मनुष्य की श्रेष्ठता की कसौटी यह होना चाहिए कि उसके द्वारा मानवीय उच्च मूल्यों का निर्वाह कितना हो सका, उनको कितना प्रोत्साहन दे सका। योग्यताएँ, विभूतियाँ तो साधन मात्र हैं। लाठी एवं चाकू स्वयं न तो प्रशंसनीय हैं, न निंदनीय। उनका प्रयोग पीड़ा पहुँचाने के लिए हुआ या प्राण रक्षा के लिए? इसी आधार पर उनकी भर्त्सना या प्रशंसा की जा सकती है। मनुष्य की विभूतियाँ एवं योग्यताएँ भी ऐसे ही साधन हैं। उनका उपयोग कहाँ होता है, इसका पता उसके विचारों एवं कार्यों से लगता है। वे यदि सद् हैं तो वह साधन भी सद् हैं, पर यदि वे असद् हैं तो वह साधन भी असद् कहे जाएँगे। मनुष्यता का गौरव एवं सम्मान इन जड़- साधनों से नहीं, उसके प्राणरूप सद्विचारों एवं सत्प्रवृत्तियों से जोड़ा जाना चाहिए। उसी आधार पर सम्मान देने, प्राप्त करने की परम्परा बनाई जानी चाहिए।
जिस कार्य से प्रतिष्ठा बढ़ती है, प्रशंसा होती है, उसी काम को करने के लिए, उसी मार्ग पर चलने के लिए लोगों को प्रोत्साहन मिलता है। हम प्रशंसा और निंदा करने में, सम्मान और तिरस्कार करने में थोड़ी सावधानी बरतें, तो लोगों को कुमार्ग पर न चलने और सत्पथ अपनाने में बहुत हद तक प्रेरणा दे सकते हैं। आमतौर से उनकी प्रशंसा की जाती है, जिन्होंने सफलता, योग्यता, सम्पदा एवं विभूति एकत्रित कर ली है। चमत्कार को नमस्कार किया जाता है। यह तरीका गलत है। विभूतियों को लोग केवल अपनी सुख- सुविधा के लिए ही एकत्रित नहीं करते वरन् प्रतिष्ठा प्राप्त करना भी उद्देश्य होता है। जब धन- वैभव वालों को ही समाज में प्रतिष्ठा मिलती है, तो मान का भूखा मनुष्य किसी भी कीमत पर उसे प्राप्त करने के लिए आतुर हो उठता है। अनीति और अपराधों की बढ़ोत्तरी का एक प्रमुख कारण यह है कि अंधी जनता सफलता की प्रशंसा करती है और हर असफलता को तिरस्कार की दृष्टि से देखती है। धन के प्रति, धनी के प्रति आदर बुद्धि तभी रहनी चाहिए जब वह नीति और सदाचारपूर्वक कमाया गया हो, यदि अधर्म और अनीति से उपार्जित धन द्वारा धनी बने हुए व्यक्ति के प्रति हम आदर दृष्टि रखते हैं तो इससे उस प्रकार के अपराध करने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन ही मिलता है और इस दृष्टि से अपराध वृद्धि को प्रोत्साहन ही मिलता है और इस दृष्टि से अपराध वृद्धि में हम स्वयं भी भागीदार बनते हैं।हमें मनुष्य का मूल्यांकन उसकी सफलताओं एवं विभूतियों से नहीं वरन् उस नीति और गतिविधि के आधार पर करना चाहिए, जिसके आधार पर वह सफलता प्राप्त की गई। बेईमानी से करोड़पति बना व्यक्ति भी हमारी दृष्टि में तिरस्कृत होना चाहिए और वह असफल और गरीब व्यक्ति जिसने विपन्न परिस्थितियों में भी जीवन के उच्च आदर्शों की रक्षा की, उसे प्रशंसा, प्रतिष्ठा, सम्मान और सहयोग सभी कुछ प्रदान किया जाना चाहिए। यह याद रखने की बात है कि जब तक जनता का, निंदा- प्रशंसा का, आदर- तिरस्कार का मापदण्ड न बदलेगा, तब तक अपराधी मूँछों पर ताव देकर अपनी सफलता पर गर्व करते हुए दिन- दिन अधिक उच्छृंखलता होते चलेंगे और सदाचार के कारण सीमित सफलता या असफलता प्राप्त करने वाले खिन्न और निराश रहकर सत्पथ से विचलित होने लगेंगे। युग- निर्माण सत्संकल्प में यह प्रबल प्रेरणा प्रस्तुत की गई है कि हम मनुष्य के मूल्यांकन की कसौटी उसकी सफलताओं एवं विभूतियों को नहीं सज्जनता और आदर्शवादिता को ही रखें।
पात्रता का विकास ही अनेकानेक विभूतियों और संपदाओं की उपलब्धि का एक मात्र मार्ग है।