इक्कीसवीं सदी का संविधान

तो फिर हमें क्या करना चाहिए

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    इस पुस्तक को पढ़कर आपके मन एवं अंतःकरण में स्वयं के लिए, देश, धर्म और संस्कृति के लिए कुछ करने की उत्कंठा अवश्य जाग्रत हुई होगी। आप सोच रहे होंगे, आखिर हम क्या करें? घबराइए नहीं, श्रेष्ठ जीवन के लिए दैनिक जीवन में बहुत जटिलता की आवश्यकता नहीं होती। सरल सहज जीवन जीते हुए भी आप सुख- शांति अनुभव कर सकते हैं। व्यक्तित्व के सम्पूर्ण विकास के लिए तीन उपक्रम अपनाने होंगे- उपासना साधना, आराधना। उपासना के लिए नित्य १५ मिनट अथवा ३० मिनट का समय प्रातः स्नान आदि से निवृत्त होकर निकालें। देव मंदिर में ईश्वर के सान्निध्य में बैठें और देव शक्तियों के आशीर्वाद एवं कृपा की वर्षा का भाव रखते हुए अपने अंदर देवत्व की वृद्धि कर अनुभव करें। आपकी श्रद्धा जिस देवता, जिस मंत्र, जिस उपासना में अपने इष्ट के दैवीय गुणों के अपने अंदर वृद्धि का भाव अवश्य रखें। साधना प्रतिपल करनी होती है। ज्ञान और विवेक का दीपक निरंतर अपने अंतर में प्रज्ज्वलित रखें। निकृष्टता से बचने एवं उत्कृष्टता की ओर बढ़ने हेतु मनोबल रहें। दुर्गुणों से बचने एवं उत्कृष्टता की ओर बढ़ने हेतु मनोबल बढ़ाते रहें। दुर्गुणों से बचने एवं सद्गुणों को धारण करने में समर्थ बनें। यही साधना का स्वरूप है। इसके लिए प्रतिपल सतर्कता एवं जागृति आवश्यक है। देश, समाज, धर्म और संस्कृति के उत्थान के हेतु किए गए सेवा कार्य आराधना कहलाते हैं।

    पतन का निराकरण ही सर्वोत्कृष्ट सेवा है। सेवा साधना से पतन का निराकरण तब ही संभव है, जब व्यक्ति के चिंतन में आई आकृतियों और अवांछनीयताओं का उन्मूलन हो जाए। सेवा की उमंग है और सर्वोत्कृष्ट रूप की सेवा करने के लिए लगन है, तो इसी स्तर का सेवा कार्य आरंभ करना और चलाना चाहिए।

     प्रश्न यह उठता है कि इस स्तर की सेवा साधना किस प्रकार की जाए? मनुष्य के स्तर में आए हुए पतन को किस प्रकार मिटाया जाए और उसे उत्थान की ओर अग्रसर किया जाए। स्पष्ट है कि यह कार्य विचारों और भावनाओं के परिष्कार द्वारा ही किया जा सकता है। इसके लिए विचार परिष्कार की प्रक्रिया चलानी चाहिए तथा उत्कृष्ट और प्रगतिशील सद्विचारों को जन- जन तक पहुँचाना चाहिए। यह सच है कि समाज में जो कुछ भी अशुभ और अवांछनीय दिखाई देता है, उसका कारण लोगों के व्यक्तिगत दोष ही हैं। उन दोषों की उत्पत्ति व्यक्ति की दूषित विचारणाओं तथा विकृत दृष्टिकोणों से होती है। भोग प्रधान आकांक्षाएँ रखने से मनुष्यों की अतृप्ति बढ़ जाती है और वे अधिक सुख सामग्री की माँग करते हैं। स्वार्थ के कारण ही छीना झपटी और चालाकी बेईमानी बढ़ती है। श्रम से बचने और मौज करने की इच्छाएँ जब तीव्र हो जाती है, तो उचित- अनुचित का विचार छोड़कर लोग कुमार्ग पर चलने लगते हैं, जिसका परिणाम उनके स्वयं के लिए ही नहीं सारे समाज के लिए भी घातक होता है। इस अदूरदर्शितापूर्ण प्रक्रिया को अपनाने से ही संसार में सर्वत्र दुःख- दैन्य का विस्तार हुआ है।

     पतन का निवारण करने के लिए मानवीय दृष्टिकोण में परिवर्तन करना आवश्यक है और उस परिवर्तन के लिए मनुष्य का जीवन- दर्शन भी ऊँचा बनाया जाना चाहिए। पतित भावनाओं वाले व्यक्ति के लिए लाँछना एवं आत्म- ग्लानि की व्यथा कष्टदायक नहीं होती, वह निर्लज्ज बना कुकर्म करता रहता है। जब लोक मानस का स्तर भावनात्मक दृष्टि से ऊँचा उठेगा तब ही जीवन में श्रेष्ठता आएगी और उसी के आधार पर विश्व शांति की मंगलमय परिस्थितियाँ उत्पन्न होंगी।

     आज का मनुष्य सभ्यता के क्षेत्र में विकास करने के साथ- साथ इतना विचारशील भी बना है कि यदि उसे तथ्य समझाए जाएँ, तो वह उन्हें समझने और मानने के लिए तैयार हो जाता है। लोकसेवियों को इस प्रयोजन के लिए घर- घर जाना चाहिए और लोगों की आस्थाएँ, मान्यताएँ तथा विचारणाएँ परिष्कृत करने के लिए प्रयत्न करना चाहिए।

     प्रत्येक व्यक्ति इतना बुद्धिमान और प्रतिभाशाली नहीं होता कि वह तथ्यों को सही- सही समझा सके और किस परिस्थितियों में क्या किया जाना चाहिए, इसका मार्गदर्शन कर सके। इसके लिए सुलझी विचारधारा का साहित्य लेकर निकलना चाहिए तथा लोगों को उसे पढ़ने तथा विचार करने की प्रेरणा देनी चाहिए, उसके साथ अशिक्षित व्यक्तियों के लिए पढ़कर सुनाने या परामर्श द्वारा प्रेरणा देने की प्रक्रिया चलाई जानी चाहिए। आरंभ में सभी लोगों की रुचि इस ओर नहीं हो सकती। अतः जो लोग ज्ञानयज्ञ की आवश्यकता समझते हैं, उन्हें चाहिए कि वे ऐसा विचार- साहित्य लोगों तक स्वयं लेकर पहुँचें। यह ठीक है कि कुआँ प्यासे के पास नहीं जाता, प्यासे को ही कुआँ के पास जाकर पानी पीना पड़ता है। गर्मियों में जब व्यापक जल संकट उत्पन्न हो जाता है, तो बादलों को ही जगह- जगह जाकर बरसना पड़ता है। लोक- सेवियों को भी सद्विचारों और सद्प्रेरणाओं की शीतल सुखद जलवृष्टि के लिए जन- जन तक पहुँचना चाहिए। उसके लिए उन व्यक्तियों में पहल सद्विचारों के प्रति भूख जगाना आवश्यक है। भूख उत्पन्न करने का यह कार्य सम्पर्क द्वारा ही संभव होता है। उसके बाद सद्विचारों और सत्प्रेरणाओं को उपलब्ध कराने की आवश्यकता है। यह आवश्यकता साहित्य और निम्न सेवा कार्यों द्वारा पूरी की जा सकती है।

 

    हमारी प्राथमिक आवश्यकता विचार क्रांति की है। ज्ञान यज्ञ इस युग का सबसे बड़ा पुण्य है। ज्ञान दान से बढ़कर आज की परिस्थितियों में कोई दान नहीं। ज्ञान साधना ही युग की सबसे बड़ी साधना है।

     आज की स्थिति में एक ही उपाय है, जिससे इस युगांतरकारी प्रबल प्रेरणा को घर- घर तक, जन- जन तक पहुँचाया जा सकता है। वह उपाय है- श्रीराम झोला पुस्तकालय। विचारशील व्यक्ति, जिनके मन में देश, धर्म, समाज, संस्कृति के प्रति दर्द हो, जो मानवीय आदर्शों को फलता- फूलता देखने को इच्छुक हों, जिन्हें सुन्दर और सुव्यवस्थित नवयुग के प्रति आकर्षण हो, वे अपना थोड़ा श्रम खर्च करने लगें, जीवन साहित्य को अपने थैले में रखें, स्वयं पढ़े और अपने हर शिक्षित सदस्य को पढ़ाएँ एवं अशिक्षितों को सुनाएँ।

      झोला पुस्तकालय अमृत बाँटने का, प्रकाश बाँटने का, कल्याण बाँटने का अभियान है। यह असीम दान और अनुपम पुण्य परमार्थ है। आत्मा की भूख अन्तःकरण की प्यास बुझाकर हम उतना पुण्य संचय कर सकते हैं, जितना करोड़ मन अन्नदान और लाख मीटर वस्त्रदान करने पर भी संभव नहीं। क्यों करें? कैसे करें?    

    () अब तक प्रज्ञा लघु पुस्तकमाला की दो सौ तीस पॉकेट बुक्स प्रकाशित हो चुकी हैं। परिजनों से अनुरोध है कि आप श्रीराम झोला पुस्तकालय के १२ सदस्य बनाने के लिए डाक खर्च सहित कुल १३०) रुपया मनीआर्डर या बैंक ड्राफ्ट द्वारा युग निर्माण योजना, मथुरा- ३ के नाम भेज कर सौ पॉकटे बुक्स अलग- अलग मँगा लें।

 () इनमें से अलग- अलग विषयों की आठ- आठ पुस्तकों के १२ सैट बना लें।

 () एक सदस्य से १२) रुपया लेकर उन्हें आठ पुस्तकों का एक सैट दे दें। इसी प्रकार १२ सदस्य बनाने हैं। प्रयत्न यही करें कि सभी सदस्य पास- पास रहने वाले हों। एक ही कार्यालय क कर्मचारियों को अथवा एक बाजार के दुकानदारों को अथवा एक ही मोहल्ले के परिजनों को सदस्य बनाया जाए।

   () सदस्य बनाते समय उन्हें १२) रुपया लेकर आठ पुस्तकें दे दें और उन्हें माह में अवश्य पढ़ लेने का अनुरोध करें। एक माह बाद यह सैट दूसरे सैट से बदलकर देने का आश्वासन भी उन्हें दे दें। इस प्रकार १२) रुपए खर्च करके वे १४४) रुपए की पुस्तकें एक वर्ष में पढ़ सकेंगे। इस योजना में प्रारंभ में आपको कुछ धन लगाना पड़ेगा, लेकिन वह धन सदस्य बनाते ही वापस मिल जाएगा।
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) सदस्यों को प्रतिमास सैट कैसे बदलकर दिए जाएँ इसके लिए यह विधि अपना सकते हैं। झोला पुस्तकालय चलाने वाले परिजन स्वयं प्रतिमाह सदस्य संख्या एक का सैट सदस्य संख्या दो को, सदस्य संख्या दो का सैट सदस्य संख्या तीन को, सदस्य संख्या तीन का सैट सदस्य संख्या चार को इसी प्रकार आगे बढ़ते हुए सदस्य संख्या १२ का सैट सदस्य संख्या एक को देकर बदल दें।
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) कुछ परिजन पढ़ी हुई पुस्तकों को खरीदने की माँग करेंगे। इसके लिए आपकी अतिरिक्त पुस्तकें अपने पास मँगाकर रखनी चाहिए। कुछ पुस्तकें खो जाती हैं, उनका मूल्य लेकर उनके स्थान पर दूसरी पुस्तक लगानी पड़ेंगी
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