anachar se kaise nipte

अनाचार का विषवृक्ष उगते ही काटें

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इन दिनों अनाचार-भ्रष्टाचार अपेक्षाकृत अधिक उभार और विस्तार पर हैं, इसका एक बड़ा कारण यह है कि अनाचारी अपना आतंक सहज जमा लेते हैं और पीड़ित पक्ष से कुछ करते-धरते नहीं बनता। इसका प्रतिफल यह होता है कि अनाचारियों को जो सफलता मिलती है, उससे उनकी हिम्मत और अधिक बढ़ जाती है। एक को देखकर दूसरे के मन में भी यही लालच उभरता है, इस प्रकार सिलसिला आगे बढ़ता जाता है और अनाचारियों का गिरोह जहां-तहां खुला खेलने लगता है।
दूसरी ओर सज्जन अपने को एकाकी एवं असहाय अनुभव करते हैं। प्रतिरोध की क्षमता अपने में पैदा नहीं कर पाते, ऐसी दशा में उन्हें दया-क्षमा जैसे सिद्धांतों की याद आ जाती है और उनका स्मरण करके किसी प्रकार चुप बैठे रहने की नीति अपनाते हैं। इसका परिणाम और भी भयंकर होता है, उन्हें कायर समझ लिया जाता है, डरपोक-बुज़दिल कहकर उनकी खिल्ली उड़ायी जाती है, अवसर पाते ही उनपर फिर हमला किया जाता है। इस प्रकार बार-बार आक्रमण होने या आशंका रहने के कारण तथाकथित भले आदमी अपनी हिम्मत गंवा बैठते हैं, मन मसोस लेते हैं। संघर्ष की बात सोचना बन्द कर देते हैं और परिस्थितियों के आगे सिर झुका लेते हैं। उनकी दुर्गति देखकर दूसरे भी डर जाते हैं और आक्रमणकारियों से किसी प्रकार जान बचाने के लिए उनकी हां में हां मिलाने, उनके समर्थन तक में उतारू हो जाते हैं कि आक्रान्ता न केवल उस पराजित को वरन् अन्यान्य दुर्बल दीखने वालों पर भी हावी होने लगते हैं। बहुसंख्यक सज्जन इसी प्रकार पिटते रहते हैं और मुट्ठी भर आतंकवादी सबके सिर पर सवार रहते हैं।
ऐसी स्थिति आ बनने पर तो एक ही उपाय है कि जिन्हें आघात सहना पड़ रहा है वे किसी भी हालत में अपनी पराजय स्वीकार न करें। घुटने न टेकें और अनीति से समझौता न करें। आक्रमण का प्रत्याक्रमण सम्भव न हो, घूंसे का जवाब लाठी से देते न बन पड़ रहा हो तो भी इतना तो करना ही चाहिए कि आत्मसमर्पण किसी भी हालत में न करें, कम से कम असहयोग तो जारी रखें ही। सीता रावण के यहां कैद थी, अकेली थी, असहाय थी तो भी उनने रावण के दबाव, प्रलोभन और आकर्षण को स्वीकार न किया। यह स्थिति तो कम से कम बनी ही रहनी चाहिए। अपने को भले ही घाटा पड़े, कष्ट उठाना पड़े, पर सच्चाई की आवाज तो ऊंची रहनी ही चाहिए। यदि विरोध में साथ देने वालों के संगठन बन सकें तो उस गुट से बहुत काम चल जाता है। राम के साथी लक्ष्मण रहे, इस घनिष्ठता को देखकर अंगद, हनुमान, सुग्रीव जैसों के हौसले बढ़े और वे भी उनके साथ हो गये। बाद में रीछ-वानरों तक ने उनका साथ दिया—इस प्रकार न्याय पक्ष अकेला न रहा, उसने अपने आकर्षण से अनेकों सहयोगी जुटा लिये। कहते हैं कि सत्य में हजार हाथी के बराबर बल होता है। वह अकेला भी अड़ा रहे तो सहयोग के अनेकानेक आधार बनते हैं। टिटहरी समुद्र से अण्डे वापिस लेने के लिए जब प्राणप्रण से जुट गई और चोंच में बालू भरकर समुद्र पाटने के लिए कटिबद्ध हो गई तो उसका साहस देखकर अगस्त्य मुनि सहायता के लिए दौड़े और न्याय को विजय दिलाने के लिए वह सब कुछ कर गुजरे जो उनके लिए सम्भव था।
सत्य परायणों और न्यायनिष्ठों को समय-समय पर दूसरों की सहायता भी मिलती रही है, इतिहास इसका साक्षी है। यदि ऐसा न हुआ होता तो बहुसंख्यक कुकर्मियों ने इस संसार की समूची शालीनता का भक्षण कर लिया होता। सत्यनिष्ठ एकाकी होने के कारण सर्वत्र पराजित-पराभूत हो गये होते किन्तु ऐसा हुआ नहीं। प्रहलाद-पथ के अनुयायी कष्ट सहकर भी अपनी विजय ध्वजा फहराते हैं। ईसा मर कर भी मरे नहीं, सुकरात की काया नष्ट होने पर भी उनका यश, वर्चस्व और दर्शन अपेक्षाकृत और भी प्रखर हुआ, व्यापक बना। गोवर्धन पर्वत उठाये जाने का संकल्प आरम्भ में असम्भव लगता रहा होगा, पर समय ने सदुद्देश्य का साथ दिया और सत्संकल्प ने विजय दुंदुभी बजाई।
यह साहस उस पक्ष में जगना चाहिए, जिसे अनीतिपूर्ण आक्रमण सहना पड़ता है, वे झुके नहीं तो सज्जनों की सहानुभूति और दैवी अनुकम्पा उनका साथ देगी। यदि यह हस्तगत न हो सके तो अकेली अपनी अन्तरात्मा ही इतनी बलिष्ठ है कि उसकी संकल्प शक्ति अन्त तक अनाचार से टक्कर लेती रहती है। कुकर्मी अपनी मौत मरते हैं, उनके पाप ही उन्हें खा जाते हैं।
इतने पर भी एक काम जनसाधारण को करना होगा कि अनाचार के विषवृक्ष उगने न पायें। इसके लिए आग लगने पर कुंआ खोदने की नीति काम न देगी। यदि ऐसा संभव हुआ तो पुलिस, कचहरी, कानून और जेल की व्यवस्था रहते दुष्कर्मों का अन्त हो गया होता। प्रताड़ना आवश्यक तो है, पर उनकी आवश्यकता तब पड़ती है जब दुर्घटना घटित हो चुकी होती है। अपराधी को दण्ड मिल सकता है, पर पीड़ित को जो सहना पड़ा उसकी क्षति पूर्ति कैसे होगी? उसके कारण जिस विक्षोभ का, प्रतिशोध का, आतंक का वातावरण पैदा हो चुका होगा, उसका परिमार्जन किस प्रकार होगा? क्रिया अपनी प्रतिक्रिया उत्पन्न करती है। अनाचारी को सफलता मिलने पर इस मार्ग को अन्य अनेकों उद्दण्ड अपना लेते हैं। दुर्बलों में से अनेकों उस आशंका से भयभीत हो जाते हैं, यह ऐसी प्रतिक्रिया है जिससे दुर्घटनायें होकर समाप्त नहीं हो जातीं वरन वे अपने अवांछनीय प्रभाव से अनेकों को प्रभावित करती हैं और समाज का संतुलन बिगड़ता है, चिन्तन का प्रवाह खड़ी दिशा में बहते रहना कठिन पड़ता है।
उपयुक्त यही है कि रोग उभरने की स्थिति उत्पन्न होने से पहले स्वास्थ्य रक्षा के नियमों का कड़ाई से परिपालन करते हुए वह अवसर ही न आने दिया जाय,जिसमें बीमारी का कष्ट सहना पड़े और चिकित्सकों का दरवाजा खटखटाना पड़े। चोरी होने से पहले यदि चौकीदारी की व्यवस्था ठीक कर ली जाये तो उस क्षति से बचा जा सकता है, जो चोरी के कारण होती है।
दुष्टता की दुर्बुद्धि उपजने और अनर्थ करने की स्थिति तक पहुंचने से पूर्व किया यह जाना चाहिए कि जहां से यह उपजते हैं उन पशु प्रवृत्तियों के संचित कुसंस्कारों का समय पर सुधार परिमार्जन कर लिया जाय अन्यथा वे धीरे-धीरे बढ़ते-परिपक्व होते और अभ्यास में उतर कर इस स्थिति तक पहुंचते हैं कि कुकर्मों की उद्दण्डता अपनाने लगे। समय रहते चेतना ही उचित है। रोग की जड़ गहरी पहुंच जाने पर फिर उसकी जड़ उखाड़ना बहुत ही कठिन पड़ता है।
अभिभावक और अध्यापक इस दिशा में बहुत काम कर सकते हैं, वे बचपन से ही नई पीढ़ी को ऐसे संस्कार दे सकते हैं जिनसे कुकर्मों के दुष्परिणामों और सत्कर्मों के सत्परिणामों को जान सकना सम्भव हो सके। इसके लिए परिवार का और पाठशाला का वातावरण ऐसा बनाना चाहिए जिसके सम्पर्क में आने पर नवोदित बालक मानवी गरिमा और महत्ता के प्रति आकर्षित हो सके। अपने को हर दृष्टि से समुन्नत-सुसंस्कृत बनाने के लिए प्रयत्नरत् हो सकें। उन्हें इस बात का ज्ञान हो कि स्वेच्छाचार-अनाचार बरतने पर मनुष्य किस प्रकार हर किसी की दृष्टि में गिर जाता है और गया-गुजरा-अनगढ़ समझा जाने वाला किस प्रकार पग-पग पर तिरस्कार, उपहास और विरोध का भाजन बनता है।
किशोरावस्था भले-बुरे व्यक्तित्व का निर्माण करने की दृष्टि से अतिशय महत्वपूर्ण है, उसमें जोश उफनता रहता है किन्तु बौद्धिक परिपक्वता का अभाव रहने से भटकाव की भारी गुंजाइश रहती है। इस आयु में एक नये वर्ग से पाला पड़ता है, वह है—साथी-संगियों का। स्कूलों में समवयस्क लड़कों का साथ होता है, उनका सान्निध्य रहने, पढ़ने, खेलने, सीखने में सम्पर्क सघन होने के कारण परिचय कुछ ही समय में घनिष्ठता में परिणत होने लगता है। यह स्कूल की परिधि से बाहर भी चलता है और बचे हुए समय में एक दूसरे के घर आने-जाने से लेकर जहां-तहां घूमने जाने तक के प्रोग्राम बनने लगते हैं। इसी अवधि में गुण-दोषों का भी आदान-प्रदान चल पड़ता है, प्रतिभावान अल्प-प्रतिभावानों पर हावी होते हैं उन्हें अपनी ओर आकर्षित करते हैं, साथ ही अपने स्वभाव-व्यक्तित्व की छाप भी एक दूसरे पर छोड़ते हैं, यह छाप भली भी हो सकती है और बुरी भी। इस बीच कहीं अवांछनीयता नहीं पनप रही है—इस बात पर अभिभावकों और अध्यापकों को समान रूप से ध्यान रखना चाहिए।
इन दिनों सुसंस्कारी वातावरण में पले सुसंस्कृत स्तर के बच्चे कम ही पाये जाते हैं, क्योंकि आम लोगों पर अनुपयुक्तता ही सवार रहती है। उनके स्वभाव-आचरण गये-गुजरे स्तर के होते हैं, भले ही वे शिक्षा, व्यवसाय, पद, वैभव आदि की दृष्टि से बढ़े-चढ़े ही क्यों न हों। उत्कृष्टता का वातावरण जहां नहीं है वहां निकृष्टता का बोलबाला होना ही चाहिए। यह अनुपयुक्तता बड़ों में परिपक्व होकर बालकों को विरासत में मिलती है, ऐसे परिवारों के किशोर भी उन बुराइयों से घिरे होते हैं जो उनके बड़ों में पनपती रही हैं। स्वभाव अपने जैसों को सहज ढूंढ़ और घसीट लेता है, जिनमें बुरी आदतें नहीं हैं, उन्हें भी अपनी प्रतिभा के बल पर अपने जैसा बना लेता है। अनुपयुक्तता से ग्रसित अपने सहयोगी बनाने-बढ़ाने के लिए विशेष रूप से लालायित रहते हैं, इस चपेट में भोले लड़के आ जाते हैं और उस घनिष्ठता का प्रसाद-परिणाम दुष्प्रवृत्तियों के रूप में प्राप्त करते हैं। नशेबाजी, गुण्डागर्दी, घर में पैसे की चोरी, आवारागर्दी, गन्दी कामुक हरकतें, दादागीरी जैसी अनेक बुराइयां, उनमें जड़ जमा लेती हैं जो आरम्भ में अच्छे परिवार में पले होने के कारण इस प्रकार की बदफैली से कोसों दूर थे। कुसंग उन्हें कुछ से कुछ बनाता है। किशोरों में इस प्रकार की अनुपयुक्तता सहज जड़ जमाती है, घर वाले इस सन्दर्भ में अनजान रहते हैं, कारोबार की व्यवस्था में लगे रहते हैं, साथ ही यह भी सोचते हैं कि लड़का बड़ा हो गया। उसमें समझदारी, जिम्मेदारी आ गई होगी और अपना भला-बुरा भविष्य स्वयं देखने-समझने लगा होगा, पर देखा यह गया है कि बहुत करके इन्हीं दिनों पतनोन्मुख दुष्प्रवृत्तियां पनपती हैं। तेजी से स्वभाव में प्रवेश करती हैं, व्यक्तित्व को अनुपयुक्त ढांचे में ढाल देती हैं। पता तब चलता है जब बच्चों का लम्बा समय दुष्प्रवृत्तियों के चंगुल में फंसे हुए निकल जाता है, बच्चे छिपते रहते और बड़े उन पर विश्वास करके खोजबीन का प्रयत्न नहीं करते हैं। बड़ी आयु वालों में सोच-समझ अधिक होती है और उत्साह कम, इसलिए वे अवांछनीयता की दिशा में तेजी से कदम नहीं बढ़ाते किन्तु किशोर का उत्साह और भाव संवेदना चरम सीमा पर होती है। वे उत्कर्ष के झंझट भरे मार्ग पर चलने की अपेक्षा सस्ती और मनोरंजन करने वाली, गर्व फुलाने वाली अवांछनीयता की ओर तेजी से आकर्षित होते और देखते-देखते उसके चंगुल में फंस जाते हैं। यही है वह काला केन्द्रबिन्दु जो अच्छे-भले बालकों को कुमार्गगामी बना देता है। वे पढ़ने-लिखने में मन लगाने की अपेक्षा कौतुक-कौतुहलों में अधिक ध्यान केन्द्रित करने लगते हैं और उन्हीं के आदी बन जाते हैं।
विश्वव्यापी अपराध वृद्धि के सर्वेक्षण से पता चलता है कि उद्दण्डता की नींव किशोरावस्था में पड़ती है। उस अवधि में वह चुपके चुपके बढ़ती और पकती रहती है, उन दिनों हरकतें छोटी होती हैं। बालकों द्वारा की गई होने के कारण उनकी दर-गुजर भी कर दी जाती है, पर जैसे ही वे प्रौढ़ होते हैं, वह पलती हुई विषाक्तता भयंकर कुकृत्यों के रूप में फूट पड़ती है और सारे समाज को ग्रस्त-आतंकित करती हैं। अच्छा होता इस विभीषिका की रोकथाम का उपाय-उपचार किशोरावस्था पर कड़ी नजर रखने के साथ ही किया जाता।
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