क्या धर्म अफ़ीम की गोली है

विज्ञान उपयोगी है परिपूर्ण नहीं

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विश्व में फैली ज्ञान की दो धाराओं-धर्म और विज्ञान-का प्रादुर्भाव दो भूमिखण्डों से हुआ है। समस्त जीवित और महान धर्मों की जन्मभूमि आज का सीमित किन्तु कभी का वृहत्तर भारत है। प्राकृतिक विज्ञानों की पाश्चात्य जगत एक अंतर्मुखी और आत्मनिष्ठ है, दूसरी बहिर्मुखी और वस्तुनिष्ठ। एक इन्द्रियातीत तत्वों के रहस्यों के उद्घाटन में व्यस्त-दूसरी इंद्रियग्राह्य वस्तुओं के सन्दर्भ में प्रयत्नशील।

भारतीय विचारधारा मूलतः धार्मिक विचारधारा है। हिन्दू, बौद्ध, जैन, यहूदी, मुसलमान और येरुसलेम की भूमि में उपजे क्रिश्चियन धर्म की रोम कैथोलिक शाखा का अनुयायी ईसाई—इन सब की व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक जीवन जीने की रीति-नीतियां, मान्यताएं, परम्पराएं, दृष्टिकोण और व्यावहारिक गतिविधियां अपने-अपने धर्मों के द्वारा प्रतिपादित नियमों द्वारा नियमित और संचालित होती हैं। किसी समय आध्यात्मिकता उत्पन्न करने वाला यह सारा क्षेत्र वृहत्तर भारत की परिधि में आता था जिसे इन दिनों एशिया कहते हैं।

देश-काल-परिस्थिति ने इन धर्मों को भिन्न-भिन्न कलेवर तो धारण करा दिये हैं, कर्मकाण्ड और विचार-व्यवहार के ढंग तो अलग-अलग कर दिये हैं, परन्तु उनका मांस और प्राण—उनकी मूल मान्यताएं—बहुत बड़े अंश में समान हैं। उदाहरणार्थ, उपरोक्त सभी धर्म मरणधर्मा शरीर को नियन्त्रित और संचालित करने वाली ऐसी सत्ता-आत्मा—के अस्तित्व में विश्वास करते हैं जिसका इस जीवन के परे भी अस्तित्व बना रहता है। इस तथा ऐसी ही अन्य उभयनिष्ठ आधारभूत मान्यताओं ने इन धर्मों के अनुयायिओं के सम्पूर्ण जीवन को, इन्द्रिय-मस्तिष्क-हृदय की प्रत्येक क्रिया को, अनुशासित करने का न केवल प्रयत्न किया है वरन् परलोक के लोभ और भय दिलाकर आत्मा के कल्याण के लिए अनेक विधि-निषेधों को मानने को मजबूर भी किया है।

इसे स्वस्थ स्थिति नहीं कहा जा सकता। एशियाई धर्मों ने स्वर्ग और निर्वाण के प्रति, पारलौकिक जीवन के प्रति, अपने अनुयायिओं के झुकाव, रुचि और ललक को इतना तीव्र कर दिया है कि इहलोक का मूल्य भव बन्धन एवं माया जाल कहा जाने लगा। वैयक्तिक जीवन से श्रम, कर्म, स्वावलम्बन और आत्म-विश्वास, पारिवारिक जीवन से घनिष्ठता और उदारता तथा सामाजिक जीवन में सामूहिकता की भावना और सहयोग जैसे सद्गुण इस पारलौकिकता की अति से लुप्त होने लगे। अपनी मेहनत से धरती को स्वर्ग बनाने और इसी जीवन में स्वर्ग में रहने का आनन्द पाने के बदले किसी बने बनाए स्वर्ग में मृत्यु के उपरान्त पहुंचने और सुख पाने की मोहक कल्पना ने जन मानस को ग्रस लिया। परलोकवाद का एकांगी पक्ष एक घातक रोग बना गया और उसने सर्वतोमुखी प्रगति के मार्ग में बाधा ही पहुंचाई।

इसके विपरीत पश्चिमी विचारधारा मूलतः विज्ञान प्रेरित विचारधारा है। इन्द्रियग्राह्य वस्तु व विषय ही प्राकृतिक विज्ञानों के अध्ययन एवं अनुसंधान का क्षेत्र है। अब तक के अधिकांश वैज्ञानिक अध्ययन एवं अनुसंधान का मुख्य उद्देश्य केवल इतना रहा है कि ऐहिक जीवन को अधिक सुख-सुविधापूर्ण बनाने के लिए प्रकृति का दोहन किस प्रकार किया जा सकता है। इस विचारधारा ने जहां मनुष्य को साहसी, कर्त्तव्यपरायण, कर्मशील और व्यावहारिक बनाया है, वहीं उसे बहिर्मुखी, सुखवादी और अनात्मवादी भी बना दिया है। कर्मफल के नियम और आत्म-कल्याण की कल्याणकारी आस्था को हटाकर, औचित्य की समस्त सीमाओं को लांघती विलासिता ने तथा स्नेह रहितता, असुरक्षा और तनाव ने पश्चिमी मन को ग्रस लिया।

यद्यपि यह सही है कि धर्म के समान प्राकृतिक विज्ञान भी गणित की गिनती, भौतिकी की ऊर्जा, रसायन की संयोजकता जैसे अनेक अवस्तुनिष्ठ विचारों (एबसैट्रेक्ट आइडियाज) की नींव पर टिके हैं, तथापि यह भी सही है कि उन विज्ञानों से उपजी पश्चिमी विचारधारा व सभ्यता का वर्तमान स्वरूप केवल वस्तुनिष्ठता या वैषयिकता से, अर्थात् केवल इहलोकवाद से नाता जोड़े हुए है। परलोक वाद के समान इहलोकवाद भी पश्चिम का एक संक्रामक घातक रोग बन चुका है।

धर्म और विज्ञान की यह स्थितियां एक दूसरे के बिल्कुल विरुद्ध पड़ती हैं, और प्रतीत होता है कि उनमें समझौते की तनिक भी सम्भावना नहीं है। किन्तु सूक्ष्म विचार करने पर ज्ञात होता है कि इन परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाली विचारधाराओं के बीच में सन्तुलन का बिन्दु भी विद्यमान है। गतिमान पैण्डुलम जब बाएं या दाएं छोर पर पहुंच जाता है, तब विपरीत दिशा में लौटने के सिवा उसके पास कोई चारा नहीं रह जाता। यह डोलना, यह अस्थिरता उस समय तक जारी रहती है जब तक कि मध्य की सन्तुलित स्थिति स्थायी रूप से प्राप्त न हो जाय। आत्मवादी धर्म और पदार्थवादी विज्ञान मध्यमान सन्तुलन-बिन्दु की विपरीत दिशाओं में स्थित जो अतिवादी व अस्थायी स्थितियां हैं, जहां से उन्हें सन्तुलन बिन्दु की ओर लौटना ही होगा। इससे मिलता-जुलता उदाहरण देते हुए हर्बर्ट स्टेन्सर यह मत प्रतिपादित करते हैं कि—‘‘अन्तिम सीमा तक विकसित हुए भावनात्मक (धार्मिक) संस्कृति को चेतनात्मक (पदार्थवादी) संस्कृति की दिशा में तथा चेतनात्मक संस्कृति को भावनात्मक संस्कृति की दिशा में लौटने के सिवा और कोई विकल्प नहीं है।’’ इस प्रकार इस विचित्र किन्तु तर्क सिद्ध निष्कर्ष पर हम पहुंचते हैं कि परम सत्य की खोज में संलग्न धर्म और प्राकृतिक विज्ञान अतिवादी एवं अस्थायी स्थितियों पर स्थिति होने के कारण स्वयं ही ‘‘असत्य’’ की श्रेणी में रखे जा सकते हैं! तर्क, प्रयोग और अनुभव यह सिद्ध करते हैं कि दो अतिवादी स्थितियों के मध्यमान पर ही ‘‘सत्य’’ स्थित होता है, क्योंकि वहीं पर सन्तुलन और स्थायित्व उपलब्ध होते हैं। यह तथ्य स्पष्ट रूप से समझ लिया जाना चाहिए कि यह स्थायित्व जड़ता का सूचक नहीं है, वरन् गतिशील सन्तुलन का मध्यमान का गुण है।

इस सन्तुलित मध्य स्थिति को प्राप्त करने में, जिसमें धार्मिक और वैज्ञानिक विचारधाराओं का सनुपातिक समन्वय हो जाता है दर्शन बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ है। प्रसन्नता की बात है कि सर्वोच्च कोटि के वैज्ञानिकों ने भी दर्शन की इस उपयोगिता को अब स्वीकार कर लिया है। परिणामस्वरूप मानवीय इतिहास का नया और कल्याणकारी युग प्रारम्भ करने की सामर्थ्य से युक्त वैज्ञानिक धर्म और धार्मिक विज्ञान की प्रतिष्ठापना का मार्ग प्रशस्त हो गया है।

अन्ध श्रद्धा उपार्जित, कल्पना प्रभूत-अवास्तविकता पर आधारित धर्म स्वतन्त्र इकाई के रूप में कितना हानिप्रद है, इसका अनुमान व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक जीवन पर पड़ने वाले उसके दुष्प्रभावों को देखकर लगाया जा सकता है। गैलीलियो और आर्कमिडीज के प्राणहरण से लेकर धर्मोन्माद और धर्मयुद्ध तक, तथा पर्दाप्रथा से लेकर गलत कार्य (पाप) की अनिवार्य हानिकारक प्रतिक्रिया (दण्ड) से मात्र स्नान द्वारा मुक्ति तक सैकड़ों-सहस्रों धार्मिक अन्धविश्वास और मूढ़ मान्यतायें धर्म के नाम पर मानव मस्तिष्क पर हावी हो गई हैं। गुरुडम नामक तानाशाही—वैकुण्ठ-निर्वाण दिलाने की दलाली—आनुवंशिक उच्चता तथा प्रजातीय उच्चता का अहंकार जैसी अनेक अवैज्ञानिक मान्यताएं व परम्परायें धर्म की दुहाई देकर फल-फूल रही हैं। ‘कारण-कार्य’ का नियम, धार्मिक सिद्धान्तों व नियमों का पुनः परीक्षण करने का प्रत्येक जिज्ञासु को अधिकार है। उनकी सुस्पष्ट एवं सर्वज्ञात विधि-व्यवस्था, प्रमाणित तथ्यों की मान्यता—जैसे वैज्ञानिक आधार धर्म व्यवस्था में ढूंढ़े नहीं मिलते। किन्तु आशा की जानी चाहिये कि वैज्ञानिक धर्म जब कभी भी मानव समाज में प्रचलित होगा, तब क्यों-कैसे की कसौटियां ही धार्मिक सिद्धान्तों व क्रिया-कलापों को मान्यता और समाज में उनके प्रसारण की स्वीकृति का प्रमाण पत्र प्रदान किया करेंगी।

विज्ञान भी स्वतंत्र इकाई के रूप में कितना अपूर्ण है, इसकी झलक जेम्स जीन्स के इस वक्तव्य से मिलती है—‘‘विज्ञान गूंगा और बहरा है। वह अपनी एक हथेली पर पैनिसिलीन और दूसरी पर परमाणु बम रखकर तुम्हारे पास आता है। अब यह तुम पर निर्भर है कि तुम किसे पसन्द करते और उठाते हो।’’ तात्पर्य यह हुआ कि विज्ञान चुनाव सम्बन्धी कोई सलाह नहीं देता, न ही गलत चुनाव के दुष्परिणामों की शिकायत सुनना चाहता है।

तब सही मार्गदर्शन कहां से प्राप्त हो? असमंजस की इस स्थिति में धर्म-वास्तविक धर्म-सहायता का हाथ बढ़ाता है। वह सत्य, न्याय और लोक मंगल की कसौटियां प्रस्तुत करता है। प्राकृतिक विज्ञानों की जो भी देन इन कसौटियों पर खरी उतरें वे ही ग्रहणीय हैं, शेष नष्ट करने योग्य। जब कभी भी धार्मिक विज्ञान विश्व में प्रचलित होगा, उपरोक्त कसौटियां ही अनुसंधान की दिशाओं को निश्चित किया करेगी।

पदार्थ कितना ही मूल्यवान एवं उपयोगी क्यों न हो उसकी कोई कीमत तभी है जब चेतन प्राणी उसे उस प्रकार की मान्यता दे। अन्यथा वस्तु की दृष्टि से हीरा और कोयला लगभग एक ही स्तर के होते हैं। उपयोगिता की दृष्टि से लोहा सोने की अपेक्षा अधिक कारगर है, पर मनुष्य ने इसमें से जिसे जितनी मान्यता दी उसी अनुपात से उसका मूल्य बढ़ा है। पदार्थ अपनी उपयोगिता स्वयं सिद्ध नहीं कर सकते। मनुष्य की बुद्धि ही उन्हें खोजती है और काम में लाने योग्य बनाती है। अस्तु पदार्थ की तुलना में चेतना का महत्व अधिक हुआ स्वयं विज्ञान का विकास भी बुद्धि कौशल की ही प्रतिक्रिया है। ऐसी दशा में चेतना के मूल अस्तित्व को स्वीकार न करना, उसे जड़ शरीर के सम्मिलन से उत्पन्न हलचल भर मानना यही सिद्ध करता है कि वैज्ञानिकों ने उस क्षेत्र को आधा-अधूरा ही समझा है, जिसमें वे अपनी सारी अन्वेषण प्रक्रिया संजोये हुए हैं। पदार्थ विज्ञान की ही बात लें तो प्रतीत होगा कि उसकी खोज के साधन रूप में जड़ पदार्थों का ही उपयोग होता है। जिन यन्त्र उपकरणों के माध्यम से प्रकृति गत हलचलों का पता लगाया जाता है और उपलब्ध ज्ञान का उपयोग किया जाता है वे स्वयं जड़ पदार्थों के बने हुए होते हैं। उसकी पकड़ और पहुंच अपनी सीमा तक ही काम कर सकती है। मस्तिष्क कस सचेतन इन्द्रियगम्य ज्ञान विशुद्ध भौतिकी है। इसे मन कहते हैं। जानकारियां प्राप्त करना और खोज कुरेद करना इसी का काम है। बुद्धि और अन्वेषण उपकरणों की सहायता से ही वैज्ञानिक खोजबीन का ढांचा खड़ा किया जाता है। ऐसी दशा में चेतना सत्ता का वास्तविक स्वरूप और बल प्रकट नहीं हो सकता। उसके प्रकटीकरण में चेतना का वह भाग प्रयुक्त करना होता है जिसे अन्तर्मन, उच्च मन, अन्तरात्मा अतीन्द्रिय तत्व कहते हैं। ब्रह्म विद्या उसी की विवेचना करती है। तत्व-दर्शन का आविष्कार इसी निमित्त हुआ है। ऋतम्भरा प्रज्ञा, भूमा, धी इसी प्रयोजन के लिए प्रयुक्त होती हैं। अतीन्द्रिय ज्ञान के सहारे ही चेतना तत्व का ज्ञान प्राप्त कर सकना सम्भव है इसकी उपेक्षा करके जो विज्ञान काम में लाया जा रहा है उसे अपूर्ण ही कहना चाहिए।

वैज्ञानिक विचारक एडिंगटन ने इधर विज्ञान की इस मान्यता पर कि वही वस्तुओं का सही-सही वर्णन कर सकता है, अनेक प्रश्न चिन्ह लगा दिये हैं। अपने पुस्तक ‘‘द फिलासफी आफ फिजीकल साइंस’’ में उन्होंने कहा है कि जब हम अणुओं अथवा किसी तत्व के गुणों की चर्चा करते हैं, तो ये गुण उन अणुओं या पुद्गल तत्वों के एक मात्र वास्तविक गुण कदापि नहीं माने जा सकते, अपितु ये तो वे गुण हैं, जो हमने अपनी प्रोक्षण-विधि द्वारा उन अणुओं या पुद्गल-तत्वों पर आरोपित कर दिया है। इस प्रकार एडिंगटन ने निष्कर्ष निकाला है कि विज्ञान जिस जगत का वर्णन करता है, वह और भी अधिक आत्म परक होता है, जबकि अभी तक कथित पदार्थवादी या वैज्ञानिक भौतिकतावादी इसी बात पर जोर देते थे कि अध्यात्मवादियों का सम्पूर्ण चिन्तन आत्मनिष्ठ होता है, वस्तुपरक नहीं और वस्तुपरक चिन्तन तो मात्र विज्ञान द्वारा ही सम्भव है।

एडिंगटन ने अपनी बात एक उदाहरण द्वारा समझाई है। उनका कहना है कि जिस प्रकार एक मछुआ कुछ मछलियों को पकड़ता है, फिर वह वर्णन करता है—कि मछलियां इस-इस तरह की होती हैं। अब, मछुए का यह वर्णन सिर्फ उन्हीं मछलियों पर लागू होता है, जिन्हें उसने पकड़ा है। उसी प्रकार भौतिक-शास्त्र का विश्व-सम्बन्धी ज्ञान केवल उन्हीं वस्तुओं पर लागू हो सकता है, जिन्हें हम अपनी इन्द्रियों, उपकरणों तथा बुद्धि की पकड़ में ला सकते हैं। इस प्रकार भौतिक शास्त्र में जिसे हम सामान्य कथन या प्रकृति के नियम कहते हैं, वे एक ऐसे संसार का वर्णन है जो हमारे अपने बोध पर निर्भर है। इसे ही एडिंगटन ‘‘चयनात्मक आत्मनिष्ठता वाद’’ (सिलेक्टिव सब्जेक्टिविज्म) कहते हैं।

इसीलिए जाक रुएफ ने ‘‘फ्राम द फिजीकल टू द सोशल साइन्सेज’’ में लिखा है—‘‘हमारे पास यह कहने का कोई आधार नहीं है कि भौतिक शास्त्र के सिद्धान्त जिन कारणों का उद्घाटन करते हैं, वे वस्तुओं की असली प्रकृति हैं।’’ उदाहरण के लिए इलेक्ट्रान, प्रोटान आदि को लें। इनकी असली प्रकृति क्या है, यह पूरी तरह कोई वैज्ञानिक नहीं कह सकता। जिस रूप में इनका वर्णन किया जाता है, वह वैज्ञानिकों के विभिन्न प्रेक्षणों (आब्जर्वेशन्स) को सम्बद्ध करने के लिये आवश्यक गुण मात्र हैं। इनकी वास्तविक सत्ता का पूर्ण विवरण ज्ञात नहीं है।

विज्ञान के द्वारा आविष्कृत इस ‘अनिश्चयात्मकता’ ने आज जहां एक ओर ऐसे ‘दर्शनों’ को जन्म दिया है, जो ‘दर्शन-शास्त्र’ मात्र के विरोधी हैं, तथा जिनका कहना है कि सृष्टि सम्बन्धी कोई भी दार्शनिक-समीक्षा मात्र परि कल्पनात्मक होती है, उसकी वास्तविकता की जांच सम्भव नहीं है, वहीं दूसरी ओर अनेक स्थापित वैज्ञानिक सिद्धान्तों के पैर उखाड़ दिये हैं।

विटगेन्स्टाइन तथा अन्य तर्कमूलक भाववादियों (लाजिकल पाजिटिह्विस्ट्स) की मान्यता है कि प्रकृति के नियम सामान्य कथन नहीं हो सकते, बल्कि वे ‘प्रोपोजीशनल फन्क्शन’ मात्र होते हैं। उनके द्वारा विवर्तमान मूल्यों के विभिन्न मान रखकर परीक्षण के लिए विशेष कथन तो प्राप्त किए जा सकते हैं, पर कोई सामान्य कथन नहीं निकाले जा सकते, जबकि वैज्ञानिक प्रवर आइन्स्टाइन मानते थे कि प्रत्येक वैज्ञानिक इस निश्चित धारणा के साथ ही अनुसंधान करता है कि यह विश्व एक सुसंगत तथा कारण-कार्यमूलक इकाई है। देखने में ये दोनों निष्कर्ष परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं, पर ये वैसे ही हैं नहीं। ये वस्तुतः यथार्थ के दो भिन्न-भिन्न स्तरों के भिन्न-भिन्न विश्लेषण हैं।

आज विज्ञान भी यथार्थ एवं आभास का अन्तर कह, मान रहा है वेदान्त-मत में इसे ही पारमार्थिक सत्य तथा व्यावहारिक सत्य के रूप में विश्लेषित किया गया है। वैज्ञानिकों द्वारा यथार्थ का यह परीक्षण कि सृष्टि की मूल सत्ता उस रूप में नहीं है, जैसी कि व्यवहारतः हम जानते-मानते हैं, वेदान्त के सर्वदा अनुरूप है। यह ध्यान रहे कि वैज्ञानिक यह कतई नहीं मानते कि विश्व कुछ है ही नहीं और सब ‘शून्य’ है। एडिंगटन ने ‘न्यू पाथवेज इन साइन्स’ नामक ग्रन्थ में स्पष्ट कहा है कि ‘‘मेरा तात्पर्य यह कथमपि नहीं कि भौतिक विश्व का अस्तित्व ही नहीं है।’’ वस्तुतः भौतिक विश्व व्यवहारतः पूर्ण सत्य है, उसमें एक निश्चित विधि व्यवस्था है, क्रम बद्धता है। अनिश्चय के सिद्धान्त का भी यह अर्थ नहीं कि इस दुनिया में सभी कुछ अनिश्चित है। इससे सर्वथा विपरीत वैज्ञानिकों और वेदान्तियों का यह मत है कि सृष्टि में सर्वत्र कारण-कार्य भाव विद्यमान है। प्रत्येक कार्य का एक निश्चित कारण है। अनिश्चय के सिद्धान्त से तात्पर्य यह है कि वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा हम सृष्टि की मूल सत्ता को पूरी तरह कभी नहीं जान सकते, क्योंकि प्रयोग के उपकरण और माध्यम भी उसी सृष्टि के अंश है, जिसका परीक्षण किया जा रहा है।

वैज्ञानिक विश्लेषणों के तीन मुख्य दार्शनिक निष्कर्ष है:— (1) ब्रह्माण्ड का आदि कारण कोई अति सूक्ष्म एकमेव सत्ता है, जो चेतन है, किन्तु पूरी तरह पदार्थ विहीन नहीं। तरंगों का जो रूप ज्ञात हुआ है, वह प्रकृति की मूल शक्ति के सापेक्ष स्वरूप को स्पष्ट करता है। प्रकृति की यह मूल शक्ति वेदान्त-विचार की माया की तरह अवरार्य, अव्यारव्येय है। शुद्ध माया या मूलशक्ति तो चेतन से घनिष्ठता से सम्बद्ध है, पर स्वयं चैतन्यमात्र नहीं। वह पूरी तरह ‘द्रव्यातीत’ नहीं है।

(2) सृष्टि का ठीक-ठीक स्वरूप जाना नहीं जा सकता। क्योंकि हमारे ज्ञान की सीमाएं हैं, उसके द्वारा हम उससे परे का यथार्थ नहीं जान सकते।

(3) वैज्ञानिकों का तीसरा निष्कर्ष यह है कि भौतिक विश्व आभास का (एपियरेन्स का) क्षेत्र है, यथार्थ का नहीं। यथार्थ उसकी पृष्ठभूमि में है। अर्थात् विश्व की व्यावहारिक सत्ता है, पारमार्थिक या परम् यथार्थ सत्ता नहीं है। स्पष्टतः यह वेदान्त मत के अनुसार है।

अपनी पुस्तक ‘‘दि न्यू बैकग्राउंड आफ साइन्स’’ में सर जेम्स जीन्स ने भी कहा है—‘‘सृष्टि में हम जो विधि व्यवस्था पाते हैं, वे अत्यन्त स्पष्टता तथा सरलता से आइडियलिज्म की भाषा में वर्णित— व्याख्यायित हैं।’’

यथार्थ और आभास (रियलिटी एण्ड अपियरेन्स) की विवेचना करते हुए वैज्ञानिक अब इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि प्रकृति को हम पूरी तरह कभी भी जान नहीं सकेंगे। उसका मूल स्वरूप सदा ही अज्ञात रहेगा। क्योंकि जैसे ही हम ‘जानने’ की चेष्टा करते हैं, हम उसमें ‘व्यवधान’ उपस्थित करने लगते हैं। इसीलिए महान वैज्ञानिक हेजनबर्ग ने ‘अनिश्चय का सिद्धान्त’ प्रतिपादित किया है। उन्होंने स्पष्ट किया कि किसी माध्यम के द्वारा फिर वह प्रकाश हो, ऊर्जा हो या कुछ और जैसे ही हम ‘मैटर’ के किसी अंश से सम्पर्क करते हैं, हम उसके प्राकृतिक स्वरूप में व्यवधान उपस्थित कर देते हैं। इस प्रकार इलेक्ट्रान का असली स्वरूप क्या है, यह कभी भी नहीं जाना जा सकता। जब हम इलेक्ट्रान की स्थिति एवं वेग का प्रकाश की सहायता से सूक्ष्म उपकरणों द्वारा परीक्षण करते हैं, तो प्रकाश का यह सहयोग कथित ‘इलेक्ट्रान’ की स्वाभाविक दशा को निश्चित ही प्रभावित कर देता होगा। फिर परीक्षण के लिए प्रयुक्त उपकरण भी उसी सृष्टि के एक अंश हैं, जिनके द्वारा कि उस ‘सृष्टि’ का रहस्य जानने का प्रयास किया जा रहा होता है। इन उपकरणों का सम्पर्क परीक्षित किए जा रहे अंश को स्वाभाविक नहीं रहने दे सकता। इस प्रकार प्रयोगों द्वारा यथार्थ सत्ता का ज्ञान असम्भव है। जगत का स्वरूप समझने की वैज्ञानिक विधि इन्द्रिय ज्ञान तक सीमित है। सूक्ष्म दर्शी यन्त्रों द्वारा एकत्र जानकारी मस्तिष्क को इन्द्रियों द्वारा ही मिलती है। स्थूल दृश्य जगत की यथार्थता जानने—समझने में ही हमारी ज्ञानेन्द्रियां बराबर धोखा खाती रहती हैं, मस्तिष्क भी पग-पग पर भ्रम में पड़ता रहता है। स्पष्ट है कि इन आधारों पर जब प्रत्यक्ष-जगत के बारे में ही सही निष्कर्ष निकाल पाना सम्भव नहीं, तो अदृश्य सूक्ष्म जगत में तो हमारी सीमाएं स्पष्ट हैं। अणु संरचना के स्पष्टीकरण में उपकरणों द्वारा जो जानकारी ओर सहायता एकत्र की गई है, उससे अधिक आश्रय का अनुमान पर आधारित गणित परक आधारों का लिया गया है, तभी कुछ निष्कर्ष निकालने जा सके हैं। यथार्थ की तह तक पहुंचने के लिए सत्य को प्रत्यक्ष करने के लिए परख के आधार को अधिक विस्तृत करना होगा। इस दिशा में विज्ञान के प्रयास चल पड़े हैं। इस तरह से अच्छा हो, यदि हम धर्म को ‘‘अपूर्ण विज्ञान’’ कहें और विज्ञान को ‘‘अपूर्ण धर्म’’। यह पर्यायवाची शब्द जहां उनकी निजी विशेषताओं पर जरा भी आंच नहीं लाते, वहीं उनकी अपूर्णता और अन्योन्याश्रितता को भी उभार कर हमारे सामने लाते हैं, और हमारी इस भ्रांति का दूर करते हैं कि उनमें कोई एक प्रमुख और प्रभावशाली है, तथा दूसरा गौण और मुखापेक्षी।

वास्तविकता यह है कि मानव रचना में आत्मतत्व और अनात्म तत्व दोनों लगे हैं। दोनों के तालमेल से ही जीवन सुसंगठित सन्तुलित और उन्नत हो सकता है। आत्म विज्ञान और पदार्थ विज्ञान, दोनों का सानुपातिक समन्वय ही इहलोक और परलोक को उत्साह व समृद्धि के तथा सन्तोष व आनन्द से भर सकता है। धर्म और विज्ञान का—अर्थात् आत्मा और अनात्म पक्षों का—अर्थात् परमात्मा और माया का—अर्थात् आत्म कल्याण और विश्व कल्याण का—अर्थात् परलोक और इहलोक का ऐसा बुद्धिमत्तापूर्ण योग ही व्यावहारिक और उचित है।

पिछले कुछ समय की तथा वर्तमान समय की धर्म और विज्ञान क्षेत्रों की गतिविधियां इस बात का संकेत दे रही हैं कि उनके बीच की कृत्रिम दीवारों के ढहने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो चुकी है। पूर्व काल में धर्म द्वारा निन्दित ओर दण्डित विज्ञान आज धर्म से हाथ मिलाकर उसे अपनी वैज्ञानिकता प्रदान कर रहा है, दूसरी ओर धर्म के शाश्वत सिद्धान्तों ने सर्वोच्च कोटि के वैज्ञानिकों के चिन्तन को परम सत्य की शोध तथा मानव कल्याण के प्रयास की दिशा में बढ़ने की सफल प्रेरणा दी है। प्रकृति के मूलभूत नियमों की खोज, परामनोविज्ञान आदि धर्म और विज्ञान के मध्य सेतु बनने जा रहे हैं। इस बात के लक्षण दिखाई देने लगे हैं कि सम्पूर्ण मानवता की एक आत्मा की घोषणा करने वाला वैज्ञानिक धर्म भविष्य के गर्भ में विकसित हो रहा है। विभिन्न विशिष्ट विज्ञान भी परस्पर समन्वित होकर एक विज्ञान का रूप धारण करने की दिशा में बढ़ रहे हैं। आशा की जानी चाहिए कि ऐसा समन्वित विज्ञान स्वयं को तथा धर्म को एक ही वृहद सत्य के दो परस्पर सम्बन्धित पक्ष सिद्ध कर सकेगा। अविच्छिन्न रूप से जुड़े तथा एक दूसरे को पोषित करने वाले धर्म और विज्ञान की, अर्थात् वैज्ञानिक धर्म और धार्मिक विज्ञान की आज के विश्व में महती आवश्यकता है। इनके प्रादुर्भाव और क्रियाशील होने के पश्चात् ही विश्व-शान्ति और विश्व-बन्धुत्व की कल्पनाएं सार्थक हो सकेंगी।

अकेला विज्ञान उलझन बढ़ायेगा—

पदार्थ का सूक्ष्मतम घटक जब परमाणु माना जाता था, वह बात बहुत पुरानी हो गई। परमाणु भी इलेक्ट्रोन प्रोटोन, न्यूट्रोन आदि अनेक घटकों में विभाजित हो गया और उसका स्थान एक संघ संचालक भर का रहा गया है।

विज्ञान क्रमशः आगे ही आगे बढ़ते-बढ़ते पदार्थ की मूल इकाई को तलाश करने की दिशा में पिछली शताब्दियों और दशाब्दियों की तुलना में बहुत प्रगति कर चुका है और अब बात चेतना के घटक समुदाय तक का स्पर्श करने लगी है। इन दिनों चेतना के मूल घटक के रूप में एक नये घटक की मान्यता मिली है। उसका नामकरण हुआ है—साइकोट्रान। इस नयी खोज का स्वरूप जिस तरह सामने आया है उससे जड़-चेतन का मध्यवर्ती विवाद निकट भविष्य में नये करवट बदलता दिखाई पड़ता है। इसलिए उस परिशोध को असाधारण महत्व दिया गया है। उसकी खोज पर विज्ञान जगत का ध्यान नये सिरे से केन्द्रीभूत हुआ है और उसकी शोध को एक अतिरिक्त प्रकरण की तरह मान्यता मिल रही है। इसकी शोधचर्या को साइकाट्रानिक विज्ञान नामक एक अतिरिक्त धारा ही मान लिया गया है। जुलाई 75 की अन्तर्राष्ट्रीय विज्ञान परिषद के अधिवेशन में यह प्रसंग उभरा था तब से लेकर अब तक इन तीन वर्षों की अवधि में बहुत काम हो चुका है और पदार्थ की नई परिभाषा करने की तैयारियां जोरों से चल रही हैं। इस अभिनव शोध धारा ने पदार्थ सत्ता और मनुष्य की अन्तःचेतना को पारस्परिक तारतम्य बिठाने वाला आधार ढूंढ़ निकाला है। चेतना ऊर्जा और पदार्थ ऊर्जा में दिखाई देने वाली भिन्नता इस आधार पर अधिकतम निकट तो दीख ही रही है उसके अविच्छिन्न सिद्ध होने की भी सम्भावना है।

फोटोग्राफी में प्रायः उन्हीं पदार्थों के चित्र उतरते थे जो आंखों की सहायता से देखे जा सकते हैं। सूक्ष्म दर्शी और दूरदर्शी यन्त्रों की सहायता से जो देखा जा सका वह भी नेत्रों की परिधि में ही आया समझा जाना चाहिए। कैमरों का लेन्स प्रकारान्तर से नेत्र की ही अनुकृति है। साइक्राट्रानिक विज्ञान के अन्तर्गत क्लिर्लियन फोटोग्राफी के आधार पर अब भाव सम्वेदनाओं के उतार-चढ़ावों को भी फोटो प्लेटों पर कैद कर सकना सम्भव हो गया है। इस सफलता से यह निष्कर्ष निकालता है कि ताप, तरंगों—ध्वनि, कम्पनों और रेडियो विकरण की तरह इस अनन्त ब्रह्माण्ड में भाव सम्वेदनाएं भी प्रवाहमान रहती हैं और अभीष्ट लक्ष्य तक पहुंच कर विशिष्ट प्रभाव उत्पन्न करती हैं। यदि लेसर आदि किरणें किसी अभीष्ट स्थान तक पहुंचा कर इच्छित प्रभाव उत्पन्न किया जा सकता है तो अब यह मानने के पक्ष में भी आधार बन गया है कि विचारणाएं एवं भावनाएं भी अमुक व्यक्ति को वही, अमुक पदार्थ को भी प्रभावित कर सकती है। बन्दूक की गोली अन्तरिक्ष में तैरती हुई निशान तक पहुंचती और प्रहार करती हैं। रेडियो टेलीफोन भी व्यक्तिगत वार्तालाप की भूमिका बनाते है। भाव-सम्वेदना को पदार्थ सत्ता के साथ तालमेल बिठा सकने वाला साईकोट्रानिक्स भी इस सम्भावना को प्रशस्त करता है कि भाव-सम्वेदनाएं भी अब भौतिक पदार्थों को प्रभावित करने में समर्थ रह सकेंगी।

परम्परागत मान्यता में इतना तो जाना और माना जाता रहा है कि पदार्थ से चेतना प्रभावित होती है। सौंदर्य और कुरूपता से दृष्टि मार्ग द्वारा मस्तिष्क में उपयुक्त एवं अनुपयुक्त भाव-सम्वेदनाएं उत्पन्न होती हैं। अन्य इन्द्रियां भी जो रसास्वादन करती हैं उनसे भी चेतना को प्रसन्नता, अप्रसन्नता होती है। त्वचा द्वारा ऋतु प्रभाव की प्रतिक्रियाएं अनुभव की जाती हैं और उनसे प्रिय-अप्रिय का भान होता है। चोट लगने आदि का, प्यास बुझाने जैसी पदार्थ-जन्य हलचलों का मनः संस्थान पर प्रभाव पड़ता है। अब नये तथ्य सामने इस प्रकार आ रही हैं मानो चेतना में भी यह शक्ति विद्यमान है जिससे पदार्थों एवं प्राणियों के शरीरों को भी प्रभावित किया जा सकता है। इस प्रकार के प्रमाण मिलते तो पहले से भी रहे हैं किन्तु उनके कारण न समझे जाने से किसी मान्यता पर पहुंच सकना सम्भव न हो सका।

अतीन्द्रिय क्षमता मनुष्य में विद्यमान है और वह कई बार ऐसी जानकारियां देती है जो उपलब्ध इन्द्रिय शक्ति को देखते हुए असम्भव लगती है। ऐसी घटनाओं को या तो छल, भ्रम आदि कहकर झुठला दिया जाता है या फिर दैवी चमत्कार का नाम देकर किसी अविज्ञात एवं अनिश्चित के गर्त में धकेल कर पीछा छुड़ा लिया जाता है। पैरासाइकोलॉजी-मैटाफिजिक्स के आधार पर जो शोधें हुई हैं उनसे इतना ही जाना जा सकता है कि चमत्कारी अनुभव और घटनाक्रम होते हैं। वे प्रपंच नहीं तथ्य हैं। इतने पर भी यह नहीं जाना जा सका कि भौतिकी के किन नियमों के आधार पर ऐसा हो सकने की बात सिद्ध की जा सकती है। अतीन्द्रिय क्षमता को मान्यता तो मिले, पर उसके कारणों का पता न चल सके तो वस्तुतः यह एक बड़े असमंजस की बात है। अब तक स्थिति ऐसी ही रही है।

चमत्कारी सिद्धियों और शक्तियों से यही प्रमाणित होता है कि पदार्थ ही चेतना को प्रभावित नहीं करता वरन् चेतना भी पदार्थ को प्रभावित कर सकने में समर्थ है। मैस्मरेजम हिप्नोटिज्म के आविष्कार ने इस दिशा में एक और प्रमाण मूल तथ्य सामने रखा था फिर भी बात अधूरी ही रही। प्राण ऊर्जा को मान्यता देने के लिए तथ्य तो विवश करते थे, पर साहसिक प्रतिपादन कैसे सम्भव हो? विज्ञान की किस शाखा के आधार पर इसका सुनिश्चित समर्थन किया जाय? अटकलें तो लगती रही हैं और कुछ संगति बिठाने के लिए तर्क और प्रमाण भी प्रस्तुत किये जाते रहे हैं, पर वह सब रहा संदिग्ध ही। जब तक कुछ प्रामाणिक तथ्य सामने न आयें तो उसे निश्चित कहने का साहस किस आधार पर किया जाय?

साइकोट्रानिक्स ने इस असमंजस को किसी निष्कर्ष तक पहुंचाने की आधारशिला रख दी है और उस सिद्धान्त को उजागर किया है जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि चेतना और पदार्थ के बीच तालमेल बिठाने वाले कोई सुनिश्चित सूत्र विद्यमान हैं। वे दोनों परस्पर गुथे हुए ही नहीं हैं वरन् एक ही सत्ता के दो रूप हैं जिन्हें प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष की संज्ञा दी जा सकती है। इस विज्ञान के अन्तर्गत चेतना की एक अति प्रभावशाली क्षमता—साइकोकायनेनिस—दूरस्थ व्यक्ति के प्रति आदेश प्रोक्षण क्षमता को तथ्य रूप में स्वीकार कर लिया गया है।

साइकाट्रानिक विज्ञान के मूर्धन्य शोधकर्त्ता डा. राबर्ट स्टोन का प्रतिवेदन है कि जड़ और चेतन के विवाद को सुलझाने के लिए जब तक जो प्रयत्न चलते रहे हैं उसे देर तक अनिश्चित स्थिति में न पड़ा रहने देने की चुनौती स्वीकार कर ली गई है और अपनी पीढ़ी के ही शोधकर्ता किसी निश्चित स्थिति तक पहुंच जाने योग्य आधार प्राप्त कर चुके हैं। विज्ञान की पिछली पीढ़ी के कुलपति आइन्स्टाइन के नेतृत्व में स्पेस—टाइम—युनिवर्स के सिद्धान्त ने काफी प्रगति की थी उससे ब्रह्माण्ड की मूल स्थिति को समझ सकने के लिए आशाजनक पृष्ठ भूमि बनी थी। अब साइकाट्रानिक्स ने और बड़ा प्रकाश प्राप्त किया है। गुत्थी को अपेक्षाकृत अधिक अच्छी तरह सुलझाने में उससे भारी सहायता मिलेगी।

गत वर्ष टोकियो के अन्तर्राष्ट्रीय विज्ञान कान्फ्रैन्स के अधिवेशन में भी यह प्रसंग प्रधान रूप से चर्चा का विषय रहा। स्टेन फोर्ड रिसर्च इन्स्टीट्यूट ने तो अपने कन्धे पर उस धारा के सम्बन्ध में अधिक विस्तार पूर्वक उच्चस्तरीय शोध करने के लिए मूल्यवान साधन भी जुटा लिये हैं।

चन्द्रमा के धरातल पर उतरने वाले 11वें वैज्ञानिक एवं नोयटिक साइन्स इन्स्टीट्यूट के संस्थापक एडगर निचेल ने अपनी चन्द्र यात्रा से लौटने के उपरान्त यह मानना और कहना जोरों से शुरू कर दिया है कि—ब्रह्माण्ड की संरचना जिन पदार्थों से हुई है वे किसी चेतना प्रवाह के उद्गम आविर्भूत हुए हैं। भौतिक नहीं है। पदार्थ को जिन प्रतिबन्धों में बंध कर परिपूर्ण अनुशासन में रहना पड़ रहा है। वह संयोग मात्र नहीं वरन् किसी महती विश्व व्यवस्था का अंग है।

इस दिशा में मनोविज्ञानी डा. कार्ल सिमण्टन ने एक साधन सम्पन्न अस्पताल की स्थापना की है जिसमें चिकित्सा का जो नया आधार खड़ा किया है उसमें साइकोट्रानिक्स के सिद्धान्तों को ही क्रियान्वित किया गया है। यह प्रचलित मानसिक चिकित्सा से भिन्न है। इन दिनों मानसोपचार में सजेशनों को ही आधार भूत माना जाता है। स्व संकेत पर संकेत की जो प्रक्रिया पिछले दिनों हिप्नोटिज्म प्रतिपादनों के सहारे चलती रही है इस नये प्रयोग में उससे बहुत आगे की बात है। इसमें विचार सम्प्रेषण को—एक शक्ति एवं औषधि के रूप में रोगी के शरीर और मस्तिष्क में प्रवेश कराया जाता है। परिणामों को देखते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा रहा है कि विचार सम्प्रेषण पद्धति प्रचलित अन्य चिकित्सा पद्धतियों की तुलना में किसी दृष्टि से पीछे नहीं हैं। उसके उत्साहवर्धन परिणामों का अनुपात अन्य उपचारों की सफलता के समतुल्य नहीं वरन् अग्रगामी है।

इस क्षेत्र में अधिक तत्परतापूर्वक शोध प्रयत्नों में लगे हुए डा. स्टोन ने मस्तिष्क विधा के परीक्षण निष्कर्षों का प्रतिफल यह बताया है कि मानवी मस्तिष्क का बांया भाग तो उसकी निजी आवश्यकताएं जुटाने में लगा रहता है और दाहिना भाग इस सुविस्तृत ब्रह्माण्ड के साथ अपना तालमेल बिठाता और आदान-प्रदान बनाता रहता है। वह सम्पर्क एवं वातावरण से प्रभावित होता भी है और उसे प्रभावित करता भी है। सामान्यतया यह प्रक्रिया उतना ही छोटी परिधि में चलती है जिससे व्यक्ति को छोटा व्यक्तित्व अपनी सीमित इच्छाओं के अनुरूप सुविधा और सुरक्षा पाने में किसी कदर समर्थ होता रहा सके। किन्तु इस परिधि का विकास होना सम्भव है। इस बात की पूरी सम्भावना है कि व्यक्ति की चेतना यदि अपने को अधिक समुन्नत स्थिति तक विकसित कर सके तो वातावरण से प्रभावित होने और प्रभावित करने से जो लाभ उठाया जा सकता है उसे उठा सके। स्टोन के कथनानुसार कला, संस्कृति, दर्शन तथा सम्वेदनाओं का बहुत कुछ आधार मस्तिष्क के इस दाहिने भाग पर ही बहुत कुछ निर्भर रहता है। अतीन्द्रिय क्षमता का परिचय देने वालों के मस्तिष्क का यह दाहिना भाग—सेरीव्रम-अधिक सक्षम, परिपुष्ट पाया गया है। रहस्यों को जानने और अद्भुत कर सकने की चमत्कारी विशेषताएं विकसित करने का श्रेय इसी भाग को है। इस क्षेत्र की क्षमताएं भौतिक क्षेत्र से विकसित होने पर व्यापक पदार्थ सम्पदा के साथ अपनी घनिष्ठता स्थापित कर सकती हैं और ज्ञान एवं कर्म का क्षेत्र सीमित न होकर असीम बन सकता है। ऐसे ही आन्तरिक क्षमता सम्पन्नों को देव मानवों की संज्ञा एवं श्रद्धा प्रदान की जाती रही है।

न्यूरो साइंटिस्ट डा. कार्लप्रिब्रम और फ्रिजिसिस्ट प्रो. डेविड ब्रोहम ने व्यक्ति और ब्रह्माण्ड के गहन रहस्यों की झांकी की है। उसे वे एक अद्भुत सत्य का अनिर्वचनीय आभास बताते हैं। दोनों के कथन मिलते-जुलते हैं वे मानवी मस्तिष्क इस निखिल ब्रह्माण्ड का लघु अणु रूप हैं। इसके प्रसुप्त संस्थानों को मेडीटेशन-ध्यान-जैसे उपचारों से जागृत बनाया जा सकता है। अपने ही, संकल्प बल से इस क्षेत्र में ‘साइकाट्रानिक लेसर बीम’ तैयार की जा सकती है। उसका मेट्रिक्स के अमेद्य समझे जाने वाले क्षेत्र में प्रवेश हो सकता है और ऐसा कुछ प्राप्त करने का अवसर मिल सकता है जो मनुष्य की वर्तमान क्षमता को असंख्य गुनी अधिक समुन्नत बनादे।

औसत व्यक्ति की भौतिक सम्पन्नता की तरह आन्तरिक क्षमता भी सीमित है। किन्तु यह सीमा बन्धन अकाट्य नहीं है। व्यक्ति प्रयत्नपूर्वक अपने को क्रमशः ससीम से असीम बनने की दिशा में निरन्तर प्रयत्न करता रह सकता है। यह विशालता विश्व सत्ता और आत्म-सत्ता के अन्तर को समाप्त करती है और सबको अपने में अपने को सब में देखने का अवसर मात्र भाव-सम्वेदना की दृष्टि से ही नहीं—तथ्यों के आधार पर भी उपलब्ध हो सकता है। आत्मा और परमात्मा का मिलन—नर का नारायण रूप में परिणित—जैसे अध्यात्म लक्ष्यों के साथ विकासोन्मुख आत्म सत्ता की संगति पूरी तरह बैठ जाती है।

जीवनी शक्ति—चेतन सत्ता एवं पदार्थ ऊर्जा के क्षेत्र पिछले दिनों एक सीमा तक ही पारस्परिक घनिष्ठता स्थापित कर सके हैं, पर अब यह सम्भावना प्रशस्त हो रही है कि तीनों को परस्पर पूरक और सुसम्बन्ध मान कर चला जाय और एक की उपलब्धि से अन्य दो धाराओं को अधिक सक्षम बनाकर अभाव ग्रस्तताओं से उबरा जाय। अगले कदम इस स्थिति का भी रहस्योद्घाटन कर सकते हैं कि चेतना सागर के अतिरिक्त इस विश्व ब्रह्माण्ड में और कुछ है ही नहीं। प्राणियों के स्वतन्त्र अस्तित्वों का दृश्यमान स्वरूप उसी स्तर का है जैसा कि समुद्र की सतह पर उतरने वाली लहरों का होता है। उनकी दृश्यमान पृथकता अवास्तविक और मध्यवर्ती एकता वास्तविक होती है। इस निष्कर्ष पर पहुंचने पर वेदान्त और विज्ञान दोनों एक हो जाते हैं। तत्वदर्शन और पदार्थ विज्ञान को एकीभूत करने के लिए नई शोध धारा साइकोट्रानिक्स के रूप में सामने आई है। उसका अभिनव प्रतिपादन, विश्लेषण प्रयोग और निष्कर्ष-सापेक्षवाद की तरह ही जटिल है। उन्हें ठीक तरह समझ सकना इन दिनों कठिन प्रतीत हो सकता है, पर इन सम्भावनाओं का द्वार निश्चित रूप से खुला है कि चेतना को विश्व की मूल भूत शक्ति मानने का सिद्धान्त सर्वमान्य बन सके। ऐसा हो सका तो भौतिकी को जो श्रेय इन दिनों प्राप्त है उससे कम नहीं वरन् अधिक ही आत्मिकी को प्राप्त होगा।
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