विवाद से परे ईश्वर का अस्तित्व

भावनाओं में अभिव्यक्त विश्वात्मा

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अमरीका के सैंनडिगो चिड़िया घर में एकबार एक बन्दर दम्पत्ति ने एक बच्चे को जन्म दिया। मादा ने खूब स्नेही और प्यार पूर्वक बच्चे का पालन-पोषण किया। बच्चा अभी 20 महीन का ही हुआ था कि मादा ने एक नये बच्चे को जन्म दिया। यद्यपि पहला बच्चा मां का दूध पीना छोड़ चुका था तथापि संसार के जीव मात्र को भावनाओं की न जाने क्या आध्यात्मिक भूख है उसे अपनी मां पर और किसी का अधिकार पसन्द न आया। उसने अपने छोटे भाई को हाथ से पकड़ कर खींच लिया और खुद जाकर मां के स्तनों में जा चिपका।

स्वार्थ एक सामाजिक दोष है और अपराध का कारण भी। इसलिए उसकी हर सभ्य और भावनाशील समाज में निन्दा की जाती है। पर यहां स्वार्थ की अपेक्षा भावुकता की मात्रा अधिक थी। भाव तो वह शक्ति है जो स्वार्थ को भी क्षम्य कर देता है और नियमबद्धता का भी उल्लंघन कर देता है। इससे लगता है भाव मनुष्य जीवन की मूल आवश्यकता है। हम उस आवश्यकता के कारण की शोध कर पायें तो जीवन विज्ञान के अदृश्य सत्य को खोज निकालने में सफल हो सकते हैं।

मादा ने अनुचित पर ध्यान नहीं दिया। उसने बड़े बच्चे को भावनापूर्वक अपनी छाती से लगा लिया और उसे दूध पिलाने के लिए इनकार नहीं किया जबकि अधिकार उसका नहीं छोटे बच्चे का ही था। दो-तीन दिन में ही छोटा बच्चा कमजोर पड़ने लगा। चिड़िया घर की निर्देशिका बेले.जे. बेनशली के आदेश से बड़े बच्चे को वहां से निकाल कर अलग कर दिया गया। अभी उसे अलग किये एक दिन ही हुआ था, वहां उसे अच्छी से अच्छी खुराक भी दी जा रही थी किन्तु जीव मात्र की ऐसी अभिव्यक्तियां बताती हैं कि आत्मा की वास्तविक भूख, भौतिक सम्पत्ति और पदार्थ भोग की उतनी अधिक नहीं जितनी कि उसे भावनाओं की प्यास होती है। भावनायें न मिलने पर अच्छे और शिक्षित लोग भी खूंख्वार हो जाते हैं जबकि सद्भावनाओं की छाया में पलने वाले अभाव ग्रस्त लोग भी स्वर्गीय सुख का रसास्वादन करते रहते हैं। बड़ा बच्चा बहुत कमजोर हो गया जितनी देर उसका संरक्षक उसके साथ खेलता उतनी देर तो वह कुछ प्रसन्न दिखता पर पीछे वह किसी प्रकार की चेष्टा भी नहीं करता चुपचाप बैठा रहता, उसकी आंखें लाल हो जातीं, मुंह उदास हो जाता स्पष्ट लगता कि वह दुःखी है।

गिरते हुए स्वास्थ्य को देखकर उसे फिर से उसके माता-पिता के पास कर दिया गया। वह सबसे पहले अपनी मां के पास गया पर उसकी गोद में था छोटा भाई, फिर वही प्रेम की प्रतिद्वन्द्विता। उसने अपने छोटे भाई के साथ फिर रूखा और शत्रुता पूर्व व्यवहार किया। इस बार मां ने छोटे बच्चे का पक्ष लिया और बड़े को झिड़क कर अलग कर दिया मानो वह बताना चाहती हो कि भावनाओं की भूख उचित तो है पर औरों की इच्छा का भी अनुशासन पूर्वक आदर करना चाहिए। दण्ड पाकर बड़ा बच्चा ठीक हो गया अब उसने अपनी भावनाओं की –परितृप्ति का दूसरा और उचित तरीका अपनाया। वह मां के पास उसके शरीर से सटकर बैठ गया। मां ने भावनाओं की सदाशयता को समझा और अपने उद्धत बच्चे के प्रति स्नेह जताया उससे उसका भी उद्वेग दूर हो गया। थोड़ी देर में वह अपने पिता के कन्धों पर जा बैठा। कुछ दिन पीछे तो उसने समझ भी लिया कि स्नेह, सेवा, दया, मैत्री, करुणा, उदारता, त्याग सब प्रेम के ही रूप हैं; सो अब उसने अपने छोटे भाई से भी मित्रता करली। इस तरह एक पारिवारिक विग्रह फिर से हंसी खुशी के वातावरण में बदल गया। छोटे कहे जाने वाले इन नन्हें-नन्हें जीवों से यदि मनुष्य कुछ सीख पाता तो उसका आज का जलता हुआ व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन भी कैसी भी परिस्थितियों में स्वर्गीय सुख और सन्तोष का रसास्वादन कर रहा होता।

आज का मनुष्य भावनाओं के अभाव में ही इतना दुराग्रही, स्वार्थी और उच्छृंखल हो गया है। यदि कुत्ते और बन्दर परस्पर प्रेम और मैत्री-भावना का निर्वाह कर सकते हैं तो विचारशील मनुष्य क्यों ऐसा नहीं कर सकता। यह कोई अत्युक्ति नहीं—अलीगढ़ जिले के कस्बा जवां में एक बन्दर और कुत्ते में मैत्री लोगों के लिए एक चुनौती है। विरोधी स्वभाव के जीव परस्पर साथ-साथ खेलते और साथ-साथ रहते हैं। बन्दर अपने मित्र के जुंयें साफ करता है, कुत्ता, बन्दर के तलुए सहलाता है। दोनों की मैत्री एक अव्यक्त सत्य का प्रतिपादन करते हुये कहती है भिन्न-भिन्न शरीर हैं तो क्या आकांक्षाओं, इच्छाओं, भावनाओं वाली आत्मिक चेतना तो एक ही है। कर्मवश भिन्न शरीरों भिन्न देश जाति और वर्णों में जन्म लेने वाले अपने को एक दूसरे क्यों समझें। सब लोग अपने आपको विश्वात्मा की एक इकाई मानकर ही से पृथक् परस्पर व्यवहार करें तो संसार कितना सुखी हो जावे।

निसर्ग में यह आदर्श पग-पग पर देखने को मिलते हैं कैफनी एस.सी. में स्टीव एण्ड स्किनर के पास एक मुर्गी थी। एकबार उसके सद्य प्रसूत बच्चों को बाज ने पकड़ कर खा लिया। उसके थोड़ी देर बाद मुर्गी ने एक बिल्ली का पीछा किया लोगों ने समझा मुर्गी में प्रतिशोध का भाव जाग गया है किन्तु यह धारणा कुछ देर में ही मिथ्या हो गई जब कि मुर्गी ने बिल्ली को पकड़ लिया उसके पास आ जाने से उनके चारों बच्चे भी पास आ गये मुर्गी ने चारों बच्चे स्वयं पाले और इस तरह अपनी भावना की भूख को बिल्ली के बच्चों से प्यार करके पूरा किया।

डा. साहवर्ट ने जंगल जीवन की व्याख्या करते हुए एक गिलहरी और गौरैया में प्रगाढ़ मैत्री का वर्णन किया है गिलहरी यद्यपि अपने बच्चों की देखरेख करती और करती और अपने सामाजिक नियमों के अनुसार अन्य गिलहरियों से मेल मुलाकात भी करती पर वह दिन के कम से कम चार घण्टे गौरैया के पास आकर अवश्य रहती दोनों घन्टों खेला करते। दोनों ने एक दूसरे को कई बार आकस्मिक संकटों से बचाया और जीवन रक्षा की। गिलहरी आती तब अपने साथ कोई पका हुआ बेर गौरैया के लिए अवश्य लाया करती। गौरैया उस बेर को गिलहरी के चले जाने के बाद खाया करती।

भावनाओं की प्यास सृष्टि के हर जीव को है यही एकात्मा का प्रमाण है। प्यार तो खूंख्वार जानवर तक चाहते हैं। रूसी पशु प्रशिक्षक एडर बोरिस की मित्रता क्रीमिया नामक एक शेर से हो गई। दिन भर वे कहीं भी रहते पर यदि एक बार भी मिल न लेते तो उनका मन उदास रहता। मिलते तो ऐसे जैसे दो सगे बिछुड़े भाई वर्षों के बाद मिले हों। एक बार एक सरकस का प्रदर्शन करते हुए बोरिस के शेर भड़क उठे और वे उसे चबा जाने को दौड़े किन्तु तभी पीछे से वहां क्रीमिया जा पहुंचा उसने शेरों को घुड़क कर हटा दिया। बोरिस बाल-बाल बच गया।

स्वामी दयानन्द एक बार बूढ़े केदार के रास्ते पर एक स्थान में ध्यान मग्न बैठे प्रकृति की शोभा का आनन्द पान कर रहे थे। उस समय एक साधु भी वहां पहुंच गये। साधु ने महर्षि को पहचान कर उन्हें प्रणाम किया ही था कि उन्हें एक शेर की दहाड़ सुनाई दी शेर उधर ही चला आ रहा था। यह देखते हुए वह महात्मा कांपने लगे। दयानन्द ने हंसकर कहा— बाबा डरो नहीं शेर खूंख्वार जानवर है तो क्या हुआ मनुष्य के पास दिव्य प्रेम की आत्म-भावना की ऐसी जबर्दस्त शक्ति है कि वह एक शेर तो क्या सैकड़ों शेरों को गुलाम बना सकती है। सचमुच शेर वहां तक आया। साधु भय वश कुटिया के अन्दर चले गये पर महर्षि वहीं बैठे रहे। शेर स्वामी जी के पास तक चला आया। उन्होंने बड़े स्नेह से उसकी गर्दन सिर पर हाथ फेरा वह बैठ गया उसकी आंखों की चमक कह रही थी कि जीवन की वास्तविक प्यास और अभिलाषा तो आंतरिक प्रेम की है। वह कुछ देर वहां बैठकर चला गया।

सारी पृथ्वी में- प्रकृति ने अपनी रचनाओं में जो विलक्षणता वैषम्यता प्रस्तुत कर रखी है वह तो ठीक है। वह हमारी दृष्टि में भले ही तुच्छ जान पड़े पर अध्ययन यह बताता है कि वह सब एक ही आत्म चेतना की विलक्षण और रहस्यपूर्ण परिणति है। एक ही चेतना अपनी इच्छा आकांक्षाओं के रूप में अनेक शरीर धारण करती रहती हैं। प्रकृति निर्जीव नहीं जीवित क्रियाशील है। उसके गुण और जीवन पद्धति उतनी ही विलक्षण है जितना कि इच्छा और वासनाओं वाला यह संसार रहस्यपूर्ण है।

विलक्षण यह प्राणी संसार

जीव जगत् की विलक्षणताओं का अध्ययन करने के लिए किये गये प्रयासों में कई ऐसे उदाहरण जीवों के देखने में आये हैं उत्तरी अमेरिका में अलास्का से बाजा कैलीफोर्निया तक समुद्र में 60 फुट से 1800 फुट तक ही गहराई में ‘‘लेम्बे’’ जाति की एक मछली पायी जाती है इसका नाम है ‘‘हैगफिश’’। कोई कल्पना नहीं कर सकता कि कई इंजनों वाले जेट विमान के समान इस मछली के 4 हृदय होते हैं, पेट होता ही नहीं और नथुना भी केवल एक ही होता है, दांत जीभ भी होते हैं। अपने शरीर को रस्सी की सी गांठ लगाकर यह किसी मरे हुए जीव के शरीर में घुस जाती है और उसका सारा शरीर चट कर जाती है पर आश्चर्य है कि भोजन न मिले तो भी वह वर्षों तक जीवित बनी रह सकती है।

हैगफिश किस जीव का विकास है? आज का विज्ञान जगत भी प्रकृति के इस रहस्य को सुलझा सकने में असहाय अनुभव कर रहा है। सन् 1864 में कोपन हेमन ही साइन्स एकेडमी ने घोषित किया कि जो वैज्ञानिक यह खोज कर लेगा कि हैगफिश की प्रजनन विधि क्या है उसे भारी पुरस्कार दिया जायेगा पर आज तक भी यह पुरस्कार कोई वैज्ञानिक प्राप्त नहीं कर सका।

जिस प्रकार ‘‘हैगफिश’’ की प्रजनन विधि ज्ञात नहीं हो सकी उसी प्रकार वैज्ञानिक सर्वत्र पाये जाने वाले तिल चट्टे (काक्रोच) की पृथ्वी पर आयु निर्धारित करने में असफल रहे हैं। अनुमान है कि करोड़ों वर्ष पूर्व पृथ्वी में देनोसारस श्रेणी के जीवों का आविर्भाव हुआ तब तिलचट्टा पृथ्वी में विद्यमान था। इसकी सम्भावित आयु 35 करोड़ वर्ष बताई जाती है इतनी अवधि पार कर लेने पर भी कठोर से कठोर और भयंकर से भयंकर प्राकृतिक परिवर्तन झेल लेने पर भी इसकी शारीरिक रचना में तो कोई अन्तर आया न विकास हुआ तब फिर जीव-जगत को नियमित और प्राकृतिक परिवर्तनों के अनुरूप विकास की संज्ञा कैसे दी जा सकती है।

तेज से तेज गर्मी, वर्ष भर बर्फ जमी रहने वाले ग्लेशियर पहाड़ और मैदान सब जगह यह तिलचट्टे पाये जाते हैं। महीने भर तक भोजन पानी नहीं, तो 5 महीने तक वह सूखा भोजन ही लेता रह कर यह सिद्ध कर देता है कि मनुष्य पानी के बिना भी शरीर धारण करने में समर्थ हो सकता है। यह सब चेतना के अन्तरिक्ष गुणों पर आधारित रहस्य हैं, जिन्हें केवल शारीरिक अध्ययन द्वारा नहीं जाना जा सकता उसे समझने के लिए आत्म चेतना के विज्ञान का एक नया अध्याय खोलना आवश्यक है। यह अध्याय जीव के शरीर धारण की प्रक्रिया से सम्बन्धित और आध्यात्मिक तथ्यों वह तत्व दर्शन का अध्याय होगा जिसके लिए हमारे पूर्वजों ने कठोर से कठोर तप किया था और उन सनातन सत्यों का प्रतिपादन किया था जो धार्मिक विरासत के रूप में अभी भी हमारे पास विद्यमान हैं।

तिलचट्टे की भूख भी भयंकर होती है आहार प्रारम्भ कर देता है तो अपने अण्डे बच्चे भी नहीं छोड़ता। मादा अपने बच्चों से बड़ा स्नेह रखती है प्रायः हर दो दिन में यह एक अण्डा दे देती है। एक रूसी जीव-शास्त्री ने एक बार पौने पांच लाख तिलचट्टे दम्पत्ति की सन्तान थे। न काक्रोच बड़ा सफाई वह सौन्दर्य-पसन्द जीव है। वह घण्टों अपने शरीर और मूछों की सफाई में लगता और उन्हें सुन्दर ढंग से संवारता है। इसकी मूंछें लम्बी होती हैं और एरियल का काम कर देती हैं। मूछों की मदद से भी वह अंधेरे में भी अपना रास्ता आसानी से तय कर लेता है। विज्ञान के लिये यह खुली चुनौतियां हैं। आज जो खोजें मनुष्य ने कर ली हैं प्रकृति उनका ज्ञान आदि काल से अपने गर्भ में छिपाये हुए है। सृष्टि के यह विलक्षण जीव प्रकृति की चेतना के ही प्रमाण हैं वह इस बात के साक्षी भी हैं कि प्रकृति एक ‘‘परिपूर्ण वैज्ञानिक’’ है विज्ञान की पूर्ण शोध और जानकारी का लाभ किसी प्रकृतिस्थ को ही उपलब्ध हो सकता है।

तिलचट्टे की विलक्षणतायें और भी हैं। उसके बच्चे सप्ताहों भूखे रह सकते हैं। वह स्वयं बर्फ की चट्टान में दब जाता है बर्फ पिघलकर उधर निकलती है और यह इधर उठकर चल देता है इसका बाहरी आवरण इतना कठोर होता है कि पांव से दब जाने पर भी यह मरता नहीं है। दौड़ने में यह किसी सुन्दर विमान से कम नहीं, यह सब गुण ही हैं जिन्होंने वैज्ञानिकों का ध्यान इसकी शोध के लिये आकर्षित किया। पर बेचारे जीव शास्त्री उसकी इस शारीरिक विलक्षणता पर ही उलझे रहे और मानसिक रहस्यमयता का एक भी पर्दा उघाड़ न सके।

उष्ण कटिबन्धीय समुद्र में एक ट्रिगर फिरा (वह मछली जिनके शरीर में कांटे होते हैं) पाई जाती है इसका नाम है ‘‘हुमुहुमु-नुकुनुकु’’ जैसा विलक्षण नाम वैसा ही विलक्षण स्वयं भी। इसकी पूंछ पीठ और सिर पर कुछ कांटे होते हैं जिन्हें यह अपनी इच्छा और नाड़ियों के द्वारा जब चाहता है तरेर कर सीधा और तीक्ष्ण कर देती है फल-स्वरूप किसी भी दुश्मन की इन पर घात नहीं लग सकती। इसके दांतों की बनावट विचित्र होती है दोनों जबड़ों में बाहर आठ-आठ दांतों के अतिरिक्त ऊपर के जबड़े में एक प्लेट की शक्ल में 6 दांतों की भीतरी पंक्ति भी होती है ऐसा किस सुविधा के लिए है यह वही जानती हैं क्योंकि प्रकृति की कोई भी रचना निरर्थक नहीं भले ही मनुष्य सारगर्भित कल्पनाओं के स्थान पर वह क्रिया कलाप और रचनायें गढ़ता रहे जो उसे लाभ पहुंचाने के स्थान पर हानिकारक होती हों।

जीवों की यह तरह-तरह की आकृति और प्रकृति देखते देखते शास्त्रकार की जैविक व्याख्या अनायास ही याद आ जाती है—

अनारतं प्रतिदिशं देशे देश जले स्थले। जायन्ते वा म्रियन्ते वा बुदबुदा इव वारिणि॥ —योग वासिष्ठ 1।45।1-2

एवं जीवाश्रितो भावा भव भावन योहिता। ब्रह्मणः कल्पिताकाराल्लक्षशोऽप्यथ कोटिशः॥ असंख्याताः पुरा जाता जायन्ते चापि वाद्यभोः। उत्पत्तिष्यन्ति चैवाम्बुकणौधा इव निर्झरात्॥ —योग वसिष्ठ 4।43।1।2

हे राम! जिस प्रकार जल में अनेक बुलबुले बनते और बिगड़ते रहते हैं उसी प्रकार सब देश और सभी कालों में यह चेतना ही अनेक जीवों के रूप में उत्पन्न और नष्ट होती रहती है। यह सब चित्त के रूपान्तर का फल है। जीव अपनी इच्छा और कल्पना के द्वारा लाखों और करोड़ों की संख्या में तीनों कालों में उत्पन्न होते रहते हैं। जैसे झरने के जल कण।

भारतीय दर्शन की यह मान्यतायें कितनी सत्य और स्पष्ट हैं उसे समझने के लिए साधना, शोध और अपने आत्मिक स्तर के विकास की उसे ऊंचा उठाने की आवश्यकता है। उपरोक्त घटनाओं और विवरणों से यही सिद्ध होता है कि प्रत्येक प्राणी में विद्यमान विलक्षणतायें सार्वभौम सर्वव्यापी चेतना की ही एक शक्ति है और सब में उसका अस्तित्व भावसंवेदना, करुणा, ममता; वात्सल्य मैत्री और दया की भाव सम्पदा के रूप में प्रकट होता है।
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