आयुर्वेद का व्यापक क्षेत्र

मानस दोष

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रजस्तमश्च् मानसौ दोषौ- तयोवकारा काम, क्रोध, लोभ, माहेष्यार्मानमद शोक चित्तोस्तो द्वेगभय हर्षादयः ।।

रज और तम ये दो मानस रोग हैं ।। इनकी विकृति से होने वाले विकास मानस रोग कहलाते हैं ।।

मानस रोग-

काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, मान, मद, शोक, चिन्ता, उद्वेग, भय, हर्ष, विषाद, अभ्यसूया, दैन्य, मार्त्सय और दम्भ ये मानस रोग हैं ।।

१. काम-  इन्द्रियों के विषय में अधिक आसक्ति रखना 'काम' कहलाता है ।।
२. क्रोध-  दूसरे के अहित की प्रवृत्ति जिसके द्वारा मन और शरीर भी पीड़ित हो उसे क्रोध कहते हैं ।।
३. लोभ-  दूसरे के धन, स्त्री आदि के ग्रहण की अभिलाषा को लोभ कहते हैं ।।
४. ईर्ष्या-  दूसरे की सम्पत्ति- समृद्धि को सहन न कर सकने को ईर्ष्या कहते हैं ।।
५. अभ्यसूया-  छिद्रान्वेषण के स्वभाव के कारण दूसरे के गुणों को भी दोष बताना अभ्यसूया या असूया कहते हैं ।।
६. मार्त्सय-  दूसरे के गुणों को प्रकट न करना अथवा कूररता दिखाना 'मात्र्सय' कहलाता है ।।
७. मोह-  अज्ञान या मिथ्या ज्ञान (विपरीत ज्ञान) को मोह कहते हैं ।।
८. मान-  अपने गुणों को अधिक मानना और दूसरे के गुणों का हीन दृष्टि से देखना 'मान' कहलाता है ।।
९. मद-  मान की बढ़ी हुई अवस्था 'मद' कहलाती है ।।
१०. दम्भ-  जो गुण, कर्म और स्वभाव अपने में विद्यमान न हों, उन्हें उजागर कर दूसरों को ठगना 'दम्भ' कहलाता है ।।
११. शोक-  पुत्र आदि इष्ट वस्तुओं के वियोग होने से चित्त में जो उद्वेग होता है, उसे शोक कहते हैं ।।
१२. चिन्ता-  किसी वस्तु का अत्यधिक ध्यान करना 'चिन्ता' कहलाता है ।।
१३. उद्वेग-  समय पर उचित उपाय न सूझने से जो घबराहट होती है उसे 'उद्वेग' कहते हैं ।।
१४. भय-  अन्य आपत्ति जनक वस्तुओं से डरना 'भय' कहलाता है ।।
१५. हर्ष-  प्रसन्नता या बिना किसी कारण के अन्य व्यक्ति की हानि किए बिना अथवा सत्कर्म करके मन में प्रसन्नता का अनुभव करना हर्ष कहलाता है ।।
१६. विषाद-  कार्य में सफलता न मिलने के भय से कार्य के प्रति साद या अवसाद-अप्रवृत्ति की भावना 'विषाद' कहलाता है ।।
१७. दैन्य-  मन का दब जाना- अर्थात् साहस और धैर्य खो बैठना दैन्य कहलाता है ।।

ये सब मानस रोग 'इच्छा' और 'द्वेष' के भेद से दो भागों में विभक्त किये जा सकते हैं ।। किसी वस्तु (अथर्व) के प्रति अत्यधिक अभिलाषा का नाम 'इच्छा' या 'राग' है ।। यह नाना वस्तुओं और न्यूनाधिकता के आधार पर भिन्न- भिन्न होती है ।।

हर्ष, शोक, दैन्य, काम, लोभ आदि इच्छा के ही दो भेद हैं ।। अनिच्छित वस्तु के प्रति अप्रीति या अरुचि को द्वेष कहते हैं ।। वह नाना वस्तुओं पर आश्रत और नाना प्रकार का होता है ।। क्रोध, भय, विषाद, ईर्ष्या, असूया, मात्सर्य आदि द्वेष के ही भेद हैं ।।

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