गायत्री महाविज्ञान भाग 2

अथ गायत्री उपनिषद्

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अथ गायत्री उपनिषद् 

एतद्धस्म एतद् विद्वांसमेकादशाक्षम् । 
मौद्गल्यं ग्लावो मैत्रेयोऽभ्याजगाम ।। 

एकादशाक्ष मौद्गल्य के समीप ग्लाव मैत्रेय आये। 
स तस्मिन् ब्रह्मचर्यं वसतो विज्ञायोवाच । 
किं स्विन्मर्यादा अयं तन्मौद्गल्योऽध्येति 
यदस्मिन्ब्रह्मचर्ये वसतीति । 

‘‘मौद्गल्य के ब्रह्मचारी को देखकर और उसे सुनाकर ग्लाव ने उपहास लड़ाते हुए कहा—‘‘मौद्गल्य अपने इस ब्रह्मचारी को क्या पढ़ाता है अर्थात् कुछ नहीं पढ़ाता है।’’ 

तद्धि मौद्गल्यस्यान्तेवासी शुश्राव । 
स आचार्यायाव्रज्याचचष्टे । 

मौद्गल्य के ब्रह्मचारी ने इस बात को सुनकर अपने आचार्य के पास जाकर कहा— 
दुरधीयानं वा अयं भवन्तमवोचद्योऽयमयातिथिर्भवति । 
जो आज अतिथि हुए हैं, आपको उन्होंने मूर्ख कहा है। 
किं सौम्य विद्वानिति । 
क्या वह विद्वान् हैं? मौद्गल्य ने पूछा। 

त्रीन्वेदान् ब्रूते भो३ इति- 
हां, वे तीनों वेदों के प्रवचनकर्ता हैं, शिष्य ने कहा— 

तस्य सौम्य यो विस्पष्टो विजिगीषोऽन्तेवासी तन्मेह्वयेति । 

हे सौम्य! उसका जो विद्वान्, सूक्ष्मदर्शी तथा विजय चाहने वाला शिष्य हो, तुम उसे मेरे पास ले आओ। 

तमोजुहाव । तमभ्युवाचासाविति भो३ इति । 

तब वह उसे बुला लाया और बोला—वे ये हैं। 

किं सौम्य त आचार्योऽध्येतीति । 

मौद्गल्य ने उससे पूछा—हे सौम्य! तुम्हारे आचार्य क्या पढ़ाते हैं? 

त्रीन् वेदान् ब्रूते भो३ इति । 
उसने उत्तर दिया—वे तीनों वेदों का प्रवचन करते हैं। 

यन्नु खलु सौम्यास्माभिः सर्वे वेदा मुखतो गृहीताः, 
कथन्त एवमाचार्यो भाषते, कथं नु.....स चेत्सौम्य 
दुरधीयानो भविष्यति, आचार्योवाच ब्रह्मचारी 
ब्रह्मचारिणे सावित्रीं प्राह, इति वक्ष्यति । 

हे सौम्य! यदि वे यह जानते होंगे, तो कहेंगे कि आचार्य अपने ब्रह्मचारी को जिसका उपदेश देते हैं, वह सावित्री है अर्थात् जो गायत्री का शब्दार्थ, स्थूल अर्थ है, उसे ही बता देंगे। 
तत्त्वं ब्रूयाद् दुरधीयानं तं वै भवान्मौद्गल्य- 
मवोचत्, स त्वा यं प्रश्नमाक्षीन्न तं व्यवोचः । 
पुरा सम्वत्सरादार्तिमाकृष्यसीति । 

तब तुम कहना कि आपने तो आचार्य मौद्गल्य को मूर्ख बतलाया था। वे आपसे जो प्रश्न पूछते हैं, उसे आप नहीं बतला सके, तो एक वर्ष के भीतर ही आपको कुछ कष्ट होगा। 

शिष्टाः शिष्टेभ्य एवं भाषेरन् । 
यं ह्येनमहं प्रश्नं पृच्छामि न तं विवक्ष्यति, न ह्येनमध्येतीति । 

‘‘हे सौम्य! हमने भी सब वेदों का अध्ययन किया है, फिर तुम्हारे आचार्य मुझे मूर्ख क्यों कहते हैं? क्या शिष्टों के लिये ऐसा कहना ठीक है? हम उनसे जो प्रश्न पूछेंगे, वे उसे न बतला सकेंगे, वे उसे पढ़ाते भी नहीं होंगे।’’ 

स ह मौद्गल्यः स्वमन्तेवासिनमुवाच, परेहि सौम्य, ग्लावं 
मैत्रेयमुपसीद, अधीहि भोः सावित्रीं गायत्रीम् । 
चतुर्विंशति योनिं द्वादशमिथुनां, यस्या भृग्वंगिरसश्च- 
क्षुर्यस्यां सर्वमिदं श्रितं, तां भवान् प्रब्रवीत्वति । 
—गो. बा. पू. 1/31
 
‘‘तब उन मौद्गल्य ने अपने ब्रह्मचारी से कहा—हे सौम्य! तुम जाओ, ग्लाव मैत्रेय के समक्ष उपस्थित होकर कहो कि बारह मिथुन तथा चौबीस योनि वाली भृगु और अंगिरा जिसके नेत्र हैं तथा जिसके आश्रित ये सब हैं, उस सावित्री-गायत्री को हमें पढ़ाइये।’’ 
इस कण्डिका में मौद्गल्य ने मैत्रेय से गायत्री का रहस्य पुछवाया है। साधारण अर्थ तो सभी जानते हैं कि इस मन्त्र में परमात्मा से यह प्रार्थना की गयी है कि हमें सद्बुद्धि की प्रेरणा दीजिये। ऐसे मंत्र तो श्रुति-स्मृतियों में अनेकों भरे पड़े हैं, जिसमें इसी प्रकार की या इससे भी उत्तम रीति से बुद्धि-विवेक आदि के लिये प्रार्थनायें की गयीं हैं। फिर गायत्री में ही ऐसी क्या विशेषता है, जिसके कारण उसे वेद-माता कहा गया और समस्त श्रुति-क्षेत्र में इतना महत्व दिया गया? इसका कोई न कोई बड़ा कारण अवश्य होना चाहिये। मौद्गल्य ने उसी रहस्य एवं कारण को मैत्रेय से पुछवाया। 
स तत्राजगाम यत्रेतरो बभूव तं ह पप्रच्छ स ह न प्रतिपदे । 
‘‘मौद्गल्य का शिष्य मैत्रेय के पास आया। उसने उनसे पूछा, किन्तु वे उसका उत्तर न दे सके।’’ 

तं होवाच दुरधीयानं तं वै भवार्न्मौद्गल्यमवो- 
चत्स त्वा यं प्रश्नमप्राक्षीन्न तं व्यवोचः पुरा 
सम्वत्सरादार्तिमाकृष्यसीति । 

‘‘उसने कहा—आपने मौद्गल्य को मूर्ख कहा था। उन्होंने जो आपसे पूछा, आप उसे नहीं बतला सके, इसलिये एक वर्ष में आपको कष्ट होगा।’’ 
स ह मैत्रेयः स्वानन्तेवासिन उवाच-यथार्थं 
भवन्तो यथागृहं यथामनो विप्रसृज्यन्तां दुरधीयानं 
वा अहं मौद्गल्यमवोचम्, स मा यं प्रश्नमप्राक्षीन्न तं 
व्यवोचं, तमुपैष्यामि, शान्तिं करिष्यामीति ।। 

‘‘तब मैत्रेय ने अपने शिष्यों से कहा—अब आप लोग अपनी-अपनी इच्छानुसार अपने-अपने घरों को लौट जाइये। मैंने मौद्गल्य को मूर्ख कहा था, पर उन्होंने जो कुछ पूछा है, मैं उसे नहीं बतला सका हूं। मैं उनके पास जाऊंगा और उन्हें शान्त करूंगा।’’ 

स ह मैत्रेयः प्रातः समित्पाणिमौद्गल्यमुपससादासावाग्रहं भो मैत्रेयः । 

‘‘दूसरे दिन प्रातःकाल हाथ में समिधा लेकर मैत्रेय अनुग्रहशील मौद्गल्य ऋषि के पास आये और कहा—मैं, मैत्रेय आपकी सेवा में आया हूं।’’ 
किमर्थमिति— 
                ‘‘किसलिये?’’ उन्होंने पूछा। 
दुरधीयानं वा अहं भवन्तमवोचं त्वं मा यं प्रश्नमप्राक्षीर्न्न तं व्यवोचं, त्वामुपैष्यामि, शान्तिं करिष्यामीति । 

‘‘मैत्रेय ने कहा—मैंने आपको मूर्ख कहा था। आपने जो पूछा, मैं उसे न बता सका। अब मैं आपकी सेवा में उपस्थित होऊंगा और आपको शान्त करूंगा।’’ 
स होवाच-अत्र वा उपेतं च सर्वं च कृतं पापकेन त्वा 
यानेन चरन्तमाहुः, अथोऽयं मम कल्याणस्तं ते 
ददामि तेन याहीति । 

‘‘मौद्गल्य ने कहा—आप यहां आये हैं, लेकिन लोग कहते है कि आप यहां शुद्ध भावना से नहीं आये हैं, तो भी मैं तुम्हें कल्याणकारी भाव देता हूं, तुम इसे लेकर लौटो।’’ 
स होवाच । एतदेवात्रात्विषं चानृशंस्यं च यथा भवानाह । उपायामित्येवं भवन्तमिति । 

मैत्रेय ने कहा—आपका कहना अभयकारी एवं सदय है। आपकी सेवा में समित्पाणि होकर उपस्थित होता हूं। 
तं होप्याय— 

अब वे विधिपूर्वक उनकी सेवा में उपस्थित हुए। 

तं होपेत्य पप्रच्छ— 
उपस्थित होकर पूछा— 
किं स्विदाहुर्भोः सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य कवयः किमाहुः । 
धियो विचक्ष्व यदि ताः प्रविश्य प्रचोदयात्सविता याभिरेतीति ।। 

(1) सविता का वरेण्य किसे कहते हैं? 
(2) उस देव का भर्ग क्या है? 
(3) यदि आप जानते हों तो धी संज्ञक तत्त्वों को कहिये, जिनके द्वारा सबको प्रेरणा देता हुआ सविता विचरण करता है। 
तस्मा एतत्प्रोवाच— 
उन्होंने उत्तर दिया— 
वेदाश्छन्दांसि सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य कवयोऽन्नमाहुः । 
कर्माणि धियस्तदु ते ब्रवीमि प्रचोदयात्सविता याभिरेतीति ।। 
(1) वेद और छन्द सविता का वरेण्य हैं। 
(2) विद्वान् पुरुष अन्न को ही देव का भर्ग मानते हैं। 
(3) कर्म ही वह ‘‘धी’’ तत्त्व है, जिसके द्वारा सबको प्रेरणा देता हुआ सविता विचरण करता है। 

तमुपसंगृह्य पप्रच्छाधीहि भोः, कः सविता, का सावित्री ।। 
—गो. ब्र. पू. भाग 1/32 

यह सुनकर उनने फिर पूछा—सविता क्या है और सावित्री क्या है? 
मौद्गल्य के अभिप्राय को मैत्रेय भली प्रकार समझ गये। उन्होंने सचाई के साथ विचार किया तो जाना कि मैं गायत्री के उस रहस्य को नहीं जानता हूं, जिसके कारण उन्हें इतना महत्त्व प्राप्त है। उन्होंने सोचा, यह मूल कारण न मालूम हो, तो उसके बाह्य प्रतीकों को जान लेने मात्र से कुछ लाभ नहीं हो सकता। इसलिये वेदों का प्रवचन करने से तब तक क्या लाभ, जब तक कि उनका मूल कारण न मालूम हो। यह सोच कर उनने निश्चय किया कि पहले मैं गायत्री का रहस्य समझूंगा, तब अन्य कार्य करूंगा। उन्होंने अपने विद्यार्थियों की छुट्टी कर दी और स्वयं नम्र बनकर समिधा हाथ में लेकर शिष्यभाव से मौद्गल्य के पास पहुंचे। विद्या प्राप्त करने की—विशेष रूप से अध्यात्म-विद्या की—यही परिपाटी है कि शिक्षार्थी अपने अध्यापक के पास नम्र होकर—उनके प्रति श्रद्धाभाव मन में धारण करके—पढ़ने जाये। इस आर्ष प्रणाली को छोड़कर आज के उच्छृंखल ‘स्टूडेण्ट’ जिन उजड्ड भावनाओं के साथ शिक्षा प्राप्त करते हैं, वह शिक्षा गुरु का आशीर्वाद न होने से निष्फल ही जाती है। 
मैत्रेय ने पूछा—गायत्री के प्रथम पद में आये हुए शब्दों का रहस्य बताइये।
 (1) सविता का वरेण्य क्या है अर्थात् उस तेजस्वी परमात्मा को किससे वरेण्य किया जाता है? ईश्वर किस उपाय से प्राप्त होता है?
 (2) उस देव का भर्ग क्या है? देव कहते हैं श्रेष्ठ को, भर्ग कहते हैं बल को। देव का भर्ग क्या है?
 (3) जिसके द्वारा परमात्मा सबको प्रेरणा करता है अर्थात् वह माध्यम क्या है जिसके द्वारा ईश्वर की कृपा होती है? इन तीनों तत्वों को मैत्रेय ने मौद्गल्य से पूछा है। 
इनका संक्षिप्त उत्तर मौद्गल्य ने दिया है, वह बड़े ही मार्के का है। इन उत्तरों पर जितना गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाये, उतना ही उनका महत्त्व प्रकट होता है।
 मौद्गल्य कहते हैं— 
    (1) वेद और छन्द सविता का वरेण्य है। 
    (2) अन्न को ही देव की भर्ग कहते है। 
    (3) कर्म ही ‘धी’ तत्त्व है, इसी के द्वारा परमात्मा सबको प्रेरणा देता है, सबका विकास करता है।

आइये तीनों प्रश्नों पर पृथक्-पृथक् विचार करें। 

 (1) वेद अर्थात् ज्ञान, छन्द अर्थात् अनुभव। वास्तव में आत्म ज्ञान से परमात्मा की प्राप्ति होती है, पर वह ज्ञान केवल वाचिक न होना चाहिये। भारवाही गधे की तरह अनेक पुस्तकें पढ़ लेने से, शुक-सारिकाओं की भांति कुछ रटे हुए शब्दों का प्रवचन कर देने से काम नहीं चल सकता। हमारा तत्त्व-ज्ञान अनुभव सिद्ध होना चाहिये। जिसके कारण तर्क, प्रमाण और उदाहरण के द्वारा सत्य मान लिया जाये, उस सत्य के प्रति मनुष्य के मन में अगाध श्रद्धा होनी चाहिये और उस श्रद्धा का जीवन में व्यावहारिक आचरण होना चाहिये। पहले पूरी तत्परता, सचाई और निष्पक्षता से यह देखना चाहिये कि कौन-कौन सिद्धान्त उचित एवं कल्याणकारी हैं। जब यह विश्वास हो जाए कि सत्य, परोपकार, संयम, ईमानदारी आदि गुण सब दृष्टियों से श्रेयस्कर हैं, तो उनके सिद्धान्त का जीवन में 
आचरण होना चाहिये। सद्ज्ञान का श्रद्धा-भूमि में परिपक्व होना, यही ईश्वर की प्राप्ति का प्रधान उपाय है। बिना सिद्धान्तों को जाने केवल अनुभव निर्बल है और बिना अनुभव का ज्ञान निष्फल है। जब मनुष्य का सद्ज्ञान श्रद्धा में परिणत हो जाता है, दम्भ, छल, मात्सर्य, कपट, धूर्तता एवं दुराव को छोड़कर, जब समस्त मनोभूमि में एक ही जाति की श्रद्धा स्थापित हो जाती है, तो उसी आधार पर परमात्मा की प्राप्ति होती है। वेद और छन्द के सम्मिश्रण में सविता का वर्णन किया है और ज्ञान तथा अनुभव से परमात्मा को प्राप्त किया जाता है। 

 (2) इसी प्रश्न का उत्तर देते हुए मौद्गल्य कहते हैं, देव का भर्ग अन्न है। श्रेष्ठ का बल, उसके साधन हैं। श्रेष्ठता को तभी बलवान् बनाया जा सकता है, जब उसको विकसित करने के लिये अन्न हो, साधन हो। साधन-सामग्री लक्ष्मी, एक शक्ति है, जो असुर के हाथ में चली जाए, तो असुरता को बढ़ाती है और यदि देवों के हाथ में चली जाए, तो उसके द्वारा देवत्व का विस्तार होता है, देवता बलवान होते हैं। शासन-सत्ता, क्रूर, दुष्ट लोगों के हाथ में हो तो वे उससे दुष्टता फैलाते हैं। पिछली शताब्दियों में भारत की राज-सत्ता विदेशियों के हाथ में रही है, इसके कारण उन्होंने भारत-भूमि का कितना अधःपतन किया, यह किसी से छिपा नहीं है। वही सत्ता अब जब अच्छे हाथों में आयी, तो थोड़े दिनों में रूस, अमेरिका की भांति यहां भी उन्नत अवस्था प्राप्त होने की संभावना है। योगी अरविन्द ने अपनी ‘गीता पुस्तक’ में लिखा है—‘‘लक्ष्मी पर श्रेष्ठ लोगों को आधिपत्य करना चाहिये। इस प्रकार संसार में सुख-शांति बढ़ेगी। यदि लक्ष्मी असुरों के पास चली गयी, तो उससे विश्व का अनिष्ट ही समझिये।’’ देवताओं को भोग के लिये नहीं, लोभ के लिये नहीं, संग्रह के लिये नहीं, अहंकार-प्रदर्शन के लिये नहीं, अन्याय करने के लिये नहीं, वरन् इसलिये धन और साधन-सामग्रियों की आवश्यकता है कि वे शक्तियों द्वारा देवत्व की रक्षा एवं वृद्धि कर सकें। अन्न को, इस साधन-सामग्री को लक्ष्मी का प्रतीक माना है। मौद्गल्य का उत्तर यह है कि देव का भर्ग, अन्न है, श्रेष्ठ का बल, साधन है। बिना साधन के तो वह बेचारा निर्बल ही रहेगा। 
मौद्गल्य का तीसरा उत्तर यह है कि कर्म ही ‘धी’ तत्व है। इसी के द्वारा परमात्मा सबका विकास करता है। यह नितान्त सत्य है कि परमात्मा की कृपा से सबका विकास होता है। परमात्मा सबको ऊपर की ओर उन्नति की ओर प्रेरित करता है, पर यह भी जान लेना चाहिये कि उस प्रेरणा का रूप है ‘धी’।

     ‘धी’ अर्थात् वह बुद्धि जो कर्म के लिये प्रेरणा, प्रोत्साहन देती है और कर्म करने में लगा देती है। परमात्मा की जिस प्रकार की कृपा होती है, उसी प्रकार की बुद्धि प्राप्त होती है। किसी मनुष्य पर परमात्मा की कृपा है या नहीं, इसकी पहचान करनी हो तो वह इस प्रकार हो सकती है कि वह मनुष्य उत्साहपूर्वक, तन्मयतापूर्वक श्रम, जागरूकता और रुचि के साथ कार्य करता है या नहीं? जिसका स्वभाव इस रुचि का है, समझना चाहिये कि इनको विकसित करने के लिये परमात्मा ने इन्हें ‘धी’ तत्व प्रदान किया है। 
कितने ही व्यक्ति आलसी, निकम्मे, हरामखोर होते हैं, निराशा जिन्हें घेरे रहती है, काम को आधे मन से, अरुचिपूर्ण बेगार भुगतने की तरह करते हैं, जरा-सा काम उन्हें पहाड़ मालूम होता है, थोड़े से श्रम में भारी थकान अनुभव करते हैं। ऐसे लोगों को ‘धी’ तत्व से रहित समझना चाहिये। यह प्रत्यक्ष है कि वे ईश्वर के कृपा पात्र नहीं हैं, कर्म प्रेरक बुद्धि के अभाव में वे दुर्भाग्यग्रस्त ही होंगे। 
मौद्गल्य का उपर्युक्त कथन गम्भीर और सत्य है, इसके बारे में दो मत नहीं हो सकते। भाग्य का रोना रोने वाले, तकदीर को कोसने वाले अपनी त्रुटि का दोष किसी दूसरे ज्ञात-अज्ञात पर थोपकर झूठा मन-संतोष भले ही कर लें, पर वस्तुस्थिति यही है कि उन्होंने ईश्वर की कृपा को प्राप्त नहीं किया। यह कृपा हर किसी के लिये सुलभ है, हर किसी के अपने हाथों में है। ‘धी’ तत्व को कर्मशीलता को अपनाकर हर कोई ईश्वरीय कृपा और उन्नति का अधिकारी बन सकता है। परमात्मा अपनी कृपा से किसी को वंचित नहीं रखता, मनुष्य ही दुर्बुद्धि के कारण उसका परित्याग कर देता है। 

मन एव सविता वाक् सावित्री यत्र ह्येव मनस्तद्वाक् । 
यत्र वै वाक् तन्मन इति एते द्वे योनी एकं मिथुनम् ।।1।। 

‘मन सविता है, वाक् गायत्री। जहां मन है वहां वाक् है, जहां वाक् है, वहां मन। ये दोनों दो योनि और एक मिथुन हैं।’’ 

अग्निरेव सविता पृथिवी सावित्री यत्र ह्येवाग्निस्तत्पृथिवी । 
यत्र वै पृथिवी तदग्निरिति एते द्वे योनी एकं मिथुनम् ।।2।। 
—सावित्र्युपनिषद् 
‘‘अग्नि सविता है, पृथ्वी सावित्री। जहां अग्नि है वहां पृथ्वी है, जहां पृथ्वी है, वहां अग्नि है। ये दो योनि तथा एक मिथुन हैं।’’ 

वायुरेव सविता अन्तरिक्षं सावित्री । यत्र ह्येव वायुस्तदन्तरिक्षम्, यत्र वा अन्तरिक्षं तद्वायुरिति एते द्वे योनी एकं मिथुनम् ।।3।। 

‘‘वायु सविता है अन्तरिक्ष सावित्री है। जहां वायु है, वहां अन्तरिक्ष है, जहां अन्तरिक्ष है, वहां वायु है। ये दोनों दो योनि और एक मिथुन हैं।’’ 

आदित्य एव सविता द्यौः सावित्री यत्र ह्येवादित्यस्तद् द्यौः यत्र वै द्यौस्तदादित्य इति एते द्वे योनी एकं मिथुनम् ।।4।। 

‘‘आदित्य सविता है, द्यौ सावित्री। जहां आदित्य है, वहां द्यौ है, जहां द्यौ है, वहां आदित्य है। ये दोनों दो योनि और एक मिथुन हैं ।।4।। 

चन्द्रमा एव सविता नक्षत्राणि सावित्री यत्र ह्येव चन्द्रमास्तन्नक्षत्राणि । 
यत्र वै नक्षत्राणि तच्चन्द्रमा इति । एते द्वे योनी एकं मिथुनम् ।।5।। 

‘‘चन्द्रमा ही सविता है, नक्षत्र सावित्री है। जहां चन्द्रमा है वहां नक्षत्र हैं, जहां नक्षत्र हैं, वहां चन्द्रमा है। ये दोनों, दो योनि और एक मिथुन हैं ।।5।।’’ 
अहरेव सविता रात्रिः सावित्री । यत्र ह्येवाहस्तद्रात्रिः । 
यत्र वै रात्रिस्तदहरिति एते द्वे योनी एकं मिथुनम् ।।6।। 

‘‘दिन सविता है और रात्रि सावित्री है। जहां दिन है, वहां रात्रि है, जहां रात्रि है, वहां दिन है। ये दो योनि और एक मिथुन हैं ।।6।। 

उष्णमेव सविता शीतं सावित्री यत्र ह्येवोष्णं तच्छीतम् । 
यत्र वै शीतं तदुष्णमिति एते द्वे योनी एकं मिथुनम् ।।7।। 

‘‘उष्ण सविता है, शीत सावित्री। जहां उष्ण है, वहां शीत है, जहां शीत है, वहां उष्णता है। ये दोनों, दो योनि और एक मिथुन हैं ।।7।।’’ 

अभ्रमेव सविता वर्षं सावित्री यत्र ह्येवाभ्रं तद्वर्षं । 
यत्र वै वर्षं तदभ्रमिति एते द्वे योनी एकं मिथुनम् ।।8।। 

‘‘बादल सविता है और वर्षण सावित्री। जहां बादल है, वहां वर्षण है, जहां वर्षण है, वहां बादल हैं। ये दोनों दो योनि तथा एक मिथुन हैं ।।8।। 

विद्युदेव सविता स्तनयित्नुः सावित्री । यत्र ह्येव विद्युत्तत्स्तनयित्नुः यत्र वै स्तनयित्नुस्तद्विद्युदिति एते द्वे योनी एकं मिथुनम् ।।9।। 

‘‘विद्युत् सविता है और उसकी तड़क सावित्री। जहां बिजली है वहां उसकी तड़क है, जहां तड़क है, वहां बिजली है। ये दोनों, दो योनि और एक मिथुन हैं ।।9।। 

प्राण एव सविता अन्नं सावित्री । यत्र ह्येव प्राणस्तदन्नं यत्र वा अन्नं तत्प्राण इति । एते द्वे योनी एकं मिथुनम् ।।10।। 

‘‘प्राण सविता है, अन्न सावित्री। जहां प्राण है, वहां अन्न है, जहां अन्न है, वहां प्राण है। ये दो योनि तथा एक मिथुन हैं ।।10।। 
वेदा एव सविता छंदांसि सावित्री, यत्र ह्येव वेदास्तच्छन्दांसि यत्र वै छन्दांसि तद्वेदा इति 
एते द्वे योनी एकं मिथुनम् ।।11।। 

‘‘वेद सविता है, छन्द सावित्री। जहां वेद हैं, वहां छन्द हैं, जहां छन्द हैं, वहां वेद हैं। ये दो योनि और एक मिथुन हैं ।।11।।’’ 

यज्ञ एव सविता दक्षिणा सावित्री, यत्र ह्येवं यज्ञस्तद् दक्षिणा । 
यत्र वै दक्षिणास्तज्ञ इति एते द्वे योनी एकं मिथुनम् ।।12।। 

‘यज्ञ सविता है और दक्षिणा सावित्री है। जहां यज्ञ है, वहां दक्षिणा है, जहां दक्षिणा है, वहां यज्ञ है। ये दो योनि तथा एक मिथुन हैं ।।12।।’’ 
एतद्ध स्मैतद्विद्वांसमोपाकारिमासस्तुर्ब्रह्मचारी ते संस्थित इति । 

‘‘विद्वान् तथा परोपकारी महाराज! आपकी सेवा में यह ब्रह्मचारी आया है।’’ 

अथैत आसस्तुराचित इव चितो बभूव अथोत्थाय प्राव्राजीदिति । 

‘‘यह ब्रह्मचारी आपके यहां आकर ज्ञान से परिपूर्ण हो गया है। इसके बाद वे वहां से चले गये।’’ 

एतद्वा अहं वेद नैतासु योनिष्वित एतेभ्यो वा मिथुनेभ्यः सम्भूतो ब्रह्मचारी मम पुरायुषः प्रेयादिति। 

‘‘और उन्होंने कहा कि अब मैं इसे जान गया हूं, उन योनियों अथवा इन मिथुनों में आया हुआ मेरा कोई ब्रह्मचारी अल्पायु नहीं होगा।’’ 
अब प्रश्न होता है कि सविता क्या है? और सावित्री क्या है? गायत्री का देवता सविता माना गया है। प्रत्येक मन्त्र का एक देवता होता है, जिससे पता चलता है कि इस मन्त्र का क्या विषय है? गायत्री का देवता सविता होने से यह स्पष्ट है कि इस मन्त्र का विषय सविता है। सविता की प्रधानता होने के कारण गायत्री का दूसरा नाम सावित्री भी है। 
मैत्रेय पूछते हैं—भगवान् सविता क्या है? और वह सावित्री क्या है? महर्षि मौद्गल्य उन्हें उत्तर देते हैं कि सविता और सावित्री का अविच्छिन्न सम्बन्ध है, जो एक है वही दूसरा है। दोनों का मिलकर एक जोड़ा बनता है, एक केन्द्र है, दूसरा उसकी शक्ति है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। 
शक्ति-मार्ग का महत्व उसकी शक्ति के विस्तार से है। यों तो प्रत्येक परमाणु अनन्त शक्ति का पुंज है। एक परमाणु के विस्फोट से प्रलय उपस्थित हो जाती है, पर इस प्रकार की गतिविधि होती तभी है, जब उस शक्ति का विस्तार एवं प्रकटीकरण होता है। यदि यह प्रकटीकरण न हो, तो अनन्त शक्तिशाली पदार्थ का भी कोई अस्तित्व नहीं, उसे कोई जानता तक नहीं। 

     सविता कहते हैं—तेजस्वी परमात्मा को और सावित्री कहते हैं—उसकी शक्ति को। सावित्री, सविता से भिन्न नहीं वरन् उसकी पूरक है उसका मिथुन अर्थात् जोड़ा है। सावित्री द्वारा ही अचिन्त्य, अज्ञेय, निराकार एवं निर्लिप्त परमात्मा इस योग्य होता है कि उससे कोई लाभ उठाया जा सके। 
यह बात बहुत सूक्ष्म और गम्भीर विचार के उपरान्त समझ में आने वाली है। इसलिये उपनिषद्कार उसे उदाहरण दे-देकर सुबोध बनाते हैं और इस गूढ़ तत्त्व को इस प्रकार उपस्थित करते हैं कि हर कोई आसानी से समझ सके।

 वे कहते हैं— 
मन सविता है वाक् सावित्री है, जहां मन है, वहां वाक् है, जहां वाक् है, वहां मन है। ये दोनों दो योनियां हैं, एक मिथुन है। इसी प्रकार अग्नि और पृथ्वी का, वायु और अन्तरिक्ष का, आदित्य और द्यौ का, चन्द्रमा और नक्षत्रों का, दिन और रात्रि का, उष्ण और शीत का, अग्नि और वरुण का, विद्युत् और तड़क का प्राण और अन्न का, वेद और छन्द का, यज्ञ और दक्षिणा का मिथुन बताया गया है। यह तो थोड़े से उदाहरण मात्र हैं। यह उदाहरण बताकर उपनिषद्कार ने बताया है कि अकेली कोई वस्तु प्रकट नहीं हो सकती, प्रकाश में नहीं आ सकती, विस्तार नहीं कर सकती। अव्यक्त पदार्थ तभी व्यक्त होता है, जब उसकी शक्ति का प्रकटीकरण होता है। केवल परमात्मा, बुद्धि की मर्यादा के बाहर है, उसे न तो हम सोच सकते हैं और न उसके समीप तक पहुंचकर कोई लाभ उठा सकते हैं। यह अव्यक्त परमात्मा सविता, अपनी शक्ति, सावित्री द्वारा सर्व साधारण पर प्रकट होता है और उस शक्ति की उपासना द्वारा ही उसे प्राप्त किया जा सकता है। 
लक्ष्मीनारायण, सीताराम, राधाकृष्ण, उमाशंकर, सविता-सावित्री, प्रकृति-परमेश्वर के मिथुन, यही बताते हैं कि यह एक दूसरे के पूरक हैं, प्रकट होने के कारण हैं। जीव भी माया के कारण अव्यक्त से व्यक्त होता है। यह मिथुन हेय या त्याज्य नहीं है वरन् क्रियाशीलता के विस्तार के लिये है। मनुष्य का विकास भी एकांगी नहीं हो सकता, उसे अपनी शक्तियों का विस्तार करना पड़ता है। जो अपनी शक्तियों को बढ़ाता है, वही उन्नति की ओर अग्रसर होता है। 
शक्ति और शक्तिमान् का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। जैसे सविता अपनी सावित्री से ओत-प्रोत है, उसी प्रकार हमें भी अपने आपको बहुमुखी शक्तियों से परिपूर्ण बनाना चाहिये। अपने साथ अनेक व्यक्तियों का सहयोग संगठित करना चाहिये। जिसके मिथुन जितने अधिक हैं, वह उतना ही सुखी है। 
इस शक्ति और शक्तिमान् के रहस्य को जानकर मैत्रेय सन्तुष्ट हुए।

 उन्होंने कहा—मैं आपका शिष्य, अब ज्ञान की वास्तविक जानकारी से परिपूर्ण हो गया हूं। अब मैं जान गया कि मेरा जो शिष्य इस योनि और मिथुन के रहस्य को जान लेगा वह अल्पायु न होगा। वह शक्ति को अपना अविच्छिन्न अंग मानकर उसका दुरुपयोग न करेगा; वरन् सदुपयोग द्वारा सब प्रकार का लाभ उठायेगा। इस प्रकार शक्ति का रहस्य समझकर उसका सदुपयोग करने वाले अल्पायु कदापि नहीं हो सकते। 
ब्रह्म हेदं श्रियं प्रतिष्ठामायतनमैक्षत तत्तपस्व यदि तद्व्रते ध्रियेत तत् सत्ये प्रत्यतिष्ठत् । 
‘‘ब्रह्म ने श्री, प्रतिष्ठा आयतन को देखा और कहा कि—तप करो। यदि तप के व्रत को धारण किया जाए, तो सत्य में प्रतिष्ठा होती हैं।’’ 
स सविता सावित्र्या ब्राह्मण सृष्ट्वा तत्सावित्री पर्य्यदधात् । 
उस सविता ने सावित्री से ब्राह्मण की सृष्टि की तथा सावित्री को उससे घेर लिया। 

तत्सवितुर्वरेण्यं इति सावित्र्याः प्रथमः पादः । 

‘तत्सवितुर्वरेण्यं’ यह सावित्री का प्रथम पाद है। 
पृथिव्यर्चं समधात् । ऋचा अग्निम् । अग्निना श्रियम् । श्रिया स्त्रियम् । स्त्रिया मिथुनम् । मिथुनेन प्रजाम् । प्रजया कर्म । कर्मणा तपः । तपसा सत्यम् । सत्येन ब्रह्म । ब्रह्मणा ब्राह्मणम् । ब्राह्मणेन व्रतम् । व्रतेन वै ब्राह्मणः संशितो भवति । अशुन्यो भवति, अविच्छिन्नो भवति । 

पृथ्वी से ऋक् को जोड़ा युक्त किया। ऋक् से अग्नि को, अग्नि से श्री को, श्री से स्त्री को, स्त्री से मिथुन को, मिथुन से प्रजा को, प्रजा से कर्म को, कर्म से तप को, तप से सत्य को, सत्य से ब्रह्म को, ब्रह्म से ब्राह्मण को, ब्राह्मण से व्रत को। ब्राह्मण व्रत से ही तीक्ष्ण होता है, पूर्ण होता है और अविच्छिन्न होता है। 

अविच्छिन्नोऽस्य तन्तुरविच्छिन्नं जीवनं भवतीति, य एवं वेद यश्चैवं विद्वानेवमेतं सावित्र्याः प्रथमं पादं स्याचष्टे । 

‘‘जो इस प्रकार से इसे जानता है और जानकर जो विद्वान् इसकी इस प्रकार व्याख्या करता है वह, उसका वंश तथा उसका जीवन अविच्छिन्न होता है।’’ 
ब्रह्म जब तक अपने आप में केन्द्रित था, तब तक कोई पदार्थ न था। जब उसने ‘‘एकोऽहं बहुस्याम्’’ की इच्छा की, एक से बहुत बनने का उपक्रम किया तो उस इच्छा शक्ति के कारण सृष्टि उत्पन्न हुई। 
जब ब्रह्मा ने उस सृष्टि का साक्षात्कार किया, उसमें तीन वस्तुयें प्रधान दिखाई दीं—(1) श्री, (2) प्रतिष्ठा, (3) आयतन अर्थात् ज्ञान। इन विलक्षण सुख सामग्रियों को किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है? इस रहस्य का उद्घाटन करते हुए ब्रह्म ने कहा—तप करो, अर्थात् तन्मयतापूर्वक श्रम करो। यह किस प्रकार संभव है? तप से अभीष्ट वस्तुयें किस प्रकार प्राप्त हो सकती हैं? उसका भी ब्रह्म ने बड़े सुन्दर ढंग से स्पष्टीकरण कर दिया। यदि तप का व्रत धारण किया जाय, तप को रुचिपूर्वक श्रमशीलता को अपना स्वभाव बना लिया जाए, तो मनुष्य अवश्य ही सत्य में प्रतिष्ठित हो जाता है और अवश्य ही सही मार्ग मिल जाता है। उस मार्ग पर चलता हुआ प्राणी अभीष्ट को प्राप्त कर लेता है। 

अब इस श्री, प्रतिष्ठा और ज्ञान का अधिकारी कौन नियुक्त किया जाय? इस विलक्षण सुख-साधना का अधिकारी हर कोई नहीं हो सकता। सविता ने—परमात्मा ने अपनी सत् शक्ति से ब्राह्मण को बनाया और उसको सावित्री से घेर दिया। जिसमें सत् तत्त्व विशेष है, जो ब्रह्म परायण है, वह व्यक्ति ब्राह्मण है। ऐसे व्यक्ति ईश्वरीय दिव्य भावों से, दिव्य शक्ति से घिरे रहते हैं, उन्हें श्री, प्रतिष्ठा और ज्ञान की प्राप्ति होती है, वे ही उनका सदुपयोग करके लाभान्वित होते हैं। अन्यों को इन तीनों का अधिकार नहीं है। यदि बलात्, अनधिकृत रूप से कोई इन्हें प्राप्त कर लेता है, तो उसके लिये ये वस्तुयें विपत्ति रूप बन जाती हैं। 
आसुरी भावनाओं से आच्छादित मनुष्य तपस्वी नहीं होते, जो उचित मार्ग से तप द्वारा ईमानदारी से इन वस्तुओं को प्राप्त करें। वे अवैधानिक रूप से, अनुचित मार्ग से, चालाकी से इन्हें प्राप्त करते हैं। ऐसी दशा में वह श्री, प्रतिष्ठा और ज्ञान उनके खुद के लिये तथा अन्य लोगों के लिये विपत्ति का कारण बनते हैं। आज हम देखते हैं कि धनी लोग, धन संग्रह के लिये कैसे-कैसे अनुचित तरीके अपनाते हैं और फिर उस संचित धन को कैसे अनुचित मार्ग में खर्च करते हैं। अपनी प्रतिष्ठा का दुरुपयोग करने वाले नेता, महात्मा, साधु-संन्यासी आदि की संख्या कम नहीं है। लोग औंधे-सीधे मार्ग से, नामवरी और वाहवाही लूटने के लिये प्रयत्न करते हैं। ज्ञान का दुरुपयोग करने वालों की भी कमी नहीं है। अश्लील, कुरुचिपूर्ण पुस्तकें लिखने वाले लेखक, चित्रकार कम नहीं हैं। झूठी विज्ञापनबाजी करके अपनी ज्ञान शक्ति का दुरुपयोग करने वालों की संख्या पर्याप्त है। ऐसे असत् प्रकृति के लोगों को जब यह तीन शक्तियां मिल जाती हैं, तो वे उनका दुरुपयोग करते हैं। दुरुपयोग का निश्चित परिणाम उसका छिन जाना है। प्रकृति का नियम है कि वह अयोग्य हाथों में किसी वस्तु को अधिक समय नहीं रहने देती है। 
जो ब्राह्मण हैं, ब्रह्म प्रकृति के हैं, ब्रह्म ने उन्हें उपर्युक्त तीन लाभों का स्थायी अधिकारी बताया है। यही ईश्वरीय नियम है। जिन्हें स्थायी रूप से श्री, प्रतिष्ठा और ज्ञान का अधिकारी बनना हो, सदा के लिये इनका रसास्वादन करना हो, उन्हें ब्राह्मण बनना चाहिये। अपने गुण, कर्म, स्वभाव में ब्राह्मी भावों की प्रधानता रखनी चाहिये। तभी ये तीन तत्त्व स्थायी रूप से उसके पास ठहरेंगे। सविता ने—परमात्मा ने अपनी सावित्री से सत् शक्ति से, ब्राह्मण को वर दिया है। हमें तप द्वारा, योग द्वारा, यज्ञ द्वारा, प्रेम द्वारा, न्याय द्वारा ब्राह्मण बनने का प्रयत्न करना चाहिये, जिससे संसार के इन तीन दिव्य सुखों के अधिकारी बन सकें। 
ब्राह्मण के पास-सन्मार्गगामी के पास, वैभव किस प्रकार पहुंचता और ठहरता है, इसका विवेचन करते हुए उपनिषद्कार ने परस्पर सम्बन्धों को गिनाया है कि वह परस्पर सम्बन्ध की श्रृंखला किस प्रकार सम्पन्नता को प्राप्त कराने में समर्थ होती है? 

गायत्री के प्रथम पाद ‘‘तत्सवितुर्वरेण्यं’’ का भूः प्रतिनिधि कहा गया है। तीन व्याहृतियों से—भूः भुवः स्वः से गायत्री के तीन पद आविर्भूत हुए हैं।
भूः कहते हैं—पृथ्वी लोक को। पृथ्वी को पृथ्वी के निवासियों से, ऋक् को ज्ञान से सम्बद्ध किया, ज्ञान से अग्नि अर्थात् क्रिया को सम्बद्ध किया, अग्नि से श्री को अर्थात् क्रिया से वैभव को जोड़ दिया। वैभव को स्त्री से अर्थात् तृप्ति से जोड़ा। तृप्ति से मिथुन अर्थात् जोड़ा बना, मैत्री हुई, मैत्री से प्रजा अर्थात् बहुजन सम्बन्ध स्थापित हुआ, बहुजन सहयोग से कर्म हुए, सत्कर्मों से तप के लिये साहस बढ़ा। तप से सत्य मार्ग मिला, सत्य मार्ग से ब्रह्म प्राप्ति हुई, ब्रह्म प्राप्ति करने वाला ब्राह्मण कहलाया। ब्राह्मण ने व्रत को अपनाया, आदर्शवादी आचरण की प्रतिज्ञा की। इस प्रकार जिसका जीवन आदर्शवादी आचरण की प्रतिज्ञा से ओत-प्रोत है, वह ब्राह्मण सुतीक्ष्ण, परिपूर्ण और अखण्डित होता है। उसकी तीक्ष्णता में, क्रियाशीलता में, पूर्णता में कुछ भी कमी नहीं होती, उसे कोई खण्डित नहीं कर सकता। 
जो इस प्रकार का ज्ञान रखता है, जो इस प्रकार गायत्री की व्याख्या करता है, उसका जीवन और वंश अविच्छिन्न रहता है। गायत्री के प्रथम पाद का शब्दार्थ तो बहुत साधारण है। उसे समझने मात्र से उतना लाभ नहीं मिल सकता, जितना कि मिलना चाहिये। ब्रह्म ने श्री, प्रतिष्ठा और ज्ञान रूपी तीनों रत्नों का जिसे अधिकारी बनाया है उसे गायत्री से घेर दिया है। इसका तात्पर्य यह है कि गायत्री की मर्यादा के भीतर जिन्होंने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया है—वे ही भौतिक और आत्मिक आनन्दों को प्राप्त करेंगे। जिनकी जठराग्नि तीव्र है, उनके लिये साधारण श्रेणी के पदार्थ भी रुचिकर और पुष्टिकर होते हैं और जिनकी जठराग्नि मन्द है, उनके लिए बढ़िया मोहन-भोग भी रोग उत्पन्न करते हैं। गायत्री से आच्छादित ब्रह्मकर्मा मनुष्य की आत्मिक जठराग्नि ऐसी तीव्र होती है कि वह थोड़ी मात्रा में प्राप्त हुए पदार्थों से भी पर्याप्त रसास्वादन कर सकता है। 
जो यह जानता है कि गायत्री के प्रथम पाद का वास्तविक उद्देश्य मानव जीवन को आदर्शवाद की प्रतिज्ञा से ओत-प्रोत बनाना है, वही उनका वास्तविक तात्पर्य जानता है। जो इस ज्ञान को व्यवहार में लाता है, अर्थात् अपने को वैसा ही बनाता है, उसका जीवन अविच्छिन्न होता है, अर्थात् जीवन भर पथ भ्रष्ट नहीं होता और उसका वंश भी नष्ट नहीं होता। पीछे भी जन्म-जन्मान्तरों तक वह भावना नष्ट नहीं होती, इस अविच्छिन्नता के कारण उसे श्री, प्रतिष्ठा और ज्ञान का भी अभाव नहीं होता। 

भर्गो देवस्य धीमहि इति सावित्र्या द्वितीयः पादः । 
भर्गो देवस्य धीमहि - यह सावित्री का दूसरा पाद है। 

अन्तरिक्षेण यजुः समदधात् , यजुधा वायुम्, वायुना अभ्रम् । अभ्रेण वर्षम्, वर्षेणौषधिवनस्पतीन्, ओषधि-वनस्पतिभिः पशून्, पशुभिः कर्म, कर्मणा तपः, तपसा सत्यम्, सत्येन ब्रह्म , ब्रह्मणा ब्राह्मणम् , ब्राह्मणेन व्रतं , व्रतेन वै ब्राह्मणः संशितो भवति अशून्यो भवत्यविच्छिन्नो भवति। 
‘‘अन्तरिक्ष से यजुष् को युक्त करता है, यजुर्वेद से वायु को, वायु से मेघ को, मेघ से वर्षा को, वर्षा से औषधि-वनस्पतियों को, औषधि वनस्पतियों से पशुओं को, पशुओं से कर्म को, कर्म से तप को, तप से सत्य को, सत्य से ब्रह्म को, ब्रह्म से ब्राह्मण को, ब्राह्मण से व्रत को तथा व्रत से ब्राह्मण तीक्ष्ण, पूर्ण और अविच्छिन्न होता है।’’ 

अविच्छिन्नोऽस्थ तन्तुरविच्छिन्नं जीवनं भवति, य एवं वेद यश्चैवं विद्वानेवमेतं सावित्र्या द्वितीयं पादं व्याचष्टे । 

‘‘जो विद्वान् इस प्रकार जानकर सावित्री के द्वितीय पाद की व्याख्या करते हैं, उनका वंश तथा जीवन अविच्छिन्न होता है।’’ 
पिछली कण्डिका में भूः से ऋक् को सम्बन्धित करके प्रथम पाद का रहस्य समझाया था। इस कण्डिका में गायत्री के दूसरे पद का विवेचन करते हैं। भुवः से (अन्तरिक्ष से) यजुः का सम्बन्ध किया है। यजुः कहते हैं यज्ञ को। यज्ञ कहते हैं, परमार्थ को। पहली कण्डिका में ज्ञान द्वारा आदर्श जीवन की प्राप्ति का उपाय बतलाया था। यहां यज्ञ द्वारा व्रतमय जीवन होने की श्रृंखला का वर्णन करते हैं। 
भुवः से अन्तरिक्ष में यजुः को संयुक्त किया, यजुः से वायु को, वायु से मेघ को, मेघ से वर्षा को, वर्षा से औषधि और वनस्पतियों को, वनस्पतियों से पशुओं को सम्बद्ध किया। गीता में भी यज्ञ विधान का ऐसा ही वर्णन है। यज्ञ से वायु शुद्ध होगी, वायु के सम्पर्क से गुणदायक जल बरसता है। उससे वृक्ष, वनस्पतियां और पशु श्रेष्ठ तत्त्वों वाले होते हैं, उनका उपयोग करने से मनुष्य का मन श्रेष्ठ बनता है और श्रेष्ठ मन से श्रेष्ठ कर्म होते हैं। 
कर्म से मन को, मन से सत्य को, सत्य से ब्रह्म को, ब्रह्म से ब्राह्मण को और ब्राह्मण को व्रत से सम्बद्ध किया। अन्ततः यही क्रम आ गया। व्रत धारण करने से ब्राह्मण सुतीक्ष्ण, परिपूर्ण एवं अविच्छिन्न वंश वाला होता है। 
जो ज्ञान से प्राप्त होता है, वही प्रकारान्तर से यज्ञ द्वारा, श्रेष्ठ कर्मों द्वारा भी प्राप्त हो सकता है। उच्च अन्तःकरण से निकली हुई सद्भावनायें समस्त आकाश को, वातावरण को सत्मय बना देती हैं और उस वातावरण में पलने वाले सभी पदार्थ सत् से परिपूर्ण होते हैं। जिस वातावरण के कारण मनुष्य व्रत परायण, व्रतवान् होकर अविच्छिन्न जीवन वाला हो जाता है, वही इस दूसरी कण्डिका का तात्पर्य है। 
धियो यो नः प्रचोदयादिति सावित्र्यास्तृतीयः पादः । 

धियो योनः प्रचोदयात् - यह सावित्री का तीसरा पाद है। 

दिवा साम समदधात् साम्नाऽऽदित्यम् । आदित्येन रश्मीन् रश्मिभिर्वर्षम्, वर्षेणौषधिवनस्पतीन्, ओषधि—वनस्पतिभिः पशून्, पशुभिः कर्म, कर्मणा तपः, तपसा सत्यम् सत्येन ब्रह्म, ब्रह्मणा ब्राह्मणम् , ब्राह्मणेन व्रतम्, व्रतेन वै ब्राह्मणः संशितो भवत्यशून्यो भवत्यविच्छिन्नो भवति । अविच्छिन्नोऽस्य तन्तुरविच्छिन्नं जीवनं भवति य एवं वेद, यश्चैवं विद्वानेवमेतं सावित्र्यास्तृतीयं पादं व्याचष्टे । 

द्युलोक से साम को उत्पन्न करता है, साम से आदित्य को, आदित्य से रश्मियों को, रश्मियों से वर्षा को, वर्षा से औषधि-वनस्पतियों को, औषधि-वनस्पतियों से पशुओं को, पशुओं से कर्म को, कर्म से तप को, तप से सत्य को, सत्य से ब्रह्म को, ब्रह्म से ब्राह्मण को, ब्राह्मण से व्रत को। व्रत से ब्राह्मण तीक्ष्ण, पूर्ण और अविच्छिन्न वंश होता है। जो विद्वान् यह जानकर सावित्री के तृतीय पाद की व्याख्या करते हैं, वे अपने वंश एवं जीवन को अविच्छिन्न बनाते हैं। 
गायत्री का तीसरा पद ‘स्वः’ से आविर्भूत हुआ। ‘स्वः’ कहते हैं द्युलोक को। द्युलोक सामवेद से संयुक्त किया गया है। साम से आदित्य, आदित्य से रश्मियां, रश्मियों से वर्षा, वर्षा से औषधि-वनस्पति, उनसे पशुओं का सम्बन्ध है। इनका प्रयोग करने से पूर्व कण्डिकाओं में वर्णित प्रकार से मनुष्य ब्रह्मचारी, व्रतधारी बनकर अविच्छिन्न जीवन और वंश वाला बन जाता है। 
गायत्री के तीन पादों में वह विज्ञान सन्निहित है, जिसके द्वारा मनुष्य को श्री, प्रतिष्ठा और ज्ञान की उपलब्धि होती है। तीन पाद वेदों से बने हैं। प्रत्येक पाद एक-एक लोकों का प्रतीक है। इन तीन लोकों से यह तीनों वेदों के मन्त्र आवश्यक सामग्री को खींचकर लाते हैं और गायत्री साधक को सब प्रकार से सुखी बना लेते हैं। इसके व्यक्तिगत लाभ ही नहीं, वरन् सामूहिक लाभ भी हैं। जैसे यज्ञ करने से वायु की शुद्धि, उत्तम वर्षा और उससे गुणकारी वनस्पति तथा दूध की उत्पत्ति होती है। वैसे ही गायत्री द्वार भी वह प्रक्रिया होती है। 
ये सम्बद्ध श्रृंखलायें, अपने में एक बड़ा भारी पदार्थ-विज्ञान सम्बन्धी रहस्य छिपाये बैठी हैं। एक पदार्थ से दूसरे का सम्बन्ध किस प्रकार का है इसकी थोड़ी-सी विवेचना हमने आध्यात्मिक शैली से की है, परन्तु इसमें और भी विशद रहस्य मौजूद है, जिसके कारण गायत्री का साधक उन तीनों लाभों से—श्री, प्रतिष्ठा एवं ज्ञान से पर्याप्त मात्रा में लाभान्वित होता है और अन्त में ईश्वर की प्राप्ति करके अविच्छिन्न जीवन को प्राप्त करता है अर्थात् अमर हो जाता है, उसे जरा, मृत्यु के बन्धन में नहीं बंधना पड़ता। ऐसा है—इस त्रिपदा गायत्री का रहस्य। 
तेन ह वा एवं विदुषा ब्राह्मणेन ब्रह्माभिपन्नं ग्रसितं परामृष्टम् । 

सावित्री के तीन पाद जानने वाला ब्राह्मण, ब्रह्म प्राप्त (APPROCHED), ग्रसित (DIGESTED) और परामृष्ट (REALISWS) होता है। 
ब्रह्मणा आकाशमभिपन्नं, ग्रसितं परामृष्टम्, आकाशेन वायुरभिपन्नो ग्रसितः परामृष्टो, वायुना ज्योतिरभिपन्नं ग्रसितं परामृष्टम् । ज्योतिषापोऽभिपन्ना ग्रसिताः परामृष्टाः । अद्भिर्भूमिरभिपन्ना ग्रसिता परामृष्टा, भूम्यान्नमभिपन्नं ग्रसितं परामृष्टम् । अन्नेन प्राणोऽभिपन्नो ग्रसितः परामृष्टः । प्राणेन मनोऽभिपन्नं ग्रसितं परामृष्टम् । मनसा वागभिपन्ना ग्रसिता परामृष्टा । वाचा वेदा अभिपन्ना ग्रसिताः परामृष्टाः । वेदैर्यज्ञोऽभिपन्नो ग्रसितः परामृष्टः । तानि ह वा एतानि द्वादश महाभूतान्येवं विधि प्रतिष्ठितानि तेषां यज्ञ एव परार्ध्य । 
‘‘ब्रह्म से आकाश प्राप्त, ग्रसित एवं परामृष्ट है। आकाश से वायु प्राप्त, ग्रसित तथा परामृष्ट है। वायु से ज्योति अभिपन्न, ग्रसित और परामृष्ट है। ज्योति से जल प्राप्त, ग्रसित और परामृष्ट है। जल से पृथ्वी प्राप्त, ग्रसित और परामृष्ट है। भूमि से अन्न अभिपन्न, ग्रसित और परामृष्ट हैं। अन्न से प्राण अभिपन्न, ग्रसित तथा परामृष्ट है। प्राण से मन अभिपन्न, ग्रसित तथा परामृष्ट है। मन से वाक् अभिपन्न, ग्रसित तथा परामृष्ट है। वाक् से वेद अभिपन्न, ग्रसित एवं परामृष्ट है। वेद से यज्ञ प्राप्त, ग्रसित एवं परामृष्ट है। इस प्रकार का ज्ञान रखने वालों में ये बारह महाभूत प्रतिष्ठित रहते हैं। इसमें यज्ञ ही सर्वश्रेष्ठ है।’’ 
पिछली तीन कण्डिकाओं में वर्णित गायत्री के तीन पादों के रहस्यों को जो भली प्रकार जानता है, उस ब्राह्मण से ब्रह्म प्राप्त, ग्रसित और परामृष्ट होता है अर्थात् वह ब्राह्मण ब्रह्म को प्राप्त करता है, प्राप्त करके उसे अपने में पचाता है और उससे परामृष्ट—आच्छादित होता है। उसके भीतर—बाहर सब ओर ब्रह्म की सत्ता काम करती है। 
अब 12 ऐसी कड़ियां बतायी जाती हैं, जिन पर विचार करने से यह प्रकट हो जाता है कि पंचभूत, अन्तःकरण चतुष्टय, वेद और यज्ञ सब का मूल केवल ब्रह्म है। ब्रह्म से ही एक कड़ी के बाद दूसरी कड़ी की तरह यह सब जुड़े हुए हैं, उसी से ओत-प्रोत हैं। 
बताया गया है कि ब्रह्म से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथ्वी, पृथ्वी से अन्न, अन्न से प्राण, प्राण से मन, मन से वाक्, वाक् से वेद और वेद से यज्ञ प्राप्त होता है, ग्रसित किया जाता है, आच्छादित होता है। 
ब्रह्म, प्रत्यक्ष रूप से आंखों से दिखाई नहीं पड़ता। स्वल्प ज्ञान वाले मनुष्य समझते हैं कि पंचभूतों का यह पुतला ही सब कुछ करता है। उन्हें यह बताया गया है कि पंचभूत और तुम्हारे अन्दर काम करने वाली मन, बुद्धि आदि की चैतन्यता ब्रह्म से पृथक् नहीं है वरन् उसी से आच्छादित है। यदि ब्रह्म का आच्छादन इन पर न हो, तो इनकी क्रियाशीलता समाप्त हो जाए और कोई तत्त्व कुछ भी काम करने में समर्थ न हो सके। 
जो प्रकृति में, पंचभूतों में, शरीर में ब्रह्म को, परमात्मा को समाया हुआ देखता है, वह ब्राह्मण कहलाता है। वह वेद और यज्ञ से घिरा होता है अर्थात् सद्ज्ञान और सत्कर्म उसके कण-कण में व्याप्त होते हैं। इन सब ज्ञानों में यज्ञ ही, सत्कर्म ही सर्वोत्तम है, क्योंकि इस ज्ञान का तात्पर्य ही यह है कि मनुष्य सत्कर्म में लगे। जिसे यह सब रहस्य मालूम है, उसमें सब भूत प्रतिष्ठित रहते हैं अर्थात् समस्त सृष्टि-विस्तार को वह अपने भीतर ही समझता है। 
तं ह स्मैतमेवं विद्वांसो मन्यन्ते विद्मैनमिति याथातथ्यमविद्वांसः । 
जो विद्वान् यह समझ लेते हैं कि हम इस यज्ञ के जानकार हो गये हैं, वे ही इसे नहीं जानते। 

अयं यज्ञो वेदेषु प्रतिष्ठितः । वेदा वाचि प्रतिष्ठिताः । 
वाङ् मनसि प्रतिष्ठिता । मनः प्राणे प्रतिष्ठितम् । 
प्राणोऽन्ने प्रतिष्ठितः । अन्नं भूमौ प्रतिष्ठितम् । 
भूमिरप्सु प्रतिष्ठिता । आपो ज्योतिषि प्रतिष्ठिता । 
ज्योतिर्वायौ प्रतिष्ठितम् । वायुराकाशे प्रतिष्ठितः । 
आकाशं ब्रह्मणि प्रतिष्ठितम् । ब्रह्म ब्राह्मणे ब्रह्मविदि प्रतिष्ठितम् । 
यो ह वा एवं-वित् स ब्रह्मवित्पुण्यां च कीर्ति लभते सुरभींश्च गन्धान् । सोऽपहतपाप्पानन्तां श्रियमश्नुते य एवं वेद, यश्चैवं विद्वानेवमेतां वेदानां मातरं सावित्री—सम्पदमुपनिषदमुपास्त इति ब्राह्मणम् ।। 
—गो. 1/38
 
यह यज्ञ वेद से प्रतिष्ठित है। वेद वाक् में प्रतिष्ठित है। वाक् मन में प्रतिष्ठित है। मन प्राण में प्रतिष्ठित है। प्राण अन्न में प्रतिष्ठित है। अन्न भूमि में प्रतिष्ठित है। भूमि जल में प्रतिष्ठित है। जल तेज पर प्रतिष्ठित है। आकाश ब्रह्म पर प्रतिष्ठित है। ब्रह्म ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण पर प्रतिष्ठित है। इस प्रकार जानने वाला ब्रह्मज्ञानी पुण्य एवं कीर्ति को प्राप्त करता है तथा सुरभित गन्धों को पाता है। वह व्यक्ति पापहीन होकर अनन्त ऐश्वर्य को प्राप्त होता है। 
पिछली कण्डिका में यज्ञ को सर्वोत्तम बताया है, परन्तु यह ध्यान रखना चाहिये कि जो यह कहते हैं कि हम यज्ञ को जानते हैं, वे उसे नहीं जानते। कारण यह है कि दूसरे आदमी किसी कार्य के बाह्यरूप को देखकर ही उनके भले-बुरे होने का अनुमान लगाते हैं, परन्तु यथार्थ में काम के बाहरी रूप से यज्ञ का कोई सम्बन्ध नहीं, वह तो आन्तरिक भावना पर निर्भर होता है। यह हो सकता है कि कोई व्यक्ति बड़े-बड़े दान, पुण्य, होम, अग्निहोत्र, ब्रह्म-भोज, तीर्थयात्रा आदि करता हो, पर उसमें उसका उद्देश्य यश लूटना या कोई और लाभ उठाना हो। इसी प्रकार डॉक्टर के आपरेशन करने के समान ऐसे कार्य भी हो सकते हैं, जो देखने में पाप प्रतीत होते हैं, परन्तु कर्त्ता की सद्भावना के कारण वे श्रेष्ठ कर्म हों। इसलिये कौन आदमी यज्ञ कर रहा है या नहीं, इसका निर्णय उन व्यक्तियों की अंतरात्मा ही कर सकती है। बाहर के आदमी के लिये बहुत अंशों में उसका जानना सम्भव होने पर भी पूर्ण रूप से शक्य नहीं है। 
पिछली कण्डिका में जिन बारह कड़ियों को एक ओर से गिनाया था, इस कण्डिका में उन्हें दूसरी ओर से गिनाया गया है अर्थात् क्रम उल्टा कर दिया— 
यह यज्ञ वेदों में, वाक् मन में, मन प्राण में, प्राण अन्न में, अन्न भूमि में, भूमि जल में, जल तेज में, तेज वायु में, वायु आकाश में, आकाश ब्रह्म में और ब्रह्म ब्राह्मण में प्रतिष्ठित है। इस प्रकार इस श्रृंखला का एक सिरा ब्राह्मण है, तो दूसरा यज्ञ। एक सिरा यज्ञ है, तो दूसरा ब्राह्मण। दूसरी तरह से इसी को यों कह लीजिये कि जो सद्ज्ञान और सत्कर्म से ओत-प्रोत है, वहीं ब्राह्मण है। 
जो इस प्रकार से जानता है, जो ब्रह्मज्ञानी है, वह सुगन्ध की तरह उड़ने वाली पुण्यमयी कीर्ति को प्राप्त करता है। वह निष्पाप हो जाने से अनन्त ऐश्वर्यों को भोगता है। वह ज्ञान का उपासक बनकर, इस वेदमाता गायत्री के उपनिषद् का उपासक बनता है अर्थात् इस उपनिषद् में वर्णित महान् ब्रह्मज्ञान को अपने अन्तःकरण में धारण करके उससे अपना जीवन ओत-प्रोत बनाता है। ऐसा व्यक्ति ही ब्राह्मण है, ऐसा शास्त्रों का अभिवचन है। 

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