anachar se kaise nipte

प्रतिरोध अनिवार्य रूप से आवश्यक

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कुछ लोग अपराधों के अभ्यस्त हो जाते हैं, लगातार दुष्कृत्य करते और उनसे लाभ उठाते रहने के उपरान्त उनकी मान्यता बन जाती है कि आक्रमण में लाभ ही लाभ है। अनीति अपनाकर अधिक लाभ उठाया जा सकता है। कम परिश्रम में अधिक लाभ उठाने का चस्का ऐसा है जो एक बार किसी को लग जाने पर बाद में उसे छुड़ाना-छोड़ना कठिन होता है। गुण्डों की भी एक बिरादरी है, वे अपने संगी-साथी ढूंढ़ लेते हैं, गिरोह बना लेते हैं और सम्मिलित रूप से षड्यन्त्र बनाते, कुचक्र रचते और अनेक उपायों से भोले-भालों पर आक्रमण करते हैं और उनसे अनुचित लाभ उठाते हैं। सामान्य लोगों की प्रकृति किसी प्रकार झंझटों से बचे रहने की होती है, वे अनीति सहकर भी इसलिए चुप हो जाते हैं कि कौन विरोध करके अधिक उपद्रव बढ़ाये, अधिक हानि पहुंचने की सम्भावना को आमन्त्रित करे। इस भलमनसाहत दिखाने वाली बात के पीछे डरपोकपन-कायरता का पुट भी रहता है—इसी कमजोरी का लाभ उठाकर अवांछनीय तत्वों के हौसले बढ़ते हैं और वे अधिक उत्साहित होकर बड़े कदम उठाते हैं। जिस प्रकार आग में ईंधन पड़ते रहने से वह भड़कता है, उसी प्रकार जनसाधारण को डरपोक पाकर आक्रमणकारी अपनी गतिविधियों को और भी अधिक व्यापक बनाते जाते हैं। इस लाभ को उठाने में उनके साथी-सहचर भी अनेक बन जाते हैं, इस प्रकार गुण्डों के गिरोह प्रायः बढ़ते ही जाते हैं। रोकथाम के कारगर प्रयत्न न होने पर अवांछनीयता की यह अभिवृद्धि स्वाभाविक भी है।
देखना यह है कि दुष्टता की इस अभिवृद्धि को दिन-दिन अधिक व्यापक बनने से रोका कसे जाय? मोटा उत्तर यह हो सकता है कि सरकार इसे रोके, पुलिस उन लोगों को पकड़े, मुकदमा चलाये और जेल पहुंचाये। पर यह सब कहना जितना सरल है उतना करने में आसान नहीं है। अपराधों की रोकथाम करने की जिम्मेदारी जिनकी है उन लोगों में से सभी ईमानदार और कर्तव्य पालन करने वाले होते हों ऐसी बात नहीं है। अनुचित लाभ उठाने का चस्का, जिस पर अवांछनीय तत्वों का लाभ हुआ है—हो सकता है कि वैसी ही प्रवृत्ति उन लोगों में भी घुस पड़ी हो जो अनाचारियों से तालमेल बिठाकर अपनी साझेदारी का द्वार खोलते हों। ऐसी दशा में स्थिति और भी विषम हो जाती है, एक ओर जनता की कायरता दूसरी ओर पकड़ने वालों की सांठ-गांठ। इस ओर दुहरा प्रोत्साहन मिलने से तस्करों को दोनों ओर से प्रोत्साहन मिलता है। चुप रहने की नीति अपनाने पर यह कुचक्र और भी अधिक बढ़ जाता है।
सोचना यह है कि इन दुःखद परिस्थितियों को रोका कैसे जाय? इसके लिए कई उपाय हो सकते हैं, जहां तक सरकारी अपराध निरोधक तन्त्र का प्रश्न है उसकी उपयुक्तता तभी बन सकती है जब उनका नियंत्रक तन्त्र वस्तुतः ईमानदार हो और सच्चे मन से रोकथाम का इच्छुक हो। यदि ऐसा न हो तो ऊपर वाले की शिथिलता पर साझेदारी रहने की दशा में तो सब कुछ ढकोसला ही बनकर रह जाता है। अपराधियों को पकड़ने की दौड़-धूप दिखावा मात्र बनकर रह जाती है। वास्तविक अपराधी पकड़े नहीं जाते, पकड़े जाते हैं तो मुकदमे में खामियां रहने या गवाह न मिलने की स्थिति में छूट जाते हैं। जमानत करा लेते हैं, छूटने पर वे अपने पकड़े जाने में सहायता करने वाले पर और भी अधिक क्रुद्ध होकर अधिक घातक प्रहार करते हैं। इस प्रकार अपराधियों को सरकारी तन्त्र द्वारा पकड़े जाने की व्यवस्था तभी कारगर सिद्ध हो सकती है जब उसके पीछे कर्तव्य परायणता एवं ईमानदारी का गहरा पुट हो।
देखना यह है कि क्या सरकारी समुचित सहायता न मिलने पर भी बड़े स्तर पर बढ़ती अपराधी प्रवृत्ति की रोकथाम में कुछ कारगर भूमिका हो सकती है? इस प्रश्न के उत्तर में यह कहा जा सकता है कि ‘नागरिक पुलिस’ के रूप में एक वर्ग ऐसा गठित किया जाये जो अपराधियों को प्रताड़ित करने में सहायता करे। पुलिस को आमतौर से शिकायत रहती है कि अपराधों की सम्भावना से अवगत होते हुए भी उन्हें समय रहते सूचना नहीं मिल पाती। फलतः उनके लिए समय से पूर्व दबोचना सम्भव नहीं होता। इस शिकायत को दूर करने का दायित्व यह सेवा-दल स्तर का संगठन अपने कन्धों पर उठाये। यदि इससे कुछ कम सधने की संभावना दीखती हो तो उसके सम्बन्ध में जनता का पूरा सहयोग मिले, अकेला व्यक्ति डरकर चुप हो सकता है, पर यदि विरोध के मोर्चे पर एक संगठन बन गया हो तो हर किसी का हौसला बढ़ सकता है और गुण्डागर्दी का विरोध हो सकता है, पुलिस का यथासंभव सहयोग मिल सकता है। इसके अतिरिक्त अपराधियों के विरुद्ध गवाहियों न मिलने की समस्या का हल भी जनस्तर पर ही करना पड़ेगा। जिन्हें अपराधियों की वास्तविक जानकारी है उन्हें गवाही देने की हिम्मत करनी चाहिए। समझना चाहिए कि यह भी समाज की एक महत्वपूर्ण सेवा है, मानवता के साथ, सामाजिकता के साथ जुड़ी हुई एक बड़ी जिम्मेदारी है कि अपराधियों को पकड़वाने से लेकर उन्हें दण्ड दिलाने तक की घटनाओं को इस बहाने दब जाने की स्थिति न आने दें कि उन्हें गवाहियां नहीं मिलीं। जिस समाज में इतना भी साहस न होगा उसे दबते-पिसते और अनीति सहने की शिकायत भी क्यों करनी चाहिए? अपनी सहायता आप करने पर ही दूसरे लोग सहायता करने के लिए आगे आते हैं—इस तथ्य को समझते हुए ही अनीति प्रतिकार की योजना बनानी चाहिए।
मोर्चा खाली देखकर ही थोड़े से आक्रमणकारी भी चढ़ दौड़ते हैं और मनमानी सफलता प्राप्त कर लेते हैं। यह स्थिति न आने दी जाये तो अपराधों की रोकथाम का प्रयोजन बड़ी सीमा तक सरल हो सकता है। जहां चौकीदार और चौकसी का प्रबन्ध सही होता है वहां चोरी की घटनायें प्रायः कम ही होती हैं, जहां सन्नाटा छाया रहता है वहीं घात अधिक लगती है। अपराध विरोधी नागरिक दल यदि संगठित, सजग और कटिबद्ध रहें तो वह अपने बलबूते भी ऐसा माहौल बना सकता है जिसके रहते अपराधियों की दाल गलना कठिन हो जाय। जहां प्रतिरोध की संभावना देखते हैं वहां से आततायी भी, कन्नी काटते हैं। आधी संभावना तो संगठित नागरिक पुलिस का गठन होने पर भी टल जाती है। अनाचारी प्रायः रात के अन्धेरे में ही घात लगाते हैं, दिन में तो उनका हौंसला भी पश्त रहता है। अन्धकार वहां समझा जा सकता है जहां रोक-टोक करने के लिए कटिबद्ध व्यक्ति या संगठन नहीं हैं। अन्धेरे में ही कृमिकीटक पलते हैं, वहीं चमगादड़-छछूंदर घर बनाते हैं। गन्दगी में मक्खियों और सीलन में मच्छर अपना वंश बढ़ाते हैं। प्रतिरोध की सम्भावना न रहने पर ही अनाचार का हौंसला बढ़ता है—इस तथ्य को समझते हुए हर जगह, हर गांव-मुहल्ले में ऐसे शूरवीर साहसियों के संगठन खड़े करने चाहिए जिसे अपराध निरोधक तन्त्र समझा जा सके। उनका नाम ‘सेवा-दल’ जैसा कुछ भी रखा जा सकता है।
इस दल का प्रथम कार्य प्रत्येक नागरिक की सुरक्षा की जिम्मेदारी और अनीति से निपटने की साहसिकता उत्पन्न करने वाली भावनायें जगाना होना चाहिए। जनसाधारण के मन में से भय की भावना को हटाया जाय और उस शौर्य-साहस को जगाया जाये जो अनीति को सहन करने से इन्कार कर सकने की मुद्रा अपना ले। इस प्रकार का सार्वजनिक मनोबल बढ़ाने के लिए उसी स्तर का साहित्य पढ़ाने-सुनाने, नाटक-अभिनय दिखाने, काव्य-संगीत आदि के आयोजन की व्यवस्था करनी चाहिए। यदि ऐसे साहसिक घटनाक्रम प्रत्यक्ष घटित नहीं होते, वैसे प्रतिरोध सामने देखने में नहीं आते तो भी उस अभिनय की पूर्ति प्राचीन ऐतिहासिक घटनाओं के आधार पर जनसाधारण के मन में जमाये जाने चाहिए। यह विशेषता जन्मजात रूप से उत्पन्न की जानी चाहिए, यह भी ईमानदारी-समझदारी के समान ही एक अति महत्वपूर्ण गुण है। उसके बिना मनुष्य की प्रगति करना तो दूर, जीवित रहना भी कठिन है। यह भावना हर नागरिक में, हर स्त्री-बच्चे में भरी जानी चाहिए। जंगल में आदिवासी हिंसक पशुओं के बीच झोंपड़ी डालकर ही निर्वाह कर लेते हैं—यह हिम्मत का खेल है। उन्नति के लिए भी और सुरक्षा के लिए भी इसकी महती आवश्यकता है, गुण्डों से निपटना भी इसी मनोबल के आधार पर सम्भव हो सकता है। जहां इस स्तर का नागरिक सहयोग मिलेगा वहीं सुरक्षा समितियां भी साहसपूर्वक काम कर सकेंगी अन्यथा उस दल में शामिल होने वालों को उनके घर वाले ही डराकर रोक देंगे और जो प्रयत्न रोकथाम के, पहरेदारी के आरम्भ हुए भी हैं तो वे जीवन्त न रह सकेंगे।
निजी रूप से हर व्यक्ति को अपने निकटवर्तियों-पड़ोसियों से इस स्तर की घनिष्ठता स्थापित करनी चाहिए कि वे एक दूसरे के दुख दर्द में, आड़े समय में काम आ सकें और साथ दे सकें। जहां इस प्रकार के सहयोग की भावना रहती है वहां भी अघोषित सुरक्षा की पंक्ति बन जाती है और उस बाड़ को लांघ कर भीतर प्रवेश करने की हर किसी की हिम्मत नहीं पड़ती। जहां असहयोग, उदासी, उपेक्षा रहती है वहां टकराव की स्थिति भले ही न बने, पर विलगाव की भावना तो रहती ही है। ऐसे असंगठित समुदाय एक-एक करके पिटते रहते हैं और कोई किसी की सहायता के लिए आगे नहीं आता। यह स्थिति किसी भी क्षेत्र में न बन पाये—इसका ध्यान हर समुदाय के मूर्धन्य लोगों को विशेष रूप से रखना चाहिए। इस प्रकार संभावना और साहस का माहौल बनाना भी सुरक्षा का प्राथमिक एवं कारगर उपाय है।
गन्दगी बनी रहने पर मक्खी, मच्छर, जुंये, खटमल, पिस्सू जैसे कृमि-कीटक उत्पन्न होते रहेंगे, इनकी उपज तब तक नहीं रोकी जा सकती जब तक कि सफाई के लिए कीटमारक रसायनों का समुचित प्रबन्ध न हो। गुण्डागर्दी सबसे सरल और फायदेमन्द धन्धा है, रौब गांठने, डराने, चापलूसी बटोरने का अवसर मिलता है। मुफ्त का माल भी बड़ी मात्रा में सहज ही हाथ लगता है, यह चस्का जिनको लग गया है वे छोड़ने का नाम नहीं लेते, जब तक कि उनका कार्य कठिन न बन जाय। प्रतिरोध समर्थ बनकर सामने खड़ा न हो जाय, उन पर समझाने-बुझाने का तो यत्किंचित ही प्रभाव पड़ता है फिर भी वह प्रयास छोड़ा नहीं जाना चाहिए। मनुष्य के अन्दर भलमनसाहत भी कहीं न कहीं, किसी न किसी कोने में छिपी रहती है, उसे जगाने का प्रयत्न किया जाता रहे तो यह भी हो सकता है कि कुकर्मी भी अपना रास्ता बदल दे और भले आदमियों की राह अपना ले।
बड़ी बात दुर्जनों को समझाकर सज्जनता के मार्ग पर लाना उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि उनके गिरोह को छिन्न-भिन्न करने से लेकर घात लगाने की चलती प्रक्रिया में कारगर अवरोध खड़े कर देना। इसके लिए जनसाधारण को साहस जगाने वाला प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए, प्रतिरोध कर सकने वाली साहसिक मण्डलियों का गठन किया जाना चाहिए और सरकारी तन्त्र तक यह आवाज पहुंचाई जानी चाहिए कि उसके भागीदार अधिकारी-कर्मचारी उस कर्तव्य का ईमानदारी से पालन करें जिसके लिए उन्होंने जिम्मेदारी कन्धे पर उठाई है। इस कार्य में उन्हें जहां भी कठिनाई अनुभव हो रही हो, उसे दूर करने के लिए जागरूक नागरिकों को समुचित प्रयत्न करना चाहिए। जनता का साहस, सुरक्षा बलों का पराक्रम और सरकारी तन्त्र का समुचित योगदान यदि मिलने लगे तो गुण्डागर्दी का उन्मूलन उतना कठिन न रहेगा जितना अब है।
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