विवाद से परे ईश्वर का अस्तित्व

विवाद से परे ईश्वर का अस्तित्व

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ईश्वर का अस्तित्व एक ऐसा विवादास्पद प्रश्न है जिसके पक्ष और विपक्ष में एक से एक जोरदार तर्क वितर्क दिये जा सकते हैं। तर्क के सिद्ध हो जाने पर न किसी का अस्तित्व प्रमाणित हो जाता है और ‘सिद्ध’ न होने पर भी न कोई अस्तित्व अप्रमाणित बन जाता है। ईश्वर की सत्ता में विश्वास- उसकी नियम व्यवस्था के प्रति निष्ठा और आदर्शों के प्रति आस्था में फलित होता है इसी का नाम आस्तिकता है। यों कई लोग स्वयं को ईश्वर विश्वासी मानते बताते हैं, फिर भी उनमें आदर्शों व नैतिक मूल्यों के प्रति आस्था का अभाव होता है। ऐसी छद्म आस्तिकता के कारण ही ईश्वर के अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न लगता है। नास्तिकतावादी दर्शन द्वारा ईश्वर के अस्तित्व को मिथ्या सिद्ध करने के लिए जो तर्क दिये व सिद्धान्त प्रतिपादित किये जाते हैं वे इसी छद्म नास्तिकता पर आधारित हैं।

आस्तिकवाद मात्र पूजा उपासना की क्रिया-प्रक्रिया नहीं है उसके पीछे एक प्रबल दर्शन भी जुड़ा हुआ है जो मनुष्य की आकांक्षा, चिन्तन प्रक्रिया और कर्म-पद्धति को प्रभावित करता है। समाज, संस्कृति, चरित्र, संयम, सेवा, पुण्य परमार्थ आदि सत्प्रवृत्तियों को अपनाने से व्यक्ति की भौतिक सुख-सुविधाओं में निश्चित रूप से कमी आती है, भले ही उस बचत का उपयोग लोक-कल्याण में कितनी ही अच्छाई के साथ क्यों न होता हो। आदर्शवादिता के मार्ग पर चलते हुए जो प्रत्यक्ष क्षति होती है उसकी पूर्ति ईश्वरवादी स्वर्ग, मुक्ति, ईश्वरीय प्रसन्नता आदि विश्वासों के आधार पर कर लेता है। इसी प्रकार अनैतिक कार्य करने के आकर्षण सामने आने पर वह ईश्वर के दण्ड से डरता है। नास्तिकवादी के लिए न तो पाप के दण्ड से डरने की जरूरत रह जाती है और न पुण्य परमार्थ का कुछ आकर्षण रहता है। आत्मा का अस्तित्व अस्वीकार करने और शरीर की मृत्यु के साथ आत्यन्तिक मृत्यु हो जाने की मान्यता उसे यही प्रेरणा देती है कि जब तक जीना हो अधिकाधिक मौज-मजा उड़ाना चाहिए। यही जीवन का लाभ और लक्ष होना चाहिए।

उपासना से भक्त को अथवा भगवान को क्या लाभ होता है यह प्रश्न पीछे का है। प्रधान तथ्य यह है कि आत्मा और परमात्मा की मान्यता मनुष्य के चिन्तन और कर्तृत्व को एक नीति नियम के अन्तर्गत बहुत हद तक जकड़े रहने में सफल होती है। इन दार्शनिक बन्धनों को उठा लिया जाय तो मनुष्य की पशुता कितनी उद्धत हो सकती है और उसका दुष्परिणाम किस प्रकार समस्त संसार को भुगतना पड़ सकता है इसकी कल्पना भी कंपा देने वाली है।

निस्सन्देह इस युग के महान् दार्शनिकों में से रूसो और मार्क्स की भांति ही फ्रैडरिक नीत्से की भी गणना की जाय। इन तीनों ने ही समय की विकृतियों को और उनके कारण उत्पन्न होने वाली व्यथा-वेदनाओं की सहानुभूति के साथ समझने का प्रयत्न किया है। अपनी मनःस्थिति के अनुरूप उपाय भी सुझाये हैं अपूर्ण मानव के सुझाव भी अपूर्ण ही हो सकते हैं। कल्पना और व्यवहार में जो अन्तर रहता है उसे अनुभव के आधार पर क्रमशः सुधारा जाता है। यही उपरोक्त प्रतिपादनों के सम्बन्ध में भी प्रयुक्त होना चाहिए, हो भी रहा है।

शासनतन्त्र पिछले दिनों निरंकुश राजाओं और सामन्तों के हाथ चल रहा था उनके स्वेच्छाचार का दुष्परिणाम निरीह प्रजा को भुगतना पड़ता था, प्रजातन्त्र का, तदुपरान्त साम्यतन्त्र का विकल्प सामने आया। बौद्धिक जगत में ईश्वर की मान्यता सबसे पुरानी और सबसे सबल और लोक-समर्थित होने के कारण बहुत प्रभावशाली रही थी। वह मानस तन्त्र को दिशा देने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका सम्पादित करती है किन्तु दुर्भाग्य यह है कि ईश्वरवाद के नाम पर भ्रान्तियों का इतना बड़ा जाल जंजाल खड़ा कर दिया गया है जिससे आस्तिकवादी दर्शन का मूल प्रयोजन ही नष्ट हो गया। निहित स्वार्थों ने भावुक जनता का शोषण करने में कोई कसर न रखी। इतना ही नहीं अनैतिक और अवांछनीय कार्यों को भी ईश्वर की प्रसन्नता के लिए करने के विधान बन गये। राजतन्त्र ही दुर्गति ने जिस प्रकार रूसो और मार्क्स को उत्तेजित किया ठीक वैसी ही चोट ईश्वरवाद के नाम पर चल रही विकृतियों ने नीत्से को पहुंचाई।

उसने अनीश्वरवाद का नारा बुलन्द कर किया और जनमानस पर से ईश्वरवाद की छाया उतार फेंकने के लिए तर्क शास्त्र और भावुकता का खुलकर प्रयोग किया। उसने जन-चेतना को उद्बोधन करते हुए कहा—‘ईश्वर की सत्ता मर गई, उसे दिमाग से निकाल फेंको, नहीं तो शरीर पूरी तरह गल जायेगा। स्वयं को ईश्वर के अभाव में जीवित रखने का अभ्यास डालो। अपने पैरों पर खड़े होओ। अपनी उन्नति आप करो और अपनी समस्याओं का समाधान आप ढूंढ़ो। अपने ‘सत्’ को अपनी इच्छा शक्ति से स्वयं जगाओ और उसे ईश्वर की सत्ता के समकक्ष प्रतिद्वन्दी के रूप में प्रस्तुत करो। अति मानव बनने की दिशा में बढ़ो पर जमीन से पांव उखाड़ कर आसमान में मत उड़ो। वस्तु-स्थिति की उपेक्षा कर कल्पना के आकाश में उड़ोगे तो तुम्हारा भी वही हस्र होगा जो ईश्वर का हुआ है।’

जहां तक घोषणा की बात थी, वह मनुष्य की विपर्ययवादी मनोवृत्ति को बहुत भाई और उनके प्रतिपादन खूब पढ़े गये। उन पर घर-घर में चौराहे-चौराहे पर चर्चा हुई। किसी ने भला कहा, किसी ने बुरा माना। जो हो इस प्रतिपादन ने प्रश्नों की झड़ी लगादी। सर्वत्र उसमें पूछा जाने लगा— ‘‘यदि ईश्वर नहीं रहा तो उसका स्थानापन्न कौन बनेगा? जीवन का लक्ष्य क्या होगा? संस्कृति किस आधार पर टिकेगी? मर्यादाओं की रक्षा कैसे होगी? समाज का बिखराव कैसे रुकेगा? धर्म और नीति को किस प्रकार आश्रय मिलेगा? प्रेम परमार्थ में किसे क्यों रुचि रहेगी?’’ यही प्रश्न भीतर से भी उभरे। कुछ दिन तो हेकड़ी से वह यही कहता रहा—‘‘जो सत्य है वह असत्य नहीं हो सकता। समस्याओं की आशंका से यथार्थता को झुठलाया नहीं जा सकता। ईश्वर तो मर ही गया है जब अपनी समस्यायें स्वयं सुलझाओ।’’

नीत्से की विचारकता क्रमशः अधिकाधिक गम्भीरतापूर्वक यह स्वीकार करती ही चली गई कि ईश्वर भले ही मर गया हो, पर स्थान रिक्त होने से जो शून्यता उत्पन्न होगी उसे सहज ही न भरा जा सकेगा। उद्देश्य, आदर्श और नियन्त्रण हट जाने से मनुष्य जो कर गुजरेगा वह ईश्वरवादी भ्रान्तियों की अपेक्षा अधिक दुखदायी ही सिद्ध होगा। नीत्से ने उसका समाधान कारक उत्तर ‘अतिमानव’ का लक्ष्य सामने प्रस्तुत करके दिया है। मनुष्य को अपनी इच्छा शक्ति इतनी प्रखर बनानी चाहिए जो उसके व्यक्तित्व को अति मानव स्तर का बना सके। यह निखरा हुआ व्यक्ति इतना प्रचण्ड होना चाहिए कि जन-प्रवाह के साथ बहती हुई विकृतियों पर नियन्त्रण स्थापित करे के साधन जुटा सके। मनुष्य जीवन का लक्ष्य ‘अति मानव’ के रूप में विकसित होना चाहिए। व्यक्तिगत जीवन में उसे इतनी इच्छा शक्ति उत्पन्न करनी चाहिए जो संकल्पों के मार्ग में आने वाले हर प्रतिरोध का निराकरण कर सके। सामाजिक जीवन में उसे इतना प्रतिभाशाली और साधन सम्पन्न होना चाहिए कि प्रचलित अवांछनीयताओं पर नियन्त्रण कर सकने की क्षमता का अभाव अखरे नहीं।

अनीश्वरवाद का पूरक अति मानववाद दशाब्दियों तक बहुचर्चित रहा। इस उभय-पक्षी प्रतिपादन ने एक रिक्तता पूरी करदी और नीत्से का अनीश्वरवादी दर्शन विधि-निषेध की उभय-पक्षी आवश्यकताओं को पूरा कर सकने वाला समझा गया। उसे विचारकों ने समग्र ही उपमा दी।

अनीश्वरवाद का पृष्ठ पोषण भौतिक विज्ञान ने यह कहकर किया कि ईश्वर और आत्मा के अस्तित्व का ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता जो प्रकृति के प्रचलित नियमों से आगे तक जाता हो। इस उभय-पक्षी पुष्टि ने मनुष्य की उच्छृंखल, अनैतिकता पर और भी अधिक गहरा रंग चढ़ा दिया तद्नुसार वह मान्यता एकबार तो ऐसी लगने लगी कि ‘आस्थाओं का अन्त वाला समय अब निकट ही आ पहुंचा। ‘अति मानववाद’ के अर्थ का भी अनर्थ हुआ और यूरोप में हिटलर, मुसौलिनी जैसे लोगों के नेतृत्व ने नृशंस ‘अति मानवों की एक ऐसी सेना खड़ी हो गई जिसने समस्त संसार को अपने पैरों तले दबोच लेने की हुंकारें भरना आरम्भ कर दिया।

खोट, प्रजातन्त्र और साम्यतन्त्र की तरह अनीश्वरवाद में भी है। इसका उचित समाधान बहुत दिन पहले वेदान्त के रूप में ढूंढ़ लिया गया है। तत्वमसि, सो ऽहमस्मि, अयमात्मा ब्रह्म, प्रज्ञानंब्रह्म— सूत्रों के अन्तर्गत आत्मा की परिष्कृत स्थिति को ही परमात्मा माना गया है। इतना ही नहीं इच्छा शक्ति को— मनोबल और आत्मबल को— प्रचण्ड करने के लिए तप साधना का उपाय भी प्रस्तुत किया गया है। वेदान्त अति मानव के सृजन पर पूरा जोर देता है। मनोबल प्रखर करने की अनिवार्यता को स्वीकार करता है। ईश्वरवाद का खण्डन किसी विज्ञ जीव को ईश्वर स्तर तक पहुंचा देने की वेदान्त मान्यता बिना रिक्तता उत्पन्न किये—बिना अनावश्यक उथल-पुथल किये वह प्रयोजन पूरा कर देती है, जिसमें ईश्वरवाद के नाम पर प्रचलित विडम्बनाओं का निराकरण करते हुए अध्यात्म मूल्यों की रक्षा की जा सके।

बुद्धिवाद अगले दिनों वेदान्त दर्शन को परिष्कृत अध्यात्म के रूप में प्रस्तुत करेगा। तब ‘अतिमानव’ की कथित दार्शनिक मान्यतायें अपूर्ण लगेंगी और प्रतीत होगा कि इस स्तर का प्रौढ़ और परिपूर्ण चिन्तन बहुत पहले ही पूर्णता के स्तर तक पहुंच चुका है।

विराट का प्रतिनिधि जीवन

जिस चेतना को विराट् विश्वब्रह्माण्ड व्यापी माना जाता है, जीव उसी का एक अंश, एक घटक है। जीवात्मा का, परमात्मा का स्वरूप क्या है, आत्मा परमात्मा का प्रतीक अंश किस प्रकार है, इन प्रश्नों का समाधान करते हुए केनोपनिषद् में ऋषि ने एक बहुत मार्मिक बात कही है जिज्ञासु पूछता है—

केनेषितं पतितं प्रेषितं मनः! केन प्राणः प्रथमः प्रैति युक्तः? केनेषितां वाचमिमां वदन्ति? चक्षुः श्रोत्रं क उ देवोयुनक्ति॥

अर्थात्— मन किसकी प्रेरणा से दौड़ाया हुआ दौड़ता है? किसके द्वारा प्रथम प्राण संचार सम्भव हुआ? किसकी चाही हुई वाणी मुख बोलता है? कौन देवता देखने और सुनने की व्यवस्था बनाता है?

मन अपने आप कहां दौड़ता है। आन्तरिक आकांक्षायें ही उसे जो दिशा देती हैं, उधर ही वह चलता है, दौड़ता है और वापिस लौट आता है। यदि मन स्वतन्त्र चिन्तन में समर्थ होता तो उसकी दिशा एक ही रहती। सबका सोचना एक ही तरह होता, सदा सर्वदा एक ही तरह का चिन्तन बन पड़ता; पर लगता है पतंग की तरह मन का उड़ाने वाला भी कोई और है, उसकी आकांक्षा बदलते ही मस्तिष्क की सारी चिन्तन प्रक्रिया उलट जाती है। मन एक पराधीन उपकरण है—वह किसी दिशा में स्वेच्छा पूर्वक दौड़ नहीं सकता। उसके दौड़ाने वाली सत्ता जिस स्थिति में रह रही होगी, चिन्तन की धारा उसी दिशा में बहेगी। मन को दिशा देने वाली मूल सत्ता का नाम आत्मा है।

दूसरे प्रश्न का जिज्ञासा है कि माता के गर्भ में पहुंचने पर प्रथम प्राण कौन स्थापित करता है? उसमें जीवन संचार के रूप में हलचलें कैसे उत्पन्न होती हैं। रक्त-मांस तो जड़ है। जड़ में चेतना कैसे उत्पन्न हुई? यहां भी उत्तर वही है— यह आत्मा का कर्तृत्व है भ्रूण अपने आप में कुछ भी कर सकने में समर्थ नहीं। माता पिता की इच्छानुसार सन्तान कहां होती है? पुत्र चाहने पर भी कन्या गर्भ में आ जाती है। जिस आकृति-प्रकृति की अपेक्षा की, उससे भिन्न प्रकार की सन्तान जन्म लेती है। इसमें माता-पिता का प्रयास भी कहां सफल हुआ। तब भ्रूण को चेतना प्रदान करने का कार्य कौन करता है? उपनिषद्कार इस प्रश्न के उत्तर में आत्मा के अस्तित्व को प्रमाण रूप में प्रस्तुत करता है।

मृत शरीर के प्राण संचार न रहने से उसके भीतर वायु भरी होने पर भी सांस को बाहर निकालने की सामर्थ्य नहीं होती। श्वांस-प्रश्वांस प्रणाली यथावत् रहने पर भी प्राण स्पन्दन नहीं होता। प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान प्राणों द्वारा शरीर और मन के विभिन्न क्रिया-कलाप संचालित होते हैं, पर महाप्राण के न रहने पर शरीर में उनका स्थान और कार्य सुनिश्चित होते हुए भी सब कुछ निश्चल हो जाता है। अंगों की स्थिति यथावत रहते हुए भी जिस कारण मृत शरीर जड़वत् निःचेष्ट हो जाता है वह महाप्राण का प्रेरणा क्रम रुक जाना ही है। इस सूत्र संचालक महाप्राण को ही ‘आत्मा’ कहते हैं।

तीसरा प्रश्न उत्पन्न होता है किसकी चाही हुई वाणी मनुष्य बोलते हैं। निस्सन्देह यह कार्य मुख का नहीं है। शरीर और इन्द्रियों का भी नहीं है। यदि ऐसा होता तो भूखा होने पर पात्र-कुपात्र के आगे समय-कुसमय का ध्यान रखे बिना भोजन याचना की जाती। कामुक आवश्यकता की पूर्ति के लिए किसी शील संकोच को आड़े न आने दिया गया होता। पर शरीर और मन की आवश्यकताओं को बहुधा रोककर रखा जाता है। अन्तःकरण क्षुब्ध होने पर मुख से कटु वचन निकलते हैं और उत्कृष्ट स्थिति में अमृतोपम वाणी निसृत होती है यदि वाणी स्वतन्त्र होती तो वह तोता की तरह अभ्यस्त शब्दों का ही उच्चारण करती रहती। वाणी से विष और अमृत, ज्ञान और अज्ञान निसृत करने वाली अन्तःचेतना उससे पृथक और स्वतन्त्र है—उसी का नाम ‘आत्मा’ है।

आंखें किसकी प्रेरणा से देखती हैं, कान किसकी इच्छानुसार सुनते हैं? यह प्रश्न उपस्थित करते हुए यह देखा जा सकता है कि क्या आंखों में देखने की या कानों में सुनने की स्वतन्त्र शक्ति है। निश्चित रूप से वह नहीं ही है। यदि होती तो मृतक या मूर्छित स्थिति में भी आंखें देखतीं और कान सुनते। ध्यान मग्न होने की स्थिति में आंखों के आगे से गुजरने वाले दृश्य भी परिलक्षित नहीं होते और कानों के समीप ही बात-चीत होते रहने पर भी कुछ सुना नहीं जाता। अनेक दृश्यों में से आंखें अपने प्रिय विषय पर ही टिकती हैं। कई तरह की आवाजें होते रहने पर भी कान उन्हीं पर केन्द्रित होते हैं जो अपने को प्रिय हैं। इस ज्ञान प्रधान कान और चक्षु इन्द्रियों में अपनी निज की क्रियाशीलता नहीं है, जिसकी प्रेरणा से वे सक्रिय रहते हैं वह सत्ता ‘‘आत्मा’’ की ही है।

यथार्थ ज्ञान के शोधकर्ता इन्द्रिय ज्ञान से ऊपर उठकर आत्मा ज्ञान को प्राप्त करते हैं और फिर उससे ऊंची परमात्म सत्ता में अपने आपको विलीन करते हुए ऊपर उठते हैं और अमृत को प्राप्त करते हैं। इस तथ्य का प्रतिपादन करते हुए उपनिषद्कार कहता है—

‘अतिमुच्य धीरा प्रैत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति।’

अर्थात्— आत्मज्ञानी, धीर पुरुष इन्द्रियों के प्रेरक जीवात्मा का अतिक्रमण करके इस लोक से अर्थात् जन-साधारण के द्वारा अपनाये गये निष्कृष्ट स्तर से ऊपर उठकर अमृतत्व को प्राप्त करते हैं।

यहां अमृतत्व का अर्थ है अनन्त जीवन की मान्यता और तदनुरूप दृष्टिकोण अपनाकर तदनुरूप चिन्तन एवं कर्तृत्व का निर्धारण। लोग अपने को मरण–धर्मा मानते हैं, तात्कालिक लाभों को अवांछनीय होते हुए भी उन्हें ही सब कुछ समझकर टूट पड़ते हैं और भविष्य को भूलकर उसे अन्धकारमय बनाते हैं। खाओ, पिओ मौज उड़ाओ। कर्ज लेकर मद्यपान करते रहो की नीति अपनाकर लोभ, मोह में ग्रसित वासना, तृष्णा के लिए आतुर मनुष्यों का दृष्टिकोण मरण–धर्मा है। उसे अपनाने वाले जीवित मृतक हैं। इसके विपरीत जो अनन्त जीवन का भविष्य उज्ज्वल बनाने के लिए आज कष्ट उठाने की तपश्चर्या का स्वागत करते हैं वे दूरदर्शी विवेकवान् अमर कहलाते हैं। अमृतत्व का प्राप्त होना इसी परिष्कृत दृष्टिकोण को अपनाने के साथ जुड़ा हुआ है।

हम हैं और इन्द्रियों को प्रेरणा देने वाले हैं—इन्द्रियों के कारण हम चैतन्य नहीं, वरन् हमारे कारण इन्द्रियों में चेतना हैं, यह जान लेने पर आत्मा का अस्तित्व प्रत्यक्ष हो जाता है। आत्मा पर मल आवरण विक्षेप के कषाय कल्मष चढ़ जाने से वह मलीन बनता है और दीन, दयनीय, दुर्दशाग्रस्त परिस्थिति में पड़ा जकड़ा दुख भोगता है। मलीनता की इन आवरण परतों को उतार फेंकने पर उसका निर्मल स्वरूप प्रकट होने लगता है। दर्पण पर जमी हुई धूलि हटा देने से उसमें अपना प्रतिबिम्ब सहज ही देखा जा सकता है।

आत्म-साक्षात्कार इसी का नाम है—इसे ही परमात्मा का दर्शन एवं परब्रह्म की प्राप्ति कहते हैं। आंखों से किसी देवावतार के स्वरूप को देखने की लालसा एक भ्रान्ति मात्र है—जिसका पूरा हो सकना संभव नहीं। ईश्वर को चर्म चक्षुओं से नहीं, ज्ञान चक्षुओं से ही देखा जा सकता है।

आत्मा का परिष्कृत रूप ही परमात्मा है। जीवात्मा, वह जो लोभ, मोह से- वासना तृष्णा से प्रभावित होकर स्वार्थ-परता एवं संकीर्णता के बन्धनों में जकड़ा पड़ा है। अपना चिन्तन, कर्तृत्व शरीर और कुटुम्ब के भौतिक लाभों तक सीमित रखने वाला भव-बन्धनों में जकड़ा जीव है। मुक्त उसे कहा जायगा जिसने अपनेपन की, आत्म भाव की परिधि को अधिकाधिक विस्तृत बना लिया है। जिसके लिए समस्त विश्व अपना परिवार है। समस्त प्राणी जिसके अपने कुटुम्बी हैं। औरों के दुख को अपना दुख मानकर जो उसके निराकरण का प्रयास करता है। औरों को सुख देकर सुख होता है। अपने और औरों के बीच की दीवार तोड़कर सर्वत्र एक ही आत्मा का विस्तार देखता है वह दिव्यदर्शी ही दूसरे शब्दों में परमात्मदर्शी कहा जाता है। परमात्म स्तर आत्मा का परिष्कृत एवं विकसित रूप ही परमात्मा है। प्राप्त करना ही मानव जीवन का परम लक्ष्य है। आत्मा परमात्मा से कैसे मिले?

मनुष्य की चेतन सत्ता में मूलतः वह क्षमता मौजूद है, जिसके सहारे वह अपने स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों का समुचित उपयोग कर सके। यह क्षमता उसने खो दी है। वह प्रसुप्त, विस्मृत एवं उपेक्षित गर्त में पड़ी रहती है। किसी काम नहीं आती। इसके बिना प्रगति रथ किसी भी दिशा में महत्वपूर्ण यात्रा कर नहीं पाता। मात्र जीवन निर्वाह क्रम पूरा होते रहने भर का लाभ उस क्षमता से उठा सकना सम्भव होता है। यह उस प्रचण्ड क्षमता का एक अत्यन्त स्वल्प अंश है। विपुल रत्न भण्डार के अधिपति का मात्र पेट भरने और तन ढकने जितने साधन उपलब्ध हो सके तो यह उसके लिए दुर्भाग्य की ही बात है। इस स्थिति का अन्त करके स्वसम्पदा का ज्ञान और उपयोग कर सकना आत्म-विज्ञान की सहायता से सम्भव होता है। योगाभ्यास की टार्च और तपश्चर्या की कुदाली लेकर अपनी इसी पैतृक सम्पदा को उपलब्ध करने का प्रयास किया जाता है।

व्यामोह ही भव बन्धन है। भव बन्धनों में पड़ा हुआ प्राणी कराहता रहता है और हाथ पैर बंधे होने के कारण प्रगति पथ पर बढ़ सकने में असमर्थ रहता है। व्यामोह को माया कहते हैं। माया का अर्थ है नशे जैसी खुमारी जिसमें एक विशेष प्रकार की मस्ती होती है। साथ ही अपनी मूल स्थिति की विस्मृति भी जुड़ी रहती है। संक्षेप में विस्मृति और मस्ती के समन्वय को नशे की पीनक कहा जा सकता है, चेतना की इसी विचित्र स्थिति को माया, मूढ़ता, अविद्या, भव बन्धन आदि नामों से पुकारा जाता है।

शरीर के साथ जीव का अत्यधिक तादात्म्य बन जाना ही आसक्ति एवं माया है। होना यह चाहिए कि आत्मा और शरीर के साथ स्वामी सेवक का- शिल्पी उपकरण का भाव बना रहे। जीव समझता रहे कि मेरी स्वतन्त्र सत्ता है। शरीर के वाहन, साधन, प्रगति यात्रा की सुविधा भर के लिए मिले हैं। साधन की सुरक्षा उचित है। किन्तु शिल्पी अपने को- अपने सृजन प्रयोजन को भूलकर-उपकरणों में खिलवाड़ करते रहने में सारी सुधि–बुद्धि खोकर तल्लीन बन जाय तो यह स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण ही होगी। तीनों शरीर तीन बन्धनों में बंधते हैं। स्थूल शरीर इन्द्रिय लिप्सा में, वासना में। सूक्ष्म शरीर (मस्तिष्क) सम्बन्धियों तथा सम्पदा के व्यामोह में। कारण शरीर अहंता के आतंक फैलाने वाले उद्धत प्रदर्शनों में। इस प्रकार तीनों शरीर-तीनों बन्धनों में बंधते हैं और आत्मा उन्हीं में तन्मय रहने की स्थिति में स्वयं ही भव-बन्धनों में बंध जाती है। यह लिप्सा लालसाएं इतनी मादक होती हैं कि जीव उन्हें छोड़कर अपने स्वरूप एवं लक्ष्य को ही विस्मृति के गर्त में फेंक देता है। वेणुनाद पर मोहित होने वाले मृग बधिक के हाथों पड़ते हैं। पराग लोलुप भ्रमर कमल में कैद होकर दम घुटने का कष्ट सहता है। दीपक की चमक से आकर्षित पतंगे की जो दुर्गति होती है वह सर्वविदित है। लगभग ऐसी ही स्थिति व्यामोह ग्रसित जीव की भी होती है। उसे इस बात की न तो इच्छा उठती है और न फुरसत होती है कि अपने स्वरूप लक्ष्य को पहचाने। उत्कर्ष के लिए आवश्यक संकल्प शक्ति जगाई जा सकती तो इस महान प्रयोजन के लिए मिली हुई विशिष्ट क्षमताओं को भी खोजा जगाया जा सकता था। किन्तु उसके लिए प्रयत्न कौन करे? क्यों करे? जब विषयानन्द की ललक ही मदिरा की तरह नस-नस पर छाई हुई है तो ब्रह्मानन्द की बात कौन सोचे? क्यों सोचे?

इस दुर्गति में पड़े रहने से आज का समय किसी प्रकार कट भी सकता है, पर भविष्य तो अन्धकार से ही भरा रहेगा। विवेक की एक किरण भी कभी चमक सके तो उसकी प्रतिक्रिया परिवर्तन के लिए तड़पन उठने के रूप में होगी। प्रस्तुत दुर्दशा की विडम्बना और उज्ज्वल भविष्य की सम्भावना का तुलनात्मक विवेचन करने पर निश्चित रूप से यही उमंग उभरेगी कि परिवर्तन के लिए साहस जुटाया जाय। इसी उभार के द्वारा अध्यात्म जीवन में प्रवेश और साधना प्रयोजनों का अवलम्बन आरम्भ होता है। परिवर्तन का प्रथम चरण है, बन्धनों का शिथिल करना। आकर्षणों के अवरोधों में विमुख होना। आसक्ति को वैराग्य की मनःस्थिति में बदलना। इसके लिए कई तरह के समय परक उपायों का अवलम्बन करना पड़ता है। साधना रुचि परिवर्तन की प्रवृत्ति को उकसाने से आरम्भ होती है। इस सन्दर्भ में महर्षि पातंजलि का कथन है।

बन्धकारण शैथिल्यात्प्राचार सम्वेदनस्य। चित्तस्य पर शरीरावेशः॥ —योग दर्शन 3-38

बन्धनों के कारण ढीले हो जाने पर चित्त की सीमा, परिधि और सम्वेदना व्यापक हो जाती है।

सब से सर्वत्र एक ही परमात्म सत्ता की झांकी करने पर, सर्वत्र एक ही चेतना व्याप्त दिखाई देने पर स्वाभाविक ही व्यक्ति का हृदय विकसित होगा। वह सबको अपना और स्वयं को सबका मानेगा, समझेगा। ऐसी स्थिति में कोई संकीर्ण स्वार्थों के लिए क्यों कर कोई अनुचित आचरण करेगा और क्यों संकीर्ण स्वार्थ की परिधियों में अपने को संकुचित सीमित करने के लिए तैयार होगा? आस्तिकवाद का ईश्वरवाद का यही वास्तविक और असली परिणाम तथा आवश्यकता है। इसके बिना शान्ति, सुव्यवस्था और सच्ची प्रगति सम्भव नहीं हो सकती।
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