आयुर्वेद का व्यापक क्षेत्र

आयुर्वेद का लक्षण एवं आयु

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हिताहित सुखं दुःखं आयुस्तस्य हिताहितम्
                       मानं च तच्च यत्रोक्तमायुर्वेदः स उच्यते ॥  - (च०सू० १/४१)

- अर्थात् हितायु, अहितायु, सुखायु एवं दुःखायु: इस प्रकार चतुर्विध जो आयु है उस आयु के हित तथा अहित अर्थात् पथ्य और अपथ्य आयु का प्रमाण एवं उस आयु का स्वरूप जिसमें कहा गया हो, वह आयुर्वेद कहा जाता है ।।

महर्षि चरक के ही अनुसार- इन्द्रिय, शरीर, मन और आत्मा के संयोग को आयु कहते हैं ।। धारी, जीवित, नित्ययोग, अनुबंध और चेतना शक्ति का होना ये आयु के पर्याय हैं ।।

शरीरेन्दि्रयसत्वात्मसंयोगो धारी जीवितम्
                        नित्यगश्चानुबन्धश्च पर्प्यायैरायुरुच्यते ।।  - (च०सू० १/४२)

अर्थात्- शरीर, इन्द्रिय, मन एवं आत्मा के संयोग का नाम ही 'आयु' है और उस आयु के नामान्तर
                   १.  धारी- अर्थात् 'धारक' शरीर को सड़ने नहीं देता है, अतः शरीर का धारण करता है ।।
                   २.  जीवित- प्राण को धारण करता है ।।
                   ३.  नित्ययोग- प्रतिदिन आयु आती- जाती रहती है ।।
                   ४.  आयु का सम्बन्ध पर- अपर शरीर से या प्राण से सदा लगा रहता है ।।

इसके अतिरिक्त

तत्रायुश्चेतनानुवृतिः  - (च०सू० ३०/२२)

अर्थात् गर्भ से मरणपर्यन्त चेतना के रहने को 'आयु' कहा गया है ।।

इसी प्रकार शरीर और जीव के योग को जीवन और उसके साथ जुड़े हुए काल को 'आयु' कहते हैं ।।

शरीर जीवयोर्योगः जीवनं तदावविच्छन्नकालः आयुः

महर्षि चरक मतानुसार जो चार प्रकार की आयु बताई गई है उसके सम्बन्ध में कहा गया है

१. सुखायु-  जो मनुष्य शारीरिक, मानसिक रोगों से रहित है ।। विशेषतः युवा है, और उसके शरीर में बलवीर्य है, वह यशस्वी, पुरुषार्थी, पराक्रमी है, ज्ञान,
                 विज्ञान सम्पन्न है ।। जिसकी इन्द्रियाँ अपने विषयों के ग्रहण में पूर्ण समर्थ हैं । जो सभी प्रकार की धन सम्पत्ति से युक्त है, और इच्छानुसार
                 जिसके प्रत्येक कार्य सम्पन्न होते हैं ।। उस मनुष्य की आयु को सुखाय कहा जाता है ।।

२. दुःखायु-  सुखायु के विपरीत, भिन्न आयु को जिसमें रोगों की अनुभूति हो, दुःखायु कहा जाता है ।।

३. हितायु-  जो मनुष्य सभी प्राणिमात्र का हितकर्ता हो, दूसरे के धन की इच्छा न रखता हो, सत्यवादी हो, शान्तिप्रिय हो, विचारपूर्वक कार्य करने वाला हो,
                 सावधानीपूर्वक धर्म, अर्थ, काम का पालन करता हो, पूज्य व्यक्तियों की पूजा करता हो, ज्ञान- विज्ञान एवं श्रमशील हो, वृद्धजनों का सेवक हो,
                 क्रोध, राग, ईर्ष्या, मद और अभिमान जन्य वेगों को धारण करने वाला हो, सदैव अनेक प्रकार की वस्तुओं का दान करता हो, तप, ज्ञान और
                 शान्ति में सदा तत्पर हो, अध्यात्म विद्या का ज्ञाता हो और उसका अनुष्ठान भी करता हो, और जो भी कार्य करता हो उन सभी कार्यों को
                 स्मरणपूर्वक इस मर्त्यलोक एवं परलोक को ध्यान में रखकर करता हो, तो ऐसे मनुष्य की आयु को हित आयु कहा जाता है ।।

४. अहित आयु- हित आयु से भिन्न आयु को अहित आयु कहा जाता है ।।

इन चारों प्रकार की आयु के लिए हित, अर्थात् जो 'आयुष्य' को आयु को बढ़ाने वाला हो, तथा अहित, 'अनायुष्य' जो आयु का ह्रास करने वाला हो, इन सभी का जिसमें वर्णन हो वह आयुर्वेद है ।।

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