभी भी नहीं रहा। उसकी नास्तिकता अपनी स्थिति का विवरण-प्रतिवेदन मात्र थी, कोई निश्चित निष्कर्ष नहीं उसने सृष्टि की चैतन्य सत्ता के अस्तित्व की सम्भावना को अस्वीकार कभी भी नहीं किया था। वह तो अपने प्रतिपाद्य विषय के निष्कर्षों को प्रस्तुत कर देता रहा है। उसका प्रतिपाद्य विषय इन्द्रिय बोध के आधार पर सूक्ष्मदर्शी उपकरणों की सहायता से वस्तु सत्ता का विश्लेषण-विवेचन और निष्कर्ष-संग्रह रहा है। इस प्रक्रिया में वह ‘मैटर’ को ही अपना अनुसन्धान-क्षेत्र बनाये रहा है। ‘मैटर’ की मूलभूत सत्ता का विवेचन वह निष्ठा और श्रम के साथ करता रहा है। किन्तु अब इस ‘मैटर’ की मूलभूत सत्ता ही संदिग्ध और अनिश्चित हो गयी है।

भौतिकी वैज्ञानिकों की मान्यता है कि शीशे और कांसे से अधिक भारी परमाणु स्थायी नहीं है। वे टूट जाते हैं। रेडियो-सक्रिय द्रव्य से जब विकिरण निष्क्रमित हो जाता है, तो उनकी रेडियो-सक्रियता की शक्ति में कुछ कमी पायी जाती है। यह क्षरण की प्रक्रिया है। इस प्रकार एक परमाणु विसंगठित तथा विसर्जित हो सकता है। परमाणु सम्पूर्णतः स्थायी वस्तु नहीं है, इसके विपरीत वे परिवर्तनशील हैं, उत्पन्न होते तथा नष्ट होते रहते हैं। इस प्रकार ‘मैटर’ की कोई मूलभूत सत्ता इस रूप में नहीं है। उसका भी जन्म-मरण होता रहता है। द्रव्य की सक्रियता का अर्थ है क्रमशः क्षीण होते जाना और अन्त में समाप्त हो जाना। इसलिये वैज्ञानिक अब यह मानते हैं कि द्रव्यमय जगत का ह्रास एवं विनाश अनिवार्य है। भौतिकीविदों ने खोज की है कि प्रकृति के क्रिया कलापों में प्रत्येक अपव्यय का लेखा-जोखा रहता है। इस प्रकार सन्तुलन क्रमशः कम हो रहा है। एक दिन यह पूरी तरह गड़बड़ा जायेगा और सृष्टि का वर्तमान स्वरूप विघटित हो जायगा।

एक सामान्य व्यक्ति के लिये यह संसार रूप, रंग, ध्वनि, ताप आदि का समन्वित स्वरूप है। किन्तु एक आधुनिक वैज्ञानिक की दृष्टि में यह सृष्टि रंग रहित, गन्ध रहित, ध्वनि रहित है। उसकी दृष्टि में प्रकृति में वस्तुतः द्रव्य है ही नहीं। वह सिर्फ दिक्-काल का और विद्युत प्रवाहों का ऐसा विस्तार है, जिन्हें सम्भावनाओं की अज्ञात तरंगों के द्वारा ही वर्णित किया जा सकता है। अर्थात् ऐसी तरंगों का खेल है यह संसार, जिनमें अनन्त सम्भावनायें विद्यमान हैं और जिनका मूल स्वरूप अज्ञात है। यह ठोस दिखने वाला विश्व जब भली भांति विश्लेषित किया जाता है तो एक ऐसे रहस्यमय परिमाण (क्वान्टिटी) का रूप ले लेता है, जिसका वर्णन असम्भव है, कुछ गणितीय प्रतीकों द्वारा जिसका संकेत मात्र किया जा सकता है। इस प्रकार इस भौतिक विश्व का पूरा ढांचा, नाना रूपों नाना वेशों वाले नक्षत्र मालाओं, पर्वत श्रृंखलाओं, नर-नारियों, पशु-पक्षियों, प्राणियों और वस्तुओं से भरपूर, ध्वनियों और रंगों, ताप और गंध से भरपूर यह पूरे का पूरा ढांचा अन्तिम वैज्ञानिक विश्लेषण में मात्र विद्युत प्रवाहों अथवा असीम शून्य आकाश याकि अनन्त सम्भावनाओं से भरी तरंगों का समुच्चय मात्र रह जाता है। ‘मैटर’ रह ही नहीं जाता। ठोस दिखने वाला यह संसार वाष्प की तरह उड़कर अदृश्य हो जाता है और वस्तुएं विलीन हो जाती हैं, बहुत्व की ओर बढ़ता-सा दिख रहा विभिन्न रूपों, तथा नामों में अभिव्यक्ति हो रहा यह ब्रह्माण्ड एक ही अति सूक्ष्म मूल सत्ता में, शक्ति के उस मूल रूप में समाहित हो जाता है, जहां से कि उसका उद्गम होता है।

‘द यूनिवर्स एण्ड डा. आइन्स्टाइन’ के लेखक बर्टन लिखते हैं—‘‘जिसे वैज्ञानिक तथा दार्शनिक आभास मय जगत कहते हैं, वह संसार है, जो कि मरणधर्मा मनुष्य अपनी प्रकृति के अनुरूप अनुभव करता है। जिसे ये वैज्ञानिक दार्शनिक यथार्थ जगत कहते हैं—वह रंग रहित, ध्वनि रहित, अव्याख्येय, ‘कास्मास’ है। मनुष्य के प्रक्षेपण के तल में यथार्थ जगत प्रतीकों का एक कंकाल-ढांचा मात्र है।’’

‘गाइड टू फिलासफी’ नामक पुस्तक में श्री जोड ने भी ऐसा ही कुछ कहा है—‘‘मैटर दिक् तथा काल में विस्तृत एक रस्सी की ऐंठन की तरह है। वह एक इलेक्ट्रानी कुकुरमुत्ता है। अनन्त सम्भावनाओं की एक ऐसी तरंग है, जो कुछ नहीं जैसा है। ऐसी विद्युतधाराओं का समूह है, जो किसी भी ‘वस्तु’ में प्रवाहित नहीं होती। दिक्काल में घर रही घटनाओं की एक व्यवस्था है, जिसकी विशेषताएं मात्र गणितीय ढंग से संकेतित की जा सकती हैं।’’

एडिंगटन महाशय भी कहते हैं—‘‘मैटर’’ का सारभूत अंश पिघलकर छायावत् बन गया है, बह गया है। वह एक अज्ञात परिमाण मात्र रह गया है, जिसके लिए गणितीय संकेत ‘क्ष’ का प्रयोग किया जा सकता है।

तब क्या आकर्षक रंगों की, सम्मोहक सौन्दर्य की, चित्ताकर्षक ध्वनियों और लुभावने संगीत की, पृथ्वी पर फैलने वाले प्रकाश की, जीवन उत्पन्न करने वाली ऊष्मा की कोई सत्ता नहीं है? आधुनिक वैज्ञानिकों का निष्कर्ष है कि उनकी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है, उनका कोई यथार्थ स्वरूप नहीं है। वे तरंगों और गतियों के विभिन्न समूह मात्र हैं। ऊष्मा क्या है? अणुओं का कम्पन मात्र। ध्वनि क्या है—वातावरण की तरंगों का संघात। और प्रकाश तथा वर्ण? ‘‘इलेक्ट्रोमैग्नेटिक स्पैक्ट्रम’’ में विभिन्न ‘फ्रीक्वेन्सीज’ की ‘वेवलेंथ’ के अलग-अलग ‘सेट’ मात्र हैं। प्रत्येक रंग प्रकाश खण्ड में कुछ निश्चित ‘फ्रीक्वेन्सी’ तथा ‘वेवलेंथ’ की तरंगों का परिणाम है। वस्तुतः हैं मात्र ये तरंगें। जो रंग हम देखते हैं, वह हमारा ‘आत्मपरक सृजन’ है एडिंगटन कहते हैं—‘‘तरंग है यथार्थ और रंग जो हम देखते हैं, हमारी दिमागी बुनावट है।’’ इस प्रकार जिसे हम वस्तु-सत्य कहते हैं, वह असल में हमारा ‘‘आत्मपरक सृजन’’ है। इस प्रकार विज्ञान अध्यात्म के ही निष्कर्षों तक आ पहुंचा। दोनों की आधार-भूमि एक हो चली।

भारतीय मनीषी सृष्टि के इस मूल स्वरूप से हजारों वर्ष पूर्व से परिचित रहे हैं। वेदान्त की सृष्टि-व्याख्याएं आज भौतिकी के अनुसन्धानों द्वारा भी प्रमाणित पुष्ट हो रही हैं। अगले दिनों विज्ञान के बढ़ते चरण निश्चित रूप से उस स्थान पर पहुंचेंगे, जहां प्रकृति और पुरुष का मिलन होता है। जड़-पदार्थ और चेतन जीवन में बहुत समय से अन्तर माना जाता रहा है। अब बात आगे बढ़ रही है और एक चेतना का अस्तित्व ही उसी रूप में आ रहा है जिसमें पदार्थ का भी सम्मिश्रण है। इसे जीवन कह सकते हैं और जीवन ही निखिल ब्रह्माण्ड में संव्याप्त है।

अध्यात्म और विज्ञान को पिछले दिनों परस्पर विरोधी माना जाता रहा है। नवीनतम शोधें उन्हें पूरक ही नहीं एकीभूत भी सिद्ध कर रही हैं। ऐसी दशा में यह आशा की जा सकती है कि वेदान्त के उस तत्व दर्शन का विज्ञान द्वारा भी प्रतिपादन होगा, जिसमें अद्वैत की सर्वव्यापी सत्ता का प्रतिपादन किया गया है।

चेतना के क्षेत्र में वैज्ञानिक चिन्तन का योग अगले दिनों शोध के नये आधार प्रस्तुत करेगा। यह विश्वास किया जाना चाहिये विज्ञान के बढ़ते हुए चरण पदार्थ की मूल सत्ता की नवीन व्याख्या करेंगे जिसका प्रतिपादन भारतीय दर्शन सदा से करता चला आ रहा है। वह दिन दूर नहीं जब वैज्ञानिक जगत से यह आवाज मुखरित हो उठे ‘सर्व खल्विदं ब्रह्म’ सर्वत्र एक चेतना समायी हुई है।

संवेदना की समस्या कौन सुलझायेगा

आत्मा है या नहीं? इसका उत्तर हां और न में दोनों ही तरह दिया जा सकता है। हां, उनके लिए ठीक है जो ज्ञान के आधार पर सूक्ष्म विषयों पर विचार कर सकने और निष्कर्ष निकाल सकने में समर्थ हैं। ना, उनके लिए जो मात्र इन्द्रियों के सहारे ही चेतन सत्ता का दर्शन करना चाहते हैं। चेतन सूक्ष्म है वह चेतन सत्ता की ज्ञानानुभूति द्वारा समझा और देखा जा सकता है। किसी की आंखों में से आंसू बहते देखकर आंखें तो इतना ही बता सकती हैं कि भवों के नीचे वाले गड्ढों में से पानी की पतली सी धार बह रही है। उस पानी के पीछे कोई व्यथा वेदना तो नहीं भरी है, यह जान सकना जीवित अन्तःकरण की भाव सम्वेदना के लिए ही सम्भव है। यदि वह न हो तो फिर आंसू और पसीने में वैज्ञानिक उपकरणों के सहारे कुछ अधिक अन्तर नहीं पाया जा सकता। सूर्य की रोशनी और फूल की शोभा की अनुभूति उन्हीं को हो सकती है जिनकी आंखें सही हों। यदि दृष्टि समाप्त हो जाय तो अपने लिए संसार के सभी दृश्य समाप्त हो जायेंगे। भले ही वे अन्य लोगों के लिए यथावत् बने रहें। दृश्यों की अनुभूति में जितना महत्व पदार्थों के अस्तित्व का है उससे अधिक अपनी दृष्टि का है। यह ज्ञान ही है जो हमें दृश्य या श्रव्य के स्थूल रूप की तुलना में असंख्य गुने रहस्यमय मर्मों से हमें परिचित कराता है। ज्ञान के दो पक्ष हैं एक विचारणा दूसरा सम्वेदना। विचार मस्तिष्क की देन हैं वे बाहर से आते हैं, प्रशिक्षण एवं अनुभव के सहारे। भाव भीतर से उठते हैं, वे अन्तःकरण के उत्पादन हैं। विचारों से जानकारी तो बढ़ती है और बुद्धि में परिपक्वता आती है, पर उनका प्रभाव अन्तस् पर नहीं के बराबर पड़ता है। बहुत पढ़ने और बहुत सुनने से भी आन्तरिक उत्कृष्टता उभरने का कोई निश्चय नहीं। कितने ही व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनके कान सत्संग सुनते-सुनते पक गये और आंखें स्वाध्याय करते करते थक गईं। फिर भी उनकी मूल प्रवृत्तियों में कुछ विशेष अन्तर नहीं आया। लोभ, मोह से उन्हें रत्ती भर भी विरति नहीं हुई। काम, क्रोध के आवेश घटे नहीं। धर्मोपदेशकों में धर्म धारणा और नेताओं में देश भक्ति प्रायः प्रसंग चर्चा की कलाकारिता जितनी ही दिखाई पड़ती है। दूसरों को जिन तर्कों से वे प्रभावित कर लेते हैं उससे अपने आपको प्रभावित नहीं कर पाते। क्योंकि वे बाहर से आये आगन्तुक हैं। अपने गृह सदस्य नहीं। अन्तस् तो भावों का भाण्डागार है। वहां से निसृत होते हैं और वहीं के चुम्बकत्व से उन्हें बाह्य जगत में से आकर्षित एवं ग्रहण किया जाता है। विचार की गति तर्क और तथ्य के सहारे होती है और वे बढ़ते-बढ़ते विज्ञान का स्वरूप धारण कर लेते हैं। विचार के आधार पर यह संस्कार पदार्थ गुच्छक या गुलदस्ता मात्र है। अथवा विभिन्न प्रकार की तरंग प्रवाह का अन्धड़ क्षेत्र उसे कह सकते हैं। विद्युत चुम्बकीय लहरों से भरा-पूरा समुद्र भर यह संसार रह जाता है। ऐसे ही कुछ नाम और भी उसे दिये जा सकते हैं। मस्तिष्कीय, चेतना-पदार्थ ज्ञान पर अवलम्बित है और वह अपनी सीमा उसी परिधि के अन्तर्गत रखती है। यही उसकी मर्यादा है। उससे आगे की ऐसी कोई बात मस्तिष्क के आधार पर नहीं जानी या पाई जा सकती जो हृदय से, अन्तस् से सम्बन्धित है।

भाव, सम्वेदना, अन्तस् का उत्पादन है। भावुक व्यक्ति ही दूसरों की व्यथा वेदनाओं को अनुभव कर सकता है। पाषाण हृदय व्यक्ति पर किसी की करुणाजनक स्थिति का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, पर दूसरों के रुदन और चीत्कार तक को स्थिति-प्रज्ञ की तरह निर्मम होकर देखता रहता है, कई बार तो उनसे विनोद करता और रस लेता भी देखा गया है।

धर्म को सम्वेदना का उद्गम स्रोत कह सकते हैं। वह उपदेश नहीं उपचार है जिसके सहारे दिव्य चक्षुओं पर चढ़ी हुई धुन्ध को दूर किया जा सकता है। उस धुन्ध के हटने पर पदार्थ के अन्तराल में संव्याप्त सत्ता को देखा जाता है। उसी के सहारे उस ब्रह्माण्ड व्यापी चेतना की अनुभूति होती है जिसे विश्वात्मा कहा जाता है और जिसका एक घटक आत्मा है। विचार से पदार्थ के गुण, धर्म, स्वभाव और उपयोग को जाना जाता है, धर्म से आत्मा का साक्षात्कार होता है और जीवन को आत्मा के अनुशासन में चलने के लिए प्रशिक्षित अभ्यस्त किया जाता है।

यों ज्ञान की मोटी परिभाषा जानकारी है। शिक्षा द्वारा उसी का संचय सम्वर्धन होता है। मन की कल्पना शक्ति और बुद्धि की निर्णय शक्ति के संयुक्त परिणाम को बुद्धि कौशल कहते हैं। सूझ-बूझ, समझदारी, विद्वता और विशेषज्ञता इसी की परिणिति हैं। इतने पर भी सम्वेदना पर इस सारी बुद्धिमत्ता का कोई असर नहीं है। धर्म अग्नि है जिसका उद्गम आत्मा है। आत्मा के अन्तराल से जो ज्योति प्रस्फुटित होती है, जिसका आलोक अन्तःज्ञान के रूप में देखा जा सकता है, आत्म बोध यही है। इसी का प्रकट होना और आत्म सत्ता के समूचे क्षेत्र को प्रकाशवान कर देना यही आत्म-साक्षात्कार है। विचार क्षेत्र शिक्षा कहलाता है, अन्तः सम्वेदनाओं के ऊहापोह को विद्या एवं ब्रह्म विद्या कहते हैं। यह इन्द्रियातीत है इसलिए उसकी अनुभूतियां भी अतीन्द्रिय कहलाती हैं। दया, करुणा, प्रेम, सेवा, उदारता, त्याग, बलिदान, संयम, आत्मानुशासन जैसी दिव्य सम्वेदनाओं की पूर्ति के लिए मनुष्य खुशी-खुशी कष्ट सहते हैं। अपने लोभों का परित्याग करते हैं और भौतिक दृष्टि से प्रत्यक्षतः घाटा उठाते हैं। आदर्शवादियों के निहित स्वार्थों द्वारा तरह-तरह की हानि पहुंचाई जाती है उदार व्यवहार में भी वे कुछ त्याग ही करते हैं। देश भक्तों और तपस्वियों को कष्टमय जीवन व्यतीत करना पड़ता है और कई बार तो उन्हें प्राणों तक से हाथ धोना पड़ता है। बुद्धिमानी का भौतिक मापदण्ड इनमें घाटा ही घाटा देखता है। प्रत्यक्ष लाभ जैसी कोई बात इस मार्ग पर चलने से नहीं मिलती। फिर भी समझदारी की सीमाओं का उल्लंघन करके वे कदम उठाये जाते हैं जिसे व्यवहार बुद्धि अपने भौतिकवादी गणित के सहारे मूर्खता ही सिद्ध करेगी। इतने पर भी सारे तर्कों का उल्लंघन करके कोई आन्तरिक उमंग ऐसी उठती है और उच्चस्तरीय भाव सम्वेदना की भूख बुझाने के लिए त्याग, बलिदान की मांग करती है और अनेकों सद्भाव सम्पन्न उसकी पूर्ति भी करते हैं।

यह संवेदना ही अग्नि है। जब वह आदर्शों को अपनाये रहने की परिपक्वावस्था में होती है तो उसे श्रद्धा कहते हैं। अपने लिए कल्याणकारी कर्तव्य यही है। इसका सुनिश्चित निर्धारण विश्वास कहलाता है। श्रद्धा को भवानी की और विश्वास को शंकर की उपमा दी गई है और कहा गया है कि इन्हीं दोनों की सहायता से अन्तरात्मा में ओत-प्रोत परमात्मा का दिव्य दर्शन होता है। आदर्शवादी सम्वेदनाओं की यह समूची परिधि धर्म क्षेत्र के नाम से जानी जाती है। इसी की उमंगें कर्म क्षेत्र पर छाई रहती हैं। आस्थाओं की प्रेरणा से विचार तन्त्र को दिशा मिलती है और विचारों की कर्म के रूप में परिणिति होती है। इसी क्षेत्र में जब प्रखरता आती है तो अतीन्द्रिय ज्ञान जागृत होता है और दूर दर्शन, दूर श्रवण, प्रकृति के रहस्यों का उद्घाटन, भावी सम्भावनाएं जैसी वे जानकारियां मिलती हैं जो सामान्य इन्द्रिय क्षमता की पकड़ से बाहर हैं।

अन्तःसंस्थान के शान्त, सुस्थिर एवं परिष्कृत करने की विधि व्यवस्था का नाम योग है। योगाभ्यास में जिस समाधि की चर्चा की जाती है वह मस्तिष्क की घुड़ दौड़ शान्त करके अन्तःकरण की भाव सम्वेदनाओं को उभारने की प्रक्रिया है। चित्त वृत्तियों का निरोध इसी को कहा गया है। यह स्थिति प्राप्त होने पर अपने अस्तित्व में आत्मा की उपस्थिति अनुभव होती है और उसके अनुशासन को स्वीकार करने की सहज स्वीकृति जागृत होती है। आत्मसमर्पण के क्षण इन्हीं भावनाओं से भरे होते हैं। दिव्यत्व में अन्तःकरण का सराबोर हो जाना इतना आनन्द युक्त होता है कि उसे ईश्वर दर्शन के सम्बन्ध में किये गये समस्त वर्णन यथार्थता के रूप में अनुभव होते हैं।

धर्म को भीरुता से जोड़ा जाता है, जीवन संघर्ष से कतराने वाले धर्माडंबरों में उलझे रहते हैं यह कहा जाता है, पर वस्तुतः बात ऐसी है नहीं। यह साहसी शूर वीरों का मार्ग है। मन और अन्तःकरण का संघर्ष स्पष्ट है। मन सुविधाओं में रमता है और अन्तःकरण को वे भाव सम्वेदनाएं चाहिए जो उत्कृष्टता अपनाने के मूल्य पर ही उपलब्ध होती हैं। लोक प्रवाह और अपने संचित संस्कार मनोकामनाओं की पूर्ति की दिशा में खींचते और मनमानी करने के लिये उकसाते हैं इसके ठीक विपरीत वह क्षेत्र है जिसे आत्मा की पुकार कहते हैं। यहां सब कुछ दूसरे ही तरह का है। यहां वैभव बेचकर सन्तोष खरीदा जाता है इतना बड़ा सौदा करना जुआरी द्वारा अपना सर्वस्व ऐसी बाजी पर लगा देने जैसा है जिसमें प्रत्यक्षतः घाटा ही घाटा है। ऐसा बड़ा कदम उठाना सती शूरमाओं जैसा दुस्साहस है जिसमें प्रत्यक्ष का उत्सर्ग करके परोक्ष के उपलब्ध होने का सुनिश्चित विश्वास आवेश की तरह अन्तराल के कण-कण में छाया होता है। ऐसी स्थिति प्राप्त करने में केवल साहसी शूरवीर ही सफल होते हैं। भावनाओं के परिपोषण में कामनाओं की बलि चढ़ा देना जिनसे बन पड़ता है वस्तुतः वे ही धर्मात्मा हैं। कहा जाता है कि—धार्मिकता स्वर्ग के लालचियों और नरक से भयभीत लोगों को छिपाये रहने वाली मांद भर है, पर बात ऐसी है नहीं। कुछ उथले धर्माडम्बरियों या धर्म भीरुओं के लिए यह बात भले ही लागू होती हो, पर वस्तुतः धर्म एक सत्साहस और प्रबल पुरुषार्थ है जिसमें अन्तरात्मा को सर्वोपरि माना जाता है और उत्कृष्टता भरी भाव सम्वेदनाओं के समर्थन की सुख-सुविधाओं से लेकर स्वजनों को रुष्ट करने तक का ऐसा साहस प्रदर्शित किया जाता है जिसे अलौकिक एवं असाधारण कहा जा सके।

धर्म ही मानवीय जीवन को संस्कारित करेगा

हर्बर्ट स्पेन्सर कहते हैं विज्ञान दर्शन का क्षेत्र अत्यधिक विस्तृत है। विज्ञान मात्र प्रकृति के कुछ रहस्यों पर से पर्दा उठाता है किन्तु दर्शन विश्वचेतना के अनेक पक्षों पर प्रकाश डालता है, बताता है कि चिन्तन की धारायें किस प्रकार परिष्कृत की जा सकती हैं। प्रकृति की क्षमतायें उपयोग में लाकर अनेक सुविधायें पाई जा सकती हैं पर उन सुविधाओं का समुचित उपभोग करने के लिए मनुष्य की चिन्तन प्रक्रिया का आधार क्या हो यह बताना दर्शन का काम है। दर्शन वृक्ष है और विज्ञान उसकी एक टहनी। विज्ञान वेत्ता की तुलना में दार्शनिक का कार्य क्षेत्र और उत्तरदायित्व अति विस्तृत है।

प्रो. मैक्समूलर और प्रो. पालडिपेजन भारतीय धर्म के गहन अध्ययन के उपरान्त इस निष्कर्ष पर पहुंच हैं कि भारत को धर्म और दर्शन का जन्मदाता माना जाना चाहिए। फ्रांस के महान दार्शनिक विक्टरक जिनका कथन है कि—भारत में दर्शन का समस्त इतिहास बहुत संश्लिष्ट है। प्लेटो, सीनोजा, वर्कले, ह्यूम, कान्ट, हेगल, स्कोफेन्यूअर, स्पेन्सर, डार्विन आदि ने एक स्वर से भारतीय दर्शन को विश्व सत्य के अतीव निकट माना है—प्रो. हक्सले का कथन है प्रकृति के कानूनों का जैसा बुद्धिसंगत और विज्ञान सम्मत विवेचन भारतीय दर्शन में किया गया है वैसा विश्व भर में अन्यत्र कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। मोनियर विलियम का कथन है—इस सहस्राब्दी के दार्शनिक केवल उन्हीं तथ्यों की अपने ढंग से ऊहापोह कर रहे हैं जिनका कि भारतीय तत्व वेत्ता चिर अतीत में सघन प्रतिपादन और विस्तृत विवेचन कर चुके हैं। प्रो. हिग्वे जेन ने लिखा है—ऋग्वेद में नृतत्व विज्ञान और प्रकृति विज्ञान का जैसा सुन्दर विश्लेषण है वैसा आधुनिक विज्ञान की समस्त धारायें मिलकर भी नहीं कर सकीं।

प्रो. हापकिन्स ने अपनी पुस्तक ‘‘किलीजन आफ इण्डिया’’ नामक पुस्तक में विस्तारपूर्वक लिखा है कि हिन्दू धर्म की महत्वपूर्ण विशेषता सहिष्णु और समन्वयात्मक दृष्टिकोण है। भिन्न मान्यताओं को उसमें उदारता पूर्वक सम्मान दिया गया है। ईसा से 300 वर्ष पूर्व तक का जो इतिहास मिलता है उससे यही सिद्ध होता है कि धर्म के नाम पर भारत में कभी कोई विग्रह नहीं हुआ। अनेक विचारधारायें अपने-अपने ढंग से फलती-फूलती रहीं और उन सबका मन्थन करके सत्य के निकट पहुंचने में मानवीय मस्तिष्क को बहुत सहायता मिली।

फेराड्रक स्वेलेजन की शोध यह प्रमाणित करती है कि विश्व दर्शन पर भारतीय तत्व ज्ञान की अमिट छाप है। उसने कान्ट के दार्शनिक प्रतिपादन को भी भारतीय दर्शन के एक अंश की व्याख्या मात्र माना है। स्कोफेनर भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि सहज ही न कर सकने वाली दार्शनिक मान्यतायें भारत की ही देन हैं।

दर्शन शास्त्र को प्रत्यक्षवादियों द्वारा शब्दाडम्बर-वाग्विलास, कल्पना-काव्य आदि व्यंग शब्दों से सम्बोधित किया है, पर वस्तुतः वह वैसा है नहीं। विचार करने की अस्त-व्यस्त शैली को क्रमबद्ध और दिशाबद्ध करने का महान प्रयोजन दार्शनिक शैली से ही हो सकना सम्भव है। अन्यथा उच्छृंखल गति-विधियां और अनगढ़ मान्यताओं का मिला-जुला स्वरूप ऐसा विचित्र बन जायगा, जिसे अपनाकर कोई किसी लक्ष्य तक न पहुंच सकेगा। उसे अन्धड़ में इधर-उधर उड़ते फिरते रहने वाले तिनके की तरह कुछ महत्वपूर्ण कार्य कर सकने में सफलता न मिलेगी। योजनाबद्ध कार्य करना जिस प्रकार आवश्यक है उसी प्रकार योजनाबद्ध चिन्तन की भी उपयोगिता है। यह कार्य दार्शनिक रीति-नीति से ही सम्भव हो सकता है।

जीवन का यदि कोई दर्शन न हो, उसके साथ कुछ आस्थाएं, मान्यताएं जुड़ी न हों, किन्हीं सिद्धान्तों का समावेश न हो तो आदमी, आदमी न रहकर एक प्राणी मात्र रह जाता है। गुजारे भर का लक्ष्य लेकर चलने वाले अपनी योग्यता और तत्परता के अनुसार सुविधा साधन तो न्यूनाधिक मात्रा में उपार्जित कर लेते हैं किन्तु कोई ऊंचा लक्ष्य सामने न रहने पर अन्तरात्मा में जीवन्त उत्साह नहीं संजो पाते। यों सामान्य उत्साह तो भौतिक महत्वाकांक्षाओं की आतुर लालसा से भी उत्पन्न हो सकता है पर उसके नैतिक बने रहने में सन्देह ही बना रहेगा। भौतिक लाभों की अपेक्षा यदि किन्हीं आदर्शों की पूर्ति को लक्ष्य बनाकर चला जाय तो उत्साह भरी सक्रियता के अतिरिक्त उसके साथ उत्कृष्टतावादी तत्व भी जुड़े रहेंगे और उन प्रयासों से आत्मिक उन्नति का लाभ होता रहेगा भले ही भौतिक लाभ उतना न हो। लोक हित की ऐसी महत्वाकांक्षाएं जिनमें अपने पुरुषार्थ का प्रकटीकरण ही नहीं आदर्शवादी होने का भी परिचय मिलता हो, निश्चित रूप से उस महत्वाकांक्षी के व्यक्तित्व को सम्मानास्पद बनाती हैं। इस उपलब्धि के सहारे मनुष्य उस स्थिति में पहुंच जाता है जिसमें जन सहयोग के सहारे वैसा कुछ प्राप्त किया जा सके जो धन सम्पदा से भी अधिक मूल्यवान है। मानवी प्रकृति की व्याख्या करते हुए हमें उसके दृष्टिकोण और चरित्र के स्तर का भी मूल्यांकन करना चाहिए भौतिक दृष्टि से सुखी सम्पन्न बन जाने पर भी यदि मनुष्य उद्देश्य विहीन और आदर्श रहित बना रहे तो वह अपने लिए सन्तोष एवं गौरव प्राप्त न कर सकेगा। समाज में उसे न तो उपयोगी माना जायगा और न उसे सम्मान दिया जायगा।

नोबेल पुरस्कार विजेता फ्रान्सीसी वैज्ञानिक अलोक्सिस करेल ने कहा है—हम बहुत कुछ खोज चुके और अगले दिनों इससे भी अधिक रहस्यपूर्ण प्रकृति गत रहस्यों को खोजने जा रहे हैं, किन्तु अभी भी ‘‘मनुष्य’’ पहले की तरह ही अविज्ञात बना हुआ है। सच तो यह है कि वह इस प्रकार खोता चला जा रहा है कि अगले दिनों उसे खोज निकालना कठिन हो जायगा। मनुष्य की ज्ञान सम्पदा आश्चर्यजनक गति से बढ़ी है, पर अपने सम्बन्ध में वह अभी भी असीम अज्ञान से जकड़ा हुआ है। विद्वानों की संख्या बढ़ती देखकर प्रसन्नता होती है पर खेद इस बात का है कि ‘ज्ञानी’ तेजी से समाप्त होते चले जा रहे हैं। विद्वान और ज्ञानी का अन्तर बताते हुए चीनी दार्शनिक लाओत्से कहते थे—जो अपने को जानता है वह ज्ञानी और जो दूसरों को जानता है वह विद्वान है। अपने सम्बन्ध में बढ़ता हुआ अनाड़ीपन ही मनुष्य को जटिल उलझनों में और समाज को कठिन समस्याओं में जकड़ता चला जा रहा है।

‘मैन दी अननोन’ ग्रन्थ के लेखक विज्ञानी अलेक्सिस ने लिखा है—मानवी काया का रासायनिक विश्लेषण सरल है। अवयवों की हरकतें समझने में भी सफलता मिली है। सोचने का तन्त्र मस्तिष्क किधर चलता और किस तरह करवटें बदलता है इसका पता भी लगता जा रहा है कि उसकी मूल सत्ता में विद्यमान ‘मानव’ की खोज खबर लेने वाले धानाधोरी दृष्टिगोचर नहीं होते। सभ्यता और सम्पत्ति का विकास हो रहा है, पर मनुष्य का पिछड़ापन बरकरार है। आदमी ने दुनिया को अपने योग्य बनाया पर वह अपने लिए ‘पराया’ बन गया है। सूनेपन का दबाव बढ़ रहा है और भीड़ से अलग होकर जब वह देखता है तो लगता है न वह किसी का है और न कोई उसका। यह अपने आपे की क्षति इतनी बड़ी है जिसकी पूर्ति कदाचित प्रगति के तथा कथित सभी चरण मिलकर पूरा नहीं कर सकेंगे।

मनुष्य के खण्ड-खण्ड का चिन्तन विश्लेषण चल रहा है। उसके अस्तित्व के एक-एक भाग को समग्र शास्त्र का रूप दिया गया है। शरीर शास्त्र, मनः शास्त्र, समाज शास्त्र, अर्थ शास्त्र जैसे खण्डों की जानकारी भी है तो, उपयोगी पर समग्र मानव को समझे बिना उसकी मूल प्रकृति और प्रवृत्ति पर ध्यान दिये बिना एकांगी आंशिक समाधानों से कुछ बनेगा नहीं। एक छेद सींते-सींते दूसरे और नये फट पड़ें तो उस मरम्मत से कब तक काम चलेगा। विज्ञान की शोधें मनुष्य की कतिपय आवश्यकताओं को पूरा करने और जानकारियों को बढ़ाने के उद्देश्य से पूरी की जाती हैं किन्तु उस महाविद्या की ओर से क्यों उदासी है जिसे समग्र मानव की विवेचना—साइन्स आफ मैन कह सकते हैं।

विज्ञान के आविष्कारों में अपने आपको खपाया—श्रमिकों के स्वेद कणों ने विशालकाय निर्माण सम्पन्न किये हैं— इंजीनियरों की तन्मयता से निर्माण की योजनायें बनती हैं। कलाकार अपनी चेतना भाव-तरंगों में घुलाकर उपस्थित लोगों को मंत्र-मुग्ध करते हैं। आत्मविज्ञानी अपने चिन्तन और कर्म का समन्वय करते हुए अपने व्यक्तित्वों को एक सफल प्रयोगशाला के रूप में प्रस्तुत कर सके तो जन-साधारण में भी उसके लिए उत्साह उत्पन्न होगा। लक्ष्य ऊंचा हो और संकल्प प्रखर तो फिर मनुष्य के लिये बड़े से बड़ा उत्सर्ग कर सकना भी कुछ कठिन नहीं है। चिन्तन और व्यवहार का समन्वय करती हुई आदर्शवादी आस्थाओं की स्थापना ही अपने युग की महान क्रान्ति हो सकती है। उज्ज्वल भविष्य की आशा उसी से बंधेगी। इसका नेतृत्व करने के लिये ऐसे अग्रगामियों की आवश्यकता है जो लोक शिक्षण के लिए सबसे प्रभावशाली उपाय आदर्शों के अनुरूप आत्म निर्माण अपना सकें और जलते दीपक द्वारा नये दीपकों के जलने की परम्परा स्थापित कर सकें।

व्यक्ति, समाज का एक मूल्यवान घटक है। उसके प्रयासों का परिणाम उस अकेले तक ही सीमित नहीं रहता वरन् अनेकों की इसमें साझेदारी रहती है। समुद्र की लहरें एक दूसरे को प्रभावित करती हैं और मनुष्य एक दूसरे पर अनायास ही अपना प्रभाव छोड़ते हैं। बुरा व्यक्ति अपनी बुराई करके स्वयं दुष्परिणाम भुगत लेता तो कोई चिन्ता की बात नहीं थी, पर ध्यान देने योग्य बात यह है कि उसकी प्रत्येक गतिविधि की दूसरों पर भली-बुरी प्रतिक्रिया होती है। भला मनुष्य परोक्ष रूप में भली परम्परा पैदा करके असंख्यों को किसी न किसी रूप में सुखी बनाता और ऊंचा उठाता है। इसके विपरीत दुर्बुद्धि ग्रस्त व्यक्ति अपने दुष्ट चिन्तन और चरित्र से कइयों को अनुयायी बनाता है और कितनों को ही कष्ट कारक परिस्थितियों में धकेलता है। अस्तु समग्र प्रगति की सुख-शान्ति दायिनी दिशा अभीष्ट हो तो व्यक्ति के अन्तराल को परिष्कृत बनाने के लिए उतने ही प्रयत्न करने पड़ेंगे जितने जितने कि भौतिक सुविधा सम्वर्धन के लिए किये जाते हैं। भीड़ को दिशा निर्देश देने का काम चलता रहे पर व्यक्तित्वों की गहरी परतें कितनी मूल्यवान हैं इसका महत्व आंखों से ओझल न होने पाये इसका पूरा-पूरा ध्यान रखा जाना चाहिए।

भारतीय धर्म दर्शन में ये सारी विशेषताएं मौजूद हैं जिनका अवलम्बन लेकर व्यक्तित्व को परिष्कृत एवं श्रेष्ठ बनाया जा सकता है। परिष्कृत व्यक्तित्व ही मनुष्य, समाज और विश्व को प्रकाश और प्रसन्नता दे सकते हैं इस युग को केवल यही चाहिए शेष सब कुछ तो यहां पहले से ही विद्यमान है।
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