anachar se kaise nipte

दुष्प्रवृत्तियां इस प्रकार पनपती हैं

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कुसंग की हानि और सत्संग की सुसंभावना सर्वविदित है। यों हर व्यक्ति इन दिनों व्यस्त है, समस्याओं और आवश्यकताओं के अत्यधिक बढ़ जाने से निजी कामों को निपटाना ही कठिन पड़ता है। इसलिए समझदार व्यक्तियों को प्रायः खाली नहीं पाया जाता, वे ठाली नहीं रहते—ऐसी दशा में उनके साथ अधिक समय गुजारने की संभावना नहीं रहती। जिसके पास ठाली समय है जो कभी भी गपशप के लिए उपलब्ध हो सकता है—समझना चाहिए कि वह जीवन विद्या के सम्बन्ध में अनजाने हैं। ऐसे लोगों में सद्गुण भी नहीं पाये जाते, फिर उनकी संगति से लाभ क्या? जिनके सम्पर्क से लाभ है वे इस स्थिति में नहीं रहते कि अपने योजनाबद्ध कामों को छोड़कर जिस-तिस के साथ गपशप लड़ाते रहें, ज्ञान या अज्ञान की बात कहने में अपना बहुमूल्य समय गंवाते रहें, इस कठिनाई के बीच यह सुयोग मिलना कठिन है कि सत्संग का सुयोग सरलतापूर्वक पाया जा सके। साथी-सहचर ढूंढ़ते फिरने वालों को प्रायः आवारा लोगों की ही संगति हाथ लगती है। उससे लाभ के स्थान पर हानि ही अधिक होती है। किसी के व्यक्तित्व को गिराने में, उसे दुर्गुणी बनाने में अक्सर ठाली लोगों की संगति ही सबसे अधिक विपत्ति ढाती और अनर्थ करती देखी गई है।
कहा गया है कि खाली दिमाग शैतान की दुकान होती है। इसी बात को यों भी कह सकते हैं कि ठाली-बैठे पाये जाने वाले व्यक्ति गये-गुजरे स्तर के होते हैं। वे अपना सूनापन काटने के लिए किसी को भी साथी बनाने की फिराक में रहते हैं। आरम्भ में मीठी बातें कहकर, सब्ज-बाग दिखाकर, कुछ प्रलोभन देकर आकर्षित करते हैं, जब शिकंजा कस जाता है तो उसे कुमार्ग पर धकेलने में अपनी चतुरता का परिचय देते हैं, ऐसी दशा में मंडलियां प्रायः कुकर्मों की ही योजनायें बनाती और अवसर पाते ही उसे कार्यान्वित करती देखी जाती हैं। पतन का सामान्य उपक्रम यहीं से आरम्भ होता है।
यों पूर्व जन्मों की संचित पशु-प्रवृत्तियां और वातावरण का प्रभाव भी गिरने-गिराने में ही सहायता करते हैं। पानी का स्वभाव ढलान की ओर बहने का होता है। छोड़ी गई चीज नीचे की दिशा में ही गिरती है, उठने-उठाने के लिए तो विशेष योजना बनाने और विशेष साधन जुटाने की ही आवश्यकता पड़ती है। इसके लिए उपयुक्त अवलम्बन ढूंढ़ निकालना साधारणतया कठिन ही पड़ता है और श्रमसाध्य भी होता है। फिर भी जहां चाह वहां राह निकलने वाली उक्ति प्रयत्नशीलों के लिए सार्थक ही होकर रहती है।
कुसंग से बचने और सुसंग से लाभ उठाने का सरलतम तरीका यह है कि जीवन विद्या के हर पक्ष पर प्रकाश डालने वाले सत्साहित्य को पढ़ते रहने में रुचि उत्पन्न की जाय, जब भी खाली समय दीख पड़े तभी उन्हें पढ़ने में लगा जाय। यों ऐसी पुस्तक कम ही मिलती हैं, बिरले ही बुकसेलर उन्हें रखते और बेचते हैं। बाजारू मांग घटिया वस्तुओं की ही होती है, अपराधी प्रवृत्ति भड़काने, कामुक उत्तेजना देने वाली, दिवास्वप्नों में उलझाने वाली, अप्रासंगिक कथा-कहानियों वाली पुस्तकें ही प्रायः हर पुस्तक विक्रेता के यहां भरी पड़ी पाई जाती हैं, उनकी बिक्री भी होती है और लाभ भी मिलता है। ऐसी दशा में खपत और नफे को प्रधान मानने वाले लेखक, प्रकाशक, विक्रेता वैसे ही साहित्य को प्रमुखता देते हैं, इतने पर भी तलाश करने वाले सत्साहित्य भी जहां तहां से ढूंढ़ ही निकालते हैं। उन्हें सामर्थ्यानुसार खरीदा जा सकता है, जिनके पास वे मिल सकें उनसे मांगकर पढ़ा जा सकता है। पुस्तकालयों का भी सहारा लिया जा सकता है, ऐसी पुस्तकों को एक बार में पढ़कर ही नहीं फेंक देना चाहिए वरन उन्हें धर्मग्रन्थों की तरह बार-बार पढ़ने का पुण्य-महात्म्य समझकर गम्भीरतापूर्वक धीरे-धीरे मनन-चिन्तन करते हुए पढ़ना चाहिए। उनसे जितना सम्भव हो और आवश्यक हो उतना ग्रहण करना चाहिए। अवांछनीयता के उन्मूलन में और सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन में इस प्रकार के सत्साहित्य से सहायता लेनी चाहिए। इन दिनों सत्संग तो कठिन है, ऐसे मनीषी ढूंढ़े नहीं मिलते जो समय को समझें और व्यक्ति के स्तर को ध्यान में रखते हुए उपयुक्त परामर्श दें। इस अभाव की पूर्ति सत्साहित्य के बिना और किसी प्रकार होनी सम्भव नहीं। जो बिना पढ़े हैं वे दूसरे पढ़े लोगों से सुनकर अपनी सद्ज्ञान पिपासा पूरी करते रह सकते हैं।
इस माहात्म्य को ध्यान में रखते हुए समझ यह भी लेना चाहिए कि भटकाव उत्पन्न करने वाली और पतन को प्रेरणा देने वाली पुस्तकों की हानि भी कम नहीं है। कुमार्गगामिता को प्रेरणा देने वाला साहित्य पढ़ने वाले की मानसिकता को पतन के गर्त में गिराकर रहता है।
पतनोन्मुख प्रेरणायें देने वाले साधनों की, मनोरंजनों की कमी नहीं। नाटक, सिनेमा, अभिनय, नृत्य आदि में उत्कर्ष के कम और अपकर्ष के तत्व अधिक रहते हैं। रेडियो-दूरदर्शन भी इससे बचे नहीं हैं, ऐसी दशा में सर्वथा उपयोगी माध्यम का मिल सकना तो कठिन है, पर अपने में इतनी विवेक बुद्धि जागृत की जा सकती है कि चयन के मूल में जो श्रेष्ठ है उसी को देखा जाय। यदि मिला-जुला देखने को मिलता है तो फिर अपनी परख खरे-खोटे की होनी चाहिए। राजहंस की तरह नीर-क्षीर विवेक की परख अपने भीतर उत्पन्न कर ली जाय तो मिले-जुले माहौल में भी वह चुना जा सकता है जो उपयोगी और उत्कर्ष की प्रेरणा देने वाला हो। दृश्य और श्रव्य में प्रभावित करने की असाधारण क्षमता है। इस तथ्य को समझते हुए वही देखा जाय जो उपयोगी है, वही सुना जाय जो सद्विचारों के बीजारोपण एवं उत्पादन में सहायक हो।
परिपक्व आयु में भला-बुरा समझने की बुद्धि समयानुसार परिपक्व हो जाती है तब अवांछनीयता के आक्रमण का उतना खतरा नहीं रहता, किन्तु किशोरावस्था तो ऐसी बारूद है जिसमें अवांछनीयता की छोटी सी चिनगारी भी ज्वाल-माल बनकर धधकती है। अच्छे वातावरण का प्रभाव तो धीमी गति से होता है। वटवृक्ष देर में बढ़ता और विकसित होता है किन्तु बरसाती खरपतवार तो दो-चार दिन में ही समूची जमीन को घेर लेते हैं—इस तथ्य से सभी को अवगत होना चाहिए।
लड़कियों की समस्या और भी अधिक पेचीदा है। यों आमतौर से लड़कियां घरों में रहती हैं, इसलिए उनके शील-सदाचार पर उंगली उठने जैसे प्रसंग कम ही आते हैं, पर सहशिक्षा से लेकर अनेकों से मिलने-जुलने से सम्बन्धित उत्सवों में ऐसा माहौल बनता है जिससे उन्हें गलत ढंग से सोचने की बात बन जाती है। विवाहितायें अपने सरस संस्मरण सुनाती हैं, कुमार्ग पर चलने से कितनी मौज उड़ाने, धन कमाने का अवसर मिलता है—जैसे प्रसंग सुनकर कई भोली-भावुकों के मन डगमगाने लगते हैं, कई बार मनचले लड़के भी सब्जबाग दिखाकर उनका मन मोह लेते हैं। प्रेम पत्रों का आदान-प्रदान चल पड़ता है, लड़कियां तो लोक-लज्जा से उन पत्रों को कहीं दिखा नहीं पातीं, पर लड़के उन्हें जहां-तहां दिखाकर बदनाम करने, विवाह में अड़ंगा लगाने जैसी धमकियां देकर उनसे अनुचित स्वार्थ सिद्ध करते रहते हैं। कई बार तो इस प्रकार के कुचक्रों में फंसी लड़कियों की जिन्दगियां ही बर्बाद हो जाती हैं। इसका पश्चाताप उन्हें जीवनभर करना पड़ता है। इन खतरों से नासमझ किशोरियों को सावधान करते रहना घर की वयस्क महिलाओं का, समझदार सहेलियों का, अध्यापिकाओं का कर्तव्य है। भावुकता तो सभी किशोरों में जीवन के अन्य समयों की अपेक्षा कहीं अधिक मात्रा में पाई जाती है, पर किशोरियों की भावुकता और अनुभवहीनता मिलकर ऐसी समस्या बना देती है जिसमें उनके लिए हर प्रकार खतरा ही खतरा है। लड़के तो पल्ला झाड़कर अलग हो जाते हैं, उनके लिए सामाजिक नियम भी ढील छोड़ देते हैं, पर लड़कियों के सम्बन्ध में बरती जाने वाली अनुदारता तो उनके लिए विपत्ति बनकर ही सामने आती है। थोड़ी सी चूक भी उनके लिए जिन्दगी भर तक तिरस्कृत करने वाली, दुख देने वाली हैं। इसलिए लड़कों की अपेक्षा लड़कियों को अधिक सतर्क किया और सावधान रखा जाना चाहिए। विशेषतया अवांछनीय लड़कों या लड़कियों के साथ अनावश्यक घनिष्ठता बढ़ने देने की बात को ध्यान में रखना चाहिए। यों नागरिक स्वतन्त्रता की बात सिद्धांत: सब प्रकार मान्यता देने योग्य है, पर यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि इस सन्दर्भ में अतिवाद न बरती जाय, अनावश्यक घनिष्ठता की छूट न दी जाय। भले ही वह बहिन-भाई, सहेली-सहेली आदि रिश्तों की आड़ ले रहे हों। मर्यादाओं का अतिक्रमण न होने देने में ही सब की सब प्रकार भलाई है। लड़कियों के सम्बन्ध में तो यह जागरूकता और भी अधिक रखी जानी चाहिए।
विलासिता, सजधज और ठाठ-बाट की आड़ में बढ़ता हुआ खर्च किसी को भी कुमार्ग पर धकेल सकता है। सीमित और आवश्यक खर्च की पूर्ति तो सही हो सकती है, पर असाधारण खर्च की पूर्ति के लिए तो गलत तरीके ही अपनाने होते हैं।
अपराधी मनोवृत्ति पनपने और परिपक्व होने से पहले स्वभाव गत दोष-दुर्गुण पनपते हैं, आलस्य-प्रमाद उनमें से प्रमुख हैं। आवेशग्रस्तता, तुनकमिज़ाजी, उत्तेजना, बात-बात में आक्रोश प्रकट करने की मनोवृत्ति भी ऐसी है। इस प्रकार का स्वभाव मस्तिष्क पर तनाव बनाये रखता है, सामने प्रस्तुत कामों को ठीक तरह नहीं करने देता। दूसरों का सहयोग प्राप्त करने में भी असफलता मिलती है, सभी काम आकुल-व्याकुल मनःस्थिति में अस्त-व्यस्त पड़े रहते हैं। फलतः अधूरे कामों की श्रृंखला जुड़कर सभी क्रिया-कलापों को असफल बना देती है। असफलता मन में असंतोष, समुदाय में तिरस्कार-उपहास का वातावरण बनाती हैं। इन परिस्थितियों में व्यक्ति भीतर और बाहर से टूटने लगता है, इसकी एक परिणति तो यह होती है कि व्यक्ति दीन-हीन स्थिति अपना ले और हर काम से उदास होकर निठल्लापन अपना ले। साधु-बाबा आदि का वेश बनाकर परावलम्बी जीवन जिये, संसार को मिथ्या-माया कहने लगे, वैराग्य का लबादा ओढ़ ले और ज्यों-त्यों करके दिन गुजारे। दूसरी प्रतिक्रिया यह होती है कि किसी प्रकार धन अर्जित करने के लिए अपराधी, आततायी जीवन जीने लगे। ऐसे लोगों की अन्तःचेतना सदा विक्षुब्ध रहती है, उसको काबू में रखने के लिए नशेबाजी का सहारा लेना पड़ता है। आरम्भ में सिगरेट-गांजा आदि से काम चलता है, पर स्थिति अधिक बिगड़ने पर शराब, स्मैक, हीरोइन आदि बड़े नशे करने पड़ते हैं। उनकी आदत छूटती नहीं, घर की पूंजी चुक जाती है, कर्ज मिलता नहीं—ऐसी दशा में छोटे-बड़े अपराध करते रहना ही एकमात्र उपाय रह जाता है। दुर्गुणों का अन्त अपराधी प्रवृत्तियों में पूरी तरह जकड़ जाने के रूप में ही होता है। यही है दुखद दुर्भाग्य जिसका आरम्भ किशोरावस्था से छोटे रूप में होता है और फिर वह बढ़कर समूचे व्यक्तित्व को ही अपने चंगुल में पूरी तरह जकड़ लेता है। तब न दूसरों को समझाना काम देता है और न अपना मनोबल ही ऐसा रहता है कि अभ्यस्त दुष्प्रवृत्तियों से लोहा ले सके, उनसे पीछा छुड़ाकर अपने को सभ्य नागरिक की श्रेणी में बिठा सके। ऐसे लोगों का अन्त किस प्रकार होता है—यह उन लोगों से पूछा जा सकता है जिनका ऐसे लोगों से वास्ता पड़ा है और उनका अन्त देखा है।
अपराधी प्रवृत्ति एक प्रकार की छूत वाली बीमारी है। जो पहले परिवार के नवोदित सदस्यों पर आक्रमण करती है। कुकर्मी लोगों की संतानें भी अनैतिक कार्यों में ही रूचि लेती हैं और उन्हीं की अभ्यस्त बनती हैं। इसके अतिरिक्त ऐसा भी होता है कि जिनके साथ उनकी घनिष्ठता है उन्हें भी उसी पतन के गर्त में गिरने का कुयोग बने। ऐसे लोग प्रयत्नपूर्वक अपना सम्पर्क क्षेत्र बढ़ाते हैं और उद्धत आचरणों के फलस्वरूप तत्काल बड़े लाभ मिलने के सब्जबाग दिखाते हैं। आरम्भ में हिचकने वालों की हिम्मत बढ़ाने के लिये कितने ही इस आधार पर बड़े-बड़े लाभ प्राप्त कर लेने के मनगढ़न्त वृत्तांत सुनाते हैं। जिन्हें सच मानने और उस प्रकार का आचरण करने में अपनी भी योग्यता देखकर सहज ही तैयार हो जाते हैं। गिरोह बनता है और साथियों की सहायता से अपराधी लोगों का समुदाय बनता है। संगठित प्रयत्नों की सफलता सर्वविदित है। अनाचार पर उतारू लोग भी आक्रामक नीति अपनाकर आरम्भिक सफलता तो प्राप्त कर ही लेते हैं, पीछे भले ही उसके भयानक दुष्परिणाम भुगतने पड़ें।

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