anachar se kaise nipte

अवांछनीयता की जड़ कैसे कटे!

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विकासवादी डार्विन के अनुसार मनुष्य क्षुद्र योनियों में होते हुए बन्दर से मनुष्य बना है। धार्मिक मान्यताओं के हिसाब से वह चौरासी लाख निम्न स्तरीय योनियों में भ्रमण करते हुए मानवी काया के चरम शिखर तक पहुंचा है। जन्म मिल जाने पर भी पूर्व संचित कुसंस्कारों से पूरी तरह छुटकारा नहीं मिलता, पशु-प्रवृत्तियों के बीजांकुर जड़ जमाये बैठे रहते हैं और अनुकूल अवसर मिलते ही उनकी पूर्व परम्परा उभर पड़ती है। यदि सुधार अनुशासन, प्रशिक्षण का विशिष्ट प्रयत्न न किया जाय, तो अनगढ़ मनुष्य भी स्वेच्छाचारिता अपना लेता है और उस प्रकार का दृष्टिकोण, क्रिया-कलाप अपना लेता है जैसा कि पशुओं के आचरण में देखा जाता है।
भगवान की इसे मनुष्य पर विशेष अनुकम्पा ही समझना चाहिए कि उसे उच्चस्तरीय संरचना वाला शरीर और मस्तिष्क मिला है। इन्हीं के आधार पर वह ऐसे प्रयास कर सका और उन्नति के उच्च शिखर तक पहुंच सका, जो अन्य शरीरधारियों में बलिष्ठ समझे जाने वालों के लिए भी सम्भव नहीं हैं। इतने पर भी कुछ काम मनुष्य को स्वयं भी करने पड़ते हैं, जिनके आधार पर उसका आचरण सभ्य और मानस सुसंस्कृत बन सके। इसे शिक्षा या विद्या कहते हैं। यह मानवी प्रयास है इसका दार्शनिक ढांचा और अचार व्यवहार तो पूर्ववर्ती देव मानव बना गये हैं, पर उसे गहराई से समझना, स्वभाव-अभ्यास में उतारना और व्यवहार में चरितार्थ करने की विधि-व्यवस्था मनुष्य को वैयक्तिक या सामूहिक रूप से स्वयं ही बनानी पड़ती है। यदि वह न बन पड़े, तो जन सामान्य की स्थिति वही बनी रहेगी जो नर-वानरों या वनमानुषों की होती है। वे कुछ भी सोचते, कुछ भी करते, और कुछ भी रीति-नीति अपना सकते हैं। अनगढ़ता यदि उद्दण्ड हो उठे, तो वह नृशंसता का रूप धारण कर लेती है। नर-पिशाच कहे जाने वालों के क्रिया-कृत्य ऐसे ही होते हैं।
माली अपने उद्यान में पेड़-पौधों को काटता-छांटता रहता है, उनकी कलमें बनाता और लगाता रहता है, यथासमय खाद-पानी देता और पशु-पक्षियों से उसकी रखवाली करता है, तभी वह स्थिति बन पड़ती है, जिसमें उद्यान हरा-भरा, फला-फूला, नयनाभिराम दीख पड़े और श्रम की सार्थकता बढ़े-चढ़े लाभ के रूप में प्रस्तुत करे। ऐसा सुयोग न बन पड़ने पर वही पौधे जंगली बन जाते हैं, कुरूप दीखते हैं और लाभ देने के स्थान पर मार्ग में अवरोध बनकर अड़ते हैं, ढेरों जमीन घेर लेते और अपने नीचे सांप-बिच्छू जैसे जीव-जन्तु पालते रहते हैं, कांटे बिखेरते और उधर से गुजरने वालों की राह रोकते हैं। सुसंस्कृत उद्यान और अनगढ़ झाड़-झंखाड़ों के बीच जो अन्तर होता है, वही उन लोगों के बीच पाया जाता है, जो पशु प्रवृत्तियों का आवरण अपने ऊपर नहीं हटा सके और मानवोचित आचार संहिता के ढांचे में अपने को नहीं ढाल सके।
मनुष्य भी बन्दरों की तरह अनुकरण प्रिय प्राणी है। बन्दर दूसरों की तरह नकल करते देखे जाते हैं। तोते भी सुनी बोली को दुहराने लगते हैं। मनुष्य का अपना मौलिक चिन्तन, विवेक और दृष्टिकोण आदर्शवादी स्तर का प्रयत्नपूर्वक ही बनता है। हीरे को खराद पर घिसकर चमकीला बनाया जाता है। लोहा खदान से मिट्टी मिली हुई स्थिति में निकलता है। उसे भट्टी में गलाकर फौलाद बनाया जाता है। यही बात अन्य सभी धातुओं के सम्बन्ध में भी है। वे भी खदान से खोदते समय मिट्टी-पत्थर मिली होती हैं। अग्नि संस्कार के उपरान्त ही वे अपने वास्तविक स्वरूप में स्वच्छ बनती है। मनुष्य के सम्बन्ध में भी यह बात पूरी तरह लागू होती है। जन्मजात सुसंस्कार लेकर तो कोई बिरले ही निकलते हैं। उसे सुसंस्कृत बनाने के काम अभिभावक, अध्यापक मिलकर करते हैं, साथ ही उसमें वातावरण भी सहायता करता है। दर्शनीय आभूषण गढ़ने के लिए स्वर्णकार को कितना परिश्रम करना पड़ता है, कितने कौशल का परिचय देना पड़ता है, इसे सभी जानते हैं। श्रेष्ठता सम्पन्न व्यक्तित्व का निर्माण भी ऐसा ही कार्य है, जो अनायास ही नहीं हो जाता। उसके लिए संरक्षकों को असाधारण प्रयत्न करना पड़ता है। यदि उनमें इस कौशल का अभाव है, तो फिर संचित कुसंस्कार ही पनपेंगे और चारों ओर फैला हुआ कुप्रचलनों का माहौल उसे बढ़ाने में और हवा देगा।
पानी का स्वभाव नीचे गिरना है। जन साधारण की मनोदशा भी पतनोन्मुख प्रयासों में बहती देखी जाती है। अधिकांश लोग वासना, तृष्णा और अहंता की कीचड़ में कण्ठ तक धंसे देखे जाते हैं। उन्हें लोभ, मोह और दर्प के अतिरिक्त और कुछ सूझता ही नहीं, पेट प्रजनन से आगे बढ़कर और कुछ सोचने या करने का उनमें न तो विवेक होता है और न साहस। ऐसी दशा में जो इस प्रवाह में बहने लगता है, वे भी उन्हीं कृत्यों में लग जाते हैं, जिनमें आम लोग लगे देखे जाते हैं। वातावरण का प्रभाव इसी को कहते हैं।
कीचड़ में कमल उगना एक सुयोग है। आमतौर से तो उसमें गन्दे कीड़े ही कुलबुलाते रहते हैं। जिनने लोक प्रवाह में बहने के लिए आत्म समर्पण कर दिया, समझना चाहिए कि उनके लिए नर-पशु स्तर का जीवनयापन ही भाग्य विधान जैसा बन गया। वे खाते, सोते, पाप बटोरते और रोते-कलपते मौत के मुंह में चले जाते हैं। स्रष्टा ने मनुष्य जन्म का बहुमूल्य जीवन धरोहर के रूप में दिया था, होना यह चाहिए था कि इस सुयोग का लाभ उठाकर अपनी अपूर्णता पूर्णता में बदली गयी होती और विश्व-मानव की सेवा-साधना में संलग्न रहकर देवमानव की भूमिका में प्रवेश करके धन्य बना जाता, असंख्यों को सन्मार्ग में चलाकर सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन का अजस्र पुण्य कमाया गया होता। यह तो बन नहीं पड़ता, उल्टे पाप का पिटारा सिर पर लादकर लम्बे भविष्य को अन्धकारमय बनाया जाता है।
जीवन का महत्व और सदुपयोग यदि आरम्भ में ही समझा और समझाया जा सके, तो उन कुसंस्कारों के घटने और मिटने का अवसर मिलेगी, जो मनुष्य को बुरी तरह पशु-प्रवृत्तियों से आच्छादित किए रहते हैं, जिनके कारण संकीर्ण स्वार्थपरता के सिवाय और कुछ सूझता ही नहीं। वासना और तृष्णा की पूर्ति के अतिरिक्त और कुछ इच्छा और आकांक्षा उठती नहीं।
जिस प्रकार छोटे बालकों की शरीर व्यवस्था पर अभिभावकों को अधिक ध्यान देना पड़ता है, उनके आहार-विहार, वस्त्र, सफाई आदि के प्रबन्ध का समूचा उत्तरदायित्व स्वयं ही उठाना पड़ता है, उसी प्रकार यह भी उतना ही आवश्यक है कि उठती आयु से ही सुसंस्कारों का परिमार्जन आरम्भ कर दिया जाय। अबोध अवस्था मानवी दायित्व समझने और अपनाने में समर्थ नहीं होती। बालकों को शिष्टाचार का कोई ज्ञान नहीं होता। नीति-मर्यादा भी वे नहीं समझते। उसी प्रकार उन्हें उन आचार-विचारों की भी कोई जानकारी नहीं होती, जो सभ्यता के क्षेत्र में प्रवेश करते ही जानने और मानने पड़ते हैं। इस स्वाभाविक अनजानपन को घटाने और हटाने का भी उन्हें ही प्रयत्न करना चाहिए, जो उनके भरण-पोषण की व्यवस्था करते हैं। बालकों को स्वयं इस बात की जानकारी नहीं होती, वह उन्हें ऊपर से उपलब्ध करानी पड़ती है। जैसे कोई बालक माता के पेट से सुशिक्षित उत्पन्न नहीं होता, समझ विकसित होने पर ही अभिभावक उसे पढ़ाने की व्यवस्था करते हैं। इसी प्रयास के साथ-साथ यह भी होना चाहिए कि उसे नागरिक कर्तव्य और सामाजिक दायित्व का क्रमशः बोध और अभ्यास कराया जाता रहे। इसके लिए उन्हें किसी अलग विद्यालय में भेजने की या अलग से अध्यापक लगाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। यह कार्य अभिभावक एवं परिवार के अन्य सदस्य ही मिलजुल कर करते रह सकते हैं।
बच्चों की समझ कम होती है, पर वे अनुकरण करने की प्रवृत्ति साथ लेकर आते हैं। इसी आधार पर वे बोलना, खड़े होना, चलना आदि सीखते हैं। इसी प्रवृत्ति को ध्यान में रखते हुए उनके सामने परिवार के सदस्य ऐसा व्यवहार करें, जिसका अनुकरण करते हुए उन्हें भी शालीनता सम्वर्धन का अभ्यास करना पड़े। इसके लिए आवश्यक है कि बच्चों को सुयोग्य व्यक्तियों के साथ रहने का अधिक अवसर मिले। आमतौर से गाड़ी में लिए फिरने और खिलौनों से खिलाने, झुला झुलाने आदि की आवश्यकता पूरा कर देने पर ही कर्तव्य की इतिश्री मान ली जाती है, जबकि होना यह चाहिए कि सभ्यता का शिष्टाचार का पाठ भी छोटी आयु से ही पढ़ाना आरम्भ किया जाय। प्रायः घर में कई बच्चे होते हैं। उन सबको साथ-साथ रहने, खेलने का अवसर देने पर यह शिक्षण सरल पड़ता है। जिन घरों में बच्चे एकाकी होते हैं, उन्हें समवयस्कों के साथ सहयोग की, सद्भाव की रीति-नीति समझने में कमी ही रह जाती है। इसलिए जिन घरों में बच्चे अकेले हों, वहां यह प्रयत्न किया जाय। सामूहिकता के सहारे अनेक सद्गुण सीखे जा सकते हैं। एकाकीपन के कारण विकास रुक जाता है। जहां सरस्वती शशु जैसी छोटे बालकों की पाठशालायें उपलब्ध हैं, वहां तनिक बड़ा होते ही बच्चों को भेजने का प्रबन्ध करना चाहिए। छोटे बच्चे उतनी जल्दी पाठ्य पुस्तकें तो नहीं पढ़ सकते, पर पारिवारिक शिष्टाचार, समूह में रहने की प्रवृत्ति और सामान्य ज्ञान से अपनी जानकारियां तो बढ़ाते ही हैं। यही है वह समय, जिसमें सुसंस्कारिता के बीजारोपण का प्रयत्न आरम्भ कर देना चाहिए।
जैसे-जैसे बाल-विकास का क्रम आगे चले वैसे-वैसे उस प्रशिक्षण प्रयास को और तीव्र करना चाहिए। इसके लिए छोटी-छोटी कहानियां सुनाना, छोटी-छोटी कवितायें याद कराना अधिक सरल पड़ता है। इतना ही वे समझ सकते हैं और यही उनके अनुकूल भी पड़ता है। इसी आधार पर आगे चलकर समाज निष्ठा की मजबूत इमारत खड़ी होती है।
प्रकाश के अभाव का नाम ही अन्धकार है। जहां शालीनता के शिक्षण का अभाव रहा, जहां नीतिमत्ता को स्वभाव का अंग बनाने में कमी रही, समझना चाहिए कि वहीं दुष्टता-दुर्जनता पनपी। अनेक लोगों में अनेक प्रकार के दुर्गुण देखे जाते हैं। इन्हें पशु-प्रवृत्तियों का उद्दण्ड उभार ही समझना चाहिए। यह खरपतवार इसलिए उपजते हैं कि खेत के माली आरम्भ से ही उन्हें उखाड़ने और खाली जमीन पर सुरभित पुष्पों के, सद्गुणों के आरोपण का प्रयत्न नहीं करते। यह उपेक्षा दूर हो सके, तो समयानुसार हर व्यक्ति सज्जनता से भरा-पूरा हो सकता है।
जब तक बच्चे घर में रहते-पलते हैं, तब तक अभिभावक और परिवारीजन ही उनको सामान्य-ज्ञान के साथ नीति-नियमों का अभ्यास कराते हैं। यह आरम्भ स्वच्छता और व्यवस्था के दो प्रभावों तक सीमित रहता है, पर इनमें भी वे बीजांकुर भरे पड़े हैं, जो आगे चलकर अन्यान्य सद्गुणों की पृष्ठभूमि बन सकते हैं। स्वच्छता में सौन्दर्यप्रियता की अभिरुचि सन्निहित है। इसमें अस्वच्छता का निषेध भी है। अस्वच्छता की परिस्थितियां ही मलीनता की द्योतक हैं। जो गन्दगी को सहन करता है, उसे हटाने के लिए प्रयत्न नहीं करता, वह आगे चलकर उसी कारण स्वभाव में अनेकों अवांछनीयताओं को भी पाल लेता है। इसी प्रकार वस्तुओं, कपड़ों, उपकरणों, पुस्तकों को जहां-तहां बिखेर देने की आदत आगे चलकर आलस्य-प्रमाद का स्वभाव पनपा देती है। ऐसे लोग समय का मूल्य नहीं समझते। किसी काम को योजनाबद्ध रूप से नहीं करते। उपभोग में संयम नहीं बरतते। बात-बात में अनुशासनहीनता का परिचय देते हैं। इन्हीं अस्त-व्यस्तताओं का आगे चलकर इस रूप में परिपाक होता है, जिन्हें असज्जनोचित, अमानवीय, असभ्य स्तर की कहा जा सकता है। यही है वह विष बीज जो अंकुरित होने और फलने-फूलने पर समाज को स्वार्थी जनों से भर देता है। स्वार्थपरता अपनी सीमा से बाहर जाकर उद्दण्डता का रूप धारण कर लेती है और अनाचार पर उतारू होती है। अपराधी प्रवृत्तियां ऐसे ही लोगों में पनपती हैं और फिर वे अपनी छूत अन्यान्यों को लगाकर अपने जैसे अनेकों उद्दण्डों का निर्माण करते हैं। उनका गिरोह बनता है। प्रथम आक्रमण में प्रत्येक आक्रान्ता कुछ लाभ उठा लेता है क्योंकि जिस पर हमला होने वाला है, उसे उसकी पूर्व जानकारी नहीं होती। एक प्रकार से बेखबर और असावधान रहता है। असावधान पर हमला प्रायः कारगर होता है। इसी लालच में उसके साथ दूसरे अनाचारी भी जुड़ जाते हैं और एक अच्छा-खासा गिरोह बन जाता है। यह प्रवृत्ति इसलिए और भी बढ़ती जाती है कि उसके प्रतिरोध का कोई संगठित प्रयत्न नहीं होता। दुर्जन हमला बोलने और अनुचित लाभ उठाने के लिए संगठित हो जाते हैं, पर सज्जन अपने आप में ही संतुष्ट रहते हैं। वे संगठन की और संघर्ष की आवश्यकता नहीं समझते। इसलिए भी अवांछनीय तत्वों को आक्रमण करने और सफल होने का अवसर मिलता है।
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