गायत्री अभियान की साधना
गायत्री को पंचमुखी कहा जाता है। कई चित्रों में आलंकारिक रूप से पांच मुख दिखाये गये हैं। वास्तव में यह पांच विभाग हैं—(1) ॐ, (2) भूर्भुवः स्वः, (3) तत्सवितुर्वरेण्यं, (4) भर्गो देवस्य धीमहि, (5) धियो यो नः प्रचोदयात्। यज्ञोपवीत के पांच भाग हैं—तीन सूत्र, चौथी मध्यग्रन्थियां, पांचवीं ब्रह्मग्रंथि। पांच देवता भी प्रसिद्ध हैं—ॐ-गणेश। व्याहृति—भवानी। प्रथम चरण—ब्रह्मा। द्वितीय चरण—विष्णु। तृतीय चरण—महेश। यह पांच देवता गायत्री के पांच प्रमुख शक्ति-पुंज कहे जा सकते हैं। प्रकृति के संचालक पांच तत्त्व (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आकाश) जीव के पांच कोष (अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, विज्ञानमय कोष, आनन्दमय कोष) पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां, चैतन्य पंचक (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, आत्मा) इस प्रकार की पंच प्रवृत्तियां गायत्री के पांच भागों में प्रस्फुटित, प्रेरित, प्रसारित होती हैं। इन्हीं आधारों पर वेदमाता गायत्री को पंचमुखी कहा गया है।
पंचमुखी माता की उपासना एक नैष्ठिक अनुष्ठान है, जिसे ‘गायत्री अभियान’ कहते हैं, जो पांच लाख जप का होता है। यह एक वर्ष की तपश्चर्या साधक का उपासनीय महाशक्ति से तादात्म्य करा देती है। श्रद्धा और विश्वासपूर्वक की हुई अभियान की साधना अपना फल दिखाये बिना नहीं रहती। ‘अभियान’ एक ऐसी तपस्या है, जो साधक को गायत्री शक्ति से भर देती है। फलस्वरूप साधक अपने अन्दर, बाहर और चारों ओर एक दैवी वातावरण का अनुभव करता है।
अभियान की विधि
एक वर्ष में पांच लाख जप पूरा करने का अभियान किसी भी मास में शुक्ल पक्ष की एकादशी से आरंभ किया जा सकता है। गायत्री का आविर्भाव शुक्ल पक्ष की दशमी को मध्य रात्रि में हुआ है। इसलिये उसका उपवास पुण्य दूसरे दिन एकादशी को माना जाता है। अभियान आरम्भ करने के लिये यही मुहूर्त सबसे उत्तम है। जिस एकादशी से आरंभ किया जाय, एक वर्ष बाद उसी एकादशी को समाप्त करना चाहिये।
महीने की दोनों एकादशियों को उपवास करना चाहिये। उपवास में दूध, दही, छाछ, शाक आदि सात्त्विक पदार्थ लिये जा सकते हैं। जो एक समय भोजन करके काम चला सकें, वे वैसा करें। बाल, वृद्ध, गर्भिणी या कमजोर प्रकृति के व्यक्ति दो बार भी सात्त्विक आहार ले सकते हैं। उपवास के दिन पानी कई बार पीना चाहिये।
दोनों एकादशियों को 24 मालायें जपनी चाहिये। साधारण दिनों में प्रतिदिन 10 मालायें जपनी चाहिये। वर्ष में तीन सन्ध्यायें होती हैं, उन्हें नवदुर्गाएं कहते हैं। इन नवदुर्गाओं में चौबीस-चौबीस हजार के तीन अनुष्ठान कर लेने चाहिये। जैसे प्रतिदिन प्रातःकाल, मध्याह्न, सायंकाल की तीन सन्ध्यायें होती हैं, वैसे ही वर्ष में ऋतु परिवर्तन की संधियों में तीन नवदुर्गाएं होती हैं। वर्षा के अन्त और शीत के आरम्भ में आश्विन शुक्ल 1 से लेकर 9 तक, शीत के अन्त और भीष्म के आरंभ में चैत्र शुक्ल 1 से लेकर 9 तक। ग्रीष्म के अन्त और वर्षा के आरम्भ में ज्येष्ठ शुक्ल 1 से लेकर 9 तक। यह तीन नवदुर्गाएं हैं। दशमी गायत्री जयन्ती का पूर्णाहुति दिन होने से वह भी नवदुर्गाओं में जोड़ दिया गया है। इस प्रकार दश दिन की इन सन्ध्याओं में चौबीस माला प्रतिदिन के हिसाब से चौबीस हजार जप हो जाते हैं। इस प्रकार एक वर्ष में पांच लाख जप पूरा हो जाता हैं।
संख्या का हिसाब इस प्रकार और भी अच्छी तरह समझ में आ सकता है—
1—बारह महीने की चौबीस एकादशियों को प्रतिदिन 24 मालाओं के हिसाब से 24x24=576 मालायें।
2—दस-दस दिन की तीन कुल 30 दिन की नवदुर्गाओं में प्रतिदिन की 24 मालाओं के हिसाब से 30x24=720 मालायें।
3—वर्ष के 360 दिन में से उपर्युक्त 30+24=54 दिन काटकर शेष 306 दिन में दस माला प्रतिदिन के हिसाब से 3060 मालायें।
4—प्रतिदिन रविवार को पांच माला अधिक जपनी चाहिये अर्थात् दस की जगह पन्द्रह माला रविवार को जपी जायें। इस प्रकार एक वर्ष में 52x5=260 मालायें।
इस प्रकार कुल मिलाकर (576+720+3060+260= 4616 मालायें हुईं)। एक माला में 108 दाने होते हैं। इस तरह 4616X108=4,98,128 कुल जप हुआ, पांच लाख में करीब उन्नीस सौ कम है। चौबीस मालायें पूर्णाहुति के अन्तिम दिन विशेष जप एवं हवन करके पूरी की जाती हैं।
इस प्रकार पांच लाख जप पूरे हो जाते हैं। तीन नवदुर्गाओं में काम-सेवन, पलंग पर सोना, दूसरे व्यक्ति से हजामत बनवाना, चमड़े का जूता पहनना, मद्य-मांस का सेवन आदि बातें विशेष रूप से वर्जित हैं। शेष दिनों में सामान्य जीवन क्रम रखा जा सकता है, उसमें किसी विशेष तपश्चर्याओं का प्रतिबंध नहीं है।
महीने में एक बार शुक्लपक्ष की एकादशी को 108 मन्त्रों से हवन कर लेना चाहिये। हवन की विधि गायत्री महाविज्ञान के प्रथम भाग में बता चुके हैं।
अभियान एक प्रकार का लक्ष्यवेध है। इसके लिये किसी पथ-प्रदर्शक एवं शिक्षक की नियुक्ति आवश्यक है, जिससे कि बीच-बीच में जो अनुभव हों उनके सम्बन्ध में परामर्श किया जाता रहे। कई बार जबकि प्रगति में बाधा उपस्थित होती है, तो उसका उपाय अनुभवी मार्ग-दर्शक से जाना जा सकता है।
शुद्ध होकर प्रातः-सायं दोनों समय जप किया जा सकता है। प्रातःकाल उपासना में अधिक समय लगाना चाहिये, सन्ध्या के लिये तो कम भाग ही छोड़ना चाहिये। जप के समय मस्तक के मध्य भाग अथवा हृदय में प्रकाश-पुंज-गायत्री का ध्यान करते जाना चाहिये।
साधारणतः एक घंटे में दस मालायें जपी जा सकती हैं। अनुष्ठान के दिनों में ढाई घंटे प्रतिदिन और साधारण दिनों एक घण्टा प्रतिदिन उपासना में लगा देना कुछ विशेष बात नहीं है। सूतक, यात्रा, बीमारी आदि के दिनों में बिना माला के मानसिक जप चालू रखना चाहिये। किसी दिन साधना छूट जाने पर, उसकी पूर्ति अगले दिन की जा सकती है।
फिर भी यदि वर्ष के अन्त में कुछ जप कम रह जाए, तो उसके लिये ऐसा हो सकता है कि उसने मन्त्र अपने लिये किसी से उधार जपाये जा सकते हैं, जो सुविधाजनक लौटा दिये जायें। इस प्रकार हवन आदि की कोई असुविधा पड़े, तो वह इसी प्रकार सहयोग के आधार पर पूरी की जा सकती है। किसी साधक की साधना खंडित न होने देने एवं उसका संकल्प पूरा कराने के लिये ‘अखण्ड-ज्योति’ से भी समुचित उत्साह, पथ-प्रदर्शन तथा सहयोग मिल जाता है।
अभियान एक वर्ष में पूरा होता है। साधना की महानता को देखते हुए इतना समय कुछ अधिक नहीं है। इस तपस्या के लिये जिनके मन में उत्साह है, उन्हें इस शुभ आरंभ को कर ही देना चाहिये। आगे चलकर माता अपने आप संभाल लेती है। यह निश्चित है कि शुभ आरम्भ का परिणाम शुभ ही होता है।
गायत्री-वन्दना
ॐ काररूपा त्रिपदी त्रयी च, त्रिदेववन्द्या त्रिदिवाधिदेवी ।
त्रिलोककर्त्री त्रितयस्य भर्ती, त्रैकालिकी संकलनाविधात्री ।।1।।
त्रैगुण्यभेदात् त्रिविधस्वरूपा, त्रैविध्ययुक्तस्य फलस्य दात्री ।
तथापवर्गस्य विधायिनी त्वं, दयार्द्रदृक्कोणाविलोकनेन ।।2।।
त्वं वाङ्मयी विश्ववदान्यमूर्ति, विश्वस्वरूपापि हि विश्वगर्भा ।
तत्त्वात्मिका तत्त्वपरात्परा च, दृक् तारिका तारकशंकरस्य ।।3।।
विश्वात्मिके विश्वविलासभूते, विश्वाश्रये विश्वविकाशघामे ।
विभूत्यधिष्ठात्रि विभूतिदात्रि, पदे त्वदीये प्रणतिर्मदीया ।।4।।
भोगस्य भोक्त्री करणस्य कर्त्री, धात्चाव्ययप्रत्ययलिंगशून्या ।
ज्ञेया न वेदैर्न पराणभेदै, र्ध्येया धिया धारणयादिशक्तिः ।।5।।
नित्या सदा सर्वगताऽप्यलक्ष्या, विष्णोर्विधेः शंकरतोऽप्यभिन्ना ।
शक्तिस्वरूपा जगतोऽस्य शक्ति, र्ज्ञातुं न शक्या करणादिभिस्त्वम् ।।6।।
त्यक्तस्त्वयात्यन्तनिरस्तबुद्धि र्नरो भवेद् वैभवभाग्यहीनः ।
हिमालयादप्यधिकोन्नतोऽपि, जनैस्समस्तैरपि लंघनीयः ।।7।।
शिवे हरौ ब्रहणि भानुचन्द्रयो, श्चराचरे गोचरकेऽप्यगोचरे ।
सूक्ष्मातिसूक्ष्मे महतो महत्तमे, कला त्वदीया विमला विराजते ।।8।।
सुधामरन्दं तव पादपद्मं, स्वे मानसे धारणया निधाय ।
बुद्धिर्मिलिन्दीभवतान्मदीया, नातः परं देवि वरं समीहे ।।9।।
दीनेषु होनेषु गतादरेषु, स्वाभाविकी ते करुणा प्रसिद्धा ।
अतः शरण्ये शरणं प्रपन्नं, गृहाण मातः प्रणयाञ्जलिं मे ।।10।।
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*समाप्त*