आयुर्वेद का व्यापक क्षेत्र

रस (षट्रस)

<<   |   <   | |   >   |   >>

वस्तुतः हम जो भी खाद्य पदार्थ एवं वस्तुएँ ग्रहण करते हैं, उनमें से जिस स्वाद का ज्ञान जिह्वा के द्वारा होता है उसे ही रस कहते हैं ।।

'रसानार्थो रसः' इस उक्ति के अनुसार शब्द, स्पर्श, रूप आदि अन्य इन्द्रियों के अर्थों के समान रस जिह्वा इन्द्रिय का अर्थ है, क्योंकि रस का निश्चय जिह्वा पर पड़ने से ही होता है ।। इसलिए इसकी रस संज्ञा होती है तथा- रसेन्द्रिय के विषय को रस कहते हैं ।।

रसनार्थो रसः - (च.सू.अ. १)
                  रसेरन्दि्र्यग्राह्यो योडर्थः स रसः  -  (शि.)
                      रसस्तु रसनाग्राह्यो मधुरादिरनेकधा- (का.)

अर्थात् जिस गुण का रसना के द्वारा ग्रहण होता है व रस कहलाता है ।। मधुर अम्ल आदि में पृथक वैशिष्ट्य होने पर भी सारतत्त्व सब में समान रूप से रहता है, अतः ये रस कहलाते हैं ।।

रस और उनका आश्रय- द्रव्य में रहने वाले मधुर, अम्ल, लवण ,कटु, तिक्त और कषाय ये छः रस हैं तथा इसमें जो रस जिस रस के पूर्व में रहता है, वह उससे बलवान होता है ।। अर्थात् रसों की पहचान जीभ के ग्रहण करने पर ही होती है, यथा स्वाद से जैसी प्रतीति होती है मधुर, अम्ल, लवण या मीठा खट्टा नमकीन आदि ।।

'रसा स्वादाम्ललवणतिक्तोष्ण कषायकाः'
                           षड् द्रव्यमाश्रितास्ते च यथापूर्व बलावहाः ।   - (अ.स.सू.अ.१)


रसों की संख्या- रस छः हैं- मधुर, अम्ल, लवण, कटु, तिक्त और कषाय ।।

रसास्वात् षट् मधुराम्ललवण कटु तिक्त कषाय । - (च.चि. १)


इन्हें सामान्य बोलचाल की भाषा में क्रमशः मीठा, खट्टा, नमकीन, कडुआ, तीता और कसैला कहते हैं ।। इनके उदाहरण इस प्रकार हैं-

     मधुर-  गुड़, चीनी, घृत, द्राक्षा आदि ।।
     अम्ल-  इमली, नीबू, चांगेरी ।।
     लवण- सैधंव समुद्र लवण आदि ।।
     कटु-   निम्ब, चिरायता, करेला आदि ।।
     तिक्त- मरीच, लंका (लाल मिर्च) पिप्पली ।।
     कषाय- हरीतकी, बबूल, घातकी ।।


रसों की संख्या के विषय में आचार्य कठोरता वादी हैं और उसमें परिवर्तन नहीं हो सकता ।। इसलिए रस छः ही हैं, न कम न अधिक ।। यद्यपि रसों की संख्या के सम्बन्ध में विभिन्न मत हैं, परन्तु मान्य छः रस ही हैं ।।

रसों का पञ्चभौतिकत्व- द्रव्य के समान रस भी पंचभौतिक हैं ।। जल तो मुख्य रूप से और पृथ्वी जलवायु प्रवेश के कारण अप्रत्यक्ष रूप से रस का समयवी कारण है ।। इसके अतिरिक्त आकाश, वायु और अग्नि ये तीन महाभूत रस की सामान्य अभिव्यक्ति तथा वैशिष्ट्य में निमित्त कारण होते हैं ।। इस प्रकार पाँचों महाभूत रस के कारण तथा सम्बद्ध है ।। द्रव्य और रस दोनों पंचभौतिक होने के कारण द्रव्य अनेक रस होते हैं ।। वस्तुतः रस जलीय है और पहले अव्यक्त रहता है, वही एक आप्य रस काल के छः ऋतुओं में विभक्त होने के कारण पंचमहाभूतों के न्यूनाधिक गुणों से विषम मात्रा में विदग्ध होकर मधुर आदि भेद से अलग छः प्रकारों में परिणत हो जाता है ।। अतः रसों की उत्पत्ति पंचमहाभूतों के द्वारा ही होती है ।।

                    तत्र भूजलयोबार् छुयान्मधुरो रसः ।।
                    भूतेजसोरम्लः जलतेज सोलवर्णः ।।
      वाय्वा काशयोस्तिक्तः ।।
   वायु तेजसोः कटुकः ।।
वायुव्योर् कषायः ।।

१. मधुर-   जल + पृथ्वी
२. अम्ल-   पृथ्वी +अग्नि (चरक, वृद्धवाग्भट और वाग्भट) जल अग्नि (सु.)
३. लवण-   जल +अग्नि (चरक, वाग्भट) पृथ्वी अग्नि (सुश्रुत) अग्नि जल (नागार्जुन)
४. कटु-   वायु +अग्नि
५. तिक्त-   वायु +आकाश
६. कषाय-   वायु+पृथ्वी

महाभूत की न्यूनाधिकता ऋतुओं के अनुसार होती है और उसके कारण विभिन्न ऋतुओं में विभिन्न रसों की उत्पत्ति होती है ।।

"ऋतु महाभूताधिक्य रसोत्पत्ति"

     १. शिशिर -वायु आकाश -तिक्त
     २. वसन्त -वायु पृथिवी -कषाय
     ३. ग्रीष्म -वायु अग्नि -कटु
     ४. वर्षा -पृथिवी अग्नि -अम्ल
     ५. शरत -जल अग्नि -लवण
     ६. हेमन्त -पृथिवी जल -मधुर


रस के भेद-


मधुर रस लक्षण-

मधुर रस जिह्वा में डालने पर पैछित्य संयोग से मुँह मे लिपट जाता है, जिससे इन्द्रियों में प्रसन्नता होती है, गुण भी माधुर्य, स्नेह गौरव, सव्य और मार्दवं है, अतः मधुर रस कफवर्द्धक है, इसके सेवन से शरीर में सुख की प्रतीति होती है जो भ्रमर कीट मक्खी आदि को अत्यन्त प्रिय होता है ।। मूत्र के साथ शर्करा जाती है जो मधुमेह का एक कारण है ।।

कार्य-

शरीर के सभी धातुओं को बढ़ाता है तथा धातुओं के सारभूत ओज की वृद्धि करने के कारण यह बल्य जीवन तथा आयुष्य भी है ।। शरीर पोषक- पुष्टि कारक एवं जीवन प्रद है ।।


२. अम्ल रस लक्षण एवं कार्य-

जिससे जिह्वा में उद्वेग होता है, छाती और कण्ठ में जलन होती है, मुख से स्राव होता है, आँखों और भौहों में संकोच होता है, दाँतों एवं रोमावली में हर्ष होता है ।। अम्ल, रस, वायु नाशक तथा वायु को अमुलोमन करने वाला पेट में विदग्ध करने वाला, रक्त पित्त कारक, उष्णवीर्य, शीत स्पर्श, इन्द्रियों में चेतनता लाने वाला होता है ।।

३. लवण रस लक्षण-

जो मुख में जल पैदा करता है, कण्ठ और गालों पर लगने से जलन सी होती है और जो अन्न में रुचि उत्पन्न करता है, उसे लवण रस कहते हैं ।।

कर्म-

लवण रस जड़ता को दूर करने वाला, काठिन्य नाशक तथा सब रसों का विरोधी, अग्नि प्रदीप रुचि कारक, पाचक एवं शरीर में आर्द्रता लाने वाला, वातनाशक, कफ़ को ढीला करने वाला गुरु स्निग्ध तीक्ष्ण और उष्ण है ।। लवण रस नेत्रों के लिए अवश्य है, सैन्धव लवण अहितकारी नहीं ।।


४. तिक्त रस लक्षण एवं कर्म-

जो मुख को साफ करता है, कण्ठ को साफ करता है तथा जीभ को अन्य रसों को ग्रहण करने में असमर्थ बना देता है, उसे तिक्त रस कहते हैं ।।

तिक्त रस स्वयं अरोचिष्णु, अरुचि, विष कृमि, मूर्च्छा, उत्क्लेद, ज्वर, दाह, तृष्णा, कण्डू आदि को हरने वाला होता है ।। रुक्ष- शीत और लघु है, कफ़ का शोषण करने वाला दीपन एवं पाचन होता है ।।

५. कटुरस लक्षण एवं कर्म-

जो बहुत चरपरा होता है, जीभ के अग्र भाग में चरचराहट पैदा करता है ।। कण्ठ एवं कपोलों में दाह पैदा करता है ।। मुख, नाक, आँखों में जिसके कारण पानी बहने लगता है और जो शरीर में जलन पैदा करता है उसे कटु रस कहते हैं ।।

दीपेन पाचन है ।। उष्ण होने से प्रतिश्याय कास आदि में उपयोगी है ।। इन्द्रियों में चैतन्य लाने वाला, जमे हुए रक्त को भेदकर विलयन करने वाला होता है ।।

६. कषाय रस लक्षण एवं कर्म-

जीभ में जड़ता लाता है ।। कण्ठ को रोकता है, हृदय में पीड़ा करता है, वह कषाय रस है ।। स्तम्भन होने के कारण रक्तपित्त अतिसार आदि में ये द्रव पुरीष तथा रक्तादि को रोकने के लिए उपयोगी है ।। शीतवीर्य, तृप्तिदायक, व्रण का रोपण करने वाला तथा लेखन है ।।

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118