गायत्री महाविज्ञान भाग 2

गायत्री रामायण

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यह प्रसिद्ध है कि वाल्मीकि रामायण की रचना का मूल आधार गायत्री मन्त्र है। गायत्री मन्त्र की व्याख्या के रूप में इस महान् ग्रन्थ की रचना हुई है। 
वाल्मीकि रामायण में 24 हजार श्लोक हैं। एक-एक अक्षर की व्याख्या स्वरूप एक-एक हजार श्लोक रचे हैं अथवा यों कहा जा सकता है कि एक-एक हजार श्लोकों के ऊपर गायत्री के एक-एक अक्षर का सम्पुट दिया गया है। 
आजकल वाल्मीकि रामायण के जो संस्करण मिलते हैं, उनमें श्लोकों की संख्या समान नहीं है और उनमें काफी अन्तर पाया जाता है। इससे प्रतीत होता है कि बीच के अन्धकार युग में, यवन काल में कितने ही श्लोक नष्ट-भ्रष्ट हो गये होंगे। अन्य ग्रन्थों की भांति साम्प्रदायिक उतार-चढ़ाव के जोश में सम्भव है, वाल्मीकि रामायण में भी कुछ श्लोक जोड़े गये हों या निकाले गये हों। रामचन्द्रजी द्वारा मांस का प्रयोग होना ऐसी ही निषिद्ध बात है, जो किसी ने पीछे से जोड़ दी मालूम होती है, अन्यथा विश्वास नहीं होता कि भगवान् रामचन्द्र जब कि वनवास में यती बनकर रह रहे थे, लक्ष्मण से मांस पकवाते और फिर सीता-लक्ष्मण समेत उसे खाते। 
इस प्रकार की गड़बड़ी में श्लोक संख्या का क्रम भी बिगड़ गया है। प्रति एक हजार श्लोकों के बाद गायत्री के एक अक्षर का सम्पुट देकर महर्षि वाल्मीकि ने अपने ग्रन्थ में मिलावट रोकना चाहा था, पर न हो सका। आज हमें अव्यवस्थित क्रमों वाली पुस्तकें ही प्राप्त होती हैं। हिसाब लगाकर देखा गया, तो कहीं-कहीं तो केवल 4-6 श्लोकों का ही आगा-पीछा है, पर कहीं यह अन्तर सैकड़ों तक पहुंचा है। 
इतना होने पर भी प्रति सहस्र पर गायत्री का एक अक्षर होने के इस क्रम को आकस्मिक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अन्य किसी मन्त्र का ऐसा सम्पुट प्राप्त नहीं होता। अनजान में ऐसा सम्पुट नहीं लग सकता। महर्षि वाल्मीकि ने इसे बहुत समझकर लगाया है। 
इस गायत्री सम्पुट के न जाने कितने रहस्य और कारण होंगे। उन सबका जानना तो आज कठिन है, परन्तु उन सम्पुट वाले श्लोकों पर दृष्टिपात किया जाए, तो वे बड़े महत्त्वपूर्ण प्रतीत होते हैं। वैसे उनमें अधिकांश श्लोक घटनात्मक हैं। किसी घटना या वार्तालाप का ही परिचय मिलता दीखता है, तो भी गम्भीर दृष्टि डाली जाए, तो प्रतीत होता है कि उसमें संकेत रूप से एक बड़ी महत्त्वपूर्ण शिक्षा भरी हुई है जिस शिक्षा पर ठीक प्रकार से अमल किया जाए, तो मनुष्य का जीवन असाधारण विशेषताओं से परिपूर्ण हो सकता है। 

इन 24 अक्षरों के आरम्भ वाले 24 श्लोकों को ‘गायत्री रामायण’ कहा जाता है। इन श्लोकों के गर्भ में संकेत रूप में छिपे हुए मर्मों को समझकर, उन्हें हृदयंगम करने वाला मनुष्य, सम्पूर्ण वाल्मीकि रामायण के लाभ प्राप्त कर सकता है। आगे उन गायत्री के 24 अक्षरों से आरंभ होने वाले श्लोकों की विवेचना करते हैं। 

1—तपः स्वाध्याय निरतं तपस्वी वाग्विदां वरम् । 
नारदं परिपप्रच्छ वाल्मीकिर्मुनिपुंगवम् ।। 
—वा. रा. बालकाण्ड 1/1 

अर्थ—तप और स्वाध्याय करने वाले सर्व प्रधान और मुनियों में श्रेष्ठ नारदजी से तपस्वी वाल्मीकि ने पूछा—इस श्लोक में दो पहेलियों पर प्रकाश डाला गया है। नारदजी को दो पदवी दी हैं और उन पदवियों का कारण भी बताया है। नारद जी को सर्वप्रधान विद्वान् और मुनियों में श्रेष्ठ कहा है। सर्वप्रधान विद्वान् उन्हें क्यों कहा गया है? क्यों नारद जी ने व्यास की तरह अठारह पुराण लिखे थे या उन्होंने कोई और ऐसी विशेषता दिखाई थी, जो अन्य विद्वानों में नहीं होती? यदि ऐसा नहीं है, तो उन्हें सर्वश्रेष्ठ विद्वान् क्यों कहा गया? या फिर वाल्मीकि जी झूठे थे, जिन्होंने नारदजी की अत्युक्तिपूर्ण प्रशंसा की? 
इसी श्लोक में वह कारण भी स्पष्ट कर दिया है, जिसके कारण उन्हें सर्वश्रेष्ठ विद्वान् बताया गया है। वह कारण है—शास्त्र का चिंतन। पोथी पढ़ने वाले ‘पड्ढू’ तो एक से एक बढ़िया पड़े हैं, जिनकी जिन्दगियां पोथी पढ़ने में बीत गयीं। हजारों-लाखों पुस्तकें जिनमें पढ़ डालीं, क्या ऐसे लोगों को सर्वश्रेष्ठ विद्वान् कह दिया जाए? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। पोथी पढ़ने का व्यसन, किसी की जानकारी को तो बढ़ा सकता है, पर उससे कोई आत्मिक लाभ नहीं हो सकता। व्यक्ति भले ही शास्त्र को थोड़ा पढ़ता हो, पर उसका चिन्तन करता रहे। शास्त्र के अर्थ पर, आदेश पर, मर्म पर, महत्त्व पर गम्भीरता से मनन करना, अपनी आत्मा का अध्ययन करना, आत्म-मन्थन से जो नवनीत निकलता हो, उसे पचाकर आत्मसात् कर लेना यही स्वाध्याय का तथ्य है। जो इस प्रकार शास्त्र-सेवन करता है, वही विद्वानों में सर्वश्रेष्ठ है। इसलिये नारदजी को विद्वानों में सर्वश्रेष्ठ कहा। 
दूसरी पदवी उन्हें मुनियों में श्रेष्ठ की दी गयी, ऐसा क्यों हुआ? इसका उत्तर भी साथ ही मौजूद है, वह है ‘तप’। मनन करने वालों को मुनि कहते हैं। ऐसे अनेक हैं, जो सत् तत्त्व का मनन करते हैं, पर इतने मात्र से काम नहीं चलता। जिसमें आदर्श के लिये घोर प्रयत्न करने की लगन है और उस प्रयत्न के लिये बड़े से बड़ा कष्ट सहने का साहस है, वही तपस्वी, मुनियों में श्रेष्ठ है। नारद जी घड़ी भर चैन किये बिना अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिये यहां-वहां भ्रमण करते फिरते थे, लोक सेवा के लिये उन्होंने सारी जीवन ही उत्सर्ग कर रखा था। 
इस श्लोक में नारदजी को माध्यम बनाकर तप और स्वाध्याय की सर्वश्रेष्ठता वर्णन की है। गायत्री रामायण का पहला श्लोक हमें तपस्वी और स्वाध्यायशील होने का सदुपदेश देता है। 

2—स हत्वा राक्षसान् सर्वान् यज्ञघ्नान् रघुनन्दनः । 
ऋषिभिः पूजितस्तत्र यथेन्द्रो विजये पुरा ।। 
—वा. रा. बालकाण्ड 30/24
 
अर्थ—‘‘यज्ञ नष्ट करने वाले समस्त राक्षसों को रामचन्द्र जी ने मारा। ऋषियों ने उनकी इसी प्रकार पूजा की, जिस प्रकार पहले असुर-विजय करने पर इन्द्र की हुई थी।’’ 
इस दूसरे श्लोक में तीन तथ्य हैं
 (1) यज्ञ नष्ट करने वालों को राक्षस मानना
 (2) राक्षसों को मारना 
 (3) राक्षसों को मारने के लिये विवेकशीलों द्वारा प्रोत्साहित किया जाना। 
भले कामों में जो लोग बाधा अटकाते हैं, जनता की सुख-शान्ति में विघ्न उपस्थित करते हैं, पुण्य की प्रथा को रोक पाप की प्रणाली चलाते हैं। ऐसे लोक-कण्टक मनुष्य राक्षस हैं, जनता के शत्रु हैं ऐसे लोगों के प्रति घृणा के भाव जाग्रत् रखना आवश्यक है, अन्यथा वे हमारी उपेक्षा, लापरवाही तथा आंख चुराने की मनोवृत्ति देखकर निर्भय हो जायेंगे और दूने उत्साह से अपना काम करेंगे। इसलिये समाज-विरोधी, देश-द्रोही, लोक-कंटक लोगों पर हमारी तीव्र दृष्टि रहनी आवश्यक है। उनकी करतूतों से सावधान रहें, दूसरों को सावधान रखें और उनके विपक्ष में घृणा का वातावरण तैयार करते रहें, जिससे वे राक्षसी-वृत्तियों में निर्भय होकर बढ़ने से ठिठकें। 
ऐसे लोगों के लिये दूसरा उपाय है—उनका दमन। जहां व्यक्तिगत रूप से निपट लेने की अनिवार्य आवश्यकता है, वहां तो दूसरी बात है, पर अन्य असाधारण अवसरों पर राज्य द्वारा ऐसे लोगों को दण्ड दिलवाना चाहिये। विदेशी शासन चले जाने पर, अब सरकार ही जनता का प्रतिनिधित्व करती है। इसलिये दण्ड देने का कार्य जनता की सामूहिक दण्ड-शक्ति-सरकार द्वारा उन्हें कुचलवाना चाहिये। ऋषियों ने राक्षसों को स्वयं नहीं मारा था। विश्वामित्र जी, राम और लक्ष्मण राज-पुत्रों को लाये थे और उन्हें धनुष विद्या सिखाकर राक्षसों को मरवाया था। चाहते तो विश्वामित्र भी राक्षसों को मार सकते थे, पर प्रजा द्वारा, प्रजा को दण्ड दिया जाना उचित न समझकर उन्होंने इसके लिये राज्याश्रय को प्राप्त किया। हमें भी दुष्टों के दमन के लिये अपनी राज्य-शक्ति का ही प्रयोग करना चाहिये। 
तीसरी बात यह है—ऋषियों द्वारा राजशक्ति की पूजा। दुष्टों से लड़ने वाली शक्तियों के साथ हमारी पूरी-पूरी सहानुभूति होनी चाहिये। यह हो सकता है कि हमें किसी से, किसी कारणवश विरोध हो, कोई असन्तोष या द्वेष हो, पर जब राक्षसत्व के दमन का अवसर आए, तो उस विरोधी का भी पूरा-पूरा समर्थन और सहयोग करके असुरत्व को परास्त करना चाहिये। सैद्धान्तिक या व्यक्तिगत विरोध का ऐसे अवसरों पर जरा भी ध्यान नहीं करना चाहिये। वीर-पूजा की प्रथा प्राचीन है। इन्द्र आदि की भी पूजा उनके असुर-विजय के कारण होती है। विघ्नों से, कण्टकों से और असुरता के साथ जो लड़ते हैं, वे हमारी प्रशंसा, प्रोत्साहन एवं सहयोग के अधिकारी हैं। 
3—विश्वामित्र सरामस्तु श्रुत्वा जनक-भाषितम् । 
वत्स राम धनुः पश्य इति राघवमब्रवीत् ।। 
—वा. रा. बालकाण्ड 67/12
 
अर्थ—‘‘राम के साथ विश्वामित्र ने जनक की बातें सुनीं और रामचन्द्र से कहा—वत्स! धनुष को देखो।’’ 
‘‘इस कठिन काम को अनेक लोग पूरा नहीं कर सके, इसलिये यह मुझसे भी पूरा नहीं होगा।’’ इस प्रकार के अपडर से अनेकों सुयोग्य व्यक्ति अपनी प्रतिभा को कुण्ठित कर लेते हैं और हीनता की ग्रन्थि से ग्रथित हो जाते हैं, ऐसा होना उचित नहीं। कई बार ऐसा देखा गया है कि जो काम बड़े लोगों के लिये कठिन था, वह छोटों ने पूरा कर दिखाया। जनक का धनुष ‘‘भूप सहस दस एकहि बारा । लगे उठावन टरहि न टारा ।।’’ के अनुसार बड़ा भारी कार्य बना हुआ था। विश्वामित्र जानते थे कि वह झिझक राम को भी आ सकती है और उससे डर जायें, तो आधा काम विफल हो सकता है। इसलिये उन्होंने उत्साह प्रदान करते हुए कहा—वत्स राम! इस धनुष को देखो। 

जो कठिनाइयां हमारे सामने आती हैं, उनकी कल्पना बड़ी डरावनी होती है। ऐसा मालूम देता है कि वह विपत्ति न जाने हमारा क्या कर डालेगी, परन्तु जब मनुष्य साहस बांधकर उसका मुकाबला करने खड़ा हो जाता है, तो विघ्न ऐसे सरल हो जाते हैं जैसे कि राम के लिये धनुष सरल हो गया था। उर्दू की कहावत है, ‘‘हिम्मते मरदां मददे खुदा’’ जो साहस वाले मर्द होते हैं, उनकी ईश्वर सहायता करता है। कठिनाइयों को देखकर हमें झिझकना, डरना या घबराना नहीं चाहिये वरन् दृढ़तापूर्वक उनको हल करने के लिए अग्रसर होना चाहिये। यही इस श्लोक का तात्पर्य है। 
4—तुष्टावास्य तदा वंशं प्रविश्य स विशांपतेः । 
शयनीयं नरेन्द्रस्य तदासाद्य व्यतिष्ठत ।। 
—वा. रा. अयोध्याकाण्ड 15/19-2
 
अर्थ—‘‘राजा के शयनागार तक वे (सुमन्त) चले गये। वहां उनके वंश की प्रशंसा की।’’ 
प्रशंसा एक ऐसा उपाय है, जिसके द्वारा उस स्थान तक आसानी से पहुंचा जा सकता है, जहां पहुंचना साधारणतः कठिन होता है। राजा के शयनागार में हर किसी का प्रवेश नहीं होता, पर सुमन्त वहां भी पहुंच गये। उन्नहोंने उनके वंश की—अहंभाव के विचार की प्रशंसा की। 
अहंपोषण और काम-सेवन संसार के यह दो प्रमुख विलास हैं। मनःक्षेत्र का सबसे प्रिय विलास प्रशंसा है। अपनी प्रशंसा सुन कर सब कोई मोहित हो जाते हैं। सर्प और मृग संगीत की ध्वनि पर मुग्ध हो जाते हैं, मनुष्य के लिये सबसे मधुर संगीत उसकी आत्म प्रशंसा है। 
इस श्लोक में प्रशंसा के महत्व का वर्णन है। यह एक शस्त्र है, जिसके उपयोग द्वारा बुरे और भले दोनों प्रकार के परिणाम निकल सकते हैं। खुशामदी, चालाक, धूर्त, ठग लोग अनुचित प्रशंसा करके दूसरों के गर्व को फुलाते हैं, अपना उल्लू सीधा करते हैं। अनुचित प्रशंसा से फूलने वाले की आदत बिगड़ती है। उसे ऐसा भ्रम होता है, मानो मैं वैसा ही हूं। अपनी त्रुटियां दिखाई नहीं पड़तीं और अच्छाइयां अनुचित रूप से बढ़ी-चढ़ी दिखाई देती हैं, इससे उसका मस्तिष्क अज्ञानग्रस्त एवं भ्रान्त हो जाता है। फलस्वरूप उसके कार्य भी बेढंगे होते हैं। राजाओं, ताल्लुकेदारों, अमीरों, अफसरों आदि में इस प्रकार के खुशामद से उत्पन्न होने वाले अनेक विकार पाये जाते हैं। परन्तु यदि प्रशंसा का सदुपयोग किया जाए, उचित रीति से, किसी का उत्साह-वर्द्धन किया जाए, उसके वास्तविक गुणों को अच्छे रूप में सामने रखकर, उन्हें और अधिक बढ़ाने की शुभकामना की जाए, तो इससे उसका उत्साह और आत्मबल बढ़ता है, प्रशंसा की रक्षा के लिये वह बुराई से बचता है। सफेद कपड़े वाला मनुष्य बहुत संभल कर बैठता-उठता है, कपड़े मैले न हो जाएं इसका बहुत ध्यान रखता है, पर जो मैले कपड़े पहने है, उसे इस प्रकार का कोई संकोच नहीं होता। प्रशंसा स्वच्छ चादर है और निन्दा चिथड़ा। हमें अपने हर परिचित को सफेद कपड़े पहनाने चाहिये, जिससे वह लोक-जीवन में सावधानी और सुरुचि सीखे। 

5—वनवासं हि संख्याय वासांस्याभरणानि च । 
भर्तारमनुगच्छन्त्यै सीतायै श्वसुरो ददौ ।। 
—वा. रा. अयोध्याकाण्ड 40/14
 
अर्थ—‘‘वनवास के दिनों को गिनकर, पति के साथ जाने वाली सीता को, श्वसुर ने वस्त्र-आभूषण दिये।’’ 
भविष्य में आने वाली कठिनाइयों को ध्यान में रखकर, उनके लिये समुचित तैयारी करना—यह इस श्लोक का रहस्य है। पूर्व कर्मों के फलस्वरूप आज हमें अच्छी परिस्थिति प्राप्त है, पर यदि अब कोई अच्छी तैयारी न की गयी, तो भविष्य अन्धकारमय है। बुद्धिमान् मनुष्य भविष्य की चिन्ता करते हैं, आगामी जीवन सुख-शान्ति एवं आनन्द-उल्लास के साथ बीते, इसके लिये वे शुभ कर्म करके अधिकाधिक पुण्य-संचय करते हैं। ऐसा ही हमें भी करना चाहिये। 

6—राजा सत्यं च धर्मश्च राजा कुलवतां कुलम् । 
राजा माता-पिता चैव राजा हितकरो नृणाम् । 
—वा. रा. अयोध्याकाण्ड 67/34
 
अर्थ—‘‘राजा सत्य है, धर्म है, कुलवानों का कुल है, माता-पिता के तुल्य है और मनुष्यों का हितकारी है।’’ 
राजा के द्वारा, प्रज्ञा के हित के लिये सत्य के आधार पर चलने वाले राज्य को सुराज्य और इसके भिन्न प्रकार के राज्य को कुराज्य कहते हैं। इस श्लोक में सुराज्य की प्रशंसा की गयी है, उसकी श्रेष्ठता बताकर सुराज्य द्वारा निर्धारित नियमों का पालन करने का प्रोत्साहन है। प्रत्येक सभ्य नागरिक का कर्त्तव्य यह है कि समाज हित के राज्य-नियमों का ईश्वर की—धर्म की आज्ञाओं के समान आदर करे और उनका पालन करे। राज्य-भक्ति का तात्पर्य है—देश-भक्ति, समाज-भक्ति। इस देश-भक्ति एवं समाज-भक्ति के लिये यह श्लोक प्रेरणा देता है। 

7—निरीक्ष्य स मुहूर्तं तु ददर्श भरतो गुरुम् । 
उटजे राममासीनं जटामण्डलधारिणम् ।। 
—वा. रा. अयोध्याकाण्ड 99/25
 
अर्थ—‘‘भरत ने उसी क्षण, जटाधारी राम को उस कुटीर में बैठा देखा।’’ 
ईश्वर को ऐश्वर्य, बड़े वैभवशाली भवनों, खजानों और भण्डारों में मौजूद है, वैभव वाला ईश्वर, प्रत्येक वैभववान् पदार्थ में हमें झिलमिलाता हुआ दिखाई पड़ता है। परन्तु यदि ईश्वर के सतोगुणी स्वरूप का—ब्रह्म का—जटाधारी त्याग-मूर्ति राम का दर्शन करना हो, तो वह कुटीर में ही मिलेगा। 
महात्मा गांधी दरिद्र जनता को दरिद्र नारायण कहा करते थे। उन्हें ईश्वर की सर्वोत्तम झांकी दरिद्रों में होती थी और दीनों के झोपड़े, उन्हें ईश्वर के सर्वश्रेष्ठ मन्दिर दृष्टिगोचर होते थे। कुटिया सादगी, अपरिग्रह एवं त्यागवृत्ति का प्रतिनिधित्व करती है। जहां यह गुण है, वहां जटाधारी राम, सत् शक्तियों से आच्छादित ब्रह्म के दर्शन हो सकते हैं। यह दर्शन उन्हें होंगे, जो भरत के समान, निर्मल एवं सरल अन्तःकरण वाले हैं। इस श्लोक में ईश्वर की श्रेष्ठ झांकी किस प्रकार हो सकती है, इस गुत्थी को सुलझाते हुए कुटिया, जटाधारी राम और भरत इन तीन तत्वों का उल्लेख किया है। विवेकवान् व्यक्ति अपने दृष्टिकोण को भरत-सा, अपने अन्तःकरण को सरलतामयी कुटिया-सा बना ले, तब उसे जटाधारी राम के दर्शन होंगे। मुकुटधारी राम तो अन्यत्र भी देखे जा सकते हैं, उनकी झांकी तो अयोध्या के महलों में भी होती थी, पर जटाधारी राम का घर तो कुटिया ही है। 

8—यदि बुद्धिः कृता द्रष्टुमगस्त्यं तं महामुनिम् । 
अद्यैव गमने बुद्धिं रोचयस्व महामते ।। 
 —वा. रा. अरण्यकाण्ड 11/43 

अर्थ—‘‘हे महामति! यदि तुमको अगस्त्य के दर्शन की इच्छा है, तो आज ही जाने की सोचो।’’ 
अगस्त्य कहते हैं कल्याण को। जो महामति, कल्याण के दर्शन करना चाहता है, आत्म-साक्षात्कार करना चाहता है, अर्थात् किसी भी प्रकार की भौतिक-मानसिक सफलता चाहता है, तो उसे चाहिये कि उद्देश्य की पूर्ति के लिये आज से ही प्रयत्न प्रारम्भ करे। कल के लिये टालते रहने से कोई बात पूर्ण नहीं हो सकती, क्योंकि कल कभी आता नहीं। 
वर्तमान सबसे मूल्यवान् समय है। जो बीत चुका वह वापस नहीं आ सकता, उसके लिये चिन्ता-शोक करने से कुछ लाभ नहीं। जीवन की बहुमूल्य पूंजी वे घड़ियां हैं, जिन्हें वर्तमान कहते हैं। समय का सदुपयोग यही है कि वर्तमान की एक-एक घड़ी का उत्तम से उत्तम उपयोग किया जाए। जो करना अभीष्ट है, उसके लिये विलम्ब न लगा कर, समय को बर्बाद न करके, वर्तमान में ही उसके लिये प्रयत्न आरम्भ कर देना चाहिये, यही इस श्लोक का आशय है। 

9—भरतस्यार्यपुत्रस्य श्वश्रूणां मम च प्रभो । 
मृगरूपमिदं दिव्यं विस्मयं जनयिष्यति ।। 
—वा. रा. अरण्यकाण्ड 43/18
 
अर्थ—‘‘भरत को, आपको और मेरी सासों को यह दिव्य मृगरूपी खिलौना विस्मित करेगा, यदि वह जीवित न पकड़ा जा सके, तो भी इसका चर्म बड़ा ही सुन्दर होगा।’’ 
सब लोगों को प्रसन्नता देने वाले सुन्दर पदार्थ यदि पूर्ण मात्रा में प्राप्त न हो सकें, तो उनको कम मात्रा में ही प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये। सद्गुण अपने में जितनी अधिक मात्रा में हों उतने अच्छे। पूर्ण हों तो सबसे अच्छे, पर यदि पूर्णता प्राप्त न हो सके तो भी, जितनी कुछ न्यूनाधिक मात्रा में उनका प्राप्त होना संभव हो, उसके लिये भी प्रयत्न करना चाहिये। यदि पूर्ण सत्यवादी, पूर्ण निष्पाप, पूर्ण सदाचारी न बन सके, तो हिम्मत हार बैठने की अपेक्षा यही अच्छा है कि जितनी भी, थोड़ी-बहुत सफलता प्राप्त की जा सके, उसके लिये प्रयत्न बराबर जारी रखा जाए। 
शिल्प, संगीत, कला-कौशल, व्यायाम, भाषण, वक्तृता, अन्य भाषाओं का ज्ञान आदि जितने कुछ अंशों में प्राप्त हो सके, उसके लिये प्रयत्नशील रहना चाहिये। ‘पूरा या कुछ नहीं’ की दुराग्रह भरी नीति के स्थान पर ‘जितना मिले उसे लो और अधिक के लिये कोशिश करो’ की नीति अपनाने की शिक्षा इस श्लोक में है। ‘सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्धं त्यजति पण्डितः’ का भावार्थ यही है। 
10—गच्छ शीघ्रमितो वीर सुग्रीवं तं महाबलम् । 
वयस्यं तं कुरु क्षिप्रमितो गत्वाऽद्य राघव ।। 
—वा. रा. अरण्यकाण्ड 72/17 

अर्थ—‘‘हे राघव! तुम यहां से शीघ्र महाबली सुग्रीव के पास जाओ और आज ही उसे अपना मित्र बनाओ।’’ 
बलवान् को अपना मित्र बनाने में देर न करने की शिक्षा यहां दी गयी है। लोकव्यवहार के लिये बल का, बलवान् का सहारा एक बड़ी चीज है, उससे बड़ी-बड़ी कठिनाइयों का हल होता है और उन्नति के अनेक द्वार खुल जाते हैं। संगति की महिमा प्रसिद्ध है, जो अपने से बलवान् है उसकी समीपता से (मैत्री से) अपनी बल-वृद्धि होना स्वाभाविक है। आध्यात्मिक क्षेत्र में भी यही बात है, जीवात्मा अपने से बलवान् दैवी शक्तियों से मैत्री स्थापित करके दैवी लाभों को प्राप्त करता है। जिसे जिस क्षेत्र में लाभान्वित होना हो, उसे उसी क्षेत्र में अपने से बलवान् शक्तियों के साथ शीघ्र ही मैत्री स्थापित करनी चाहिये। 

11—देशकालौ भजस्वाद्य क्षममापः प्रियाप्रिये । 
सुख-दुःखसहः काले सुग्रीववशगो भव ।। 
—वा. रा. किष्किन्धाकाण्ड 22/20 

अर्थ—‘‘देश काल को समझो। प्रिय-अप्रिय को तथा सुख-दुःख को सहकर सुग्रीव के अधीन रहो।’’ 
मनुष्य जैसी स्थिति चाहता है, जैसी कामनायें और इच्छायें करता है, वैसी उसे प्राप्त हो जाएं, यह आवश्यक नहीं। देश-काल की विचित्रता के कारण, प्रारब्ध के कारण कभी-कभी मनुष्य को ऐसी परिस्थितियों में रहना पड़ता है, जो असुविधाजनक एवं कष्टकारक होती हैं। ऐसी स्थिति को धैर्यपूर्वक सहन करते हुए, उससे मुक्त होने का प्रयत्न करना चाहिये। प्रिय-अप्रिय में, सुख-दुःख में मनुष्य को विचलित नहीं होना चाहिये, वरन् मन को एकरस कर अपनी मानसिक स्वस्थता का परिचय देना चाहिये। 

12—वन्दितव्यास्ततः सिद्धास्तपसा वीतकल्मषाः । 
प्रष्टव्या चापि सीतायाः प्रवृत्तिर्विनयान्वितैः ।। 
—वा. रा. किष्किन्धाकाण्ड 43/32, 33 

अर्थ—‘‘निष्पाप, सिद्ध, तपस्वियों को प्रणाम करना और उनसे विनयपूर्वक सीता का पता पूछना।’’ 

आत्म-ज्ञान की शिक्षा हर किसी से ग्रहण नहीं करनी चाहिये। गुरु चाहे जिसे नहीं बनाना चाहिये, वरन् पहले यह देख लेना चाहिये कि आत्म-ज्ञान का शिक्षक तीन गुणों से सम्पन्न है या नहीं? (1) निष्पाप, (2) अनुभवी एवं सफलता प्राप्त, (3) तपस्वी। जिसमें यह तीन गुण हों, वे अध्यात्मिक शिक्षा देने के अधिकारी हो सकते हैं। पापात्मा, अनुभवहीन तथा भोग-परायण व्यक्ति चाहे कितने ही चतुर वक्ता एवं पण्डित क्यों न हों, उनके द्वारा शिक्षा ग्रहण करने में पथभ्रष्ट किये जाने का, ठगे जाने का खतरा रहता है। 
विश्वसनीय पथ-प्रदर्शक प्राप्त होने पर, उन्हें प्रणाम करके विनयपूर्वक प्रश्न करना चाहिये। इस प्रकार उचित जिज्ञासा के साथ शिष्टाचार और शिष्य भाव से पूछे जाने पर अधिकारी गुरु उचित पथ-प्रदर्शन करते हैं। इस श्लोक में आत्म-ज्ञानी गुरु के लक्षण और शिष्य की पूछने की शैली का आधार बताया गया है। 

13—स निर्जित्य पुरीं लंकां श्रेष्ठां तां कामरूपिणीम् । 
विक्रमेण महातेजा हनुमान् कपिसत्तमः ।। 
—वा. रा सुन्दरकाण्ड 4/1
 
अर्थ—‘‘कपिश्रेष्ठ महातेजस्वी हनुमान ने पराक्रम से कामरूपिणी लंका को जीता।’’ 
कामवासना रूपी लंका देखने में बड़ी लुभावनी स्वर्ण-कान्त, नयनाभिराम मालूम देती है। उसे जीतना कठिन प्रतीत होता है। इस कामवासना रूपी स्वर्ण लंका में असुर कुल आनन्दपूर्वक निवास करता है। सब असुर, आन्तरिक शत्रु, तब तक सुरक्षित हैं अब तक उनकी कामवासना रूपी लंका का दुर्ग सुरक्षित है। इस रहस्य को समझते हुए हनुमान जी ने इस असुरपुरी को जीतना आवश्यक समझा और अपने पराक्रम से, ब्रह्मचर्य से, शील, सदाचार एवं संयम से उस कामवासना रूपी लंका को जीता। असुरक्षा को परास्त करना है, तो कामवासना को जीतना आवश्यक है। यह विजय ब्रह्मचर्य द्वारा ही संभव है। हनुमान जी की भांति हम सबको वासना रूपिणी लंका जीतने का प्रयत्न करना चाहिये। 

14—धन्या देवाः सगन्धर्वाः सिद्धाश्च परमर्षयः । 
मम पश्यन्ति ये वीरं रामं राजीवलोचनम् ।। 
—वा. रा. सुन्दरकाण्ड 26/39
 
अर्थ—‘‘देवता, गन्धर्व, सिद्ध तथा ऋषिगण धन्य हैं, जो मेरे राजीव-लोचन, वीर राम को देखते हैं।’’ 
वे लोग धन्य हैं, जो परमात्मा को देखते हैं, परमात्मा सबके निकट हैं, सबके भीतर हैं, चारों ओर हैं, उससे एक इंच भूमि भी खाली नहीं है, फिर भी मायाग्रस्त लोग उसे देख नहीं पाते, समझते हैं कि न जाने परमात्मा मुझसे कितनी दूर है, न जाने उसे प्राप्त करना, उसके दर्शन करना कितना कठिन है? थे अपनी अन्धी आंखों से ईश्वर को नहीं देखते और बुराइयों में डूबे रहते हैं। 
जिनके दिव्य नेत्र खुल गये हैं, उनको अपने भीतर बाहर चारों ओर जर्रे-जर्रे में परमात्मा के दर्शन होते रहते हैं। इस दिव्य झांकी से उनका अन्तःकरण तृप्त हो जाता है और सात्विक कर्म, स्वभावों की कस्तूरी जैसी महक उनके भीतर उठती रहती है। दिव्यदर्शी व्यक्तियों को देव, गन्धर्व, सिद्ध, ऋषि की पदवी देते हुए इस श्लोक में उनकी सराहना की है और उन्हें धन्य कहा है। 

15—मंगलाभिमुखी तस्य सा तदासीन्महाकपेः ।। 
उपतस्थे विशालाक्षी प्रयता हव्यवाहनम् ।। 
—वा. रा. सुन्दरकाण्ड 53/26, 27
 
अर्थ—‘‘वे उस समय कपि का मंगल करती थीं, इसलिये विशालाक्षी सीता ने अग्नि की स्तुति की।’’ 
मंगलकामना के लिये अग्नि पूजा की वैदिक रीति प्रसिद्ध है। अग्निहोत्र, होम, यज्ञ के साथ जो शुभ कर्म किये जाते हैं, वे सदा सत्परिणाम उपस्थित करते हैं। यज्ञों की महिमा असाधारण है। उनके द्वारा रोगमुक्ति, वर्षा, पुत्र-प्राप्ति तथा विविध कामनाओं की पूर्ति से लेकर आत्मशुद्धि तक होती है। दूसरों के मंगल-अमंगल का विधान भी अग्नि-पूजा द्वारा होना शक्य है। 
अग्नि जीवन-शक्ति को भी कहते हैं। जीवन-शक्ति की वृद्धि से मंगल का होना तो प्रत्यक्ष ही है। जिसमें पर्याप्त मात्रा में उष्णता है, तेजस्विता है उसका हर प्रकार से मंगल ही होगा। क्रियाशक्ति की मात्रा में वृद्धि होने से उनके कार्य सहज ही सफल और सुलभ हो जाते हैं। 

16—हितं महा मृदु हेतुसंहितं व्यतीतकालायतिसंप्रतिक्षमम् । 
निशम्य तद्वाक्यमुपस्थितज्वरः प्रसंगवानुत्तरमेतदब्रवीत् ।। 
—वा. रा. युद्धकाण्ड 10/27 

अर्थ—‘‘तीनों कालों में हितकारी, सप्रमाण, कोमल और अर्थयुक्त विभीषण के वचन सुनकर रावण को बड़ा क्रोध आया और उसने कहा।’’ 
इन व्यक्तियों को इस बात से प्रयोजन नहीं रहता कि क्या उचित है, क्या अनुचित? क्या कल्याणकर है, क्या अकल्याणकर? उन्हें तो अपना अहंकार, अपना स्वार्थ सर्वोपरि प्रतीत होता है। उनकी जो अपनी सनक होती है, उसके अतिरिक्त और किसी बात को वे सुनना नहीं चाहते। रावण पर विभीषण के हितकारी, सप्रमाण, कोमल और अर्थयुक्त वचनों का भी कुछ अच्छा प्रभाव नहीं हुआ, वरन् उलटा कुपित होकर प्रत्युत्तर देने लगा। 
‘‘अन्धे के आगे रोवे अपने नयना खोवे’’ की लोकोक्ति को इस श्लोक में नीति वचन के रूप में समझाया है। जो लोग मदोन्मत्त हो रहे हैं, वे दूसरों की उचित बात को भी नहीं समझते। उनको समझाने का रास्ता दूसरा है। 

17—धर्मात्मा राक्षसश्रेष्ठः संप्राप्तोऽयं विभीषणः । 
लंकैश्वर्यमिदं श्रीमान्ध्रुवं प्राप्नोत्यकंटकम् ।। 
—वा. रा. युद्धकाण्ड 41/68
 
अर्थ—‘‘राक्षस-श्रेष्ठ धर्मात्मा विभीषण आ रहे हैं, वे ही लंका के शत्रुहीन राज्य का उपयोग करेंगे।’’ 
शासक चाहे परिवार का हो, वैभवयुक्त हो, राज्य का हो, आमतौर से उसके विरोधी बहुत रहते हैं। परन्तु वे लोग इसके अपवाद रहते हैं, जो धर्मात्मा हैं, जिनका दृष्टिकोण निष्पक्ष है, जो न्याय को, उदारता को सर्वोपरि स्थान देते हैं, ऐसे मनुष्य उत्तरदायित्व, नेतृत्व, शासन और न्याय की बागडोर अपने हाथ में रखते हुए भी किसी के शत्रु नहीं बनते। विभीषण की भांति न्यायपूर्ण दृष्टि रखकर हम सर्वप्रिय रह सकते हैं और उनके हृदयों पर शासन कर सकते हैं। 

18—यो वज्रपाताशनिसंनिपातान्न चुक्षुभे नापि चचाल राजा । 
स रामबाणाभिहतो भृशार्तश्चचाल चापं च मुमोच वीरः ।। 
—वा रा. युद्धकाण्ड 59/139
 
अर्थ—‘‘जो रावण वज्रपात तथा अग्नि के प्रहार से विचलित नहीं हुआ था, वह राम के बाणों से आहत होकर बहुत दुःखी हुआ और उसने बाण चलाये।’’ 
जो लोग बड़े साहसी, लड़ाकू और योद्धा होते हैं, सांसारिक कठिनाइयों की कुछ परवाह नहीं करते। कठिन प्रहार सहन करके भी अपना पराक्रम प्रदर्शित करते हैं। उन वीर प्रकृति के लोगों को भी राम के बाणों से, अन्तरात्मा के शाप से व्यथित होना पड़ता है। कुचली हुई आत्मा जब क्रन्दन करती है, जीवन धन को बुरी तरह बर्बाद करने के लिये कुबुद्धि को शाप देती है, तो अन्तस्तल में हाहाकार मच जाता है। उस आत्म-प्रताड़ना से बड़े-बड़े पाषाण हृदय भी विचलित हो जाते हैं। 
अपने बाहुबल से लोग कमजोरों को सताते हैं और उनको लूटकर, परास्त कर अपनी विजयश्री पर अभिमान करते हैं, छोटे-मोटे पराक्रमों पर उन्हें बड़ा ही अभिमान रहता है। पर जब पाप के दण्ड स्वरूप कोई दैवी प्रहार उन पर होता है, तो उनके होश गुम हो जाते हैं। अहंकारियों को याद रखना चाहिये कि उनसे भी बलवान् कोई सत्ता मौजूद है और उसके एक प्रहार में सारी अकड़ ढीली हो सकती है। कमजोर को सताया जा सकता है, पर कमजोर की हाय का मुकाबला करना कठिन है, वह बड़े-बड़ों की ऐंठ को सीधा कर देती है। इसलिये हमें ईश्वरीय कोप का और दैवी दण्ड का ध्यान रखते हुए, अपने आचरण को ठीक रखना चाहिये। 
19—यस्य विक्रममासाद्य राक्षसा निधनं गताः । 
तं मन्ये राधवं वीरं नारायणमनामयम् ।। 
—वा. रा. युद्धकाण्ड 72/11 

अर्थ—‘‘जिसके पराक्रम से राक्षसों की मृत्यु हुई, उस अनामय वीर राम को धन्य है।’’ 
उस वीर पुरुष का पराक्रम धन्य है, जो स्वयं निष्पाप रहता है और कषाय-कल्मषों को मार भगाता है। स्वार्थ के लिये बहुत लोग पराक्रम दिखाते हैं, पराक्रम करने के लोभ से अहंकारग्रस्त हो जाते हैं। ऐसा तो साधारण व्यक्तियों में भी देखा जाता है, पर धन्य वे हैं, जो अपने पराक्रम का उपयोग केवल असुरत्व विनाश के लिये करते हैं और उस पराक्रम का तनिक भी दुरुपयोग न करके अपने को जरा भी पाप-पंक में गिरने नहीं देते। पराक्रम और वीरता की यही श्रेष्ठता है।

20—न ते ददृशिरे रामं दहन्तमपिवाहिनीम् । 
मोहित, परमास्त्रेण गान्धर्वेण महात्मना ।। 
—वा. रा. युद्धकाण्ड 93/26

अर्थ—‘‘महात्मा राम ने दिव्य गन्धर्वास्त्र के द्वारा राक्षसों को मोहित कर दिया था, इसी से वे सेना को नष्ट करने वाले राम को नहीं देख सकते थे।’’ 
अज्ञानियों की बुद्धि ऐसी भ्रम विमोहित होती है कि उन्हें यह सूझ नहीं पड़ता कि उनकी सेना का संहार कौन कर रहा है? उन्हें कष्ट कौन दे रहा है? उन्हें इसका कारण ज्ञात ही नहीं होता। समझते हैं कि हमारे शत्रु हमें हानि पहुंचा रहे हैं, पर असल बात यह है कि अपनी असत् प्रणाली ही फलित होकर विपत्ति का कारण बन जाती है। ईश्वरीय प्रक्रिया के द्वारा वे पाप ही कष्ट बन जाते हैं। अज्ञानी लोग कष्टों का कारण सांसारिक परिस्थितियों को समझते हैं, पर वस्तुतः स्थिति यह है कि उनका पाप ही उनका सबसे बड़ा शत्रु होता है। अदृश्य ईश्वर उन पापों को ही गन्धर्व बाण की तरह उन पर फेंकता है और उससे वे आहत होते हैं। 

21-प्रणम्य दैवतेभ्यश्च ब्राह्मणेभ्यश्च मैथिली । 
श्रद्धांजलिपुटा चेदमुवाचाग्निसमीपतः ।। 
—वा. रा. युद्धकाण्ड 116/24
 
अर्थ—‘‘देवता और ब्राह्मणों को प्रणाम करके सीता ने हाथ जोड़कर अग्नि के समीप जाकर कहा।’’ 
सच्ची आत्मायें किसी बात को प्रकट करने से पूर्व देव और ब्राह्मणों को श्रद्धापूर्वक ध्यान रखती हैं, अर्थात् वे यह सोचती हैं कि इस कथन के सम्बन्ध में श्रेष्ठ लोग क्या कहेंगे? चाहे दुनिया भर के मूर्ख लोग किसी बात को पसन्द करें, पर यदि थोड़े से देव और ब्राह्मण अर्थात् श्रेष्ठ पुरुष उसे त्याज्य ठहराते हैं, तो वह कार्य सच्ची आत्माओं के लिये त्याज्य ही होगा। 
दूसरे सतोगुणी अन्तःकरण वाले व्यक्ति चाहे वैभव में कितने ही बड़े क्यों न हो जायें, ब्रह्म-कर्मा उच्च चरित्र वाले व्यक्तियों के लिये वे सदा ही झुकते हैं। 
सीता ने अग्नि के समीप जाकर कहा। हमें जो कुछ कहना हो, तो अन्तःकरण में निवास करने वाली ज्योति के समक्ष उपस्थित होकर कहना चाहिये। छल, कपट, असत्य की वाणी उन्हीं के मुख से निकलती है, जो ईश्वर से दूर रहते हैं। अग्नि के समीप जाकर, अन्तःज्योति के समक्ष उपस्थित होकर यदि हम अपना मुख खोलें, वाणी से उच्चारण करें, तो सदा सत्य ही मुख से निकलेगा। 

22—चालनात्पर्वतस्यैव गणा देवस्य कविताः । 
चचाल पार्वती चापि तदाश्लिष्टा महेश्वरम् ।। 
—वा. रा उत्तरकाण्ड 16/26
 
‘‘अर्थ—पर्वत के कांपने से शिवगण भी कांप गये और पार्वती भी महादेव से लिपट गयीं।’’ 
आधार के विचलित हो जाने से ऊपर स्थित अन्य सब वस्तुयें भी विचलित हो जाती हैं। चाहे वे कितनी ही बड़ी क्यों न हों। भूकम्प आता है, तो पृथ्वी पर रखी हुई सब वस्तुयें डांवाडोल हो जाती हैं। 
मनुष्य अपने दृष्टिकोण को जैसा निर्धारित कर लेता है उसी के अनुसार उसे संसार की वस्तुयें, क्रियायें, घटनायें तथा परिस्थितियां भली या बुरी लगती हैं, पर यदि पूर्व दृष्टिकोण बदल जाए और उसके स्थान पर नये प्रकार से सोचने की प्रणाली प्राप्त हो जाए, तो पहली रुचि बदल जाने के कारण सब कुछ बदला मालूम देता है। आज कोई व्यक्ति एक दृष्टि को अपनाने के कारण घोर लोभी और कंजूस है, यदि उसे कल ही कोई नयी दृष्टि मिल जाए, तो वह उच्चकोटि का त्यागी हो सकता है। इसी प्रकार उल्टा परिवर्तन हो जाए—तो त्यागी से लोभी भी बना जा सकता है। तात्पर्य यह है कि जीवन-परिवर्तन का मुख्य कारण वह आधार है, जिस पर खड़े होकर मनुष्य सोचता-विचारता है और अपने स्वार्थ का निर्णय करता है। 
संसार में जितने भी व्यक्तिगत या सामूहिक परिवर्तन होते हैं, उनका मूल कारण दृष्टिकोण का, आधार का परिवर्तन है। हम अपने को, अपने समाज को, जिस दिशा में परिवर्तित करना चाहते हैं, वैसा ही उसकी दृष्टि का, उसकी विचार-प्रणाली का, आधारशिला का परिवर्तन करना अनिवार्य है। पर्वत कांपने से शिव-पार्वती कांपे थे, अन्तः दृष्टि के कांपने से बाह्य जीवन का सारा महल कांप जाता है। 

23—दाराः पुत्राः पुरं राष्ट्रं भोगाच्छादनभोजनम् । 
सर्वमेवाविभक्तं नौ भविष्यति हरीश्वर ।। 
वा. रा उत्तरकाण्ड 34/41 

अर्थ—‘‘वानरराज! स्त्री, पुत्र, नगर, राष्ट्र, भोग, वस्त्र, भोजन यह हमारी अविभक्त सम्पत्ति होगी।’’ 
सम्पत्ति को, राष्ट्र को, समाज को, खाद्य-सामग्री को अविभक्त बताकर इस श्लोक में वर्तमान समाजवाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। ईश्वर प्रदत्त जितनी भी सामग्री इस संसार में है, उस पर मानव प्राणियों का समान रूप से अधिकार है। आवश्यकतानुकूल सभी को इन वस्तुओं के उपभोग का अधिकार होना चाहिये। इन्हीं सिद्धान्तों पर समाजवाद की सारी आधारशिला खड़ी की गयी है। सम्पत्ति को बांटकर अपने व्यक्तिगत कब्जे में कर लेने का इस श्लोक में विरोध है और समाज तथा व्यक्ति दोनों के सम्मिलित होने का समर्थन है। यह श्लोक समाजवाद के सिद्धान्त का सूत्ररूप है। 

24—यामेव रात्रिं शत्रुघ्न पर्णशालां समाविशत् । 
तामेव रात्रिं सीतापि प्रासूत दारकद्वयम् ।। 
—वा. रा. उत्तरकाण्ड 66/1
 
अर्थ—‘‘जिस रात्रि में शत्रुघ्न वाल्मीकि आश्रम की पर्णशाला में गये, उसी रात्रि में सीता ने दो पुत्रों को उत्पन्न किया।’’ 
जिस दिन शत्रु का नाश करने वाला प्रेम-लोभ के महलों को छोड़कर ऋषि भावना की प्रतीक त्याग रूपी पर्णशाला में पहुंचता है, उसी में आत्मा रूपी सीता, दो पुत्र उत्पन्न करती है। 
 (1) लव अर्थात् ज्ञान,
 (2) कुश अर्थात् कर्म। 
निःस्वार्थ-निर्मल प्रेम जब संसार भर में शत्रुता का भाव हटा देता है, सबको अपना समझकर सबके लिये सद्भाव धारण कर लेता है, तो उसका स्वाभाविक फलितार्थ यह होता है कि वह व्यक्ति भोग और संग्रह की वासनायें त्याग कर संयम और त्याग की नीति अपना लेता है। यही शत्रुघ्न का वाल्मीकि जी की पर्णशाला में पहुंचना है। 
ऐसी स्थिति प्राप्त होने पर आत्मा में सद्ज्ञान का प्रकाश होता है और वह सत्कार्य में प्रवृत्त रहती है। यही सीता का दो पुत्र प्रसव करना है। यही आत्मोन्नति की दो परम सिद्धावस्थाएं हैं। 

गायत्री रामायण के पिछले 24 श्लोकों में धर्म, नीति, समाज , स्वास्थ्य, अध्यात्म आदि के रहस्यों का उद्घाटन किया गया है, रास्ता दिखाया गया है। इस अन्तिम श्लोक में यह बता दिया गया है कि उन पर आचरण करने से अन्तिम स्थिति में क्या परिणाम उपस्थित होता है? अन्त में सीता के दो पुत्र उत्पन्न होते हैं, आत्मा की गोदी, सद्ज्ञान और सत्कर्म रूपी दो पुत्रों से भर जाती है। इन पुत्रों को पाकर सीता सब कष्टों को भूल गयी थी। आत्मा तपश्चर्या के सारे काय-क्लेशों को विस्मरण करके इन दो दिव्य-पुत्रों के आनन्द से आच्छादित हो जाती है, फिर उन पुत्रों के आनन्द का ठिकाना नहीं रहता। सद्ज्ञान और सत्कर्म जिसे प्राप्त होते हैं उसके दोनों हाथों में लड्डू हैं। उसके आनन्द की सीमा कौन निर्धारित कर सकता है। यह परमानन्द ही गायत्री की सिद्धि है। 
इन 24 श्लोकों में महर्षि वाल्मीकि ने अपने अनुभव और ज्ञान का निचोड़ भर दिया है। उपर्युक्त पंक्तियों में उस रहस्य की ओर अंगुलि-निर्देश मात्र हुआ है। विज्ञ विचारक इन 24 सूत्रों में छिपे रहस्यों पर स्वतंत्र चिन्तन करेंगे, तो उन्हें बड़े-बड़े अद्भुत ज्ञान-रत्न इनमें छिपे हुए मिलेंगे।

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