anachar se kaise nipte

रोकथाम भी और प्रतिरोध भी

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किशोरावस्था तेरह-चौदह वर्ष से आरम्भ होती है, पर वह चली जाती है पच्चीस-छब्बीस वर्ष तक। बिना मूंछ वाले ही नहीं मूंछ वाले तरुण भी किशोरों में गिने जाते हैं। कारण कि उनमें जोश तो असाधारण रहता है, पर होश की कमी पाई जाती है। होश का तात्पर्य है—दूरदर्शिता, विवेकशीलता। यह अनुभवजन्य होता है। अनेकों के साथ अनेक प्रकार की घटित हुई भली-बुरी घटनायें बताती हैं कि किसी क्रिया का क्या परिणाम होता है? किस प्रवाह में बहने पर कहां पहुंचा जा सकता है? यह बहुज्ञता से सम्बन्धित है। इसे बाह्य क्षेत्र में घटित होने वाली घटनाओं के द्वारा प्रस्तुत हुए परिणामों को देखकर अधिक सरलतापूर्वक जाना जा सकता है, पर यह कोई लक्ष्मण रेखा नहीं है। कितने ही विचारशील ऐसे भी होते हैं जो चिन्तन, मनन और कल्पना शक्ति के आधार पर उचित-अनुचित का निष्कर्ष निकाल लेते हैं। उनका पूर्व संचित ज्ञान और सज्जनों के साथ विचार-विनिमय भी बहुत कुछ सिखा देता है। सत्साहित्य का गम्भीरतापूर्वक अध्ययन करने पर भी मनीषियों के निर्धारणों, प्रतिपादनों से भी ऐसा बहुत कुछ सीखा जा सकता है जो बड़ी आयु के विचारशील ही बहुधा प्राप्त कर पाते हैं।
सही मार्ग पर चलते हुए प्रगति के उच्च शिखर पर पहुंचना और गलत दिशा में चल पड़ने पर अनेकानेक संकटों का सामना करना ऐसा तथ्य है जिसे जितनी जल्दी समझ लिया जाय उतना ही उत्तम है। इस संदर्भ में जहां जितनी कमी पाई जाती है वहां उतनी ही कच्ची-पक्की किशोरावस्था का अनुमान लगाया जा सकता है। यही वह अवधि है जिसे किसानों के बीज बोने वाली अवधि कहते हैं। मौसम के कुछ ही दिन ऐसे होते हैं जिनमें बीज बोने पर समुचित रीति से फसल उगती है। यदि यह समय चूक जाय तो समझना चाहिए कि फसल की बहुत बड़ी सम्भावना तिरोहित हो गयी। इस तथ्य को समझते हुए समझदार किसान बीज बोने की अवधि को विशेष रूप से ध्यान रखते हैं और उसे हाथ से नहीं जाने देते। किशोरावस्था को भी ठीक ऐसा ही अवसर माना जाना चाहिए। उसमें स्कूली शिक्षण ही नहीं साथ-साथ यह प्रयत्न भी चलना चाहिए कि सभ्यता सुसंस्कारिता पनपे और नागरिकता, सामाजिकता की मर्यादाओं का स्वभाव में समुचित समावेश चल पड़े।
उठती आयु के किशोर प्रायः स्कूल से चलकर घर तक और घर से चलकर स्कूल तक ही आते-जाते हैं। खेलकूद की आवश्यकता पास-पड़ोस में ही पूरी कर लेते हैं। अभिभावकों की नजर भी इन पर रहती है, पर आयु अठारह वर्ष से ऊपर निकल जाने और पच्चीस के लगभग पहुंचने तक स्थिति में भारी अन्तर आ जाता है। पढ़ना है तो कालेज जाना पड़ता है, जो घर से दूर होता है। जाने-आने में समय लगता है। सांस्कृतिक कार्यक्रम, स्काउटिंग खेलकूद आदि अन्यान्य प्रसंगों का भी समावेश होता है। इनमें भी समय लगता है। फिर पढ़ाई के सम्बन्ध में अन्य साथियों के घर पूछताछ करने की भी उपयोगिता समझी जाती है। ऐसे ही अनेक प्रसंगों को जोड़कर घर से बाहर रहने का वास्तविक या अवास्तविक कारण गिना देने का अवसर रहता है। इसी बचे हुए समय में यदि नवयुवक चाहें तो कुसंग में पड़ने के लिए अधिक समय निकाल सकते हैं। छोटे बच्चों को तो किसी दिशा में रुझान ही होता है, पर बड़ी आयु के किशोर तो उसे चरितार्थ भी कर सकते हैं। पढ़ाई के लिए, जेबखर्च के लिए कुछ पैसा भी उनके पास रहता है। उसे वे चाहें तो गलत कार्यों में खर्च भी करते रह सकते हैं। अभिभावकों तक वस्तुस्थिति वो छिपाये रहने में भी अपनी विकसित बुद्धि के सहारे सफल हो सकते हैं। नशेबाजी इन्हीं दिनों कुसंगति के कारण आरम्भ होती है। सिनेमा देखने का चस्का भी इसी खाली समय में लगता है। अश्लील हरकतों से लेकर आवारागर्दी तक के अनेकों दुर्व्यसन पल्ले बंध जाते हैं। यदि किन्हीं को सुयोग मिला तो वे शालीनता के वातावरण एवं समुदाय के साथ भी अपनी घनिष्ठता बना लेते हैं। इन्हीं दिनों अपने चिन्तन को किसी भली-बुरी दिशा के साथ जोड़ा जाता है। जड़ जमने की यही अवस्था है। बाद में तो व्यक्ति कमाने धमाने के फेर में लग जाता है और जो स्वभाव आरम्भिक दिनों में बन गया है, उसी के अनुरूप आचरण करता रहता है।
चूंकि सज्जनता का वातावरण एवं अवसर कम है। सब ओर दुःस्वभाव, कुप्रचलन एवं अनाचार का ही बोलबाला है। ऐसी दशा में बहुमत का दबाव और अनाचार का आकर्षण युवकों को अधिक प्रभावित करता है। मानवी मर्यादाओं का उल्लंघन करने की, उच्छृंखलता अपनाने की आदत उन्हें यहीं से पड़ जाती है। यह आरोपण आगे चलकर विष-वृक्ष के रूप में परिणत होता है।
उठती आयु के किशोरों की अपेक्षा बढ़ते और पकती आयु के युवक कुविचारों को अनाचार के रूप में क्रियान्वित करने में अधिक सफल होते देखे गये हैं। इन दिनों विशेष देखभाल की जरूरत है। संकट से बचाने का ठीक समय यही है। इसके लिए सतर्कता, जांच-पड़ताल, रोकथाम की तो आवश्यकता है ही साथ ही यह प्रयत्न भी होना चाहिए कि उन्हें सुसंगति भी मिले। समय का कार्यक्रम ऐसा बने जिससे उपयोगी कार्यों की व्यस्तता ही छाई रहे। अच्छी प्रकृति या सज्जन के साथ ही बैठना-उठना बन पड़े। अच्छा हो दोस्तों का चुनाव लड़कों के ऊपर न छोड़ा जाय, उनकी टोली बनाने में अभिभावक तथा अध्यापक भी रुचि लें। साथ ही उनके साथ वार्तालाप करते रहने का भी उपक्रम चलायें। देखा यह गया है कि आयु बढ़ने के साथ-साथ अभिभावकों और किशोरों के बीच अनावश्यक संकोचशीलता पनपने लगती है। इससे विचारों के आदान-प्रदान में, वस्तुस्थिति समझने और समझाने की व्यवस्था में अड़चन खड़ी हो जाती है। फलतः सुधार-परिवर्तन की संभावनायें भी घट जाती हैं। अच्छा हो यह स्थिति कहीं भी न बने। जिस प्रकार छोटे बालकों और अभिभावकों के बीच प्यार-दुलार का, हंसने-हंसाने का उपक्रम चलता रहता है, उसी प्रकार उसमें थोड़ा सुधार करके आयु के अनुरूप स्तर का विचार विनिमय चलता रहे और रोकथाम से लेकर आवश्यक सुझाव पूछने या देने का सिलसिला चलता रहे।
जिनने पढ़ाई आरम्भ ही नहीं की या थोड़ा पढ़कर स्कूल से नाम कटवा लिया, उनकी समस्या और भी अधिक जटिल है। वे पूरे मन से, पूरी शक्ति से, पूरे समय घर का काम तो करते नहीं, घर वाले भी उन पर वैसा दबाव नहीं देते। उपेक्षा की मनःस्थिति में किया काम भी अस्त-व्यस्त ही रहता है। ऐसी दशा में परिवार वाले खीजते रहते हैं और रुष्ट होकर असहयोग जैसी स्थिति बना लेते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि युवक आवारागर्दी में जहां-तहां घूमने लगते हैं और पढ़ने वाले छात्रों की अपेक्षा इन अध-कचरे, अस्त-व्यस्त युवकों की समस्या और भी अधिक जटिल बन जाती है। अशिक्षा और अनगढ़ स्थिति उन्हें एक प्रकार से और भी अधिक जटिल बना देती है। उन्हें संभालने में उस दशा में और भी अधिक कठिनाई होती है, जबकि परिवार वाले स्वयं अशिक्षित और समस्याओं से निपटने में अपने पिछड़ेपन के कारण अक्षम हैं।
युवकों को एक उपयोगी मोड़ देने की योजना यह है कि उनके लिए सर्वत्र व्यायाम शालायें स्थापित की जायं। उनमें सम्मिलित होने के लिए हर उठती उम्र वाले को सहमत किया जाय। स्वास्थ्य रक्षा में व्यायाम के योगदान से विस्तारपूर्वक अवगत कराया जाये। यह दिलचस्प विषय ऐसा है जिसमें यदि नई पीढ़ी को मोड़ा जा सके तो वे अपने शारीरिक स्वास्थ्य के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य भी सुधार सकते हैं। अपना भविष्य बिगड़ने से बचा सकते हैं और प्रगति मार्ग पर चल पड़ने का एक नया आधार प्राप्त कर सकते हैं।
पिछले दिनों व्यायाम के लिए मात्र कसरत तक सीमित थे। उनसे दण्ड-बैठक कुश्ती आदि का अभ्यास कराया और पहलवान बनाया जाता था। अब इस समग्रता के युग में उनके साथ स्वास्थ्य संरक्षण और स्वास्थ्य संवर्धन के अनेकानेक पक्ष जुड़ गये हैं। इस आधार पर दुर्बलता और रुग्णता से भी छुटकारा पाया जा सकता है तथा सामान्य स्वास्थ्य असामान्य बलिष्ठता में विकसित किया जा सकता है। पाठशालाओं की तरह व्यायाम शालाओं का भी महत्व समझा जाना चाहिए। उन्हें हर जगह स्थापित ही नहीं सक्रिय एवं सक्षम भी बनाया जाना चाहिए। उन्हें चरित्रनिष्ठा एवं अनौचित्य के विरोध का प्रशिक्षण भी दिया जाना चाहिए।
समर्थता उभरते देखकर अवांछनीय तत्वों की हिम्मत टूटती है। आक्रामकों के इरादे बदलते हैं। जिनने आक्रामक नीति अपनाई हुई है उन्हें भी अपने पैर पीछे हटाने में ही भलाई दीखती है। बिना चोट पहुंचाये वह प्रयोजन सिद्ध होता है, जो दांत खट्टे कर देने की स्थिति में ही बन पड़ता है। शक्ति का प्रदर्शन भी शक्ति के प्रयोग को रोकता है। फटा बांस फटकारते रहने पर भी जंगली जानवर भाग खड़े होते हैं। किसान खेतों में ‘‘काग-भगाऊ’’ दिखावा बनाकर खड़े कर देते हैं। उसे देखकर चिड़ियायें नहीं उतरतीं और लोमड़ी खरगोश जैसे छोटे जानवर खेत में प्रवेश करने से कतराते हैं। व्यायामशालाओं में कसरत करने वालों और लाठी चलाना सीखने वालों को देखकर अनाचारियों की हिम्मत पस्त होती है। साहस का दिखावा भी बल प्रयोग जितना काम कर जाता है। नवयुवकों की व्यायामशाला और समर्थ नागरिकों का सेवादल जैसा संगठन बनना भी गुण्डा तत्वों की रोकथाम का एक कारगर एवं सस्ता उपाय है। कनस्तर बजा करके छोटे लोमड़ी खरगोशों से ही नहीं बड़े हिरन शूकरों से भी खेत की रक्षा कर ली जाती है। प्रसिद्ध है कि चोर के पैर नहीं होते, वह घर का बच्चा जग जाने और रोने-चिल्लाने की आवाज भर सुनकर भाग खड़ा होता है। यही बात उन अत्याचारियों के सम्बन्ध में भी लागू होती है जो कमजोर असंगठित वर्ग को ही आमतौर से अपना शिकार बनाते हैं। जहां उन्हें विश्वास होता है कि प्रतिरोध की आशंका नहीं है, वहीं वे अपना शिकंजा कसने का प्रयत्न करते हैं। जब उन्हें प्रतीत होता है कि यहां तो दांत खट्टे कर देने वाली प्रतिरोधक शक्ति मौजूद है वहां से वे सहज ही किनारा कर लेते हैं और अपनी जान बचाते हैं। इस तथ्य से सर्वसाधारण को विशेषतया उत्पीड़न ग्रस्तों को बचाया जाना चाहिए। यदि इतना भर जनसाधारण को सिखा दिया जाय तो मनोबल बढ़ने भर से आधी मात्रा में गुण्डागर्दी का समापन हो सकता है।
सांप जब तक अपनी आत्मरक्षा के लिए आवश्यक नहीं समझता तब तक काटता नहीं। खतरे को अपने से दूर रखने के लिए वह गरदन उठाकर फुंसकारता ही रहता है। इस फुंसकार के पीछे यह तथ्य भी सम्मिलित रहता है कि वह जरूरत पड़ने पर काट भी सकता है। यदि यह सिद्ध हो जाय कि फुंसकार किसी बनावटी की है, बिना जहरीले सांप की है, तो फिर लोग चिढ़कर उसे और भी अधिक परेशान करने का प्रयत्न करते हैं। समझदारों को अत्याचारियों से बचने लिए आवश्यक शक्ति भी एकत्रित करनी पड़ती है और साथ ही यह भी ध्यान रखना पड़ता है कि शक्ति के प्रदर्शन से काम चल जाय, उसका प्रयोग न करना पड़े तो अच्छा है। सतर्कता, सुरक्षा, व्यवस्था, संगठन और साहसिकता ऐसे तत्व हैं जिनके सहारे अत्याचारियों के अतिक्रमण का खतरा बहुत कुछ कम हो जाता है। यों उन्हें समझाने-बुझाने का क्रम भी समाप्त नहीं करना चाहिए। मनुष्य मनःस्थिति और परिस्थिति बदलने पर अपने आचरण में परिवर्तन भी कर सकते हैं।
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बचिये नहीं निपटिये
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सन्तजनों और उत्कृष्ट भावनाशीलों के लिए यही आदर्श उपयुक्त है कि अपराधियों को भूले-भटके माना जाय। उनके लिए भी करुणा और ममता संजोये रखी जाय, किये हुए आक्रमणों से उत्पन्न आक्रोशों को भुला दिया जाये और क्षमाशीलता का परिचय दिया जाय। हृदय परिवर्तन की आशा रखी जाय और अपने सद्व्यवहार से निष्ठुर जनों के पसीजने-पिघलने की आशा रखी जाय। सन्त-जन ऐसा करते भी रहे हैं, उनकी इस ममता और करुणा को चरितार्थ किये जाने के अनेक उदाहरण भी मिलते हैं। पानी में बहते बिच्छू को एक सन्त ने हाथ पर रखकर बाहर निकाला, उसने डंक मार दिया और फिर पानी में बह चला—सन्त ने फिर निकाला। इसी प्रकार अन्त तक वही उपक्रम चलता रहा।
यह नीति उच्चस्थिति पर पहुंचे हुए सन्तों के लिए उपयुक्त भी है। उनका आत्मबल बढ़ा-चढ़ा होता है इसलिए वे अपने प्रयोग की सफलता पर विश्वास भी रख सकते हैं, पर आवश्यक नहीं कि वह आशा सफल होती रहे। ईसा, मंसूर, सुकरात जैसे अनेकों उदारचेताओं को इस प्रयोग में अपने प्राण गंवाने पड़े हैं। आक्रांताओं की पीछे भले ही निन्दा होती रही हो, क्षमाशीलता को भले ही सराहा जाता रहा हो, पर तत्काल तो यही देखा गया कि क्षमाशीलता के प्रयोग प्रायः प्रत्यक्ष रोकथाम की दृष्टि से असफल ही रहते हैं। आक्रान्ताओं द्वारा सन्तों को सताया और उस पर गर्व जताया जाता रहा है, इससे उनका अहंकार बढ़ा है और दूसरों पर ऐसे ही आक्रमण करते रहने का दुस्साहस हुआ है। इस दृष्टि से सर्वसाधारण के लिए व्यावहारिक उपचार की दृष्टि से इसे अनुपयुक्त ही ठहराया जाता रहा है। जलती आग को बुझाया जाता है, यदि उसे छूट दी जाती रहे तो छोटी चिनगारी दावानल का भयंकर रूप धारण कर सकती है और सर्वनाश के दृश्य उपस्थित कर सकती है। हिंसक जन्तुओं से निपटना ही पड़ता है और उन्हें भगाने का उपाय अपनाना पड़ता है। सांप, बिच्छु शिक्षा देने से कहां मानते हैं, उनसे बचना सम्भव न हो सके तो डण्डे से निपटाना पड़ता है। जुंये-खटमल, पिस्सू जैसे कृमि कीटकों से पीछा छुड़ाना भी अहिंसा व्रत धारण करके सम्भव नहीं हो सकता। पूजा-पाठ द्वारा शत्रु को भगा देने का प्रयोग आक्रमणकारियों को रोकने में सफल नहीं हो सका और सोमनाथ का प्रसिद्ध मन्दिर गजनवी के आक्रमण से धराशायी हो गया। यदि क्षमा ही सर्वत्र कारगर रही होती तो फिर सुरक्षा सेना की, पुलिस की, जेल-फांसी आदि की आवश्यकता ही न पड़ती। अनाचारियों को किसी सन्त-सज्जन के सुपुर्द करके उन्हें सुधार लिया जाता। क्षमा अपवाद हो सकती है। दया-अहिंसा का उपयोग सन्तों के लिए विशिष्ट आदर्श उपस्थित करने की दृष्टि से उपयोगी हो सकता है, पर उसे लोक व्यवहार में निर्विवाद रूप से सम्मिलित नहीं किया जा सकता।
आक्रमण होने से पूर्व अपनी स्थिति इस स्तर की बना लेनी चाहिए जिसे देखते हुए हर कोई चढ़ दौड़ने की हिम्मत न करे। हमला करते हुए उसे सौ बार विचार करना पड़े कि इसमें घाटा भी उठाना पड़ सकता है और लेने के देने पड़े—यह भी आ सकता है। यदि इतना अनुभव कराया जा सके तो बहुत अंशों में आक्रमण की संभावना रुक सकती है। बहुत बार सांप को काटे बिना भी छेड़ने वालों को भगा देने में सफलता मिल जाती है, वह उठकर फुंसकारता है और ऐसी मुद्रा बनाता है जिससे छेड़ने वालों को जान बचाकर भागने के अतिरिक्त और कुछ करते-धरते न बन पड़े। नासमझ उद्धत जानवरों को पीट-पीटकर ही काबू में लाया जाय—यह आवश्यक नहीं। फटा बांस जमीन पर फटकारते रहने पर भी घुड़की देने वाले बन्दरों को आगे बढ़ने से रोका जा सकता है। खेत खाने वाली चिड़ियों को कनस्तर बजाकर भी भगा दिया जाता है। माली अपने बगीचे के फलों की रखवाली इसी नीति को अपनाकर करते हैं। तोते-कौए मरते तो नहीं, पर इस प्रकार का माहौल देखकर वे भाग खड़े होते देखे गये हैं।
हर व्यक्ति अपने को ऐसा चुस्त-दुरुस्त रखे जिससे प्रतीत हो कि वह किसी भी आक्रमण का सामना करने के लिए तैयार है। यह कार्य प्रायः एकांकी होने पर नहीं बन पड़ता, समूह में अपनी शक्ति होती है। मिल-जुलकर रहने और एक दूसरे का साथ देने की क्षमता बनाये रहने पर आधी मुसीबत टल जाती है। आक्रामक अपना हाथ रोक लेते हैं और बढ़ते कदमों को पीछे हटा लेने पर विवश होते हैं। निजी हौसला बुलन्द रखने के अतिरिक्त अपने जैसे ही साहसी लोगों का संगठन बना लेना चाहिए और उनके साथ-साथ रहने, साथ साथ उठने-बैठने के अवसर बनाते रहने चाहिए। बर्रों के छत्ते में हाथ डालने में डर लगता है, पर यदि वह अकेली पास आ डटे तो उसका कचूमर निकालने के लिए कोई भी तैयार हो जाता है। मधुमक्खियों के छत्ते से आमतौर से लोग बचकर ही निकलते हैं। बन्दर समूह में रहते हैं और एक को छेड़ने पर दूसरे भी उनकी सहायता के लिए इकट्ठे हो जाते हैं—इस कारण लोग बन्दरों के झुण्ड को छेड़ते नहीं वरन उससे बचकर ही निकलने में अपनी भलाई देखते हैं।
यह सोचना सही नहीं है कि दुरात्माओं से दोस्ती का प्रयत्न करने पर वे अपने को बख्श देंगे। उन्हें कुछ भेंट-उपहार देकर भी अनुग्रहीत नहीं किया जा सकता। सामान्य लोगों की अपेक्षा अनाचारी लोग अधिक धूर्त होते हैं, वे वस्तुस्थिति को समझने में चूक नहीं करते। दबकर खुशामद करने वालों को वे कमजोर मान बैठते हैं और उसी पर अधिक हमला करते हैं। भूत-प्रेतों का आतंक उन्हीं पर अधिक छाया रहता है, जो उनकी पूजा-पत्री आयेदिन करते रहते हैं। जो उन पर विश्वास नहीं करते, साहस के बल पर उनसे निपट लेने का मनोबल रखते हैं उसका पाला प्रायः उनसे नहीं ही पड़ता, इसलिए उनसे रिश्ता जोड़ने की अपेक्षा कतराते रहना ही अधिक लाभदायक रहता है। उनका समर्थन एवं सहयोग करने की बात सोचनी ही नहीं चाहिए, इससे दूसरों की भी हिम्मत टूटती है, दुरात्माओं का मनोबल बढ़ता है और अपने पक्ष वाले लोग हताश होते हैं—इसलिए दुर्जन की नीति तो अपनानी ही नहीं चाहिए। एकाकी होने पर भी अपनी हिम्मत संजोये रहना चाहिए। यदि यह नीति अपनाई न गई होती तो किसान अपने दूर वाले खेतों पर अन्धेरे-उजाले में काम करने कैसे जाते ? वनवासी-आदिवासी लोग जंगलों में छोटे झोंपड़े बनाकर किस प्रकार जिन्दगी काटते? उन्हें तो जिन्दगी खतरों के बीच ही गुजारनी पड़ती है, वे लाठी के बल पर ही खतरों की संभावनाओं से निपटते रहते हैं। कठिन संभावनाओं का सबसे बड़ा साथी-सहयोगी अपना मनोबल ही है। हिम्मत वालों का सहयोग देने के लिए दूसरे भी कितने ही तत्पर हो जाते हैं, जबकि कायरों का साथ देने के लिए, उनका समर्थन करने के लिए आमतौर से कोई तैयार नहीं होता। कहावत है कि जो अपनी सहायता आप करता है उसी की दूसरे भी सहायता करते हैं, भगवान भी। जिसने हिम्मत हारी, समझना चाहिए कि वह हर मोर्चे पर हार गया।
राजनीति में शाम, दाम, दण्ड, भेद के चारों प्रयोग अपनाये जाते हैं, उनमें से एक यह भी है कि अनाचारियों के गिरोह को छिन्न-भिन्न करने का, उनमें फूट डालने और उन्हें अलग-अलग रास्तों पर चल पड़ने के लिए किन्हीं माध्यमों को अपनाया जाय। ऐसे व्यक्ति आमतौर से निठल्ले होते हैं, यदि उन्हें किसी उपयोगी काम में लगा देने की सम्भावना बन सके तो उनका तथा दूसरों का सिर दर्द आधा हल्का हो जाता है। जिनके लिए इस प्रकार के दूरगामी परिणाम उत्पन्न कर सकने वाले उपक्रम बनाने सम्भव हों, उन्हें उस प्रकार की सम्भावनायें भी तलाश करनी चाहिए।
यों हर किसी में कुछ अच्छे गुण भी होते हैं, पर जिनमें दुर्गुण अधिक बढ़ जाते हैं उन्हें बुरे लोगों में गिना जाने लगता है। संगति से, वातावरण से गुण-दोषों का विकास-विस्तार होता है। प्रयत्न यह करना चाहिए कि जो कुमार्ग पर चल पड़े हैं उन्हें भी कुसंग से किसी प्रकार छुटकारा मिले और वे अच्छी संगति अपनायें, अच्छे वातावरण में रहने लगें। अपनी कार्यपद्धति में ऐसे उपक्रमों का समावेश करें जो रचनात्मक, उत्पादक एवं उपयोगी हों। मात्र सलाह या शिक्षा देकर तो कदाचित ही किसी को सुधारा-संभाला जा सकता है, पर यदि संगति, वातावरण और क्रिया-कलाप बदल सके तो ऐसी संभावना बढ़ सकती है जिसमें विनाशकारी कृत्यों से विरत होकर किन्हीं उपयोगी कार्यों में समय, श्रम और बुद्धिबल को लगाना सम्भव हो सके—सुधार का एक यही उपयुक्त तरीका है।
उपेक्षा, असहयोग, विरोध और संघर्ष—इन चार उपायों से प्रतिपक्षियों का मुकाबला करने की जानी-मानी परम्परा है। अपनी स्थिति और सामने प्रस्तुत परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए जो उपयुक्त लगे उसका उपयोग करना चाहिए। सतर्कता बरतना एक बात है। मनोबल तो हर हालात में टकराव की संभावना देखकर बनाये ही रहना चाहिए, साथ ही विरोधी का भय अपने मस्तिष्क पर हावी नहीं होने देना चाहिए—उपेक्षा इसी को कहते हैं। अपने स्तर का मूल्यांकन किया जाय, अपने को तुच्छ न माना जाय ताकि विरोधी का बढ़ा-चढ़ा और भयावह रूप अपने सिर पर सवार होने न लगे। हर आदमी को आये दिन कितनी ही समस्यायें सुलझानी पड़ती हैं और कितने ही अवरोधों-टकरावों का सामना करना पड़ता है। ऐसी दशा में यदि कोई विरोधी आड़े आते हैं तो उनके लिए भी समय आने पर देखा जायेगा—ऐसे मान्यता बनानी चाहिए। भयभीत तो किसी भी स्थिति में नहीं होना चाहिए, इस प्रकार की उपेक्षा से भी प्रतिपक्षी का मनोबल टूटता है। उसकी हिम्मत तो तब बढ़ती है जब अपने को उत्तेजित, असंतुलित, भयभीत या आतुर पाता है।
असहयोग दूसरा हथियार है जिससे प्रतिपक्षी का मनोबल गिराया जाता है। सहयोग की सभी अपेक्षा करते हैं, यदि वह न मिले तो आक्रान्ता हतप्रभ रह जाता है। अनीति के आगे सिर झुकाने, डरने, घिघियाने या चापलूसी करने लगने से देखा गया है कि उद्दण्ड लोग अधिक दबाते चले जाते हैं और अधिक डराने, अधिक सताने का उपक्रम करते हैं। असहयोग से भी प्रतिपक्षियों की हिम्मत टूटती है और उनके कदम रुकते हैं। दुष्टता के हलके पड़ने जैसी संभावना भी रहती है।
विरोध मौखिक भी होता है और आक्रमण को असफल बनाने वाली रणनीति अपनाने के रूप में भी उसका प्रयोग होता है। विरोध में निंदा होती है, निन्दा भी मनोबल गिराने का एक कारगर उपाय है। इससे भी अधिक कड़ा कदम संघर्ष है, प्रतिरोध इसी का नाम है। तनकर खड़े हो जाना, आक्रमणों को असफल बनाने वाले उपायों को कार्यान्वित करना संघर्ष है। यह अवसर के अनुरूप निर्धारण किया जाता है। प्रयत्न यह करना चाहिए कि मार-काट जैसे प्रत्याक्रमण की नौबत न आये, क्योंकि इससे आक्रमण-प्रत्याक्रमण का सिलसिला चल पड़ता है और फिर उस कुचक्र की एक श्रृंखला चल पड़ती है जो मुद्दतों तक नहीं टूटती। इसमें आक्रमण से भी अधिक आहत होता है, इसलिए ऐसे प्रसंगों से यथासंभव बचना ही चाहिए। फिर भी आत्मरक्षा के लिए आक्रमणकारी का कड़ा मुकाबला करना हर व्यक्ति का कानूनी और नैतिक अधिकार है। इसे भी आतंक के रूप में अपनाया जा सकता है, यदि अहिंसक प्रतिरोध का कोई उपाय बन पड़े तो और भी अधिक उपयुक्त है।
अनेक झंझटों में गलतफहमियां भी एक बड़ा कारण होती हैं। हो सकता है कि वे कल्पना-आशंका से उपजी हों या किन्हीं ने जानबूझकर षड्यन्त्र के रूप में उत्पन्न की हों। ऐसी स्थिति में वस्तुस्थिति को स्पष्ट करने की साहसिकता अपनानी चाहिए और यथार्थता उजागर करनी चाहिए। इस माध्यम से भी बहुत से झंझट निपट जाते हैं।
अनीति के निराकरण में कानून भी सहायता करता है। पुलिस, अदालत इसी के लिए हैं—जहां यह माध्यम आवश्यक हो गया हो वहां कानून की शरण भी ली जा सकती है, पर उसमें पर्याप्त साक्षियां जुटाने, सबूत इकट्ठे करना आवश्यक होता है, जिन्हें आहत पक्ष प्रायः जुटा नहीं पाता। डरपोक लोग वस्तुस्थिति जानते हुए भी झंझट में न पड़ने के भय से सबूत में पेश होने से कतराते हैं। ऐसी दशा में पुलिस, कचहरी भी कुछ कर नहीं पाते। जहां लिखित सबूत हैं, मजबूत साक्षियां हैं वहां तो कचहरी जाना भी किसी कदर कारगर होता है, पर उसमें भी लम्बा समय लग जाता है और बहुत-सा समय तथा धन खर्च करने की आवश्यकता पड़ती है। कोई और चारा न हो तो यह मार्ग अपनाना ही उत्तम है। अच्छा यह है कि समाधान करा देने वाले माध्यम ही तलाश किये जायें, उन्हें न्यायोचित भूमिका निभाने के लिए प्रोत्साहित किया जाय। प्राचीनकाल में पंचायतें भी कितने ही झंझट निपटा दिया करती थीं। जहां अभी भी उनका अस्तित्व है वहां उनका आश्रय भी लिया जा सकता है। अनीति को निरस्त करने के लिए धीमे या कड़े कदम तो उठाने ही चाहिए।
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*समाप्त*

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