विवाद से परे ईश्वर का अस्तित्व

सभी सन्तानों से समान प्यार

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मनुष्य अपने को सब बातों में अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ और विकसित मानता है। कुछ अर्थों में वह अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ है भी। उदाहरण के लिए उसका मस्तिष्क अन्य प्राणियों की अपेक्षा अधिक विकसित है। इसलिए वह अनेक दिशाओं में, पक्ष-विपक्ष की बातें सोच सकता है और अनेक निष्कर्ष निकाल सकता है। उसे हंसने की, बोलने की, लिखने-पढ़ने की विशेषतायें भी मिली हैं। कृषि, पशु-पालन, शिल्प, व्यवसाय, संचार जैसे साधन उसने सीखे और विकसित किये। विज्ञान क्षेत्र, अर्थ क्षेत्र, युद्ध क्षेत्र आदि में उसकी उपलब्धियां अन्य प्राणियों से अधिक हैं। किन्तु उसका यह दावा करना गलत है कि सभी बातों में बढ़ा-चढ़ा है।

प्रकृति को अपनी सभी सन्तानों से समान प्यार है और उसने सबको आवश्यकतानुसार विभूतियां प्रदान की हैं। यह बात और है कि मनुष्य के हिस्से में बुद्धि तत्व अधिक आया और इसके बल पर वह अनेक क्षेत्रों में विकास कर सका। लेकिन इसी आधार पर मनुष्य को अहमन्य नहीं मानना चाहिए। उसकी यह अहमन्यता एक सीमा तक ही सही है। छोटे-छोटे जीव जिन्हें आमतौर पर तुच्छ और नगण्य समझा जाता है वे कई क्षेत्रों में अपनी विशेषताओं के कारण मनुष्य से आगे हैं। मनुष्यों को गर्व हो सकता है कि वे दुनिया भर में छाये हुए हैं और उसकी संख्या 400 करोड़ है। इस अहंकार को टिड्डी दल चुनौती दे सकता है और कह सकता है कि हमारी संख्या एवं शक्ति इतनी अधिक है जिसका सामना मनुष्यों की बुद्धि और सामर्थ्य नहीं कर सकती। युद्ध कौशल और आत्मरक्षा के प्रयत्नों में छिपकली मनुष्य जाति के बड़े-बड़े सेनापतियों और छापामारों को चुनौती देती है। समय पड़ने पर वह प्रबल शत्रु को ऐसा चकमा देती है कि प्रस्तुत प्राण संकट से वह सहज ही बच निकले।

छिपकली की पूंछ दुधारे शस्त्र का काम करती है। गोह गिरगिट जाति की बड़ी छिपकलियां अपनी पूंछ का ऐसा प्रहार करती हैं जैसा कि गधे, घोड़े दुलत्ती झाड़ते हैं। उसकी करारी चोट खाकर शत्रु तिलमिला उठता है और उसे भागते ही बनता है।

छोटी छिपकलियां जब किसी बलवान शत्रु से घिर जाती है तो अपनी पूंछ फटकार कर उसे तोड़ कर अलग कर देती हैं। तेजी से हिलती हुई उस कटी पूंछ को ही शत्रु पूरी छिपकली समझ लेता है और उसी गुंथ जाता है उसी बीच छिपकली भाग खड़ी होती है और अपने प्राण रक्षा कर लेती है। आश्चर्य यह है कि उस कटी पूंछ के स्थान पर फिर नई पूंछ उग आती है और कुछ ही दिन में पहले जैसी बन जाती है।

शत्रुओं से निपटने के लिए मनुष्य युद्ध सामग्री सैन्य सज्जा के अनेकानेक अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण कर रहा है जिसमें विषाक्त गैसें और अणु आयुध भी सम्मिलित हैं। एक देश दूसरे को अपना शत्रु मानता है, उसका अस्तित्व मिटा देने के लिए बढ़े-चढ़े दावे पेश करता है क्या यह धमकियां सफल हो सकती हैं यह पूछने के लिए चूहा चुनौती देता है और अंगूठा दिखाता है कि तुम मनुष्य प्राणी मुझे अपना शत्रु मानते हो और मेरी हस्ती दुनिया से मिटा देने के लिए पीढ़ियों से सिर ताड़ प्रयत्न कर रहे हो पर इसमें कितनी सफलता मिली? यदि तुम मुझ साधन हीन चूहे का कुछ नहीं बिगाड़ सकते तो शत्रु देशों का क्या कर लोगे? तुम्हीं सब कुछ तो नहीं हो— मारने वाले से बचाने वाला ईश्वर बड़ा है यह क्यों भूल जाते हो।

चूहों से कैसे निपटा जाय वह बड़ा पेचीदा प्रश्न है। इस दिशा में मनुष्य का बुद्धि कौशल लगातार मात खाता चला आता है। चूहे-दान पिंजड़े दो चार दिन काम करते हैं। अपने साथियों की दुर्गति देख कर वास्तविकता समझने में उन्हें देर नहीं लगती। पीछे पिंजड़े में कुछ भी रखते रहिए एक भी उसमें नहीं फटकेगा। जो उधर ललचा रहा होगा उसे भी साथी लोग सावधान कर देते हैं। अजनबी घर में पहुंचकर बिल्ली उन्हें दबोच सकती है पर जब वह उसी घर में रहने लगती है तो चूहे वे दाव पेंच निकाल लेते हैं जिनसे उन पर कोई विपत्ति न आये। कहीं-कहीं तो मजबूत चूहे मिलकर कमजोर बिल्ली पर आक्रमण तक कर बैठे हैं। साधारणतया अभ्यस्त चूहे बिल्ली से डरते नहीं वरन् अंगूठा दिखाते हुए आंख मिचौनी खेलते रहते हैं। गोदामों की सुरक्षा के लिए नेवले-सांप, बीजल, फेरेट पाले गये ताकि वे चूहों से निपट सकें; पर इसका भी कोई बहुत अच्छा परिणाम न निकला।

चूहों से फैलने वाली बीमारी पिछले दिनों प्लेग ही मानी जाती थी पर अब पता चला है कि वे टाइफसट्रिक्रिना-सेप्टोस्पाइरोसिस सरीखे अन्य कई भयानक रोग भी पैदा करते हैं।

चूहों को मारने के लिए पिछले दिनों कई विष प्रयुक्त होते रहे हैं। स्ट्रिक्लीन-जिंक फास्फाइड बारफैरिन आदि का प्रयोग किया जाता रहा है। इन्हें उपयुक्त मात्रा में खा लेने पर तो वे मर जाते हैं पर यदि थोड़ी मात्रा में ही खायें तो उनका शरीर इन विष रसायनों से आत्मरक्षा करने में अभ्यस्त हो जाता है। फिर वे मजे से उसे खाते रहते हैं। उनकी पीढ़ियां इस प्रकार की बनी जाती हैं कि इन घातक विषों का भी उन पर कुछ अधिक प्रभाव नहीं पड़ता।

धरती केवल मनुष्यों के लिए ही नहीं बनाई गई है उस पर रहने का और निर्वाह साधन प्राप्त करने का अन्य प्राणियों को भी अधिकार है। मनुष्य चाहता है कि उसे ही धरती की सारी उपलब्धियां मिल जांय, अन्य प्राणि जो कुछ प्राप्त करते हैं वह उनसे छीन लिया जाय। इस दृष्टि से उसने चूहों को अपना प्रतिद्वन्दी हानिकारक शत्रु माना और उसके विनाश के लिए जो कुछ सम्भव हुआ वह सब कुछ किया। पर प्रकृति उसके मनोरथ पूरे नहीं होने दे सकती। उसे मनुष्य की ही तरह अन्य प्राणियों के अस्तित्व की भी रक्षा करनी है। इसलिए उनकी सुरक्षा के लिए भी कुछ न कुछ व्यवस्था जुटा ही देती है।

चुहिया छः महीने में वयस्क हो जाती है और बच्चे देने लगती है। वह एक बार में प्रायः एक दर्जन बच्चे देती है। यदि यह सब जीवित रहें तो एक चुहिया के बच्चे दस वर्ष के भीतर संसार के कोने-कोने में भरे हुए दिखाई पड़ सकते हैं।

प्रकृति मनुष्य से कहती है तुम्हारे और बिल्ली, उल्लू आदि मांसाहारी जीवों के प्रयत्नों को निष्फल बनाने के लिए मैंने चुहिया को पर्याप्त प्रजनन शक्ति दे रखी है, उसके रहते तुम कभी भी उस छोटे प्राणी का अस्तित्व समाप्त न कर सकोगे।

अच्छा होता मनुष्य अपने को संसार के जीव परिवार का एक छोटा सदस्य मानता और सर्वोपरि सर्वाधिकारी का दावा न करके इस तरह रहता जिससे पारिवारिक सन्तुलन की सुन्दरता बनी रहती।

जीव जन्तुओं की विशिष्ट क्षमतायें

बुद्धि की दृष्टि से मनुष्य अन्य प्राणियों की तुलना में कहीं आगे है। यह ठीक है। बुद्धि, वैभव से उसने परिवार, समाज, शासन का संगठन बनाया है। विज्ञान बुद्धिबल की ही देन है। एक-एक सीढ़ी ऊंची चढ़ते हुए मनुष्य जाति उस स्थान पर पहुंच पाई है जहां उसे प्रकृति सम्पदा का स्वत्वाधिकारी माना जाता है। पर इतने मात्र से यह नहीं समझा जाना चाहिए कि सृष्टि के अन्य प्राणी मात्र मरने तक का नीरस जीवन जीते हैं। उनके पास आनन्द एवं सुविधा सम्वर्धन के लिए कोई विशेष चेतना नहीं है। वास्तविकता यह है कि अपनी जीवनचर्या को सुखद और सरल बनाने के लिए उन्हें ऐसी दिव्य क्षमताएं प्राप्त हैं, जिनसे मनुष्य एक प्रकार से वंचित ही है। जिस अनुपात से छोटे जीवों को विशेष क्षमताएं प्रकृति ने प्रदान की हैं यदि वही सब मनुष्य को भी मिल सकी होतीं तो वह देव-दानवों की स्थिति में न रह रहा होता। भगवान् ने अपने न्याय वितरण में जहां मनुष्य को बुद्धि दी है वहां अन्य प्राणियों को भी बहुत कुछ दिया है जिसे देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है।

पशु-पक्षियों की अपनी सांकेतिक भाषा है। उसके आधार पर वे एक दूसरे से विचार विनिमय करते हैं। प्रेरणा देते और ग्रहण करते हैं। उनका बोलना, चहचहाना निरर्थक नहीं होता वरन् उसमें अभिव्यंजनाओं की अभिव्यक्ति भिन्न-भिन्न आवाजों के आधार पर होती है। इस प्रकार के उच्चारण से वे अपना जी हलका करते और साथियों को अपनी स्थिति से अवगत कराते हैं। इससे वे सचेत होते, लाभ उठाते और संकट से बच निकलने का उपाय खोजते हैं। मनुष्येत्तर प्राणियों की आवाज टैप करके उसे उनके साथियों को सुनाया गया तो पाया गया कि वे उससे प्रभावित होते हैं और आवाजों के अनुरूप अपनी हलचलें प्रस्तुत करते हैं।

वन-जातियों एवं शिकारियों का अनुभव है कि साधारण रीति से बिना छल, कपट का मनुष्य आसानी से वन-जातियों के बीच आ जा सकता है। इसमें इन्हें कोई विशेष उद्विग्नता नहीं होती। किन्तु यदि आखेट के उद्देश्य से कोई उनके समीप पहुंचता है तो मनोभाव ताड़ने में उन्हें देर नहीं लगती। हड़बड़ाकर वे आत्म-रक्षा के लिए दूर भागने का प्रयत्न करते हैं। यहां तक कि मनुष्य द्वारा बन्दूक आदि कपड़ों में छिपाकर ले जाने से भी उन्हें संकट को पहचानने में देर नहीं लगती। मनुष्य में मनोभाव ताड़ने की यदि ऐसी क्षमता होती तो उसे अपने स्वजन, साथियों द्वारा बार-बार ठगे जाने की स्थिति क्यों आती?

भूखे सिंह की आकृति देखकर ही आस-पास चरने वाले- पशु जान बचाकर भाग खड़े होते हैं। इसके विपरीत जब उसका पेट भरा होता है तो आंखों से सिंह दिखाई पड़ते रहने पर भी जंगली पशु निर्भयतापूर्वक आस-पास ही चरते रहते हैं। इतना ही नहीं भय होने पर वे भयाक्रान्त वाणी बोलकर अन्य साथियों को भी खतरे से सचेत कर देते हैं। शिकार के समय अथवा अन्य किसी प्रतिद्वन्दी से उलझते समय सिंहनी अपने बच्चों को किसी सुरक्षित स्थान पर छिपा देती है। बच्चे भी वस्तुस्थिति समझ लेते हैं और दम साधकर बिना हिले−डुले चुपचाप लुके रहते हैं। खतरा समाप्त होने पर संकेत पाते ही वे दौड़कर उछलते कूदते मां के पास जा पहुंचते हैं। मात्र मां की मनःस्थिति के सहारे परिस्थितियों को समझ लेना और अपनी बाल चंचलता को बुद्धिमत्तापूर्वक दबाये रहना इन शावकों की अनोखी समझदारी कही जा सकती है।

पक्षियों में एक तरह की अन्तर्दृष्टि भी होती है और गुप्त चेतावनी-व्यवस्था भी। मनुष्य अपने शत्रु-मित्र की पहचान में अक्सर भूलें करता है; पर पक्षियों में इस विषय में जन्म-जात क्षमता पाई गई है। एक वैज्ञानिक प्रयोग में एक कागज के एक ओर हंस का-सा और दूसरी ओर बाज जैसा आकार दिया गया तथा मुर्गी के नन्हें-नन्हें बच्चों के एक पिंजड़े के चारों तरफ इस नकली दो मुंहे पक्षी को घुमाया गया। यह देखा गया कि जब उन बच्चों के समाने हंस का आकार आता, तो वे सहज रहते, पर जब बाज जैसी आकृति दिखती, उनमें भय और खलबली दौड़ जाती। उन बच्चों को बाज के बारे में कोई जानकारी नहीं मिल पाई थी, न ही बाज उन्होंने कभी देखा था। तो भी वे शत्रु-मित्र की पहचान कर सके।

प्रख्यात पक्षी वैज्ञानिक डा. ज्योमैफ्रेथ्यूस का कहना है कि पक्षियों के भीतर एक ‘जीव वैज्ञानिक तथा समय व दिशासूचक यन्त्र’ होता है, जिससे वे सूर्य और नक्षत्रों की स्थिति जानते हैं तथा सहस्रों मील लम्बी यात्राएं करते व समुद्र को सही दिशा में उड़कर पार करते हैं।

यह भी देखा गया कि पिंजड़े में बन्दी वे पक्षी, जिनकी लम्बी उड़ानों की ऋतुएं निश्चित होती हैं, उस ऋतु के आगमन पर उदास हो जाते हैं। क्योंकि उन्हें उड़ने को नहीं मिलता।

सोलोमन व डालफिन मछली प्रजनन के समय अपने जन्म-स्थल पर पहुंचती हैं। इसके लिए उन्हें सैकड़ों मील की यात्रा करनी होती है।

ईलें नामक सर्पमीन बिना रडार या कुतुबनुमा के ही यूरोप की नदियों से सागर तट तक निश्चित स्थानों पर हजारों मील चलकर पहुंच जाती है। मादा ईलें यूरोप की मीठे पानी वाली नदियों में रहती हैं और नर ईलें अतल समुद्र में। 1-10 वर्ष की होने पर मादा ईलें जुलाई, अगस्त में यूरोप की इन नदियों से समुद्र की ओर कुच कर देती हैं। बिना किसी दिशा सूचक यन्त्र या घड़ी के ये निश्चित समय पर समुद्री मुहानों तक पहुंच जाती हैं, जहां नर ईलें अपना भूरा कलेवर बदल कर रजतवर्णी आभा और सतरंगी आकांक्षाओं के साथ प्रतीक्षा करते रहते हैं। जैसे ही मादा ईलें समुद्री मुहानों पर पहुंचती हैं और अपने-अपने प्रियतम को देखती हैं, उनकी गुलाबी भावनाएं वेगवती हो उठती हैं और दोनों एक-दूसरे से लिपट जाते है तथा प्रणय केलि करते गहरे समुद्र में पहुंच जाते हैं। वहीं डुबकी लगाकर 3 सौ से 15 सौ मीटर तक की गहराई में मादा ईलें अण्डे देती हैं। उन पर नर ईलें अपने शुक्राणु डालते जाते हैं। यही गर्भाधान की क्रिया है पर प्रसव के बाद ही मादा और उसके साथ ही नर ईलें देह त्याग देते हैं। सम्भवतः कर्त्तव्य-सम्पादन की संतुष्टि उनको दीर्घ विश्राम की प्रेरणा देती है। नन्हें बच्चों का पालन प्रकृति करती है। बड़े होने पर ये बच्चे समुद्र की सतह पर आ जाते हैं। जीवाणु और घास खाते तथा धूप सेवन करते हैं। एक वर्ष में वे तीन इंच लम्बे हो जाते हैं, मुहाने पर पहुंचते हैं। ईलें -किशोरियों की देह समुद्री मुहाने पर पहुंचते ही गुलाबी हो उठती हैं।

बसन्त ऋतु में वे उन्हीं मीठे पानी वाली नदियों की ओर चल पड़ती हैं। नर-ईलें वहीं रह जाते हैं। 8-10 वर्ष बाद यही मादा-ईलें सहसा प्रणयाकांक्षा से भरकर चल देती हैं, समुद्री मुहाने की ओर।

विशालकाय ह्वेल मछलियां भी अनुकूल वातावरण की खोज में समुद्र में हजारों मील दूर तक चली जाती हैं और भटकती कदापि नहीं।

वैज्ञानिक अनुसंधानों से पता चला है कि कीड़े मकोड़े और छोटे जीव-जन्तु भिन्न-भिन्न भांति के सन्देशों को सम्प्रेषित करने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार की अत्यन्त हलकी गन्ध प्रसारित करते हैं, जिसे मनुष्य नहीं सूंघ सकता, लेकिन सम्बद्ध जाति के कीड़े-मकोड़ों में उसकी सम्वेदनात्मक प्रतिक्रिया होती है।

उदाहरणार्थ— प्रत्येक वर्ग की चींटियों के नवजात शिशु (जो अण्डे से शिशु रूप ग्रहण करता है) में एक विशेष गन्ध होती है, जो सिर्फ उसी कुनवे की चींटियों में वात्सल्य भाव तथा मातृत्व की भावना जगाती है।

खोजों से ही पता चला है कि चींटियों समेत अनेक कीड़ों में कई-कई तरह के गन्ध-प्रसारण या कि गन्ध-रसायन अलग-अलग प्रभाव पैदा करते हैं। एक गन्ध ऐसी होती है जिसके सहारे कीड़ों का दल अपने मुखिया का सही अनुमान लगता है— रास्ते में भूलता-भटकता नहीं। एक गन्ध ऐसी होती है जिसे सूंघकर नर मादा की गर्भ धारणा की सम्भावना को समझकर, उससे सहवास करता है। ये सभी गन्ध रसायन ‘फेरोमोन’ कहे जाते हैं।

एक ‘फेरोमोन’ ऐसा होता है, जिसके द्वारा मादा नर को आकर्षित करती है। एक अन्य फेरोमोन के द्वारा वह अपने वांछित नर का दूसरी सभी मादाओं के प्रति आकर्षण कम करती है।

एक ‘फेरोमोन’ ऐसा होता है, जिसके द्वारा नर, अपनी प्रिय मादा से, दूसरे सभी नरों को दूर रखता है।

अमरीका में कपास के ढोढे को कीड़ों से रक्षा के लिए भी इनके उपयोग की दिशा में काम चल रहा है। जिस वर्ग के कीड़ों को मारना हो, उनके लिए आकर्षित करने वाला फेरोमोन तैयार कर खेत से दूर एक पिंजड़े में उसे रख दिया जाय, तो उस वर्ग के समस्त कीड़े उस पिंजरे में खिंचे चले आयेंगे। फिर उनको मारा जा सकता है।

इससे कीटाणु नाशक दवाओं से होने वाली हानि नहीं हो पायेगी। क्योंकि कीट नाशक दवाएं सिर्फ फसल को नुकसान करने वाले कीड़े ही नहीं मारती, अक्सर उपयोगी कीड़े भी मार डालती हैं। साथ ही ये कीटनाशक पानी के साथ बहकर नदी-नाले में पहुंच कर वहां जल जीवों को भी क्षति पहुंचाते हैं। फेरोमोन से ये सब नुकसान नहीं होंगे, बस मन चाहे कीड़ों को आकर्षित कर उनका काम तमाम किया जा सकता है।

यद्यपि कृत्रिम फेरोमोन का निर्माण है कठिन, पर उस दिशा में तेजी से कार्य जारी है।

ऋतु परिवर्तन की पूर्व सूचना देने वाले पक्षियों तथा कीड़ों से किसान लोग सहज ही यह जान लेते हैं कि निकट भविष्य में ऋतुओं सम्बन्धी क्या हेर-फेर होने जा रहा है। किसी मकान के गिरने की सम्भावना हो तो बिल्ली अपने बच्चों को वहां से पहले ही उठा ले जाती है। भूकम्प आदि प्राकृतिक दुर्घटनाओं की पूर्व सूचना भी कई पशुओं की विचित्र हलचलें देखकर प्राप्त की जा सकती हैं। रात को कुत्ते अधिक रोते हों तो समझा जाता है कि यहीं कहीं मरण का कुचक्र घूम रहा है। कुत्तों की घ्राण शक्ति इतनी सधी हुई होती है कि वे जिस मार्ग में बहुत दूर तक ले जाये गये थे उसी से उलटे पावों लौट आते हैं। यह कार्य वे उस रास्ते में पिछली बार छूटी हुई अपने ही पैरों की गन्ध सूंघकर सम्पन्न करते हैं। कुत्तों द्वारा चोरी का पता लगाने की पुलिस व्यवस्था में उनकी घ्राण शक्ति का ही प्रयोग होता है।

तैरने वाले, घूमने वाले, उड़ने वाले प्राणियों की सामान्य हलचलें ऐसे ही बेसिलसिले की तथा अटपटी दिखाई पड़ती हैं, पर ध्यानपूर्वक देखा जाय तो मकड़ी, मधु-मक्खी, चींटी, दीमक जैसे तुच्छ प्राणियों की विलक्षण बुद्धि को देखकर चकित रह जाना पड़ता है; वे अपने साधन हीन और पिछड़े समझे जाने वाले जीवन क्रम को सरल एवं आनन्दित बनाये रहते हैं। इससे स्पष्ट है कि भगवान् ने हर प्राणी को उसकी स्थिति और आवश्यकता के अनुरूप ऐसे साधन दिये हैं जिसमें किसी के साथ पक्षपात या अन्याय हुआ न कहा जा सके।

खाली हाथ अन्य जीव भी नहीं

ईश्वर ने एक किस्म के खिलौने मनुष्य को दिये हैं तो दूसरी किस्म के खिलौने भगवान ने अपने इन छोटे बच्चों को—अन्य जीवों को भी दे रखे हैं और खाली हाथ उन्हें भी नहीं रहने दिया गया है।

दीमक और चींटियां परस्पर अंग स्पर्श करके—एक दूसरे—साथी को अपनी बात बताती और उसकी सुनती हैं। इस पारस्परिक जानकारी के आधार पर उन्हें अपना भावी कार्यक्रम बनाने में बड़ी सहायता मिलती है।

तितलियां और पतंगे अपने शरीर से समय-समय पर भिन्न प्रकार की गन्ध छोड़ते हैं, उस गन्ध के आधार पर उस जाति के दूसरे पतंगे अपने साथियों की स्थिति से अवगत होते हैं और उपयोगी सूचनायें संग्रह करते हैं। किस दिशा में उपयोगी किस में अनुपयोगी परिस्थितियां हैं उसका ज्ञान के साथी पतंगों के शरीर से निकलने वाली गन्ध से ही प्राप्त करते हैं। उनकी दृष्टि दुर्बल होती है। आंखें उनकी इतनी सहायता नहीं करती जितनी कि नाक।

बहुत पतंगे एक दूसरे के विभिन्न अंगों का स्पर्श करके अपने विचार उन तक पहुंचाने और उनके जानने की प्रक्रिया पूरी करते हैं। मनुष्य का सम्भाषण वाणी से अथवा भाव भंगिमा के माध्यम से सम्पन्न होता है। पतंगे यही कार्य परस्पर अंग स्पर्श से करते हैं। जीभ से उच्चारण न कर सकने पर भी वे एक दूसरे की शारीरिक और मानसिक स्थिति जान लेते हैं। इस प्रकार उनका पारस्परिक सम्पर्क एक दूसरे के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध होता है। मधुमक्खियों के पैर बहुत संवेदनशील होते हैं वे उन्हें रगड़ कर एक प्रकार का प्रवाह उत्पन्न करती हैं। उससे न केवल ध्वनि ही होती है वरन् ऐसी संवेदना भी रहती है जिसे उसी वर्ग की मक्खियां समझ सकें और उपयोगी मानसिक आदान-प्रदान से लाभान्वित हो सकें।

टिड्डे और झींगुर अपने पिछले पैर और पंख रगड़ कर अनेक चढ़ाव उतार सम्पन्न ध्वनि प्रवाह उत्पन्न करते हैं। सितार, सारंगी या वेला के तारों का घर्षण जिस प्रकार कई तरह की स्वर लहरी पैदा करता है, उसी तरह टिड्डे तथा झींगुरों के पैरों तथा पंखों के माध्यम से प्रस्फुटित होने वाला स्वर प्रवाह अनेक प्रकार का होता है और उसमें अनेक प्रकार के भाव तथा संकेत छिपे रहते हैं।

जीव विज्ञानी जर्मन वैज्ञानिक डॉक्टर फैवर ने यूरोप भर में घूमकर विभिन्न जातियों के टिड्डे, झींगुरों की ध्वनियां का टैप संकलन किया है। उनने 400 प्रकार के शब्द पाये जो निरर्थक नहीं, सार्थक थे और सुरुचि पैदा करते थे। उन्होंने 14 प्रकार के प्रणय गीत भी इकट्ठे किये जिनमें प्रणय निवेदन के उतार-चढ़ाव, आग्रह, अनुरोध, आकर्षण, निषेध, मनुहार, प्रलोभन, सहमति, असहमति की मनःस्थिति की जानकारी सन्निहित थी। इसके अतिरिक्त वे अन्य मनोभाव अपने वर्ग तक पहुंचाने के लिए- अपनी अन्तःअभिव्यक्ति के लिए यह ध्वनि प्रवाह उत्पन्न करते हैं इसका विस्तृत विश्लेषण और विवरण डॉक्टर फैवर ने तैयार किया है। ग्राईलस, कम्पोस्टिस, ग्राइवो, मेकूलेटस जाति के झींगुरों की शब्दावली और भी अधिक विकसित पाई गई।

मधु मक्खियां जब घर लौटती हैं तो अपनी दैनिक उपलब्धियों की जानकारी छत्ते की अन्य मक्खियों को देती हैं इसके लिए उनका माध्यम नृत्य होता है स्थिति की भिन्नता को सूचित करने के लिए उनकी अनेक नृत्य पद्धतियां निर्धारित हैं। इसी परिसंवाद से वे परस्पर एक दूसरे की उपलब्धियों से परिचित होती हैं और अगले दिन के लिए अपना क्रम परिवर्तन निश्चित करती हैं। कार्ल वाल फ्रंच का मधु मक्खियों सम्बन्धी अध्ययन अति विशाल है। रानी मधुमक्खी जब ऋतुमती होती है, तो उसके शरीर से निकलने वाले आक्सोइका और ड्रनोइक द्रव हवा में उड़कर नरों तक सन्देश और आमन्त्रण पहुंचाते हैं।

कुछ लघु काय कीट पतंग केवल अपने नेत्र संचालन और मुख मुद्रा में थोड़ा हेर-फेर करके अपनी मनःस्थिति से साथियों को अवगत करते हैं। प्रो. रावर्ट हिण्डे ने कितनी ही चिड़ियों को केवल नेत्र संकेतों से वार्तालाप करते देखा है। एक दूसरे के विचारों के आदान-प्रदान की आवश्यकता वे आंखों में रहने वाली संवेदना से कर लिया करती हैं, जुगनू अपने मनोभाव पूंछ में से प्रकाश चमका कर प्रकट करते हैं। प्रकाश के जलने बुझने का क्रम उस वर्ग के दूसरे जुगनुओं के चमकते हुए प्रकाश के माध्यम से पारस्परिक परिचय तथा एक दूसरे की स्थिति समझने का अवसर मिलता है।

मेंढकों का टर्राना एक स्वर से नहीं होता और न निरर्थक। वे अपनी स्थिति की सूचना इस टर्राहट के द्वारा साथियों तक पहुंचाते हैं। इसलिए इस टर्राने में कितने ही प्रकार के उतार-चढ़ाव पाये जाते हैं। पक्षियों में कौए की भाषा अपेक्षाकृत अधिक परिष्कृत है। वे अपने वर्ग की ही बात नहीं समझते वरन् आस-पास रहने वाले अन्य पक्षियों की भाषा भी बहुत हद तक समझ लेते हैं और उस जानकारी के आधार पर चतुरतापूर्वक लाभ उठाते हैं।

आमतौर से छोटे जीव-जन्तुओं के पारस्परिक संवाद के विषय होते हैं, सहायता की पुकार, खतरे की सूचना, क्रोध की अभिव्यक्ति, हर्षोल्लास का गीत-राग, व्यथा वेदना का क्रन्दन, ढूंढ़ तलाश। इन प्रयोजनों के लिए उन्हें अपने वर्ग के साथ सम्बन्ध जोड़ना पड़ता है। ऐच्छिक या अनैच्छिक कुछ भी हो यह विचार विनिमय उनके लिये उपयोगी ही सिद्ध होता है। यदि इतना भी वे न कर पाते तो सामाजिक जीवन का सर्वथा अभाव, नितान्त एकाकीपन उन्हें और भी अधिक कष्टमय स्थिति में धकेलता।

नीलकण्ठ पक्षी द्वारा मछली का शिकार देखते ही बनता है। वह पेड़ की डाली पर बैठा हुआ घात लगाये रहता है, और जहां मछली दिखाई पड़ी कि बिजली की तरह टूटता है और पानी में गोता लगाकर मछली पकड़ लाता है। आश्चर्य इस बात का है कि जिस डाली पर से—जिस स्थान से वह कूदा था लौटकर ठीक वहीं वापिस आता है। और वहीं बैठता है- यह स्प्रिंग पद्धति का क्रिया कलाप है। दीवार पर फेंककर मारी गई गेंद लौटकर फेंकने के स्थान पर ही आती है। नीलकण्ठ प्रकृति के उसी सिद्धान्त का जीता जागता नमूना है।

तोता, मैना, बुलबुल, रोविन, चटक, कनारी, कुलम जैसे कितने ही पक्षी मनुष्य की बोली की नकल उतारने में सक्षम होते हैं। पढ़ाये हुए तोता, मैना- राधा, कृष्ण, सीताराम, कौन हैं, क्यों आये, आदि कितने ही शब्द याद कर लेते हैं। और समय-समय पर उन्हें दुहराते रहते हैं। ‘अमेजन’ जाति का तोता तो 100 शब्दों तक की नकल उतार सकता है। आस्ट्रेलियायी तोता 10 तक गिनती गिन ही नहीं लेते वरन् उस संख्या को पहचान भी लेते हैं।

कबूतरों की सन्देश-वाहक के रूप में काम करने की क्षमता प्रसिद्ध है। एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने और वापिस लौटने में उन्हें सिखाया सधाया जा सकता है। डाक-तार की सुविधा से पूर्व वे सन्देश वाहक का काम खूबी के साथ निबाहते थे। पैरों में पत्र बोध दिया जाता था, वे निर्दिष्ट स्थान तक पहुंचते थे और उत्तर को दूसरा उसी पैर में बंधवा कर वापिस अपने स्थान को लौट आते थे।

शिकारी जानवरों के दांत साफ करने के लिए कितने ही पक्षी अभ्यस्त रहते हैं। मगर, बाघ आदि अपने दांतों की सफाई कराने के लिए मुंह फाड़कर पड़े रहते हैं और वे चिड़ियां अपने शरीर का बहुत सा हिस्सा उनके जबड़े में डालकर दांतों की सफाई करती रहती हैं। उन्हें जरा भी डर नहीं लगता कि वे हिंसक पशु यदि चाहें तो जबड़ा बन्द करके उनका कचूमर बना सकते हैं। यही चिड़ियां निर्भय ही नहीं होती वरन् उनकी सहायता भी करती हैं। जहां शिकार होती है वहां चहचहा कर उनका मार्ग दर्शन और प्रोत्साहन भी करती हैं।

चमगादड़ अपनी श्रवणेन्द्रिय के आधार पर आकाश में गतिशील विविध कम्पनों का अनुभव करती हैं और नेत्रों का प्रायः बहुत सा काम उसी से चला लेती हैं। हाथी की दृष्टि बहुत मन्द होती है। प्राणियों से समीप में उपस्थित वह गन्ध के आधार पर ही भांपता है। कुत्ता अपने प्रिय या परिचित व्यक्ति को ढूंढ़ खोज गन्ध के आधार पर करता है। हवा का रुख विपरीत हो और गन्ध का प्रवाह उल्टा हो जाय सौ गज दूर खड़े मालिक को पहचानना भी उसके लिए कठिन न होगा। पक्षियों की पहचान रंगों पर निर्भर है। उनके नेत्र रंगों के बहुत छोटे अन्तर को भी पहचानते हैं और उसी आधार पर अपने आवागमन की राह निर्धारित करते हैं।

सील मछली अपने बच्चे की नन्हीं सी आवाज हजारों अन्य मछलियों के कोलाहल में से पहचान लेती है। मोटेतौर से उन समूह में एक ही शकल के अनेकों शिशु वयस्क होते हैं, पर सील अपने बच्चे की पुकार सुनते ही तीर की तरह उसी पर जा पहुंचती है। बीच में व्यवधान को हटाने में- अपने पराये की ठीक पहचान करने में उससे जरा भी भूल नहीं होती।

वया-पक्षी का घोंसला कितना सुन्दर और व्यवस्थित होता है। घोर वर्षा होते रहने पर भी उसमें पानी की एक बूंद भी नहीं जाती। आंधी तूफान आते रहते हैं पर वे घोंसले टहनियों पर मजबूती के साथ टंगे रहते हैं। क्या अपने बच्चों सहित उसमें मोद मनाती रहती है जबकि ऋतु प्रतिकूलता के कारण अन्य जीवधारी कई तरह के कष्ट उठाते रहते हैं।

जीवधारियों की इन विशेषताओं को देखते हुए यही मानना पड़ता है कि वे भी मनुष्य की तरह ही भगवान को प्रिय हैं और उन्हें भी कितनी ही तरह से विशेषतायें, विभूतियां दी गयी हैं। अपने उन छोटे भाइयों के प्रति न तुच्छता का भाव रखा जाना उचित है और न उन्हें सृष्टि का निरर्थक प्राणी समझना चाहिए। मनुष्य जिस प्रकार अपने स्थान पर महत्वपूर्ण है वैसे ही अन्य जीव-जन्तु भी अपने स्थान पर महत्वपूर्ण हैं। उनके अपने लिए वे उतने ही श्रेष्ठ व महान् हैं जितना कि मनुष्य अपने को स्वयं मानता है। इन प्राणियों का जीवन और विलक्षणतायें इस बात की प्रतीक भी हैं कि परमपिता परमात्मा को अपनी सभी संतानें समान रूप से प्यारी हैं। उसकी दृष्टि में न कोई बड़ा है और न छोटा।
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