anachar se kaise nipte

समय से पहले की रोकथाम

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रोग बढ़ने पर चिकित्सा में भारी खर्च करना पड़े, भारी मुसीबत उठानी पड़े, काम-काज रुके और परिजनों, सम्बन्धियों को चिन्ता में पड़ना पड़े, इससे पूर्व यही अच्छा है कि समय रहते ऐसा रहन-सहन अपनाया जाय, जिसके कारण रोग होने की संभावना ही न रहे। नीति, अपराधी प्रवृत्ति पनपने से पूर्व अपनाई जानी चाहिए। जिस वातावरण में दुष्प्रवृत्तियों का उत्पादन और अभिवर्धन होता हो, उन्हें पनपने नहीं दिया जाना चाहिए। पनप रही हों और उन अड्डों पर नियन्त्रण कर सकना अपनी स्वल्प शक्ति के लिए सम्भव न हो तो इतना तो करना ही चाहिए कि अपने को उस माहौल के प्रभाव से यथासम्भव दूर ही रखा जाय, रुचि न ली जाय तो दूषित प्रभावों से बहुत हद तक बचा जा सकता है। आत्मरक्षा की सामर्थ्य तो सभी में होती है। रुचि न लेने पर अनाचारियों के चंगुल से सरलतापूर्वक बचा जा सकता है।
लालची प्रकृति के लोग ही ठगे जाते हैं। हर किसी को हर कोई नहीं ठग सकता। जो ईमानदारी और परिश्रम की कमाई से संतुष्ट हैं, जिन्हें हराम का, मुफ्त का, लूट का पैसा नहीं चाहिए, वे जालसाजों के चंगुल में फंसने से सहज ही बच जाते हैं। वे आकर्षक प्रस्तावों और प्रलोभनों पर ध्यान ही नहीं देते। ललचाने वालों की उपेक्षा करते हैं। उनके जाल में फंसने से स्पष्ट इन्कार कर देते हैं। ऐसी दशा में ठगों की दाल प्रायः नहीं ही गलती। धूर्तों की यह विशेषता होती है कि वे उन लोगों को ताड़ लेते हैं, जिनकी प्रकृति अति भावुकता की, अति उत्साह की होती है। कहते हैं कि जहां घाव होता है वहां मक्खी बैठती है। नमी पाकर मच्छर उपजते हैं। यदि अपने स्वभाव को इतना परिपक्व बना लिया जाय कि अनैतिक, अनुचित लोभ देने वाले आकर्षणों से बच सका जाय तो फिर धूर्तों का समुदाय आस-पास फिरते रहने पर भी अपना कुछ बिगाड़ न सकेगा। समान प्रकृति के लोग ही प्रायः अपने जैसे स्वभाव वालों को फुसलाते हैं और धूर्तों और मूर्खों का जोड़ा बन जाता है। हानि उठाने और हानि पहुंचाने का सिलसिला प्रायः इसी प्रकार बनता है। यदि रास्ते पर से कांटे नहीं बीने जा सकते तो कम से कम पैरों में जूते पहनकर अपना बचाव तो किया ही जा सकता है।
अनाचारियों के प्रभाव में आना, उनके साथ सहानुभूति प्रकट करना, सम्मान देना आरम्भ में ऐसा लगता है कि इस बहाने इन लोगों से अपनी रक्षा होती रहेगी। वे अपना समझेंगे और आक्रमण न करेंगे। जरूरत पड़ी तो इनसे कुछ सहायता भी मिल सकती है। दूसरे कमजोरों पर इस मैत्री की चर्चा करके उन्हें आतंकित भी किया जा सकता है। इस प्रकार सोचने वाले प्रायः भ्रम में रहते हैं। आततायी, परिचित और निकटवर्ती लोगों को ही अपना शिकार बनाते हैं, क्योंकि उनकी मनःस्थिति और परिस्थिति से वे अधिक अच्छी तरह परिचित होते हैं। उन कमजोरियों को जानते हैं, जिनके आधार पर आक्रमण किया जा सकता है, सफलता पाई जा सकती है। सरल को छोड़कर कठिन को अपनाने के चक्कर में कौन पड़े? सीधे पेड़ ही काटे जाते हैं। टेड़े-तिरछे को काटने के झंझट में लकड़हारे भी नहीं पड़ते। अपरिचितों पर हाथ छोड़ने से पहले सौ बार सोचना पड़ता है कि कहीं उलझने पर लेने के देने न पड़ें। किन्तु जिनके सम्बन्ध में पूरी जानकारी है, उन पर घात लगाने में सरलता भी रहती है और सफलता भी मिलती है। इसलिए देखा गया है कि अपराधी प्रकृति के लोग पहले अपने परिचितों, निकटवर्तियों पर ही हाथ साफ करते हैं। इस कटु सत्य को समझते हुए समझदारों को चाहिए कि वे अवांछनीय तत्वों से बचे रहने का प्रयत्न करें। साधारण दुआ सलाम की बात दूसरी है, पर घनिष्ठता की स्थिति तो भूलकर भी नहीं बनने देनी चाहिए। उनके साथ बैठक-उठक का, मेल जोल का, जाने-बुलाने की स्थिति तो आने ही नहीं देनी चाहिए। सांप-बिच्छू जैसे घातक प्राणियों के समीपवर्ती लोग ही अधिक घाटा उठाते हैं।
कोई समय था जब शत्रु, और मित्र की पहचान सरलतापूर्वक हो जाती थी। शत्रु, बोलचाल बन्द कर देते थे। कटु शब्द बोलते थे, निन्दा करते थे, झगड़े पर आमादा रहते थे। हानि पहुंचाने का अवसर ढूंढ़ते और समय-समय पर चोट करते थे। इस व्यवहार के आधार पर सरलतापूर्वक जाना जा सकता था कि शत्रु कौन है? उससे किस प्रकार बचा जाय, कैसे निपटा जाये, इसके उपाय भी सोचे जाते थे और प्रयत्न भी किये जाते थे।
मित्र की पहचान तो और भी सरल थी। वे कठिन समय में सहायता करते थे। हित चिन्तन में, हित साधन में निरत रहते थे। कष्ट-कठिनाइयों से बचाते और आ पड़ने पर उनसे बचाने में शक्ति भर सहायता करते थे। उनका सद्भाव निःस्वार्थ होता है। कुछ झपट लेने की अपेक्षा अपनी ओर से जो बन पड़ता था, उसे देने की बात ही सोचते थे। गिरने से बचाते और ऊंचा उठाने के लिए प्रयत्नशील रहते थे। इन लक्षणों को देखते हुए यह सहज समझा जा सकता था कि कौन मित्र है। उस पर भरोसा भी रखा जाता था और यह माना जाता था कि अपने पास हित-चिन्तक सहयोगी के रूप में बहुमूल्य सम्पदा है।
आज का प्रचलन इसके सर्वथा विपरीत है। शत्रुओं ने मित्र बनकर घात करने का धन्धा अपना लिया है। वह इस आधार पर अपना स्वार्थ अधिक अच्छी तरह, अधिक सरलतापूर्वक सिद्ध कर लेते हैं। शत्रु से सावधान रहा जाता है, पर मित्र पर तो आमतौर से विश्वास ही किया जाता है। उसकी बातों पर भी भरोसा किया जाता है। उसके क्रिया-कलापों को भी संदेह की दृष्टि से नहीं देखा जाता। इस सुविधा का लाभ उठाकर मित्र रूपधारी लोग शत्रुता जैसी घात आसानी से लगा लेते हैं। विश्वासघात स्तर के अपराध इन दिनों जितने होते हैं, उतने इससे पूर्व कभी नहीं होते थे। इस प्रचलन को देखते हुए प्रत्यक्ष शत्रुओं की अपेक्षा परोक्ष शत्रुओं से सावधान रहने की अधिक आवश्यकता है। हर किसी के साथ मित्रता जैसी घनिष्ठता बना लेने का यह समय है नहीं। जिनसे मित्रता पलने लगी हो, उनके सम्बन्ध में तो बार-बार समीक्षा करते रहने की आवश्यकता है, अन्यथा सरलता, सज्जनता बरतने वाले बुरी तरह मरते-मारे जाते देखे जाते हैं।
धनी और महिलाओं पर घात लगाने में मित्र वेशधारी ही कमाल करते देखे गये हैं। उधार मांगने, साझा करने के अनेकों बहाने गढ़ लिए जाते हैं। भलमनसाहत इसमें साथी का और अपना भला सोचती है और उनके हाथों पूंजी फंसा देने में संकोच नहीं करती उनके निमित्त जमानत देने वाले भी इसी प्रकार फंसते और जमानत वाला पैसा स्वयं चुकाते देखे गये हैं। फर्जी जायदाद बेचने नकली जेवर गिरवी रखने के अतिरिक्त और भी कितनी ही प्रकार की हेरा-फेरी हैं, जिन्हें मित्र बनकर ही आसानी से किया जा सकता है। ठगे जाने वालों और जोखिम उठाने वालों में अधिकांश वे होते हैं, जो मित्रों द्वारा ठगे गये। ऐसी घटनायें जिनके सामने नहीं आयी हैं, वे दूसरे इस प्रकार के जोखिम उठाने वालों से पूछकर इस प्रचलन को जान लें कि इन दिनों किस प्रकार की मित्रता कितनों को कितना खतरा पैदा करने वाली सिद्ध हुई है।
जिनके साथ पुराने परिचय हैं, जिनकी आदतों का, स्वभाव का, चाल-चलन का पहले से ही बहुत अधिक परिचय है उनकी बात दूसरी है अन्यथा कुकुरमुत्ते की तरह यकायक उगने वाली मित्रता और देखते-देखते बन जाने वाली घनिष्ठता से ही अत्यधिक सावधान रहने की आवश्यकता है। इस प्रकार हथेली पर सरसों जमाने का बाजीगरी खेल वे ही खेलते हैं, जिन्हें जल्दी-जल्दी अपना स्वार्थ सिद्ध करके नौ-दो-ग्यारह होना है। जहां ऐसी मैत्री उभर पड़े, वहां समझना चाहिए कि कोई कुचक्र उसके साथ जुड़ा हुआ है। उस बढ़ती दोस्ती से हाथ पीछे न हटाया गया तो समझना चाहिए कि किसी बड़े अनर्थ का शिकार बनने में देर नहीं है।
नई पीढ़ी के लड़के अपनी कुदृष्टि वाली घात को सफल बनाने के लिए किन्हीं लड़कियों के साथ किसी प्रकार निकटता बनाने की कोशिश करते, बहिन, भतीजी, भानजी का रिश्ता जोड़ते हैं। बात कुछ भेंट उपहार देने से आरम्भ करते हैं। मेले-तमाशों में साथ ले जाने में सफल हो जाते हैं। यहीं से अवांछनीय हरकतों का सिलसिला चल पड़ता है। जब तक बात छिपी रहे, तब तक तो खैर, पर ऐसे प्रसंग प्रकट हुए बिना नहीं रहते। चर्चा का विषय बनने पर लड़के लड़की के परिवार की इज्जत पर उंगली उठने लगती है और जब विवाह-शादी का समय आता है, तब वही बदनामी ऐसे संकट खड़े करती है, जिनकी कभी पहले कल्पना भी नहीं की गई थी। विवाह कर लेने की सौ-सौ कसमें खाने वाले अक्सर कहीं से नया आकर्षक प्रस्ताव आने पर उस खिलवाड़ को पूरी तरह भूल जाते हैं, जो उन्होंने प्रेम प्रसंग चलने के दिनों की थी। इस स्थिति में लड़के तो पल्ला झाड़कर अलग हो जाते हैं, पर लड़कियों को जिस संकट का सामना करना पड़ता है, उसे जान सकना दूसरों के लिए कठिन है।
मित्रता की परिधि में आने वाले लोगों में सभी एक जैसे नहीं होते। उनमें कुछ अच्छे एवं उपयोगी भी होते हैं, जिनके मिलने से शक्ति सामर्थ्य में अनेक गुनी वृद्धि होती है। महत्वपूर्ण कार्य सधते हैं। संघ शक्ति का महत्व सर्वत्र माना गया है, पर संशयावस्था में भले-बुरे का चयन करने के पीछे कोई कसौटी होनी चाहिए। वह यह है कि घनिष्ठता साधने वाला व्यक्ति आदर्शों की उत्कृष्टता अपनाने की आत्मशोधन की, लोक-कल्याण की चर्चा करता है या किसी भी प्रकार स्वार्थ साधने के लिए परामर्श देता है। आदमी के पेट में जो कुछ होता है, वही उसके मुंह से निकलता है। वार्तालाप में वे बातें उभरकर ऊपर आती हैं जो पेट में होती हैं। शराब पीकर आने वाले के मुंह से बदबू आती है। इस प्रकार दुरात्मा मधुर वार्तालाप करते हुए उन प्रयोजनों की ओर आकर्षित रहते, आकर्षित करते दीख पड़ते हैं, जो नीति-मर्यादाओं का उल्लंघन करके किसी भी प्रकार स्वार्थ सिद्ध कर लेने वाली बात का समर्थन करते हैं। यही वह कसौटी है, जिस पर कसने से कुछ ही दिनों में प्रकट हो जाता है कि घनिष्ठता साधने का उद्देश्य क्या है? सच्चे मित्र वे ही हो सकते हैं, जो नीति पर चलते हैं और दूसरों को नीति पर चलाते हैं। इसके विपरीत जिनको अनीति करते और अनीति करने के लिए प्रेरित करते पाया जाय, समझना चाहिए कि इनकी घनिष्ठता में खतरा ही खतरा है।
आकर्षक लगने वाली सभी वस्तुयें उपयोगी नहीं होतीं। सर्प, बिच्छू, कातर, कनखजूरे जैसे प्राणी देखने में सुन्दर लगते हैं, पर उनके गुणों को देखने पर पता चलता है कि वे समीप आने वाले को कितना त्रास देते हैं। प्रथम पहिचान में ही न किसी का मित्र बनना चाहिए और न किसी को बनाना चाहिए। चरित्र के बारे में बारीकी से देखना, समझना और परखना चाहिए। मात्र शालीनता के प्रति आस्था रखने वाले और आदर्शों का दृढ़तापूर्वक अवलम्बन करने वाले ही इस योग्य होते हैं कि उनसे घनिष्ठता का सम्बन्ध स्थापित किया जाय।
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