सर्वत्र सब प्राणियों में व्याप्त ईश्वरीय सत्ता के दर्शन स्थूल नेत्रों से नहीं किये जा सकते उनका दर्शन और आनन्द पाने तथा लाभ उठाने के लिए तो अपनी ही अन्तःचेतना को विकसित करना होगा। अन्तःचेतना को विकसित करने का आधार अपने स्वार्थों की संकीर्ण सीमा तोड़ कर समष्टि चेतना तक अपनी भाव की परिधि व्यापक बनाना है। अपने ही समान आत्मा है, सब में एक ही परमात्मा का वास है—आस्थाओं का विकास जब इस स्तर तक कर लिया जाता है तो व्यक्ति ईश्वर सामीप्य की आनन्दानुभूति करने योग्य बन जाता है।
यदि स्वार्थों और क्षुद्र वासनाओं के कारण दिग्भ्रांत न हुआ जाय तो व्यक्ति का मूल स्वभाव सबके साथ तादात्म्य स्थापित करने का है। लेकिन स्वार्थ और वासनाओं के कारण ही व्यक्तिवाद, मोह, स्वजनों में आसक्ति आदि के दोष उत्पन्न होते हैं। पिछले दिनों दर्शन क्षेत्र में इसी आधार पर उपयोगितावादी विचार धारा की प्रतिष्ठापना की गयी।
उपयोगितावादी (यूटिलिटेरियनिज्म) दर्शन के विश्वविख्यात प्रवर्तक जान स्टुअर्ट मिल ने अपने सिद्धान्त की व्याख्या करते हुए लिखा है ‘‘संसार में सबको सुख या आनन्द की खोज है सुख जीवन का लक्ष्य है और यह स्वाभाविक है कि मनुष्य आजीवन उसकी खोज करे। कई बार ऐसी परिस्थिति आती है, जब हमें एक सुख दूसरे से अधिक अच्छा लगे तो हमारे लिए वही इष्ट हो जाता है, भले ही उसको प्राप्त करने में अशांति का सामना करना पड़े। मनुष्य सुख चाहता है, वस्तुयें चूंकि उन सुखों की माध्यम हैं, इसलिए हम वस्तुओं का संग्रह करते समय भी केवल सुख प्राप्ति का प्रयत्न करते हैं, इससे यह सिद्ध होता है कि आनन्द मनुष्य जीवन में प्रमुख है आचरण अप्रमुख ।’’
अर्थात् यदि मांस खाने से सुख की वृद्धि हो सकती है तो मांस खाना बुरा नहीं। यदि काम वासना की अधिक तृप्ति के लिए समाजिक मर्यादायें तोड़ी जा सकती हैं तो वैसा करना पाप नहीं। धन अधिक और अधिक सुख देने में सहायक है, इसलिए अधिकाधिक धन कमाने में यदि प्रत्यक्ष किसी पर दबाव न पड़ता हो तो वैसा किया जा सकता है, अर्थात् झूठ बोलकर, कम तोलकर, मिलावट आदि जितने भी व्यापार के भ्रष्ट नियम हैं, वह पाप नहीं हैं, यदि हमारे सुख की मात्रा उससे बढ़ती हो। बड़ी बलवान् शक्तियों द्वारा कमजोर छोटी शक्तियों का शोषण इस सिद्धान्त का ही समर्थित व्यवहार है। जान स्टुअर्ट और उनके सब अनुयायी इसके लिए प्रकृति को प्रत्यक्ष स्वयंभू उदाहरण देते हैं और कहते हैं कि बड़ी मछली छोटी मछली को खाकर अपनी शक्ति बढ़ाती है। बड़ा वृक्ष छोटे वृक्ष की भी खुराक हड़प कर लेता है आदि। इन सब बातों को देखकर मनुष्य के लिए भी उपयोगितावादी सिद्धान्त का समर्थन होता है।
जहां तक सुख की चाह का प्रश्न है, जान स्टुअर्ट के सिद्धान्त का कोई भी विचारशील व्यक्ति खण्डन नहीं करेगा। हम दिन रात आनन्द के लिये भटकते हैं पर हमने शुद्ध आनन्द की व्याख्या और उसकी प्राप्ति के प्रयत्न किये कहां? दुःख के प्रमुख कारण हैं— (1) अशक्ति (2) अज्ञान और (3) अभाव। यदि सम्पूर्ण जीवन को इकाई मानकर देखें और इन तीनों कारणों को दूर करने के प्रयत्नों पर विचार करें तो संयम, स्वाध्याय आदि के द्वारा ज्ञान वृद्धि और श्रम एवं क्रमिक विकास ही वह उपयुक्त साधन दिखाई देते हैं, जिनके अभ्यास से उन्हें दूर किया जा सकता है और आनन्द प्राप्ति की अपनी क्षमताओं का विकास किया जा सकता है।
आनन्द वृद्धि के लिए उपयोगितावादी सिद्धान्त हमें निरन्तर भौतिकता की ओर अग्रसर करते हैं और हमारी आध्यात्मिक आवश्यकताओं को उस तरह भुलावा देते हैं, जैसे रेगिस्तान के शुतुरमुर्ग शिकारी को देखकर अपना मुख बालू में छिपाकर अपनी सुरक्षा अनुभव करते हैं। आज के संसार में बढ़ रही अशांति और असुरक्षा इस सिद्धान्त की ही देन है।
प्रकृति में बड़ी शक्तियों द्वारा छोटी शक्तियों के शोषण के सिद्धान्त अपवाद मात्र हैं। अधिकांश संसार तो सहयोग और सामूहिकता के सिद्धान्त पर जीवित है। उस क्षण की कल्पना करें, जब सारे संसार के लोग बुद्धि-भ्रष्ट हो जायें और परस्पर शोषण पर उतर आयें तो सृष्टि का विनाश एक क्षण में हो जाये। हम प्रकृति को सूक्ष्मता से देखें तो पायेंगे कि उसका अन्तर्जीवन कितना करुणाशील है। छोटे-छोटे जीव-जन्तु, वृक्ष वनस्पतियां भी किस प्रकार परस्पर सहयोग और मैत्री का जीवन-यापन कर रहे हैं। मानवीय सभ्यता तो जीवित ही इसलिए है कि इतने भौतिक विकास के बाद भी हम मनुष्य-मनुष्य के प्रति प्रेम, दया, करुणा, उदारता, सहयोग और सामूहिकता के सम्बन्ध को तोड़ नहीं सकते।
गांवों के किसानों से कोई पूछे कि वे एक खेत में कई फसलें मिलाकर क्यों बोते हैं? तो उपयोगितावाद के सिद्धान्त का खण्डन करने वाले तथ्य ही सामने आयेंगे। ज्वार और अरहर साथ-साथ बोई जाती हैं। मूंग, उड़द और लोबिया आदि दालें भी ज्वार के साथ बोई जाती हैं। ज्वार का पौधा बड़ा होता है, यदि उपयोगितावाद प्रकृति गत या ईश्वरीय नियम होता तो वह इन दालों को पनपने न देता। होता यह है कि दालों को ज्वार के पौधों में बढ़ने और हृष्ट-पुष्ट होने में सहायता मिलती है। उधर ज्वार को नाइट्रोजन की आवश्यकता होती है, सो वह काम अरहर पूरा करती है। वह वायु-मण्डल से नाइट्रोजन खींच कर कुछ अपने लिये रख लेती है, शेष ज्वार को दे देती है, जिससे वह भी बढ़ती और अच्छा दाना पैदा करने की शक्ति ग्रहण करती रहती है। हमारे देश का सामाजिक ढांचा इसी दृष्टि से बनाया गया था। वर्ग बंटे थे। लुहार अपना काम करता था, बढ़ई अपना, नाई, तेली, मोची, भंगी सब अपना-अपना काम करते थे और अपने जीवन-यापन के साधनों को परस्पर विनियम के द्वारा बांट लेते थे।
इस तरह परस्पर स्नेह, आत्मीयता और प्रेम-भाव बना रहता था। तब मुद्राओं का ऐसा प्रचलन न था। आज मुद्रा स्वयं ही एक समस्या बन गई है और इस प्रकार का सहयोग न होने से आर्थिक खींचा-तानी पैदा हो रही है। साम्यवाद और पूंजीवाद का संघर्ष परस्पर सहयोग के सिद्धान्त की अवहेलना के फलस्वरूप ही है।
पान की बेल आम के वृक्षों के सहारे ही बड़े अच्छे ढंग से बढ़ती है उन्हें किसी घने वृक्ष की छाया न मिले तो बेचारी का जीवन ही संकट में पड़ जाये। यहां बड़ा छोटे के हितों की रक्षा करता है। अमर बेल बेचारी जड़ हीन होने से स्वयं सीधे आहार नहीं ले सकती, इसके लिए उसे बड़े वृक्षों का ही संरक्षण मिलता है। जिनके पास भी साधन और सम्पत्तियां हैं, वे उसे अपनी ही न समझकर समस्त वसुधा की समझकर आवश्यकतानुसार उदारता पूर्वक अल्पविकसितों को बांटते रहें तो विषमता उत्पन्न ही क्यों हो? आर्थिक साधन ही नहीं, विद्या, बुद्धि, कलाकौशल, स्वास्थ्य, सौन्दर्य आदि मानवीय विशेषतायें भी एकस्थं नहीं होनी चाहिये, हमारे पास जो भी योग्यता हो उसे पिछड़े वर्ग के विकास में स्वेच्छापूर्वक दान करना चाहिये।
बड़ी शक्तियां छोटी शक्तियों का शोषण करें यह प्राकृतिक नियम नहीं है। प्रकृति आश्रित को जीवन देने और उसके विकास में सहायता करने का कार्य करती है। ‘छोटी पीपल’ महत्वपूर्ण औषधि है, वह अपना विकास किसी घने छायादार वृक्ष के नीचे ही कर सकती है। इलायची नारियल के वृक्ष की छाया में बढ़ती है। बड़ा पेड़ अपने नीचे के छोटे पेड़ों को खा ही जाय यह कोई सार्वभौम नियम नहीं है।
एक गांव में एक अन्धा रहता था, दूसरा लंगड़ा। एक दिन अकस्मात गांव में आग लग गई। समर्थ लोग अपना-अपना सामान लेकर सुरक्षित भाग निकले। लंगड़ा और अन्धा दो व्यक्ति ही ऐसे रहे, जिन बेचारों के लिये बाहर निकलना सम्भव न था। एकाएक अन्धे को एक उपाय सूझा। उसने लंगड़े से कहा—यदि आप मुझे रास्ता बताते चलें तो मैं आपको कन्धे पर बैठाकर यहां से निकल सकता हूं और इस तरह हम दोनों ही यहां से सुरक्षित बच सकते हैं। लंगड़े को योजना पसन्द आ गई। अंधे ने उसे अपने कन्धों पर बैठाया। लंगड़ा उसे दिशा दिखाता चला और इस तरह दोनों एक रास्ते से आग की लपटों से बचकर बाहर आ गये।
अन्धे और लंगड़े की यह कहानी मनुष्य समाज की सुरक्षा और सुख के सिद्धान्त का प्रत्यक्ष प्रमाण है। यहां कोई भी व्यक्ति पूर्ण नहीं, सब अपूर्ण हैं। डॉक्टर औषधि शास्त्र का पण्डित हो सकता है, कानून-शास्त्र का नहीं। इंजीनियर मशीनों का ज्ञाता होकर भी व्यापार शास्त्र की दृष्टि से निरा बालक रहता है। वैज्ञानिक के लिए यह आवश्यक नहीं कि वह अपने ही बच्चों का शिक्षण आप कर लें उसके लिये, उसे प्रशिक्षित अध्यापकों वाले कालेज का ही सहयोग लेना पड़ेगा। अपूर्णताओं वाले संसार में यदि उपयोगितावाद को खुला समर्थन दिया जाने लगे तो सबके सब अपने को उपयोगी मानकर छल-कपट, शोषण और अत्याचार करने लगें, ऐसी स्थिति में अशिक्षित किन्तु स्वस्थ और बलिष्ठ भी अपने शरीर की उपयोगिता सिद्ध करना चाहेगा। वह चोरी, डकैती और दूसरी तरह के अपराध करेगा, क्योंकि उसे न्याय और नियन्त्रण में रखने वाली बौद्धिक शक्ति स्वयं पंगु हो चुकी होती है। यदि सब उदारतापूर्वक एक दूसरे से सहयोग का मार्ग अपना लें तो हर कोई स्वयं साधनों में भी आनन्द की उपलब्धि कर ले। आज की स्थिति जो गड़बड़ है, उसका दोष इस उपयोगितावाद को ही दिया जा सकता है।
समुद्र में शंख पाया जाता है। इसका कीड़ा निकल जाता है, तब ‘आर्थोपोडा वर्ग’ का ‘हरमिट क्रेब’ नामक जल-जन्तु उसमें जा बैठता है सोचता तो वह यह था कि यहां वह सुरक्षित रहेगा, किन्तु यहां भी उसे शत्रु का भय बना रहता है। मछलियां उसे कभी भी पकड़कर खा जाती हैं। यदि उपयोगितावाद का सिद्धान्त ही सत्य और व्यावहारिक रहा होता तो इस कीड़े की वंशावली ही समाप्त हो गई होती।
पर प्रकृति ने उसकी सुरक्षा का प्रबन्ध भी किया है। वहीं पर ‘फाइसेलिया’ नामक एक जानवर पड़ा होता है। बेचारा अपने आहार के लिये चल फिर नहीं सकता। आर्थोपोडा उसे अपने शंख की पीठ पर बैठा लेता है और उसे यहां से वहां घुमाता रहता है। प्रत्युपकार में फाइलेलिया उस आर्थोपोडा की रक्षा का भार स्वयं वहन करता है। फाइसेलिया अपने शरीर से काई की तरह का एक दुर्गन्धित पदार्थ निकालता रहता है, फलस्वरूप वह जहां भी रहता है, मछलियां भयभीत होकर पास नहीं आतीं यही द्रव छोटे-छोटे जन्तुओं के मारने के काम आता है तथा इस ‘फाइसेलिया’ और ‘हरमिट क्रेव’ दोनों का भोजन भी मिल जाता है। और इस तरह आर्थोपोडा का जीवन सुरक्षित बना रहता है। इससे यह मालूम पड़ता है कि प्रकृति ने यदि सहयोग और सद्भाव की प्रेरणा अन्तरंग से न दी होती तो सृष्टि के सम्पूर्ण प्राणियों का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता।
एक कोषीय जीवों को प्रोटोजोन्स कहते हैं। इनके हाथ-पैर, मुख आदि कुछ नहीं होते। एक नाभिक (न्यूक्लिस) होता है और उसके आस-पास ‘साइटोप्लाज्म’। अमीबा एक ऐसा ही प्रोटोजोन है। इसी की जाति का ‘पैरामीसियम’ नामक जीव जब थक जाता है और जीवन शक्ति बहुत कम पड़ती जाती है या बुढ़ापा अनुभव करता है, तब दो पैरामीसियम मिलकर एक दूसरे से साइटोप्लाज्म (एक प्रकार का द्रव सा होता है जिसमें पानी के अतिरिक्त गैस, खनिज-धातुयें, लवण, पोटेशियम, फास्फोरस आदि विभिन्न तत्त्व होते हैं) अदल-बदल लेते हैं, इससे उनमें पुनः एक नई शक्ति आ जाती है। जबकि मनुष्य समाज अपने माता-पिता और बुजुर्गों का केवल इसीलिये तिरस्कार करते रहते है, क्योंकि वे शक्ति और आजीविका की दृष्टि से अनुपयोगी हो जाते हैं।
उपयोगी के प्रति आसक्ति और रुझान तथा उपयोगी अनावश्यक के प्रति उपेक्षा तिरस्कार की वृत्ति प्रकृति व्यवस्था के विरुद्ध है। प्रकृति मनुष्य को इस बुराई के विरुद्ध चेतावनी देती है और यह बताती है कि यदि मनुष्य स्वयं औरों से सहयोग, सहानुभूति प्राप्त करे तथा उनके प्रति भी वैसा ही सद्भाव रखें। उपयोगी जीवों के प्रति सेवा भाव रखना और अनुपयोगी के प्रति उपेक्षा तथा अनुदारता का भाव रखना-मानवीय कृपणता के अतिरिक्त कुछ नहीं। जिस तरह परस्पर व्यवहार में छोटों के प्रति सम्मान और कृतज्ञता की भावना रखते हैं उसी प्रकार सभ्यता और प्रगतिशीलता का मापदण्ड यह है कि हम अनुपयोगी जीवों के प्रति भी वैसी ही उदारता की भावना रखें।
वैसे भी प्रकृति के सन्तुलन की दृष्टि से हर जीव उतना ही उपयोगी है जितने कि गाय, बैल, भैंस, घोड़े और गधे। चील कौवे सड़े-गले मांस को ठिकाने न लगायें तो सारा वातावरण दूषित हो जाये। अनेक बैक्टीरिया कृषि उपज के लिए अत्यधिक लाभदायक होते हैं। कई जीव जन्तुओं से बहुमूल्य चमड़ा और समूर मिलता है तो अनेक परस्पर एक-दूसरे को खाकर ही एक-दूसरे की असह्य बाढ़ को नियन्त्रित कर अन्ततः मानव जीवन के लिए उपयोगिता सिद्ध करते हैं। इस दृष्टि से सृष्टि का हर जीव उपयोगी और आवश्यक है। उनकी दुष्टता के प्रति ताड़ना का दृष्टिकोण रखा जाय यहां तक उचित है। किन्तु उनके प्रति दुष्टता का व्यवहार मनुष्य जैसे भावनाशील प्राणी के लिये कदापि उचित नहीं हो सकता। हमारी बुद्धि प्राणि मात्र के प्रति दया और करुणा की आत्मीयता पूर्ण सम्वेदना से ओत-प्रोत रहे यही मनुष्यता है। मात्र मनुष्य जाति के प्रति विनम्र और कृपालु रहना अपर्याप्त है।
आज देखने में यह आ रहा है कि मनुष्य जाति अपनी बढ़ती हुई मांसभोजी प्रवृत्ति के कारण वन्य जीवों के अन्धाधुन्ध वध पर तुल गयी है। बहुत से लोग तो शौकिया भी शिकार करते और वन्य-सौन्दर्य को उजाड़ने में अपनी शान समझते हैं। यह मानवीय आदर्शों का अपमान नहीं तो और क्या है कि मनुष्य स्वार्थ के लिए दूसरे जीवों का वध करे।
वन्य जीवों का शिकार प्रकृति के सन्तुलन को नष्ट भ्रष्ट करने का एक जघन्य कृत्य ही नहीं हिंसापूर्ण अपराध भी है। फ्रान्सीसी दार्शनिक लीव्नित्स कहा करते थे पृथ्वी-पर जीवन की तीन अभिव्यक्तियां हैं। मनुष्य रूप में जीवन जागता है, प्राणियों में जीवन स्वप्न देखता है और पेड़ पौधों में सोता है। हिंसा चाहे वह सोते व्यक्ति की की जाये या जागृत की एक ही बात है। सुप्त, तुरीय और जागृत चेतना जीवन की विलक्षण गति और महा रहस्य है उसे उगते चलते, उड़ते निहारने का आनन्द ही कुछ और है। हिंसा से तो दर्द ही पैदा होता है जिसमें समान रूप मनुष्य को भागीदार होना ही पड़ता है। साधु वास्वानी का कथन है- हर जीव प्रकृति संगीत का स्वर है, हर प्राणी जगज्जननी प्रकृति का प्राण प्रिय पुत्र है उन्हें कष्ट नहीं देना चाहिये जीवों को प्यार न करना परमात्मा से प्यार न करने के बराबर है। कोई भी देश सच्चे अर्थों में तब तक स्वतन्त्र नहीं जब तक मनुष्य के छोटे-भाई मूक पशु स्वतन्त्र और सुखी न हों।
व्यावहारिकता इससे विपरीत देखकर दुःख होना स्वाभाविक है। अन्य जीवधारियों की तुलना में बुद्धिमान और शक्तिशाली होने के कारण सम्भवतः उसे यह भ्रम हो गया है कि मानवेत्तर जीव उसके अनुचर और उपभोग के लिए हैं इसी से वह उनका निरन्तर उत्पीड़न करने पर तुल गया। आज स्थिति यह है कि अनेक सुन्दर और उपयोगी जीव-जन्तुओं की जातियां तो विलुप्त हो गईं अनेक लुप्तप्राय स्थिति में हैं। गत शताब्दी तक पिनग्यूनस इम्पैर्निस नामक ओक ग्रीसलैण्ड सेंट लारेंस ग्रेट ब्रिटेन से आइसलैण्ड तक उन्मुक्त विचरण करता था। यह एक अच्छा तैराक पक्षी था दक्षिण स्पेन से लेकर फ्लोरिडा तक का क्षेत्र इसकी क्रीड़ास्थली था किन्तु न्यूफाउण्डलैण्ड वासियों ने इसका तीन शताब्दियों तक जघन्य वध किया। 1845 में इसका एक जोड़ा आइसलैण्ड में बचा था उसे भी सर्वभक्षी मानव ने मारकर उदरस्थ कर इसके जीवनदीप को ही बुझा दिया अब मात्र उसके कंकाल ही संग्रहालयों में शेष रहे हैं।
5 कुण्टल वजन का टाइटन जो 250 वर्ष पूर्व मेडागास्कर का निवासी था अब दुनिया से पूरी तरह उठ गया। लेब्रोडोर में पाई जाने वाली बतख लोगों ने मार-मार कर खा डाली। हरे खाकी रंग का शक्तिशाली टकाहा (नोटोर्निस मेन्टली) अपनी सुन्दरता के लिए विश्वविख्यात था उसे न्यूजीलैण्ड वालों ने मारकर वंशविहीन कर दिया। कोरिया का क्रस्टेड पहाड़ी बतख इसी शताब्दी में धरती से उठ गया। एक्टो पिस्टस कबूतर जो कभी पूर्वी अमेरिका में झुण्ड के झुण्ड उड़ा करते थे आसानी से शिकार हो जाने के कारण अब समूल नष्ट हो गये अन्तिम नमूने की मादा माथी ने 1914 में सिनसिनाही चिड़ियाघर में अन्तिम विदा ले ली, पर मानवीय पिपासा फिर भी शान्त न हुई। आज यूरोपवासी इन्हें देखने के लिए तरसते और मात्र उसी के लिए भारतवर्ष तथा अफ्रीकी देशों में पर्यटन करते हैं इससे प्रतिवर्ष लाखों डालर की राष्ट्रीय आय होती है प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष सभी तरह से जीव जगत हमारा प्राकृतिक सहोदर है उसकी रक्षा अपनी जाति अपने वंश के रूप में ही करने की आवश्यकता है।
हमारी शिक्षा, हमारे संस्कारों में प्राचीन काल से ही इन तथ्यों का समावेश रहा है। प्राचीनकाल में राजकुमारों तक के लिए प्रकृति के सान्निध्य में शिक्षा की व्यवस्था थी उसका अर्थ ही यह था कि उस वातावरण में वे प्रकृति की विशालता को अनुभव करें और अपने को उसी के एक अंग के रूप में देखें। इसी से उस समय की ज्ञान साधना में मानवीयता के उन गुणों का प्रचुर विकास होता था। तब वन्य जीवन राजकीय संरक्षित सम्पदा मानी जाती थी। कौटिल्य ने उनके वध को अपराध मानकर दण्ड की व्यवस्था की थी।
न केवल मनुष्य अपितु मनुष्येत्तर जीव भी प्रकृति की सृजन चेतना के अंग हैं भावनात्मक दृष्टि से भी दोनों समान हैं कबीर की यह उक्ति निःसन्देह सच है—
साईं के सब जीव हैं, कीरो कुंजर दोय।
का पर दाया कीजिये, कापर निर्दय होय॥
कीड़े हाथी सभी जीवन के अंग हैं। यह सब दया के पात्र हैं निर्दयता के नहीं। किन्तु व्यवहार में आज हम भारतीय ही कितने पीछे हैं यह इसी बात से स्पष्ट हो जाता है कि आज भी नागालैण्ड में प्रतिदिन औसतन 6 शेर मारे जाते हैं। आसाम के गोपाल पुरा जंगल में 30 वायसन निरर्थक मार दिये जाते हैं तो राजस्थान में 11 हजार सैंड ग्राउज का शिकार होता है। लोमड़ियां, खरगोश, सियारों की प्रतिदिन की शिकार संख्या लाखों में है। मोर प्रतिवर्ष 10 हजार तक मार दिये जाते हैं। वन्य पशुओं का यह विनाश न केवल शर्मनाक अपितु मनुष्य के लिए कलंक की बात है।
इसे सन्तोष की बात भी कह सकते हैं गौरव की भी। पक्षियों की संख्या विश्व के किसी भी देश की तुलना में भारत में अधिक हैं। गिद्ध, चील, कौवे आदि कुछ गिने-चुने पक्षियों को छोड़ देश में अनुमानतः 3300 तरह के शाकाहारी पक्षी हैं। धार्मिक भावना के कारण इनका वध न किये जाने के कारण ही अब तक इस सम्पदा को बचाये रहना सम्भव हुआ है। आज यह विदेशी मुद्रा कमाने का एक साधन बन गये हैं। आस्ट्रेलिया, डेनमार्क, बेल्जियम, पश्चिमी जर्मनी, जापान, स्वीडन आदि देशों में भारतीय पक्षियों की बहुत मांग है। यूरोप और अमेरिका के लोग भारत के राष्ट्रीय पक्षी मोर को प्राप्त करने के लिये बड़ी से बड़ी रकम देने को तैयार रहते हैं। प्रसन्नता की बात है कि भारत सरकार ने इनका निर्यात रोक दिया है।
किन्तु तथाकथित आधुनिक सभ्यता और मांसाहार की बढ़ती हुई प्रवृत्ति के कारण यहां भी इनका शिकार होने लगा है। इस निर्दयता के फलस्वरूप यूरोपीय नहीं अनेक भारतीय जीव-जन्तु भी अब लुप्तप्राय हो चले। मध्यप्रदेश में जहां के जंगलों में हजारों की संख्या में शेर, बारहसिंगे और जंगली भैंसे विचरण किया करते थे अब केवल 450 शेर बचे हैं। बारहसिंगे मात्रा कान्हा राष्ट्रीय उद्यान में बचे हैं। जंगली भैंसा अब केवल वस्तर जिले में बचा है। काला हिरण अमावस का चन्द्रमा हो गया। गीर सहित शेष देश में कुल 1300 शेर बचे हैं। सोहन चिड़िया जो फसलों के लिए वरदान थी; कीड़े मकोड़े खाकर फसल की रक्षा करती थी अब लुप्तप्राय हो चली है।
1846 में उत्तरी पश्चिमी हिमालय में भरे रंग का बटेर बहुतायत से पाया जाता था किन्तु उसके बाद जो इस की हिंसा प्रारम्भ हुई तो 1876 तक यह लुप्तप्राय हो चला। मेजर जी कारविथन ने तब इसके नैनीताल में होने का प्रमाण दिया था उसके बाद से आज तक एक भी भरा बटेर जो अपनी लम्बी पूंछ, लाल चोंच के कारण दर्शनीय पक्षी था, आज तक मिला ही नहीं। इसी तरह गोदावरी तट से आन्ध्र प्रदेश के पेन्नार तक पाये जाने वाले कोर्सन 1900 के बाद आज तक नहीं दिखाई दिये उसके अन्तिम दर्शन डा. कैम्बेल ने अनन्तपुर में किये। हिमालय की तराई में पाये जाने वाले गुलाबी सिर वाले बतख भी 1935 तक ही जीवित रह सके। अब तो इसके मात्र 13 चमड़े राष्ट्रीय संग्रहालयों को शोभा बढ़ा रहे हैं। वे अपने नैसर्गिक रूप में होते तो धरती कितनी सुन्दर लगती, मनुष्य कितने प्रसन्न होते उन्हें देख-देखकर।
एक समय था जब धरती पर मनुष्य नहीं था तब 120 फुट लम्बाई वाले 1020 मन वजन के विशाल डाइनारगेरों से पृथ्वी शोभायमान थी। लाल शरीर के 12-13 फीट वाले मैमथ हाथी उन्मुक्त विचरण करते थे। मनुष्य का आविर्भाव होते उससे पूर्व ही प्रकृति की गोद में समा गये और मनुष्यों के लिए धरती खाली कर दी। कौन जाने आज की मानव-वंश वृद्धि 3500 मन वाली 113 फीट लम्बी नीली ह्वेलों और 16 फुट के जिरैफों को ही विलुप्त न कर दे फिर तो जीवन के अद्भुत रहस्य, कहानियों की वस्तु रह जायेगी उससे मानव मन को प्रेरणायें तो मिलेंगी ही कहां से?
इन दिनों ‘‘इकोलॉजी’’ नामक एक नये विज्ञान का विकास हो रहा है उसके अनुसार मनुष्येत्तर प्राकृतिक जीवों को भी समष्टि चेतना का ही अंग माना गया है। आज वन्य जीवों के विनाश से उत्पन्न हो रही समस्याओं को ‘‘एकोलोजिकल बैलेन्स डिस्टर्व’’ की संज्ञा देकर समय रहते उसे सुधारने की चेतावनी दी गई है इसमें न केवल वृक्ष वनस्पति अपितु जीवों को भी समान रूप में महत्व दिया गया है। वास्तव में दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं दोनों अन्योन्याश्रित हैं एक के बिना दूसरे की न तो शोभा है न अस्तित्व। इसलिए इस सम्पदा के संरक्षण की सब प्रकार से आवश्यकता है।
अमेरिका के सुप्रसिद्ध जीव शास्त्री डा. फैंक हिबन ने अपने कुछ साथियों के सहयोग से लुप्तप्राय जीवों के संरक्षण का एक अभियान प्रारम्भ किया है। यह कार्य न्यू मैक्सिको विश्वविद्यालय के तत्वावधान में चल रहा है। अफ्रीका की बारबारी भेड़ें तथा एण्टीलोप साइबेरिया के आबेक्स कुदू ईरान से गैजिल, लाल एल्बुर्ज शिप तथा भारतीय मारखोर यहां रखे गये हैं। उनकी सुरक्षा और विकास के सभी प्रबन्ध किये गये हैं। यह सभी जीव यहां न केवल भली प्रकार पल रहे हैं अपितु उन्होंने इस तथ्य को भी झुठला दिया कि जो वस्तु जहां की है वहीं रह सकती है। अफ्रीका से यहां कुल 50 भेड़ें आई थीं आज उनकी संख्या 5 हजार से भी ऊपर हो गई। प्रकृति के इस सौन्दर्य को यदि लुप्त होने से बचाया जा सके तो मनुष्य को उसके सर्वांगीण लाभ निश्चित रूप से मिल सकते हैं। इस तरह के प्रयास चलें तो अच्छी बात है, पर शिकार और मांसाहार के लिए तो जीव-वध कभी भी नहीं करना चाहिये तभी इस वन्य सम्पदा की सुरक्षा और प्राकृतिक सन्तुलन बना रह सकता है।
जीव दया को अब यूरोपीय देशों में अत्यधिक सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है इसके दो जीते जागते उदाहरण हैं। कनाडा के नगर विक्टोरिया के रोमन कैथेलिक चर्च की मदर सिलीलिया ने एक दिन अपने अहाते में तीन बकरियां देखीं उन्हें जब वे भगाने लगीं तो देखा कि वे बार-बार दीवार से टकरा जाती हैं बाहर निकलने का दरवाजा उन्हें नहीं मिल रहा था। मदर सिसीलिया ने समीप जाकर देखा तो यह देखकर कि तीनों बकरियां अन्धी होने के कारण ठोकरें खा रही हैं उनकी आन्तरिक करुणा उमड़ पड़ी। उन्होंने बकरियों को बाड़े में ही रख कर उनके दाने चारे का प्रबन्ध कर दिया। चर्च अधिकारियों ने इस पर आपत्ति की तो वे बोली—‘‘क्या ईसामसीह ने एक नन्हें भेड़ के बच्चे को गोद में उठाकर यह नहीं कहा था जो जितना असहाय है वह उतना ही करुणा का पात्र है?’’ चर्च के अधिकारी इस बात का प्रतिवाद न कर सके उल्टे मदर सिसीलिया की करुणा से वे भी अत्यधिक प्रभावित हो उठे। सिसीलिया को इसके लिये न केवल समूचे कनाडा अपितु सम्पूर्ण यूरोप से असीम सराहना, श्रद्धा मिली। इसके लिए लोगों ने स्वयं ही कोष स्थापित करने का सुझाव दिया। देखते ही देखते एक बड़ी स्थिर पूंजी जमा हो गई जिसके सहारे अब वहां न केवल बकरियां अपितु अपंग घोड़ों, अपाहिज बिल्लियों और अनाश्रित कुत्तों का एक ऐसा परिवार एकत्र हो गया है जिसमें लोगों को जीव दया की प्रेरणा मिलती है। यह दया की भावना का विकास मनुष्य को उसकी देहासक्ति बुद्धि से आत्मीय गुणों और संस्कार की ओर ले जाता है जो इस युग की एक अदम्य आकांक्षा है।
इसी तरह का एक उदाहरण उत्तरी वेल्स (ब्रिटेन) की कोलविन खाड़ी में बनी आल्फ्रेड होरोबिन की पशुशाला है जिसमें विभिन्न जाति के लगभग 500 जीवों को आश्रय मिला है। आल्फ्रेड न केवल उनके लिए भोजन का प्रबन्ध करते हैं अपितु उन्हें अपनी सन्तान की तरह स्नेह और प्यार भी प्रदान करते हैं।
भारतवर्ष में ऋषिकेश के समीप गांधी जी की शिष्या मीरा बहिन का स्थापित पशुलोक भी इसी श्रेणी का एक जीव दया का उदाहरण है किन्तु यह अपवाद जैसे हैं गौतम, गान्धी और भगवान महावीर का यह देश इससे भी व्यापक दृष्टिकोण की अपेक्षा रखता है जिसमें मानव और अन्य प्राणी एक जीव-समुदाय के रूप में बसर न करें तो न सही किन्तु उनका शोषण और उत्पीड़न तो नहीं ही किया जाना चाहिए। यह सभ्यता के नाम पर कलंक है कि मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए इन निरीह प्राणियों का वध करे, उनसे अधिक काम ले तथा अनुपयोगी समझ कर उनकी उपेक्षा करे।
करुणा में प्रकाश की तरह की उत्पादकता है। प्रकाश से हमें वस्तु के यथार्थ और अयथार्थ का अन्तर समझ में आता है तो चेतन-जगत में जो कुछ भी सुन्दर और सुसज्जित है वह सब प्रकाश कणों की देन है। इसी तरह जहां भी करुणा के दृश्य उदय होंगे वहां स्वार्थ और हिंसा के दुष्परिणाम प्रत्यक्ष समझ में आने लगेंगे। साथ ही मनुष्य जीवन की सुंदरता और सुसज्जा मुखरित होगी जो मानवीय प्रसन्नता के प्रधान आधार हैं। करुणा सदा छोटों के प्रति अपने भावनाशील व्यवहार से अभिव्यक्त होती है अतएव यह आवश्यक है कि उसका अभ्यास जीव जगत से प्रारम्भ करें तो उसका प्रतिफल उत्पादक के सिद्धान्त पर मानव समुदाय में स्वयं परिलक्षित होने लगेगा।
परमात्मा का प्रकाश मानवी अन्तःकरण में करुणा, दया और सहृदयता सद्भाव के रूप में ही हुआ है। प्रकाश से हमें वस्तु के यथार्थ और अयथार्थ का अन्तर समझ में आता है। चेतन-जगत के क्षेत्र में जो कुछ भी सुन्दर और सुसज्जित है वह सब परमात्मा की देन है। जहां भी करुणा, दया, प्रेम, सहृदयता और सद्भावना के दृश्य दिखाई देंगे वहां ईश्वरीय विधान की न्याय पूर्ण व्यवस्था के अनुसार उसके सत्यपरिणाम भी मिलते हैं। करुणा, सहृदयता, सद्भावना का—उदारता, परमार्थ और भावना का विकास मनुष्य को ईश्वर के निकट लाता चलता है और उसका प्रतिफल मनुष्य जीवन में सुन्दरता तथा सुसज्जा मुखरित होने के रूप में मिलता है। अतएव सद्भाव सम्पदा के अभिवर्धन का अभ्यास जीव-जगत से आरम्भ करना चाहिए। यह अभ्यास न केवल व्यक्तिगत रूप से वरन् समष्टिगत रूप से भी आनन्द, सुख व शांति की अभिवृद्धि करने में सफल हो सकेगा। आवश्यकता ईश्वर के सम्बन्ध में अर्थहीन विवादों की नहीं, उसकी अधिकाधिक स्पष्ट अनुभूति के अभ्यास की है जिससे जीवन धन्य होता जाता है।