इक्कीसवीं सदी का संविधान

मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप हैं

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    परिस्थितियों का हमारे ऊपर बड़ा प्रभाव पड़ता है। आस- पास का जैसा वातावरण होता है, वैसा बनने और करने के लिए मनोभूमि का रुझान होता है और साधारण स्थिति के लोग उन परिस्थितियों के साँचे में ढल जाते हैं। घटनाएँ हमें प्रभावित करती हैं, व्यक्ति का प्रभाव अपने ऊपर पड़ता है। इतना होते हुए भी यह मानना पड़ेगा कि सबसे अधिक प्रभाव अपने विश्वासों का ही अपने ऊपर पड़ता है। परिस्थितियाँ किसी को तभी प्रभावित कर सकती हैं, जब मनुष्य उनके आगे सिर झुका दे। यदि उनके दबाव को अस्वीकार कर दिया जाए तो फिर कोई परिस्थिति किसी मनुष्य को अपने दबाव में देर तक नहीं रख सकती। विश्वासों की तुलना में परिस्थितियों को प्रभाव निश्चय ही नगण्य है।

      कहते हैं कि भाग्य की रचना ब्रह्मा जी करते हैं। सुना जाता है कि कर्म- रेखाएँ जन्म से पहले ही लिख दी जाती हैं। ऐसा भी कहा जाता है कि तकदीर के आगे तदवीर की नहीं चलती। ये किंवदंतियाँ एक सीमा तक ही सच हो सकती हैं। जन्म से अंधा, अपंग उत्पन्न हुआ या अशक्त, अविकसित व्यक्ति ऐसी विपत्ति सामने आ खड़ी होती है, जिससे बच सकना या रोका जा सकना अपने वश में नहीं होता। अग्निकाण्ड, भूकम्प, युद्ध, महामारी, अकाल- मृत्यु दुर्भिक्ष, रेल, मोटर आदि का पलट जाना, चोरी, डकैती आदि के कई अवसर ऐसे आ जाते हैं और ऐसी विपत्ति सामने आ खड़ी होती है, जिससे बच सकना या रोका जा सकना अपने वश में नहीं होता। ऐसी कुछ घटनाओं के बारे में भाग्य या होतव्यता की बात मानकर संतोष किया जाता है। पीड़ित मनुष्य के आंतरिक विक्षोभ को शांत करने के लिए भाग्यवाद की तड़पन दूर करने के लिए डॉक्टर लोग नींद की गोली खिला देते हैं ,, मार्फिया का इंजेक्शन लगा देते हैं, कोकीन आदि की फुरहरी लगाकर पीड़ित स्थान को सुन्न कर देते हैं। ये विशेष परिस्थितियों के विशेष उपचार हैं। यदा- कदा ही ऐसी बात होती है, इसलिए इन्हें अपवाद ही कहा जाएगा।
       
पुरुषार्थ का नियम है और भाग्य उसका अपवाद। अपवादों को भी अस्तित्व तो मानना पड़ता है, पर उनके आधार पर कोई नीति नहीं अपनाई जा सकती, कोई कार्यक्रम नहीं बनाया जा सकता। कभी- कभी स्त्रियों के पेट से मनुष्याकृति से भिन्न आकृति के बच्चे जन्म लेते देखे गए हैं। कभी- कभी कोई पेड़ असमय में ही फल- फूल देने लगता है, कभी- कभी ग्रीष्म ऋतु में ओले बरस जाते हैं, यह अपवाद है। इन्हें कौतूहल की दृष्टि से देखा जा सकता है, पर इनको नियम नहीं माना जा सकता। इसी प्रकार भाग्य की गणना अपवादों में तो हो सकती है, पर यह नहीं माना जा सकता कि मानव जीवन की सारी गतिविधियाँ ही पूर्व निश्चित भाग्य- विधान के अनुसार होती हैं। यदि ऐसा होता तो पुरुषार्थ और प्रयत्न की कोई आवश्यकता ही न रह जाती। जिसके भाग्य में जैसा होता है, वैसा यदि अमिट ही है, तो फिर पुरुषार्थ करने से भी अधिक क्या मिलता और पुरुषार्थ न करने पर भी भाग्य में लिखी सफलता अनायास ही क्यों न मिल जाती?

       हर व्यक्ति अपने- अपने अभीष्ट उद्देश्यों के लिए पुरुषार्थ करने में संलग्न रहता है, इससे प्रकट है कि आत्मा का सुनिश्चित विश्वास पुरुषार्थ के ऊपर है और वह उसी का प्रेरणा निरंतर प्रस्तुत करती रहती है। हमें समझ लेना चाहिए कि ब्रह्मा जी किसी का भाग्य नहीं लिखते, हर मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है। जिस प्रकार कल का जमाया हुआ दूध आज दी बन जाता है, उसी प्रकार कल का पुरुषार्थ आज भाग्य बनकर प्रस्तुत होता है। आज के कर्मों का फल आज ही नहीं मिल जाता। उसका परिपाक होने में, परिणाम प्राप्त होने में, परिणाम निकलने में कुछ देर लगती है। यह देरी ही भाग्य कही जा सकती है। परमात्मा समदर्शी और न्यायकारी है, उसे अपने सब पुत्र समान रूप से प्रिय हैं, फिर वह किसी का भाग्य अच्छा, किसी का बुरा लिखने का अन्याय या पक्षपात क्यों करेगा? उसने अपने हर बालक को भले या बुरे कर्म करने की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान की है, पर साथ ही यह भी बता दिया है कि उनके भले या बुरे परिणाम भी अवश्य प्राप्त होंगे। इस प्रकार कर्म को ही यदि भाग्य कहें तो अत्युक्ति न होगी।

    हमारे जीवन में अगणित समस्याएँ उलझी हुई गुत्थियों के रूप में विकसित वेष धारण किए सामने खड़ी हैं। इस कटु सत्य को मानना ही चाहिए। उनके उत्पादक हम स्वयं हैं और यदि इस तथ्य को स्वीकार करके अपनी आदतों, विचारधाराओं, मान्यताओं और गतिविधियों को सुधारने के लिए तैयार हों, तो इन उलझनों को हम स्वयं ही सुलझा सकते हैं। बेचारे ग्रह- नक्षत्रों पर दोष थोपना बेकार है। लाखों- करोड़ों मील दूर दिन- रात चक्कर काटते हुए अपनी मौत के दिन पूरे करने वाले ग्रह- नक्षत्र भला हमें क्या सुख- सुविधा प्रदान करेंगे? उनको छोड़कर सच्चे ग्रहों का पूजन आरंभ करें, जिनकी थोड़ी- सी कृपा- कोर से ही हमारा सारा प्रयोजन सिद्ध हो सकता है, सारी आकांक्षाएँ देखते- देखते पूर्ण हो सकती हैं।

 

    नव- रात्रियों में हम हर साल नव दुर्गाओं की पूजा करते हैं, मानते हैं कि अनेक ऋद्धि- सिद्धियाँ प्रदान करती हैं। सुख- सुविधाओं की उपलब्धि के लिए उनकी कृपा और सहायता पाने के लिए विविध साधना व पूजन किए जाते हैं। जिस प्रकार देवलोकवासिनी नव दुर्गाएँ हैं, उसी प्रकार भू- लोक में निवास करने वाली, हमारे अत्यंत समीप, शरीर और मस्तिष्क में ही रहने वाली नौ प्रत्यक्ष देवियाँ भी हैं और उनकी साधना का प्रत्यक्ष परिणाम भी मिलता है। देवलोकवासिनी देवियों के प्रसन्न होने और न होने की बात तो संदिग्ध हो सकती है, पर शरीर- लोक में रहने वाली नौ देवियों की साधना का श्रम कभी भी व्यर्थ नहीं जा सकता। यदि थोड़ा भी प्रयत्न इनकी साधना के लिए किया जाए, उसका भी समुचित लाभ मिल जाता है। हमारे मनःक्षेत्र में विचरण करने वाली इन नौ देवियों के नाम हैं

            () आकांक्षा, () विचारणा, () भावना, () श्रद्धा, () प्रवृत्ति, () निष्ठा, () क्षमता, () क्रिया, () मर्यादा। इनको संतुलित करके मनुष्य अष्ट सिद्धियों और नव निद्धियों को स्वामी बन सकता है। संसार के प्रत्येक प्रगतिशील मनुष्य को जाने या अनजाने में इनकी साधना करनी ही पड़ी है और इन्हीं के अनुग्रह से उन्हें उन्नति के उच्चशिखर पर चढ़ने का अवसर मिला है।

          अपने को उत्कृष्ट बनाने का प्रयत्न किया जाए, तो हमारे संपर्क में आने वाले दूसरे लोग भी श्रेष्ठ बन सकते हैं। आदर्श सदा कुछ ऊँचा रहता है और उसकी प्रतिक्रिया कुछ नीची रह जाती है। आदर्श का प्रतिष्ठापन करने वालों को सामान्य जनता के स्तर से सदा ऊँचा रहना पड़ा है। संसार को हम जितना अच्छा बनाना और देखना चाहते हैं, उसकी अपेक्षा स्वयं को कहीं ऊँचा बनाने का आदर्श उपस्थित करना पड़ेगा। उत्कृष्टता ही श्रेष्ठता उत्पन्न कर सकती है। परिपक्व शरीर की माता ही स्वस्थ बच्चे का प्रसव करती है। आदर्श पिता बनें, तब ही सुसंतति का सौभाग्य प्राप्त कर सकेंगे। आदर्श पिता बनें, तब ही सुसंतति का सौभाग्य प्राप्त कर सकेंगे। यदि आदर्श पति हों, तो ही पतिव्रता पत्नी की सेवा प्राप्त कर सकेंगे। शरीर की अपेक्षा छाया कुछ कुरूप ही रह जाती है। चेहरे की अपेक्षा फोटो में कुछ न्यूनतम ही रहती है। हम अपने आपको जिस स्तर तक विकसित कर सके होंगे, हमारे समीपवर्ती लोग उससे प्रभावित होकर कुछ ऊपर तो उठेंगे, तो भी हमारी अपेक्षा कुछ नीच रह जाएँगे। इसलिए हम दूसरे से जितनी सज्जनता और श्रेष्ठता की आशा करते हों, उसकी तुलना में अपने को कुछ अधिक ही ऊँचा प्रमाणित करना होगा। हमें निश्चित रूप से यह याद रखे रहना होगा कि उत्कृष्टता के बिना श्रेष्ठता उत्पन्न नहीं हो सकती।

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