गायत्री महाविज्ञान भाग 2

गायत्री तन्त्र

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गायत्री का गोपनीय वाम मार्ग 
न देय परशिष्येभ्यो ह्यभक्तेभ्यो विशेषतः । 
शिष्येभ्यो भक्तियुक्तेभ्यो ह्यन्यथा मृत्युमाप्नुयात् ।। 
दूसरे के शिष्य के लिये, विशेषकर भक्ति रहित के लिये, यह मन्त्र कभी नहीं देना चाहिये। इसकी शिक्षा भक्तियुक्त शिष्य को ही देनी चाहिये अन्यथा मृत्यु की प्राप्ति होती है। 
उपर्युक्त प्रमाण में यह बताया गया है कि तन्त्र एक गुप्त विज्ञान है। उसकी बातें सब लोगों के सामने प्रकट करने योग्य नहीं होतीं। कारण यह है कि तान्त्रिक साधनायें बड़ी क्लिष्ट होती हैं। वे उतनी ही कठिन हैं, जितना कि समुद्र के तले में घुसकर मोती निकालना। गोताखोर लोग जान को जोखिम में डालकर पानी में बड़ी गहराई तक नीचे उतरते हैं, तब बहुत प्रयत्न के बाद उन्हें कुछ मोती हाथ लगते हैं, परन्तु इस क्रिया में उन्हें अनेक बार जल-जन्तुओं का सामना करना पड़ता है। नट अपनी कला दिखाकर लोगों को मुग्ध कर देता है और प्रशंसा भी प्राप्त करता है, परन्तु यदि एक बार चूक जाए तो खैर नहीं। 
तन्त्र-प्रकृति से संग्राम करके उसकी शक्तियों पर विजय प्राप्त करना है। इसके लिये असाधारण प्रयत्न करने पड़ते हैं और उसकी असाधारण ही प्रतिक्रिया होती है। पानी में ढेला फेंकने पर वहां का पानी जोर से उछाल खाता है और एक छोटे विस्फोट जैसी स्थिति दृष्टिगोचर होती है। तान्त्रिक साधक भी एक रहस्यमय साधन द्वारा प्रकृति के अन्तराल में छिपी हुई शक्तियों को प्राप्त करने के लिये अपनी साधना का एक आक्रमण करता है। उसकी एक प्रतिक्रिया होती है, उस प्रतिक्रिया से कभी-कभी साधक के भी आहत हो जाने का भय रहता है। 
जब बन्दूक चलाई जाती है, तो जिस समय नली में से गोली बाहर निकलती है, उस समय वह पीछे की ओर एक झटका मारती है और भयंकर शब्द करती है। यदि बंदूक चलाने वाला कमजोर प्रकृति का है, तो उस झटके से पीछे की ओर गिर सकता है, धड़ाके की आवाज से डर या घबरा सकता है। चन्दन के वृक्षों के निकट सर्पों का निवास रहता है, गुलाब के फूलों में कांटे होते हैं, शहद प्राप्त करने के लिये मक्खियों के डंक का सामना करना पड़ता है, सर्पमणि प्राप्त करने के लिये भयंकर सर्प से और गजमुक्ता प्राप्त करने के लिये मदोन्मत्त हाथी से जूझना पड़ता है। तांत्रिक साधनायें ऐसे ही विकट पुरुषार्थ हैं, जिनके पीछे खतरों की श्रृंखला जुड़ी रहती है। यदि ऐसा न होता तो उन लाभों को हर कोई आसानी से प्राप्त कर लिया करता। 
तलवार की धार पर चलने के समान तंत्र-विद्या के कठिन साधन हैं। उनके लिये साधक में पुरुषार्थ, साहस, दृढ़ता, निर्भयता और धैर्य पर्याप्त होना चाहिये। ऐसे व्यक्ति सुयोग्य अनुभवी गुरु की अध्यक्षता में यदि स्थिर चित्त से श्रद्धापूर्वक साधना करें, तो वे अभीष्ट साधना में सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं। परन्तु यदि निर्बल मनोभूमि के डरपोक, सन्देहयुक्त स्वभाव वाले, अश्रद्धालु, अस्थिर मति वाले लोग किसी साधना को करें और थोड़ा-सा संकट उपस्थित होते ही उसे छोड़ भागें, तो वैसा ही परिणाम होता है, जैसा किसी सिंह, सर्प को पहले तो छेड़ा जाय, पर जब वह क्रुद्ध होकर अपनी ओर लपके तो लाठी-डंडा फेंककर बेतहाशा भागा जाय। इस प्रकार छोड़कर भागने वाले मनुष्य के पीछे वह सिंह या सर्प अधिक क्रोधपूर्वक, अधिक साहस के साथ दौड़ेगा और उसे पछाड़ देगा। देखा गया है कि मनुष्य किसी भूत-पिशाच को वश में करने के लिये तान्त्रिक साधना करते हैं। जब उनकी साधना आगे बढ़ चलती है, तो ऐसे भय सामने आते हैं, जिनसे डरकर वे मनुष्य अपनी साधना छोड़ बैठते हैं। यदि उस साधक में साहस नहीं होता और किसी भयंकर दृश्य को देखकर डर जाता है, तो डराने वाली शक्तियां उसके ऊपर हमला बोल देती हैं, फलस्वरूप उसको भयंकर क्षति का सामना करना पड़ता है। कई व्यक्ति भयंकर बीमार पड़ते हैं, कई पागल हो जाते हैं, कई तो प्राणों तक से हाथ धो बैठते हैं। 
तन्त्र एक उत्तेजनात्मक उग्र प्रणाली है। इस प्रक्रिया के अनुसार जो साधना की जाती है, उससे प्रकृति के अन्तराल में बड़े प्रबल कम्पन उत्पन्न होते हैं, जिनके कारण ताप और विक्षोभ की मात्रा बढ़ती है। गर्मी के दिनों में सूर्य की प्रचण्ड किरणों के कारण जब वायुमण्डल का तापमान बढ़ जाता है, तो हवा कुछ तेज चलने लगती है। लू, आंधी और तूफान के दौरे बढ़ते हैं। उस उसे उत्तेजना में खतरे बढ़ जाते हैं, किसी को लू सता जाती है, किसी की आंख में धूल भर जाती है, अनेकों के शरीर फोड़े-फुन्सियों से भर जाते हैं, आंधी से छप्पर उड़ जाते हैं, पेड़ उखड़ जाते हैं। कई बार हवा के भंवर पड़ जाते हैं, जो एक छोटे दायरे में बड़ी तेजी से नाचते हुए डरावनी शक्ल में दिखाई पड़ते हैं। तन्त्र की साधनाओं से ग्रीष्म काल का-सा उत्पात पैदा होता है और मनुष्य के बाह्य एवं आन्तरिक वातावरण में एक प्रकार की सूक्ष्म लू एवं आंधी चलने लगती है, जिसकी प्रचण्डता के झकझोरे लगते हैं। यह झकझोरे मस्तिष्क के कल्पना तन्तुओं से जब संघर्ष करते हैं, तो अनेकों प्रकार की भयंकर प्रतिमूर्तियां दृष्टिगोचर होने लगती हैं। ऐसे अवसर पर डरावने भूत, प्रेत, पिशाच, देव, दानव जैसी अनुकृतियां दीख सकती हैं। दृष्टि-दोष उत्पन्न होने से कुछ का कुछ दिखाई दे सकता है। अनेकों प्रकार के शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्शों का अनुभव हो सकता है। यदि साधक निर्भयतापूर्वक इन स्वाभाविक प्रतिक्रियाओं को देखकर मुस्कराता न रहे, तो उसका साहस नष्ट हो जाता है और उन भयंकरताओं से यदि वह भयभीत हो जाए, तो वह उसके लिये संकट बन सकती है। 
इस प्रकार की कठिनाई का हर कोई मुकाबला नहीं कर सकता, इसके लिये एक विशेष प्रकार की साहसपूर्ण मनोभूमि होनी चाहिये। मनुष्य दूसरों के विषय में तो परीक्षा बुद्धि रखता है, पर अपनी स्थिति का ठीक परीक्षण कोई विरले ही कर सकते हैं। मैं तन्त्र साधनायें कर सकता हूं या नहीं इसका निर्णय अपने लिये कोई मनुष्य स्वयं नहीं कर सकता। इसके लिये उसे किसी दूसरे अनुभवी व्यक्ति की सहायता लेनी पड़ती है। जैसे रोगी अपनी चिकित्सा स्वयं नहीं कर सकता, विद्यार्थी अपने आप शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकता, वैसे ही तांत्रिक साधनायें भी अपने आप नहीं की जा सकतीं, इसके लिये किसी विज्ञ पुरुष को गुरु नियुक्त करना होता है। वह गुरु सबसे पहले अपने शिष्य की मनोभूमि का निरीक्षण करता है और तब उस परीक्षण के आधार पर निश्चित करता है कि इस व्यक्ति के लिये कौन साधना उपयोगी होगी और उसकी विधि में अन्यों की अपेक्षा या हेर-फेर करना ठीक होगा। साधना काल में जो विक्षेप आते हैं, उनका तात्कालिक उपचार और भविष्य के लिये सुरक्षा व्यवस्था बनाना भी गुरु के द्वारा ही सम्भव है। इसलिये तन्त्र की साधनायें गुरु परम्परा से चलती हैं। सिद्धि के लोभ से अनधिकारी साधक स्वयं अपने आप—उन्हें ऊट-पटांग ढंग से न करने लग जायें—इसलिये उन्हें गुप्त रखा जाता है। रोगी के निकट मिठाइयां नहीं रखी जाती, क्योंकि पचाने की शक्ति न होते हुए भी यदि लोभवश उसने उन्हें खाना शुरू कर दिया तो अन्ततः उसका अहित ही होगा। 
तन्त्र की साधनायें सिद्ध करने के बाद जो शक्ति आती है उसका यदि दुरुपयोग करने लगे, तो उससे संसार में बड़ी अव्यवस्था फैल सकती है, दूसरों का अहित हो जाता है, अनधिकारी लोगों को अनावश्यक रीति से लाभ या हानि पहुंचाने से उनका अनिष्ट ही होता है। बिना परिश्रम के जो लाभ प्राप्त होता है, वह अनेक प्रकार के दुर्गुण पैदा करता है। जिसने जुआ खेलकर दस हजार रुपया कमाया है, वह इन रुपयों का सदुपयोग नहीं कर सकता और न उनके द्वारा वास्तविक सुख प्राप्त कर सकता है। इसी प्रकार ईश्वरीय या राजकीय विधि से मिलने वाले स्वाभाविक दण्ड विधान से बचकर किसी को मन्त्र बल से, जो हानि पहुंचाई जा सकती है, वह गर्भपात के समान ही अहितकर होती है। तन्त्र में सफल हुआ व्यक्ति ऐसी गड़बड़ी पैदा कर सकता है। इसलिये हर किसी को उसकी साधना करने का अधिकार नहीं दिया गया है। वह तो एक विशेष मनोभूमि के व्यक्तियों के लिये सीमित क्षेत्र में उपयोग में आने वाली वस्तु है। इसलिये उसका सार्वजनिक प्रकाशन नहीं किया जा सकता। हमारे घर सिर्फ उन्हीं व्यक्तियों के प्रयोग के लिये होते हैं, जो उनमें अधिकार पूर्वक रहते हैं। निजी घरों का प्रयोग धर्मशालाओं की तरह नहीं हो सकता और न ही कोई मनुष्य किसी के घर में प्रवेश कर सकता है। तन्त्र भी अधिकार सम्पन्न मनोभूमि वाले विशेष व्यक्तियों का घर है, उसमें हर व्यक्ति का प्रवेश नहीं है। इसलिये उसे नियत सीमा तक सीमित रखने के लिये गुप्त रखा गया है। 
हम देखते हैं कि तन्त्र ग्रन्थों में जो साधन-विधियां लिखी गयी हैं, वे अधूरी हैं। उनमें दो ही बातें मिलती हैं—एक साधना का फल दूसरे साधन-विधि का कोई छोटा-सा अंग। जैसे एक स्थान पर आया है कि ‘छोंकर की लकड़ी हवन करने से पुत्र की प्राप्ति होती है।’ केवल इतने उल्लेख मात्र को पूर्ण समझकर जो छोंकर की लकड़ियों के गट्ठे भट्ठी में झोंकेगा, उसकी मनोकामना पूर्ण नहीं होगी। मूर्ख लोग समझेंगे कि साधना विधि झूठी है। परन्तु इस शैली से वर्णन करने में तन्त्रकारों का मन्तव्य यह है कि साधना विधि का संकेत कायम रहे, जिससे इस विद्या का लोप न हो, वह विस्मृत न हो जाए। यह सूत्र प्रणाली है। व्याकरण आदि के सूत्र बहुत छोटे-छोटे होते है। उनमें अक्षर तो दस-दस या पांच-पांच ही होते हैं और अर्थ बहुत। वे लघु संकेत मात्र होते हैं, जिससे यदि काम करना पड़े तो समय पड़ने पर पूरी बात याद आ जाए। गुप्त कार्य करने वाले डाकू षड्यंत्रकारी या खुफिया पुलिस आदि के व्यक्ति भी कुछ ऐसे ही संकेत बना लेते हैं, जिनके द्वारा दो-चार शब्द कह देने मात्र से एक अर्थ समझ लिया जाता है। 
‘‘छोंकर के हवन से पुत्र प्राप्ति’’ इस संकेत सूत्र में एक भारी विधान छिपा हुआ है। किस मनोभूमि का मनुष्य किस समय, किन नियमों के साथ, किन उपकरणों के द्वारा, किन मन्त्रों से, कितना हवन करे, तब पुत्र की प्राप्ति हो, यह सब विधान उस सूत्र में छिपा कर रखा गया है। छिपाना इसलिये है कि अनधिकारी लोग उसका प्रयोग न कर सकें। संकेत रूप से कहा इसलिये गया है कि कालान्तर में इस तथ्य का विस्मरण न हो जाए, आधार रहने से आगे की बात का स्मरण हो आना सुगम होता है। तन्त्र ग्रन्थों में साधना विधियों को गुप्त रखने पर बार-बार जोर दिया गया है। साथ ही कहीं-कहीं ऐसी विधियां बताई गयी हैं, जो देखने में बड़ी सुगम मालूम पड़ती हैं, पर उनका फल बड़ा भारी कहा गया है। इस दशा में अनजान लोगों के लिये यह गोरखधन्धा बड़ा उलझन भरा हुआ है। वे कभी उसे अत्यंत सरल समझते हैं और कभी उसे असत्य मानते हैं, पर वस्तुस्थिति दूसरी ही है। संकेत सूत्रों की विधि से उन साधनाओं का वर्णन करके तंत्रकारों ने अपनी रहस्यवादी वृत्ति का परिचय दिया है। 
गायत्री के दोनों ही प्रयोग हैं, दक्षिणमार्गी भी और वाममार्गी भी। वे योग भी हैं और तन्त्र भी। उससे आत्म-दर्शन और ब्रह्म-प्राप्ति भी होती है तथा सांसारिक उपार्जन और संहार भी। गायत्री योग दक्षिणमार्ग है—उस मार्ग से हमारे आत्मकल्याण का उद्देश्य पूरा होता है। गायत्री-तन्त्र वाममार्ग है—उससे सांसारिक वस्तुयें प्राप्त की जा सकती हैं और किसी का नाश भी किया जा सकता है। तन्त्र का विषय गोपनीय है, इसलिये गायत्री तन्त्र के ग्रन्थों से ऐसी अनेकों साधनायें प्राप्त होती हैं, जिनमें धन, संतान, स्त्री, आरोग्य, पद-प्राप्ति, रोग निवारण, शत्रु नाश, पाप नाश, वशीकरण आदि लाभों का वर्णन है और संकेत रूप से उन साधनाओं का एक अंश बताया गया है। परन्तु यह भली प्रकार स्मरण रखना चाहिये कि इन संक्षिप्त संकेतों के पीछे एक भारी कर्मकाण्ड एवं विधि-विधान है। वह पुस्तकों में नहीं, वरन् अनुभवी, साधना सम्पन्न व्यक्तियों से प्राप्त होता है। 
तन्त्र-ग्रन्थों से संग्रह करके कुछ संकेत आगे के पृष्ठों पर दिये जाते हैं, जिससे पाठकों को गायत्री द्वारा मिल सकने वाले महान् लाभों का थोड़ा-सा परिचय प्राप्त हो जाए। 
अथ गायत्रीतन्त्रम् 
नारद उवाच— 
नारायण महाभाग गायत्र्यास्तु समासतः । 
शान्त्यादिकान्प्रयोगांस्तु वदस्व करुणानिधे ! ।।1।। 
नारदजी ने प्रश्न किया है नारायण! गायत्री के शान्ति आदि के प्रयोग को कहिये। 
नारायण उवाच— 
अतिगुह्यमिदं पृष्टं त्वया ब्रह्मतनूद्भव । 
वक्तव्यं न कस्मैचिद् दुष्टाय पिशुनाय च ।।2।। 
यह सुनकर श्री नारायण ने कहा कि—हे नारद! आपने अत्यन्त गुप्त बात पूछी है, परन्तु उसे किसी दुष्ट या पिशुन (छलिया) से नहीं कहना चाहिये। 
अथ शान्त्यर्थमुक्ताभिः समिद्भिर्जुहुयाद् द्विजः । 
शमी समिद्भिः शाम्यन्ति भूतरोगग्रहादयः ।।3।। 
द्विजों को शान्ति प्राप्त करने के लिये हवन करना आवश्यक है तथा शमी की समिधाओं से हवन करने पर भूत-रोग एवं ग्रहादि की शान्ति होती है। 
आर्द्राभिः क्षीरवृक्षस्य समिद्भिर्जुहुयाद् द्विजः । 
जुहुयाच्छकलैर्वापि भूतरोगादिशान्तये ।।4।। 
दूध वाले वृक्षों की आर्द्र समिधाओं से हवन करने पर ग्रहादि की शान्ति होती है। अतः भूत-रोगादि की शान्ति के लिये सम्पूर्ण प्रकार की समिधाओं से हवन करना आवश्यक है। 
जलेन तर्पयेत्सूर्यं पाणिभ्यां शान्तिमाप्नुयात् । 
जानुघ्ने जले जप्त्वा सर्वान् दोषान् शमं नयेत ।।5।। 
सूर्य को हाथों द्वारा जल से तर्पण करने पर शान्ति मिलती है तथा घुटनों पर्यन्त पानी में स्थिर होकर जपने से सब दोषों की शान्ति होती है। 
कण्ठदघ्ने जले जप्त्वा मुच्येत् प्राणान्तिकाद् भयात् । 
सर्वेभ्यः शान्तिकर्मभ्यो निमज्याप्सु जपः स्मृतः ।।6।। 
कण्ठ पर्यन्त जल में खड़ा होकर जप करने से प्राणों के नाश होने का भय नहीं रहता, इसलिये सब प्रकार की शान्ति प्राप्त करने के लिये जल में प्रविष्ट होकर जप करना श्रेष्ठ है। 
सौवर्णे राजते वापि पात्रे ताम्रमयेऽपि वा । 
क्षीरवृक्षमये वापि निश्छिद्रे मृन्मयेऽपि वा ।।7।। 
सहस्रं पंचगव्येन हुत्वा सुज्वलितेऽनले । 
क्षीरवृक्षमयैः काष्ठेः शेषं सम्पादयेच्छनैः ।।8।। 
सुवर्ण, चांदी, तांबा, दूध वाले वृक्ष की लकड़ी से बने या छेद रहित मिट्टी के बर्तन में पंचगव्य रखकर दुग्ध वाले वृक्ष की लकड़ियों से प्रज्वलित अग्नि में हवन करना चाहिये। 
प्रत्याहुतिं स्पृशञ्जप्त्वा तद्मव्यं पात्रसंस्थितम् । 
तेन तं प्रोक्षयेद्देशं कुशैर्मन्त्रमनुस्मरन् ।।9।। 
प्रत्येक आहुति में पंचगव्य को स्पर्श करना चाहिये तथा मन्त्रोच्चारण करते हुए कुशाओं द्वारा पंचगव्य ही से सम्पूर्ण स्थान का मार्जन करना चाहिये। 
बलिं प्रदाय प्रयतो ध्यायेत परदेवताम् । 
अभिचारसमुत्पन्ना कृत्या पापं च नश्यति ।।10।। 
पश्चात् बलि प्रदान कर देवताओं का ध्यान करना चाहिये। इस प्रकार ध्यान करने से अभिचारोत्पन्न कृत्यों और पाप की शान्ति होती है। 
देवभूतपिशाचादीन् यद्येवं कुरुते वशे । 
गृहं ग्रामं पुरं राष्ट्रं सर्वं तेभ्यो विमुच्यते ।।11।। 
देवता, भूत और पिशाच आदि को वश में करने के लिये भी उपर्युक्त कही हुई विधि करनी चाहिये। इस प्रकार की क्रिया से देवता, भूत, पिशाच सभी अपना-अपना घर, ग्राम, नगर और राज्य छोड़कर वश में हो जाते हैं। 
चतुष्कोणे हि गन्धेन मध्यतो रचितेन च । 
मण्डले शूलमालिख्य पूर्वोक्ते च क्रमेऽपि वा ।।12।। 
अभिमन्त्र्य सहस्रं तन्निखनेत्सर्व सिद्धये । 
चतुष्कोण मण्डल में गन्ध से शूल लिखकर और पूर्वोक्त विधि द्वारा सहस्र गायत्री का जप कर, गाढ़ देने पर सब प्रकार की सिद्धि मिलती है। 
सौवर्ण, राजतं वापि कुम्भं ताम्रमयं च वा ।।13।। 
मृन्मयं वा नवं दिव्यं सूत्रवेष्टितमव्रणम् ।। 
स्थण्डिले सैकते स्थाप्य पूरयेन्मन्त्रितैर्जलैः ।।14।। 
दिग्भ्य आहृत्य तीर्थानि चतसृभ्यो द्विजोत्तमैः ।। 
सोना, चांदी, तांबा, मिट्टी आदि में से किसी एक का छेद रहित घड़ा लेकर सूत्र से ढककर बालुका युक्त स्थान में स्थापित कर श्रेष्ठ ब्राह्मणों द्वारा चारों दिशाओं से लाये हुए जल से भरें। 
एला, चन्दन, कर्पूर, जाती, पाटल, मल्लिकाः ।।15।। 
बिल्वपत्रं तथाक्रान्तां, देवीं ब्रीहि यवांस्तिलान् । 
सर्षपान् क्षीरवृक्षाणां प्रवालानि च निक्षिपेत् ।।16।। 
इलायची, चन्दन, कपूर, पाटल, बेला, बिल्व-पत्र, विष्णु-क्रान्ता, देवी (सहदेई), जौ, तिल, सरसों और दुग्ध निकालने वाले वृक्षों के पत्ते लेकर उसमें छोड़ें। 
सर्वमेवं विनिक्षिप्य कुशकूर्चसमन्वितम् । 
स्नातः समाहितो विप्रः सहस्रं मन्त्रयेद् बुधः ।।17।। 
इस प्रकार सबको छोड़कर कुशा की कूंची बनाकर तथा उसे भी घड़े में छोड़कर स्नान करके एक हजार बार मन्त्र का जप करना चाहिये। 
दिक्षु सौरानधीयीरन् मन्त्रान् विप्रास्त्रयीविदः । 
प्रोक्षयेत्पाययेदेनं नीरं तेनाभिषिंचयेत् ।।18।। 
धर्मादि के ज्ञाता ब्राह्मण द्वारा मन्त्रों से पूतीकृत इस जल से भूत आदि की बाधा से पीड़ित पुरुष के ऊपर मार्जन करे तथा पिलाए और गायत्री मन्त्र के साथ इसी जल से अभिसिंचन करे। 
भूत रोगाभिचारेभ्यः स निर्मुक्तः सुखीभवेत् । 
अभिषेकेण मुच्येत मृत्योरास्यगतो नरः ।।19।। 
इस प्रकार अभिसिंचन करने पर, मरणासन्न हुआ मनुष्य भी भूत व्याधि से मुक्त होकर सुखी हो जाता है। 
अवश्यं कारयेद्विद्वान् राजा दीर्घं जिजीविषुः । 
गावो देयाश्च ऋत्विंग्भ्यो ह्यभिषेके शतं मुने ।।20।। 
तेभ्यो देया दक्षिणा च यत् किञ्चिच्छक्ति-पूर्वकम् । 
जपेदश्वत्थमालम्ब्य मन्दवारे शतं द्विजः ।।21।। 
भूतरोगाभिचारेभ्यो मुच्यते महतो भयाद् । 
हे मुने! अधिक समय तक जीने की इच्छा वाला विद्वान् राजा इस कार्य को अवश्य कराए तथा इस अभिषेक के समय ऋत्विजों को सौ गायों की दक्षिणा देनी चाहिये या ब्राह्मणों को सन्तुष्ट करने वाली दूसरी दक्षिणा देनी चाहिये अथवा अपनी शक्ति के अनुसार जो हो सके, वह देनी चाहिये। शनिवार के दिन जो ब्राह्मण, पीपल के नीचे बैठकर सौ बार जप करता है, वह निःसंदेह भूत बाधा आदि से विमुक्त होता है। 
गुडूच्याः पर्व विच्छिन्नैर्जुहुयाद्दुग्ध-सिक्तकैः । 
द्विजो मृत्युञ्जयो होमः सर्व व्याधिविनाशनः ।।22।।
जो द्विज गुर्च (गिलोय) की समिधाओं को दूध में डुबा-डुबाकर हवन करता है, वह सम्पूर्ण व्याधियों से छुटकारा पा जाता है। यह मृत्यु को जीतने वाला होम है। 
आम्रस्य जुहुयात्पत्रैः पयसाज्वरशान्तये ।।23।। 
ज्वर की शान्ति हेतु, दूध में डालकर आम्र-पत्तों से द्विजों को हवन करना चाहिये। 
वचाभिः पयः सिक्ताभिः क्षयं हुत्वा विनाशयेत् । 
मधुत्रितय होमेन राजयक्ष्मा विनश्यति ।।24।। 
दुग्ध में बच को अभिषिक्त कर, हवन करने से क्षय रोग विनष्ट होता तथा दुग्ध, दधि एवं घृत इन तीनों का अग्नि में हवन करने से राजयक्ष्मा का विनाश होता है। 
निवेद्य भास्करायान्नं पायसं होपपूर्वकम् । 
राजयक्ष्माभिभूतं च प्राशयेच्छान्तिमाप्नुयात् ।।25।। 
दूध की खीर बनाकर सूर्य को अर्पण करे तथा हवन से शेष बची हुई खीर को राजयक्ष्मा के रोगी को सेवन कराएं, तो रोग की शान्ति होती है। 
लताः पर्वसु विच्छिद्य सोमस्य जुहुयाद् द्विजः । 
सोमे सूर्येण संयुक्ते प्रयोक्ताः क्षयशान्तये ।।26।। 
अमावस्या के दिन सोमलता (छेउटा) की डाली से होम करने पर क्षय रोग का निवारण होता है। 
कुसुमैः शंखवृक्षस्य हुत्वा कुष्ठं विनाशयेत् । 
अपस्मार विनाशः स्यादपामार्गस्य तण्डुलैः ।।27।। 
शंख वृक्ष (कोडिला) के पुष्पों से यदि हवन किया जाए, तो कुष्ठ रोग का विनाश होता है तथा अपामार्ग के बीजों से हवन करने पर अपस्मार (मृगी) रोग का विनाश होता है। 
क्षीर वृक्षसमिद्धोमादुन्मादोऽपि विनश्यति । 
औदुम्बर-समिद्धोमादतिमेहः क्षयं व्रजेत् ।।28।। 
क्षीर वृक्ष की समिधाओं से हवन करने पर उन्माद रोग नहीं रहता तथा औदुम्बर (गूलर) की समिधाओं से हवन किया जाए, तो महा-प्रमेह विनष्ट होता है। 
प्रमेहं शमयेद्धुत्वा मधुनेक्षुरसेन वा । 
मधुत्रितय होमेन नयेच्छान्तिं मसूरिकाम् ।।29।। 
प्रमेह की शान्ति के लिये मधु अथवा शर्बत से भी हवन करना चाहिये और मसूरिका रोग, मधुत्रय (दुग्ध, घृत, दधि) से हवन करने पर नहीं रहता। 
कपिला सर्पिषा हुत्वा नयेच्छान्तिं मसूरिकाम् । 
उदुम्बर-वटाऽश्वत्थैर्गोगजाश्वामयं हरेत् ।।30।। 
कपिला गौ के घी से हवन करके भी मसूरिका को दूर करना चाहिये। गाय के सभी रोगों की शान्ति के लिये गूलर, हाथी के रोग निवारण के लिये वट और घोड़े के रोग दूर करने के लिये पिप्पल की समिधाओं से हवन करना लाभदायक है। 
पिपीलि मधुवल्मीके गृहे जाते शतं शतम् । 
शमी समिद्भिरन्नेन सर्पिषा जुहुयाद् द्विजः ।।31।। 
चींटी तथा शहद की मक्खियों द्वारा घर में छत्ता रख लेने पर शमी (छोंकर) की समिधाओं से हवन करना उत्तम है। साथ ही अन्न और घी भी होना चाहिये। 
अभ्रस्तनित भूकम्पो समिद्भिर्वनवेतसः । 
तदुत्थं शान्तिमायाति हूयात्तत्र बलिं हरेत् ।।32।। 
बिजली की कड़क से पृथ्वी में कम्पन उत्पन्न होती हो, तो वनवेत की लकड़ियों से हवन करना चाहिए। इससे उत्पन्न भय शान्त होता है। 
सप्ताहं जुहुयादेवं राष्ट्र राज्ये सुखं भवेत् । 
यां दिशं शतजप्तेन लोष्ठेनाभिप्रताडयेत् ।।33।। 
ततोऽग्निमारुतारिभ्यो भयं तस्य विनश्यति । 
मनसैव जपेदेनां बद्धो मुच्येत बन्धनात् ।।34।। 
किसी भी दिशा में यदि दिग्दाह हो, तो सात दिन पर्यन्त मन्त्र जपकर उस दिशा में जिधर दाह होता है, ढेला फेंकना चाहिये। इस प्रकार शान्ति उत्पन्न होती है। एक सप्ताह तक इस क्रिया को करने से राज्य और राष्ट्र में सुख-समृद्धि होती है। 
बन्धन में ग्रसित मनुष्य गायत्री मन्त्र का मन में ही जाप करने पर बन्धन मुक्त हो जाता है। 
भूत रोग विषादिभ्यः व्यथितं जप्त्वा विमोचयेत् । 
भूतादिभ्यो विमुच्येत जलं पीत्वाभिमंत्रितम् ।।35।। 
भूत रोग तथा विष आदि से व्यथित पुरुष को गायत्री मन्त्र जपना चाहिये। 
(कुश से जल को स्पर्श करता हुआ गायत्री मन्त्र का जप करे। फिर इस जल को भूत, प्रेत तथा पिशाच आदि की पीड़ा से पीड़ित मनुष्य को पिला दिया जाये तो वह रोगमुक्त हो जाता है।) 
अभिमन्त्र्य शतं भस्मन्यसेद्भूतादिशान्तये । 
शिरसा धारयेद् भस्म मंत्रयित्वा तदित्यचा ।।36।। 
गायत्री मन्त्र से अभिमन्त्रित भस्म लगाने से भूत-प्रेत की शान्ति होती है। मन्त्र का उच्चारण करते हुए अभिमन्त्रित भस्म को पीड़ित व्यक्ति के मस्तक और सिर में लगाना चाहिये। 
अथ पुष्टिं श्रियं लक्ष्मीं पुस्पैर्हुत्वाप्नुयाद् द्विजः । 
श्री कामो जुहुयात् पद्मैः रक्तैः श्रियमवाप्नुयात् ।।37।। 
श्री और सौन्दर्य की कामना करने वाले पुरुष को रक्त कमल के फूलों से हवन करने पर श्री की प्राप्ति होती है। 
(लक्ष्मी की आकांक्षा करने वाले पुरुष को गायत्री मन्त्रोच्चारण के साथ पुष्पों से हवन करना चाहिये।) 
हुत्वा श्रियमवाप्नोति जाती पुष्पैर्नवैः शुभैः । 
शालितण्डुल होमेन श्रियमाप्नोति पुष्कलाम् ।।38।। 
जाती (चमेली, मालती) के पुष्पों से हवन किया जाए, तो लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। इसलिये लक्ष्मी की अभिलाषा वाले पुरुष को नवीन जाति के पुष्पों से हवन करना चाहिये। शालि चावलों से हवन करने पर लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। 
श्रियमाप्नोति परमां मूलस्य शकलैरपि । 
समिद्भिर्बिल्ववृक्षस्य पावसेन च सर्पिषा ।।39।। 
बिल्व वृक्ष के जड़ की समिधा, खीर तथा घी इनसे हवन करने पर लक्ष्मी की प्राप्ति होती है अथवा केवल जड़ का प्रयोग करने के स्थान में बिल्व वृक्ष की लकड़ी, पत्ते, पुष्प को लेकर सबको सुखा दें और कूट कर सामग्री बना लें, तब घी और खीर मिलाकर हवन करें। 
शतं-शतं च सप्ताहं हुत्वाश्रियमवाप्नुयात् । 
लाजैस्तु मधुरोपेतैर्होमे कन्यामवाप्नुयात् ।।40।। 
मधुत्रय मिलाकर लाजा से सात दिन तक सौ-सौ आहुतियां देकर हवन करने पर सुन्दर कन्या की प्राप्ति होती है। 
अनेन विधिना कन्या वरमाप्नोति वाञ्छितम् । 
हुत्वा रक्तोत्पलै हेमं सप्ताहं प्राप्नुयात्खलु ।।41।। 
इस विधि से होम करने पर कन्या अति सुन्दर और अभीष्ट वर प्राप्त करती है। सात दिन पर्यन्त लाल कमल के फूलों से हवन करने पर सुवर्ण की प्राप्ति होती है। 
सूर्यविम्बे जलं हुत्वा जलस्थं हेममाप्नुयात् । 
अन्नं हुत्वाप्नुयादन्नं ब्रीहीन्ब्रीहिपतिर्भवेत् ।।42।। 
सूर्य के मण्डल में जल छोड़ने से जल में स्थित सुवर्ण की प्राप्ति होती है। अन्न का होम करने पर अन्न की प्राप्ति होती है। 
करीषचूर्णैर्वत्सस्य हुत्वा पशुमवाप्नुयात् । 
प्रियंगु पायसाज्यैश्च भवेद्धोमादिष्ट सन्ततिः ।।43।। 
बछड़े के सूखे गोबर के होम करने से पशुओं की प्राप्ति होती है। काकुनि की खीर व घृत के होम से अभीष्ट प्रजा की प्राप्ति होती है ।।43।। 
निवेद्य भास्करायान्नं पायसं होमपूर्वकम् । 
भोजयेत्तदृतुस्नातां पुत्ररत्नमवाप्नुयात् ।।44।। 
सूर्य को होम पूर्वक पायस अन्न अर्पण करके, ऋतुस्नान की हुई स्त्री को भोजन कराने से पुत्र की प्राप्ति होती है। 
स प्ररोहाभिरार्द्राभिर्हत्वा आयुष्यमाप्नुयात् । 
समिद्भिः क्षीरवृक्षस्य हुत्वाऽऽयुष्यमवाप्नुयात् ।।45।। 
पलाश की गीली समिधा से होम करने पर आयु की वृद्धि होती है। क्षीर वृक्षों की समिधा से हवन किया जाए, तो भी आयु-वृद्धि होती है। 
स प्ररोहाभिरार्द्राभिर्युक्ताभिर्मधुरत्रयैः । 
ब्रीहीणां च शतं हुत्वा हेमं चायुरवाप्नुयात् ।।46।। 
पलाश समिधा के तथा यवों के होम करने से, मधुत्रय से और ब्रीहियों से सौ आहुति देने से सुवर्ण और आयु की प्राप्ति होती है। 
सुवर्ण कमलं हुत्वा शतमायुरवाप्नुयात् । 
दूर्वाभिः पयसा वापि मधुना सर्पिषापि वा ।।47।। 
शतं शतं च सप्ताहमपमृत्युं व्यपोहति । 
शमीसमिद्भिरन्नेन पयसा वा च सर्पिषा ।।48।। 
सुवर्ण कमल के होम से पुरुष शतजीवी होता है। दूर्वा, दुग्ध, मधु (शहद) और घी से सौ-सौ आहुतियां देने पर, अकाल मृत्यु का भय नहीं रहता। शमी (छोंकर) की समिधाओं से, दूध से तथा घी से हवन करने पर भी अल्पमृत्यु होने का डर नहीं रहता। 
शतं शतं च सप्ताहमपमृत्युं व्यपोहति । 
न्यग्रोध समिधो हुत्वा पायसं होमयेत्ततः ।।49।। 
वट वृक्ष की समिधाओं से सौ-सौ बार आहुति देने से भी अल्पमृत्यु का भय नहीं रहता। 
शतं शतं च सप्ताहमपमृत्युं व्यपोहति । 
क्षीराहारो जपेन्मृत्योः सप्ताहाद्विजयी भवेत् ।।50।। 
केवल एक सप्ताह तक दुग्धाहार करके सौ-सौ आहुतियां दी जायें तो पुरुष मृत्युजित् हो जाता है। 
अनश्नन्वाग्यतो जप्त्वा त्रिरात्रं मुच्यते यमात् । 
निमज्याप्सु जपेदेवं सद्यो मृत्योर्विमुच्यते ।।51।। 
तीन रात्रि बिना खाये रहकर, मन्त्र जप करने पर मृत्यु के भय से भी मुक्त हो जाता है। जल में निमग्न होकर गायत्री जाप करने से तत्क्षण ही मृत्यु से विमुक्ति हो जाती है। 
जपेद् बिल्वं समाश्रित्य मासं राज्यमवाप्नुयात् । 
बिल्वं हुत्वाप्नुयाद् राज्यं समूल फलपल्लवम् ।।52।। 
एक मास तक बिल्व वृक्ष के नीचे आसन लगाकर जप करने से राज्य की प्राप्ति होती है। बिल्व वृक्ष की जड़, फल, फूल और पत्तों से एक साथ हवन करने पर भी राज्य मिलता है। 
हुत्वा पद्मशतं मासं राज्यमाप्नोत्यकण्टकम् । 
यवागूं ग्राममाप्नोति हुत्वा शालिसमन्वितम् ।।53।। 
—दे. प्रा. 11/24/55 
एक मास पर्यन्त यदि कमल से हवन किया जाए, तो राज्य की प्राप्ति होती है। शालि से युक्त यवागु (जौ की खिचड़ी) से हवन किया जाय तो ग्राम की प्राप्ति होती है। 
अश्वत्थ समिधो हुत्या युद्धादौ जयमाप्नुयात् । 
अर्कस्य समिधो हुत्वा सर्वत्र विजयी भवेत् ।।54।। 
—दे. भा. 11/24/56 
पीपल की समिधाओं से हवन करने पर युद्ध में विजय प्राप्त होती है। आक की समिधाओं से हवन करने पर सर्वत्र ही विजय होती है। 
संयुक्तेः पयसा पत्रैः पुष्पैर्वा वेतसस्य च । 
पावसेन शतं हुत्वा सप्ताहं वृष्टिमाप्नुयात् ।।55।। 
वेत वृक्ष के फूलों से अथवा पत्र मिलाकर खीर से हवन करने पर वृष्टि होती है। 
नाभिदघ्ने जले जप्त्वा सप्ताहं वृष्टिमाप्नुयात् । 
जले भस्म शतं हुत्वा महावृष्टिं निवारयेत् ।।56।।
—11/24/58 
नाभि पर्यन्त जल में खड़े होकर एक सप्ताह तक गायत्री जपने से वृष्टि होती है और जल में सौ बार भस्म का हवन करने से अतिवृष्टि का निवारण होता है। 
पलाशीभिरवाप्नोति समिद्भिर्बह्मवर्चसम् । 
पलाशकुसुमैर्हुत्वा सर्वमिष्टमवाप्नुयात् ।।57।।
—11.24.59 
पलाश की समिधाओं से हवन करने पर ब्रह्मतेज की अभिवृद्धि होती है और पलाश के कुसुमों से हवन करने पर अपने सभी इष्टों की उपलब्धि होती है। 
पयोहुत्वाप्नुयान्मेधामाज्यं बुद्धिमवाप्नुयात् । 
पीत्वाभिमंत्र्य सुरसं ब्राह्म्या मेधामवाप्नुयात् ।।58।। 
दूध का हवन करने से तथा घृत की आहुतियां देने से बुद्धि-वृद्धि होती है। मंत्रोच्चारण करते हुए ब्रह्मी के रस का पान करने से चिरग्राहिणी बुद्धि होती है। 
पुष्प होमे भवेद्बासस्तन्तुभिस्तद्विधं पटम् । 
लवणं मधुना युक्तं हुत्वेष्टं वशमानयेत् ।।59।। 
पुष्प का होम करने पर वस्त्र और डोडों के होम से भी उसी प्रकार का वस्त्र मिलता है। नमक मिले हुए शहद से होम करने पर इष्ट वश में हो जाता है। 
नयेदिष्टं वशं हुत्वा लक्ष्मी पुष्पैर्मधुप्लुतैः । 
नित्यमञ्जलिनात्मानमभिसिंचन् जले स्थितः ।।60।। 
लक्ष्मी पुष्पों से मिले हुए शहद का हवन करने पर इष्ट वश में होता है। जल में स्थित होकर अंजलि द्वारा अपना अभिषेक करने (अंजलि से जल लेकर अपने ऊपर छिड़कने) से भी उपर्युक्त उद्देश्य की पूर्ति होती है। 
मतिमारोग्यमायुष्यन्नित्यं स्वास्थ्यमवाप्नुयात् । 
कुर्याद्विप्रोऽन्यमुद्दिश्य सोऽपि पुष्टिमवाप्नुयात् ।।61।। 
नियमित हवन करने से मति, नीरोगता, चिरायु और स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है। यदि ब्राह्मण किसी अन्य पुरुष के लिये करे, तो भी वह पुष्टि को प्राप्त होता है। 
सुचारु विधिना मासं सहस्रं प्रत्यहं जपेत् । 
आयुष्कामः शुचौ देशे प्राप्नुयादायुरुत्तमम् ।।62।। 
उचित रीति से प्रतिदिन एक सहस्र जप, एक मास तक करने से आयु की वृद्धि होती है, बल बढ़ता है तथा यह दीर्घायु, बल और उत्तम देश को प्राप्त होता है। 
आयुरारोग्यकामस्तु जपेन्मासद्वयं द्विजः । 
भवेदायुष्यमारोग्यं श्रियै मासत्रयं जपेत् ।।63।। 
आयु और आरोग्य के अभिलाषा युक्त द्विज को, दो मास तक इसका जप करना चाहिये। दो मास तक जप करने पर, आयु और आरोग्य दोनों ही उपलब्ध होते हैं और लक्ष्मी की कामना के लिये तीन मास तक जप करना आवश्यक है। 
आयुः श्रीपुत्र दाराद्याश्चतुर्भिश्च यशो जपात् । 
पुत्र दारायुरारोग्यं श्रियं विद्यां च पंचभिः ।।64।। 
चार मास तक जप करने से दीर्घायु, श्री (लक्ष्मी), स्त्री और यश की प्राप्ति होती है। पुत्र, कलत्र, आयु और आरोग्य, लक्ष्मी तथा विद्या की प्राप्ति हेतु पांच मास तक जप करना चाहिये। 
एवमेवोक्त—कामार्थं जपेन्मासैः सुनिश्चितैः । 
एकपादो जपेदूर्ध्वबाहुः स्थित्वा निराश्रयः ।।65।। 
इस प्रकार उपर्युक्त वस्तुओं की प्राप्ति के लिये निर्दिष्ट मासों तक जप करना आवश्यक है। एक पैर पर बिना किसी का आश्रय लिये खड़े रह कर तथा ऊपर को भुजायें लम्बी कर जप करना चाहिये। 
मासं शतत्रयं विप्रः सर्वान्कामानवाप्नुयात् । 
एवं शतोत्तरं जप्त्वा सहस्रं सर्वमाप्नुयात् ।।66।। 
इस प्रकार एक मास तक 300 मन्त्र प्रतिदिन जाप करने पर सब कार्यों की सिद्धि प्राप्त होती है। इसी प्रकार ग्यारह सौ नित्य जपने से सर्व कार्य सम्पन्न हो जाते हैं। 
रुद्ध्वा प्राणमपानं च जयेन्मासं शतत्रयम् । 
यदिच्छेत्तदवाप्नोति सर्वं स्वाभीष्टमाप्नुयात् ।।67।। 
प्राण-अपान वायु को रोककर एक मास तक प्रतिदिन तीन सौ मन्त्र जपने से इच्छित वस्तु की उपलब्धि होती है। 
एकपादो जयेदूर्घ्व बाहू रुध्वानिलं वशी । 
मासं शतमवाप्नोति यदिच्छेदिति कौशिकः ।।68।। 
आकाश की ओर भुजा उठाए हुए और एक पैर के ऊपर खड़ा होकर सांस को यथाशक्ति अवरोध कर एक मास तक 100 मन्त्र प्रतिदिन जपने से अभीष्ट वस्तुओं की प्राप्ति होती है, ऐसा कौशिक का मत है। 
एवं शतत्रयं जप्त्वा, सहस्रं सर्वमाप्नुयात् । 
निमज्ज्याप्सु जपेन्मासं शतमिष्टमवाप्नुयात् ।।69।। 
जल के भीतर डुबकी लगाकर एक मास तक 300 मन्त्र प्रतिदिन जप करने से सभी अभीष्ट वस्तुओं की प्राप्ति होती है। 
एवं शतत्रयं जप्त्वा सहस्रं सर्वमाप्नुयात् । 
एकपादो जपेदूर्ध्वबाहू रुद्ध्वा निराश्रयः ।।70।। 
इसी प्रकार 1300 मन्त्र प्रतिदिन जप करने से सभी वस्तुओं की प्राप्ति होती है। जपने के समय एक पैर पर खड़े होकर आकाश की ओर बाहु लम्बी किये और बिना किसी का आश्रय लिये खड़ा होना चाहिये। 
नक्तमश्नन्हविष्यान्नं वत्सरादृषिताभियात् । 
गीरमोघा भवेदेवं जप्त्वा सम्वत्सरद्वयम् ।।71।। 
इसी प्रकार एक पैर पर खड़े होकर रात्रि में हविष्यान्न खाकर एक वर्ष तक जप करने से मनुष्य ऋषि हो जाता है। इसी प्रकार दो वर्ष तक जप करने से वाणी अमोध होती है। 
त्रिवत्सरं जपेदेवं भवेत् त्रैकालदर्शनम् । 
आयाति भगवान्देवश्चतुः सम्वत्सरं जपेत् ।।72।। 
तीन वर्ष तक इसी विधि के अनुसार जप करने से मनुष्य त्रिकालदर्शी हो जाता है और यदि चार वर्ष तक इसका जप उक्त विधि से किया गया, तो भगवान् ही निकट आ जाते हैं। 
पञ्चभिर्वत्सरैरेवमणिमादियुतो भवेत् । 
एवं षड्वत्सरं जप्त्वा कामरूपित्वमाप्नुयात् ।।73।। 
पांच वर्ष पर्यन्त जप करते रहने से अणिमा आदि अष्ट सिद्धियों की प्राप्ति होती है और छः वर्ष तक एक पाद पर स्थिर होकर ऊर्ध्व बाहु किये जप करने से इच्छा-रूप (जैसा वेश बनाने की इच्छा हो, वैसा ही रूप धारण कर लेना) हो जाता है। 
सप्तभिर्वत्सरैरेवममरत्वमवाप्नुयात् । 
मनुत्व-सिद्धिर्नवभिरिन्द्रत्वं दशभिर्भवेत् ।।74।। 
सात वर्ष तक जप करने से अमरता प्राप्त होती है अर्थात् देव-योनि मिल जाती है। नौ वर्ष पर्यन्त जप करने से मनु की पदवी और दस वर्ष में इन्द्रासन ही मिल जाता है। 
एकादशभिराप्नोति प्राजापत्यं तु वत्सरैः । 
ब्रह्मत्वं प्राप्नुयादेवं जप्त्वा द्वादशवत्सरान् ।।75।। 
ऐसे एक आसन के सहारे ग्यारह वर्ष तक जप किया जाय, तो मनुष्य प्रजापति के भाव को प्राप्त कर लेता है और बारह वर्ष पश्चात् तो ब्रह्मपद को ही प्राप्त कर लेता है। 
एतेनैव जिता लोकास्तपसा नारदादिभिः । 
शाकमन्येऽपरे मूलं फलमन्ये पयोऽपरे ।।76।। 
इसी तप से नारदजी आदि ऋषियों ने सम्पूर्ण लोकों को जीत लिया था, जिसमें कुछ शाकाहारी थे, दूसरे कन्द भोजी, कुछ फल खाने वाले और कुछ दूध पर निर्भर रहते थे। 
घृतमन्येऽपरे सोममपरे चरुवृत्तयः । 
ऋषयः भैक्ष्यमश्नन्ति केचिद् भैक्षाशिनोऽहनि ।।77।। 
कुछ घृताहारी, दूसरे सोमपान करने वाले, कुछ चरु ग्रहण करने वाले और कुछ ऐसे थे जो भिक्षान्न पर ही निर्वाह करते थे। 
हविष्यमपरेऽश्नन्तः कुर्वन्त्येवं परंतपः । 
अथ शुद्ध्यै रहस्यानां त्रिसहस्त्रं जपेद द्विजः ।।78।। 
कुछ लोग हविष्य को खाते हुए महान् जप करते थे। द्विज को पापों के निवारणार्थ तीन सहस्र जप करना चाहिये। 
मासं शुद्धो भवेत्स्तेयात्सुवर्णस्य द्विजोत्तमः । 
जपेन्मासं त्रिसहस्रं सुरापः शुद्धिमाप्नुयात् ।।79।। 
यदि किसी द्विज के द्वारा सुवर्ण चुरा लिया गया हो, तो इस पाप से मुक्त होने के लिये, एक मास पर्यन्त जप करना चाहिये। जिस द्विज ने मदिरा पान कर लिया हो, तो उसे पूरे एक मास पर्यन्त 3000 मंत्र प्रतिदिन जप करना चाहिये। 
मासं जपेत् त्रिसाहस्रं शुचिः स्याद् गुरुतल्पगः । 
त्रिसहस्रं जपेन्मासं कुटीं कृत्वा वने वसन् ।।80।। 
ब्रहाहत्योद्भवात्पापान्मुक्तिः कौशिकभाषितम् । 
द्वादशाहं निमज्याप्सु सहस्रं प्रत्यहं जपेत् ।।81।। 
गुरु शय्यागामी को शुद्ध होने के लिये एक मास तक 3000 मंत्र का जप प्रतिदिन करना चाहिये। जंगल में कुटी बनाकर रहकर और तीन सहस्र प्रतिदिन जप करने से ब्रह्महत्या करने वाला हत्या रूपी महान् पातक से विमुक्त हो जाता है, ऐसा विश्वामित्र ने कहा है। बारह दिन तक जल में डुबकी लगाकर सहस्र गायत्री का जप करे। 
मुक्ताः स्युरघव्यूहाच्च महापातकिनो द्विजाः । 
त्रिसाहस्रं जपेन्मासं प्राणानायम्य वाग्यतः ।।82।। 
उपर्युक्त जप को शुद्ध होकर प्राणायाम करके 3000 मन्त्र एक मास तक जपने से महान् पातक से भी छूट जाता है। 
महापातकयुक्तोऽपि मुच्यते महतो भयात् । 
प्राणायाम-सहस्रेण ब्रह्महापि विशुध्यति ।।83।। 
महापातकी ही क्यों न हो, वह महान् भय से मुक्त हो जाता है। एक सहस्र प्राणायाम करने से ब्रह्मघाती भी विशुद्ध हो जाता है। 
षट् कृत्वो ह्यभ्यसेदूर्ध्व प्राणापानौ समाहितः । 
प्राणायामो भवेदेव सर्वपाप-प्रणाशनः ।।84।। 
छः बार प्राणापान को ऊपर करके जो प्राणायाम किया जाता है, वह सब पापों का विनाश करता है। 
सहस्रमभ्यसेन्मासं क्षितिपः शुचितामियात् । 
द्वादशाहं त्रिसाहस्रं जपेद्धि गोवधे द्विजः ।।85।। 
राजा एक मास तक जपता हुआ पवित्रता को प्राप्त होता है और गो-हत्या हो जाने पर बारह दिन तक 3000 जप प्रतिदिन करे। 
अगम्यगमने स्तेये हननेऽभक्ष्यभक्षणे । 
दश साहस्रमभ्यस्ता गायत्री शोधयेत् द्विजम् ।।86।। 
अगम्य स्थान में गमन करना, चोरी, मारना, अभक्ष्य वस्तु का भक्षण कर लेना, इन दोषों को मिटाने के निमित्त दस हजार गायत्री का जप करना चाहिये। इससे द्विज की शुद्धि होती है। 
प्राणायामशतं कृत्वा मुच्यते सर्वकिल्विषात् । 
सर्वेषामेव पापानां संकरे सति शुद्धये ।।87।। 
सम्पूर्ण पापों से एक साथ ही दूषित होने पर अथवा जब किसी पुरुष को एक साथ ही अनेक पापों ने दोषयुक्त बना दिया हो, तो सौ प्राणायाम कर इन पापों से मुक्त होना चाहिये। 
सहस्रमभ्यसेन्मासं नित्य जापी वने वसन् । 
उपवाससमो जापस्त्रिसहस्रं तदित्यूचः ।।88।। 
वन में बसकर हजार जप करता हुआ एक मास तक ठहरे, इससे सभी कल्मष दूर होते हैं। तीन हजार जप करने से एक उपवास के समान पुण्य मिलता है। 
चतुर्विंशति साहस्रमभ्यस्ता कृच्छ्रसंज्ञिता । 
चतुष्षष्टिः सहस्राणि चान्द्रायणसमानि तु ।।89।। 
चौबीस सहस्र जप करने से एक कृच्छ के समान और चौसठ हजार का फल एक चान्द्रायण व्रत के समान होता है। 
शतकृत्वोऽभ्यसेन्नित्यं प्राणानायम्य सन्ध्ययोः । 
तदित्यूचमवाप्नोति सर्वपापक्षयं परम् ।।10।। 
प्रातः और सायं—दोनों सन्ध्याओं में सौ-सौ बार जपने से सभी पाप छूट जाते हैं। 
निमज्याप्सु जपेन्नित्यं शतकृत्वस्तदित्यूचम् । 
ध्यायेद् देवीं सूर्यरूपां सर्वपापैः प्रमुच्यते ।।11।। 
जल में निमग्न होकर एक शत, गायत्री नित्य जप करके सब पापों से मुक्त हों। जप करते समय सूर्य-रूपी गायत्री का ध्यान करते रहें। 
इति मे सम्यगाख्याताः, शान्ति-शुद्ध्यादि कल्पनाः । 
रहस्यातिरहस्याश्च गोपनीयास्त्वया सदा ।।92।। 
हे नारदजी! यह हमने आपसे शान्ति शुद्ध्यादि-कल्पना रहस्य कहा है। यह रहस्य का भी रहस्य है, यह आपको सदैव गुप्त रखने योग्य है। 
इति संक्षेपतः प्रोक्तः सदाचारस्य संग्रहः । 
विधिनाचरणादस्य माया दुर्गा प्रसीदति ।।93।। 
यह सदाचार का संग्रह आपको संक्षेप से सुनाया। इसका विधिपूर्वक आचरण करने से माया, दुर्गा प्रसन्न होती हैं। 
नैमित्तिकं च नित्यं च काम्यं कर्म यथाविधि । 
आचरेन्मनुजः सोऽयं मुक्तिभुक्तिफलाप्तिभाक् ।।94।। 
नित्य, नैमित्तिक कर्म जो यथाविधि करता है, वह पुरुष भक्ति और मुक्ति दोनों का अधिकारी होता है। 
आचारः प्रथमो धर्मो धर्मस्य प्रभुरीश्वरी । 
इत्युक्तं सर्वशास्त्रेषु सदाचार-फलं महत् ।।95।। 
आचार को प्रथम धर्म कहा है तथा धर्म की स्वामिनी देवी को कहा है। यही सम्पूर्ण शास्त्रों में बतलाया गया है कि सदाचार के समान कोई भी वस्तु महान् फलदायिनी नहीं है। 
आचारवान्सदा पूतः सदैवाचारवान्सुखी । 
अचारवान्सदा धन्यः सत्यं सत्यं च नारद ।।96।। 
सदाचारी पुरुष सदा पवित्र और सदा सुखी होता है। हे नारद! इसमें असत्य नहीं है कि सदाचारयुक्त पुरुष धन्य होता है। 
देवीप्रसाद-जनकं सदाचार-विधानकम् । 
श्रावयेत् शृणुयान्मर्त्यो महासम्पत्तिसौख्यभाक् ।।97।। 
जो देवी के प्रसाद जनक सदाचार विधि को सुनता और सुनाता है, वह सब प्रकार से धनी और सुख का भागी होता है। 
जप्यं त्रिवर्ग संयुक्तं गृहस्थेन विशेषतः । 
मुनीनां ज्ञानसिद्ध्यर्थं यतीनां मोक्षसिद्धये ।।98।। 
विशेषतः जप करने वाले गृहस्थों को त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ, काम की प्राप्ति होती है। मुनियों को ज्ञान-सिद्धि तथा यतियों को मोक्ष की सिद्धि होती है। 
त्रिरात्रोपोषितः सम्यघृतं हुत्वा सहस्रशः । 
सहस्रं लाभमाप्नोति हुत्वाग्नौ खदिरेन्धनम् ।।99।। 
तीन रात उपवास करके अच्छी प्रकार से हजार घी की आहुति, खदिर की समिधाओं से अग्नि में देने पर बहुसंख्यक धन-प्राप्ति का लाभ होता है। 
पलाशैर्हि समिद्भिश्च धृताक्तैस्तु हुताशने । 
सहस्रं लाभमाप्नोति राहुसूर्य-समागमे ।।100।। 
घृत युक्त पलाश की समिधायें सूर्यग्रहण के समय अग्नि में हवन करने से सहस्र धन की प्राप्ति होती है। 
हुत्वा तु खदिरं वह्नौ घृताक्तं रक्तचन्दनम् । 
सहस्रं हेममाप्नोति राहुचन्द्र-समागमे ।।101।। 
खदिर तथा रक्त चन्दन को घृत युक्त करके चन्द्रग्रहण के अवसर पर अग्नि में हवन करने से सहस्र स्वर्ण की प्राप्ति होती है। 
रक्तचन्दन-चूर्णं तु सघृतं हव्यवाहने । 
हुत्वा गोमयमाप्नोति सहस्रं गोमयं द्विजः ।।102।। 
रक्त चन्दन को घी में भिगोकर अग्नि में हजार बार आहुति देने से घी, दूध आदि गोमय की कमी नहीं रहती। 
जाती-चम्पक-राजार्क-कुसुमानां सहस्रशः । 
हुत्वा वस्त्रमवाप्नोति घृताक्तानां हुताशने ।।103।। 
जाती, चम्पक, राजार्क के फूलों को घृतयुक्त करके अग्नि में हवन करने से वस्त्र प्राप्त होते हैं। 
सूर्यमण्डल-विम्बे च हुत्वा तोयं सहस्रशः । 
सहस्रं प्राप्नुयाद्धेयं रौप्यमिन्दुमये हुते ।।104।। 
जब सूर्य मण्डल का विम्ब मात्र झलक रहा हो अर्थात् सूर्योदय हो रहा हो, उस समय हजार बार तर्पण करने तथा सूर्योदय से पूर्व चन्द्रकाल में एक हजार आहुतियां देने से सोना, चांदी की प्राप्ति होती है। 
अलक्ष्मीपाप-संयुक्तो मलव्याधि-समन्वितः । 
मुक्तः सहस्रजाप्येन स्नायाद्यस्तु जलेन वै ।।105।। 
जल में स्नान करके एक हजार बार जप करने से अलक्ष्मी, पाप, मल, व्याधि नष्ट हो जाते हैं। 
गोघृतेन सहस्रेण लोधेण जुहुयाद्यदि । 
चौराग्निमारुतोत्थानि भयानि न भवन्ति वै ।।106।। 
लोध को गो-घृत में मिलाकर हजार बार होमने से चोर, अग्नि, वायु के उपद्रवों का भय नष्ट हो जाता है। 
क्षीराहारो जपेल्लक्षमपमृत्युमपोहति । 
घृताशी प्राप्नुयान्मेधां बहु विज्ञान संचयाम् ।।107।। 
दूध पीकर एक लक्ष गायत्री का जप करने से अकाल मृत्यु का डर चला जाता है। घी खाने वाला मेधा प्राप्त करता है, जिससे बहुत प्रकार के विज्ञान का संचय होता है। 
हुत्वा वेतसपत्राणि घृताक्तानि हुताशने । 
लक्षाधिपस्य पदवीमाप्नोतीति न संशयः ।।108।। 
वेतस पत्रों को घी में मिलाकर अग्नि में हवन करने से लक्षाधिपति की पदवी प्राप्त हो जाती है। 
लाक्षा भस्म होमञ्च कृत्वा ह्युत्तिष्ठते जलात् । 
आदित्याभिमुखं स्थित्वा नाभि मात्रजले शुचौ ।।109।। 
गर्भपातादि प्रदराश्चान्ये स्त्रीणां महारुजः । 
नाशमेष्यन्ति ते सर्वे मृतवत्सादि दुःखदाः ।।110।। 
जल में स्थिर होकर लाख की भस्म की आहुति दे तथा सूर्य के सम्मुख नाभिमात्र जल में शुद्ध होकर खड़ा रहे तो गर्भपात, प्रदर, मृत सन्तान की उत्पत्ति आदि स्त्री सम्बन्धी महारोग दूर हो जाते हैं। 
तिलानां लक्षहोमेन घृताक्तानां हुताशने । 
सर्वकामसमृद्धात्मा परं स्थानमवाप्नुयात् ।।111।। 
घी मिलाकर तिलों से अग्नि में एक लाख बार हवन करने से सब कामनाओं की सिद्धि होती है तथा परम स्थान की प्राप्ति होती है। 
यवानां लक्षहोमेन घृताक्तानां हुताशने । 
सर्वकामसमृद्धात्मा परां सिद्धिमवाप्नुयात् ।।112।। 
यवों में घी मिलाकर एक लाख बार अग्नि में आहुति देने से सब कर्मों की सिद्धि होती है तथा परासिद्धि प्राप्त होती है। 
घृतस्याहुतिलक्षेणसर्वान्कामानवाप्नुयात् । 
पञ्चगव्याशनो लक्षं जपेच्चाति स्मृतिर्भवेत् ।।113।। 
एक लाख बार घी की आहुति देने से सब कामों की सिद्धि होती है। पंचगव्य पीकर एक लाख जप करने से स्मृति की वृद्धि होती है। 
अन्नादि-हवनान्नित्यमन्नादिश्च भवेत्सदा । 
तदेव ह्यनले हुत्वा प्राप्नोति बहुसाधनम् ।।114।। 
इसी प्रकार अन्नादि से नित्य हवन करने से अन्नादि प्राप्त होता है और अग्नि में आहुति देने से बहुत-सा साधन-सामान प्राप्त होता है। 
लवणं मधुसंयुक्तं हुत्वा सर्ववशी भवेत् । 
हुत्वा तु करवीराणि रक्तानि ज्वालयेज्ज्वरम् ।।115।। 
नमक और मधु मिलाकर हवन करने से सब वश में हो जाते हैं। ज्वर नष्ट करने के लिये लाल कनेर के फूलों से हवन करना चाहिये। 
हुत्वा भल्लातकं-तैलं देशादेव प्रचालयेत् । 
हुत्वा तु निम्ब-पत्राणि विद्वेषं शमयेन्नृणाम् ।।116।। 
भिलावे के तेल द्वारा हवन करने से उच्चाटन हो जाता है। नीम के पत्तों के हवन करने से विद्वेष दूर हो जाता है। 
सुरक्तान्तण्डुलान्नित्यं घृताक्तान् च हुताशने । 
हुत्वा बलमवाप्नोति शत्रुभिर्न स जीर्यते ।।117।। 
लाल चावलों को घी में मिलाकर अग्नि में हवन करने से बल की प्राप्ति होती है और शत्रुओं का क्षय होता है। 
प्रत्यानयन-सिद्ध्यर्थं मधुसर्पिः समन्वितम् । 
गवां क्षीरं प्रदीप्तेऽग्नौ जुह्वतस्तत्प्रशाम्यति ।।118।। 
मधु घी संयुक्त करके किसी को वापस बुलाने के लिये हवन करना चाहिये। गाय के दूध का अग्नि में हवन करने से शान्ति का निवास हो जाता है। 
ब्रह्मचारी जिताहारो यः सहस्रत्रयं जपेत् । 
सम्वत्सरे लभते धनैश्वर्यं न संशयः ।।119।। 
आहार जीतकर जो ब्रह्मचारी तीन हजार गायत्री जप करता है, वह वर्ष में धन, ऐश्वर्य आदि प्राप्त कर लेता है, इसमें संशय नहीं है। 
शमीबिल्वपलाशानामर्कस्य तु विशेषतः । 
पुष्पाणां हि समिद्भिश्च हुत्वा हेममवाप्नुयात् ।।120।। 
शमी, बिल्व, पलाश और खासतौर से अर्क या आक के पुष्पों की समिधा बनाकर जो हवन करते हैं, उन्हें स्वर्ण की प्राप्ति होती है। 
आब्रह्म त्र्यम्बकाद्यन्तं यो हि प्रयतमानसः । 
जपेल्लक्षं निराहारः गायत्री वरदा भवेत् ।।121।। 
‘‘आब्रह्म से त्र्यम्बकं यजामहे’’ तक एक लाख बार निराहार होकर जपने से गायत्री वरदा हो जाती है। 
महारोगा विनश्यन्ति लक्ष जप्यानुभावतः । 
स्नात्वा तथैव गायत्र्याः शतमन्तर्जले जपेत् ।।122।। 
भावनापूर्वक एक लाख बार गायत्री जपने से महारोग नष्ट हो जाते हैं तथा स्नान करके जल के भीतर सौ बार जप करने से भी रोग दूर होते हैं। 
स्वर्णहारी, तैलहारी, यस्तु विप्रः सुरां पिबेत् । 
चन्दनद्वय-संयुक्तं कर्पूरं तण्डुलं यवम् ।।123।। 
लवंगं सुफलं चाज्यं सितां चाग्रस्य दारुकम् । 
जुहुयाद्धिधिरुक्तोऽयं गायत्र्याः प्रीतिकारकः ।।124।। 
स्वर्ण, तेल की चोरी करने तथा सुरा पीने का पाप नष्ट होने के लिये विप्र दोनों चन्दन, कपूर, चावल, यव, लवंग, नारियल,आज्य, मिश्री, आम की लकड़ी इन सबसे हवन करे। इस सामग्री से किया हुआ हवन गायत्री को प्रिय है। 
क्षीरोदनं तिलान्दूर्वां क्षीरद्रुमसमिद्वरान् । 
पृथक् सहस्रत्रितयं जुहुयान्मन्त्र-सिद्धये ।।115।। 
प्रणवयुक्त 24 लाख गायत्री जप, जपसिद्धि के लिये पृथक् दूध, भात, तिल, दूर्वा, बरगद, गूलर आदि दूध वाले वृक्षों की समिधाओं से तीन हजार गायत्री का हवन करे। 
तत्त्वसंख्या सहस्राणि मन्त्रविज्जुहुयात्तिलैः । 
सर्वपापविनिर्मुक्तो दीर्घमायुः स विन्दति ।।126।। 
तिलों से 24 हजार आहुति देने वाला समस्त पापों से रहित हो दीर्घायु हो जाता है। 
आयुषे साज्यहविषा केवलेनाथ सर्पिषा । 
दूर्वाक्षीरतिलैर्मन्त्री जुहुयात्त्रिहस्रकम् ।।127।। 
आयु की कामना से घृतयुक्त सामग्री अथवा केवल घृत से, खीर से, दूध और तिलों से तीन हजार आहुति दे। 
अरुणाब्जैस्त्रिमध्वक्तैर्जुहुयादयुतं ततः । 
महालक्ष्मीर्भवेत्तस्य पण्मासान्न संशयः ।।128।। 
तदनन्तर लाल कमलों से, त्रिमधु-युक्त दश हजार आहुति दे, तो छः महीने में महान् धनवान् हो जाता है, इसमें सन्देह नहीं। 
सव्याहृतिं सप्रणवां गायत्रीं शिरसा सह । 
ये जपन्ति सदा तेषां न भयं विद्यते क्वचित् ।।129।। 
जो मनुष्य प्रणव, व्याहृति तथा शिर सहित गायत्री मन्त्र का जप करते हैं, उनको कहीं पर भी भय नहीं होता है। 
शतं जप्ता तु सा देवी दिनपापप्रणाशिनी । 
सहस्रं जप्ता सा देवी सर्वकल्मषनाशिनी ।।130।। 
सौ बार गायत्री का जप करने से दिन भर का पाप नष्ट होता है और हजार बार जपने से अनेक पातकों से मुक्त हो जाता है। 
दशसहस्र जप्तासा पातकेभ्यः समुद्धरेत् । 
स्वर्णस्तेयकृद्यो विप्रो ब्राह्मणो गुरुतल्पगः ।।131।। 
दस हजार बार गायत्री जपने से सोने की चोरी करने तथा गुरु की स्त्री से गमन करने के पापों से मुक्त हो जाता है। 
सुरापश्च विशुध्येत लक्षजापान्न संशयः । 
प्राणायापत्रयं कृत्वा स्नानकाले समाहितः ।।132।। 
स्नान-काल में तीन बार प्राणायाम कर यदि गायत्री का एक लाख जप करे, तो मदिरापान के दोष से छूट जाता है। 
अहोरात्रकृतात्पापात्तत्क्षणादेव मुच्यते । 
प्राणायामैः षोडशभिर्व्याहृतिप्रणवान्वितैः ।।133।। 
प्रणव, महाव्याहृति पूर्वक यदि प्राणायाम सोलह बार करे तो तत्क्षण ही रात-दिन के पाप से छूट जाता है। 
भ्रूणहत्यायुतं दोषं पुनाति सहस्रं जपात् । 
हुता देवी विशेषेण सर्वकामप्रदायिनी ।।134।। 
एक हजार नित्य गायत्री का जप, एक मास तक करने से भ्रूण हत्या के दोष को भी नाश कर देता है। विशेषकर गायत्री मन्त्र द्वारा हवन करने से समस्त कामनाएं पूर्ण होती हैं। 
सर्वपापक्षयकरी वरदा भक्तवत्सला । 
शान्तिकामस्तु जुहुयात् सावित्रीमक्षतैः शुचिः ।।135।। 
गायत्री समस्त पापनाशिनी और वर देने वाली तथा भक्तों पर कृपा करने वाली है। अतः शान्ति की कामना करने वाला पुरुष पवित्र होकर चावलों से गायत्री मन्त्र द्वारा हवन करे। 
हन्तुकामोऽपमृत्युं च घृतेन जुहुयात्तथा । 
श्रीकामस्तु तथा पद्मैर्बिल्वैः काञ्चनकामुकः ।।136।। 
अपमृत्यु को नाश करने की इच्छा वाला पुरुष घृत द्वारा, शोभा की इच्छा करने वाला पद्मों से और सोने की इच्छा करने वाला बेलपत्तों द्वारा गायत्री मन्त्र का हवन करे। 
ब्रह्मवर्चसकामस्तु पयसा जुहुयात्तथा । 
घृताप्लुतैस्तिलैरग्नौ जुहुवात्सुसमाहितः ।।137।। 
ब्रह्म-तेज की कामना करने वाला व्यक्ति सावधानीपूर्वक वातयुक्त तिलों से और घी से हवन करे। 
गायत्र्ययुत-होमाच्च सर्वपापैः प्रमुच्यते । 
पापात्मा लक्ष-होमेन पातकेभ्यः प्रमुच्यते ।।138।। 
दस हजार गायत्री के हवन करने से पापमुक्त हो जाता है और एक लाख बार हवन करने से पापी पुरुष बड़े पाप से छूट जाता है। 
इष्ट लोकमवाप्नोति प्राप्नुयात्काममीप्सितम् । 
गायत्री वेदजननी गायत्री पापनाशिनी ।।139।। 
गायत्री वेदों की माता एवं पाप नाश करने वाली है। अतः गायत्री की उपासना करने वाला व्यक्ति इच्छित लोकों को प्राप्त करता है। 
उपांशुः स्याच्छतगुणः साहस्रो मानसः स्मृतः । 
नोच्चैर्जपमतः कुर्यात्सावित्र्यास्तु विशेषतः ।।140।। 
उपांशु (जिसमें होठ मात्र हिलें) भाव से अपने पर सौ गुना फल प्राप्त होता है और मन में जपने से हजार गुना फल होता है। अतः गायत्री का जप विशेषतया उच्च स्वर में न करें। 
सावित्रीजाप-निरतः स्वर्गमाप्नोति मानवः । 
गायत्रीजाप-निरतो मोक्षोपायं च विन्दति ।।141।। 
गायत्री जपने वाला पुरुष स्वर्ग को प्राप्त करता है और मोक्ष को भी प्राप्त करता है। 
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन स्नातः प्रयतमानसः । 
गायत्रीं तु जपेद्भक्त्या सर्वपापप्रणाशिनी ।।142।। 
इस कारण से समस्त प्रयत्नों द्वारा स्नान कर स्थिर चित्त हो सर्व पाप-नाश करने वाली गायत्री का जप करे। 
एवं यः कुरुते राजा लक्षहोमं यतव्रतः । 
न तस्य शत्रवः संख्ये अग्ने तिष्ठन्ति कर्हिचित् ।।143।। 
जो राजा व्रतपूर्वक गायत्री का एक लक्ष होम करता है, उसके शत्रु युद्ध-भूमि में उसके आगे कदापि नहीं ठहरते। 
नाकाल-मरणं देशे व्याधिर्वा जायते तथा । 
अतिवृष्टिरनावृष्टिर्मूषकाः शलभाः शुकाः ।।144।। 
उसके देश में अकाल-मृत्यु तथा व्याधि का कभी भय नहीं रहता। अतिवर्षण, अवर्षण, मूषक, शलभ (टिड्डी आदि) पक्षियों से रक्षा भी होती है। 
राक्षसाद्याः विनश्यन्ति सर्वास्तत्र तथेतयः ।।145।। 
रसवन्ति च तोयानि राज्यं च निरुपद्रवम् । 
धर्मिष्ठा जायते चेष्टा भद्रं भवति सर्वतः ।।146।। 
उसे सब प्रकार की ईतियों का और राक्षसों का भय नहीं रहता अर्थात् इन सबका विनाश हो जाता है, सबकी धर्मनिष्ठ चेष्टा होती है और सभी ओर कल्याण होता है। 
कोटि होमं तु यो राजा कारयेद्विधिपूर्वकम् । 
न तस्य मानसो दाह इह लोके परत्र च ।। 
कोटि होमे तु वरयेत् ब्राह्मणान् विंशति न्नृपः ।।147।। 
जो नृपति एक कोटि संख्या में सविधि होम करता है, उसका चित्त स्थिर और शान्त रहता है। उसे मानसिक दाह, इस लोक और परलोक में कहीं भी व्यथित नहीं करते। इस कोटि होम में राजा बीस ब्राह्मणों का वरण करे। 
शतं वाथ सहस्रं वा य इच्छेद गतिमात्मनः । 
कोटि होमं स्वयं यस्तु कुरुते श्रद्धया द्विजः ।।148।। 
क्षत्रियो वाथ वैश्यो वा तस्य पुण्यफलं महत् । 
यद् यदिच्छति कामानां तत्तदाप्नोत्यसंशयम् ।।149।। 
जो द्विज आत्मा की सद्गति के लिये सौ या एक सहस्र अथवा एक करोड़ होम स्वयं करता है, उसे और इस प्रकार श्रद्धान्वित होकर करने पर क्षत्रिय हो अथवा वैश्य उसे महान् पुण्य का फल प्राप्त होता है और वह जिन-जिन वस्तुओं की अभिलाषा करता है, उसे वह निस्संदेह मिलती है। 
सशरीरोऽपि चेद् गन्तुं दिवमिच्छेत्तदाप्नुयात् । 
सावित्री परमा देवी सावित्री परमात्परा ।।150।। 
सावित्री देवी—जो देवाधिदेव रूप हैं तथा पर से पर हैं, उनका आश्रय लेने पर मनुष्य की सदेह स्वर्ग जाने की अभिलाषा भी पूर्ण होती है। 
सर्वकामप्रदा चैव सावित्री कथिता पुनः । 
अभिचारेषु तां देवीं विपरीत विचिन्तयेत् ।।151।। 
सब कामों और मनोभिलाषाओं की प्रदायिनी सावित्री कही गयी है। इसके अभिचार में विपरीत चिन्तन करना चाहिये। 
कार्या व्याहृतयश्चात्र विपरीताक्षरास्तथा । 
विपरीताक्षरं कार्य शिरश्च ऋषिसत्तम ! ।।152।। 
यहां विपरीताक्षर व्याहृतियों का उच्चारण करना चाहिये। हे ऋषि श्रेष्ठ! इसके सिर अक्षरों को भी विपरीत मानना चाहिये। 
आदौ शिरः प्रयोक्तव्यं प्रणवोऽन्ते च वै ऋषे ! 
भीतिस्थेनेव फट्कारं मध्ये नाम प्रकीर्तितम् ।।153।। 
प्रारम्भ में शिर का प्रयोग करना चाहिये तथा प्रणव को अंत में उच्चारण करना चाहिये और फट्कार को मध्य में प्रयुक्त करे। 
गायत्रीं चिन्तयेत्तत्र दीप्तानलसमप्रभाम् । 
घातयन्तीं त्रिशूलेन केशेष्वाक्षिप्य वैरिणम् ।।154।। 
प्रज्वलित अग्नि की आभा के समान आभा वाली गायत्री का चिन्तन करे और ऐसा ध्यान करे कि वह शत्रुओं के केशों को पकड़कर अपने त्रिशूल द्वारा उन पर घात कर रही है। 
एवं विधा च गायत्री जप्तव्या राजसत्तम ! 
होतव्या च यथा शक्त्या सर्वकामसमृद्धिदा ।।155।। 
हे राजसत्तम! सकल कामनाओं को देने वाली गायत्री को इस प्रकार जपना चाहिये और शक्ति के अनुसार होम करना चाहिये। 
निर्दहन्तीं त्रिशूलेन भृकुटी भूषिताननाम् । 
उच्चाटने तु तां देवीं वायुभूतां विचिन्तयेत् ।।156।। 
अपने त्रिशूल से दहन करती हुई तथा चढ़ी हुई भृकुटी से सुशोभित मुख मण्डल वाली, उस वायुभूत देवी का उच्चाटन काल में चिन्तन करे। 
धावमानं तथा साध्यं तस्माद् देशात्तु दूरतः । 
अभिचारेषु होतव्या राजिका विषमिश्रिताः ।।157।। 
धावमान तथा साध्य को उस देश से दूर से अभिचार में विष मिश्रित होम करना चाहिये। 
स्वरक्तसिक्तं होतव्यं कटुतैलमथापि वा । 
तत्राऽपि च विषं देयं होमकाले प्रयत्नतः ।।158।। 
अपने रक्त को कड़वे तेल में मिलाकर तथा उसमें विष मिलाकर यत्नपूर्वक होम काल में देना चाहिये। 
क्रोधेन महताविष्टः परान्नाभिचरेद्वधः । 
जुहुयात् यदि क्रोधेन ध्रुवं नश्येत् स एव तु ।।159।। 
किन्तु क्रोधावेश में आकर शत्रुओं के वध करने की इस रीति का प्रयोग नहीं करना चाहिये, अन्यथा शत्रु के ऊपर प्रयुक्त न हुआ, तो प्रयोक्ता को निश्चय नष्ट कर डालता है। 
अनागसि न कर्त्तव्यो हाभिचारो मतो बुधैः । 
स्वल्पागसि न कर्त्तव्यो ह्यभिचारो महामुने ।।160।। 
बुद्धिमानों को इसका प्रयोग निरपराध पर नहीं करना चाहिये। हे मुनीश्वर! स्वल्प अपराध होने पर भी इसका उपयोग करना उचित नहीं है। 
महापराधं बलिनं देव-ब्राह्म-कण्टकम् । 
अभिचारेण यो हन्यान्न स दोषेण लिप्यते ।।161।। 
महान् अपराध करने वाले बलवान् को तथा देव और ब्राह्मण को कष्ट देने वाले को जो हनन करे, उसे दोष नहीं लगता। 
धर्मस्य दानकाले च स्वल्पागसि तथैव च । 
अभिचारं न कुर्वीत बहुपापं विचक्षणः ।।162।। 
धर्म और दान करते समय तथा स्वल्प अपराध के समय, पण्डित को चाहिये कि बहुपाप-रूप अभिचार को कदापि न करे। 
बहूनां कण्टकात्मानं पापात्मानं सुदुर्म्मतिम् । 
हन्यात्कृतापराधान्तु तस्य पुण्य-फलं महत् ।।163।। 
जो पापात्मा तथा दुर्मति अनेकों के मार्ग में कण्टक बना हुआ है, उस अपराधी के हनन करने वाले को महान् पुण्य फल की प्राप्ति होती है। 
ये भक्ताः पुण्डरीकाक्षे वेदयज्ञे द्विजे जने । 
न तानभिचरेत् जातु तत्र तद्विफलं भवेत् ।।164 ।। 
जो पुरुष भगवान् के, वेद और यज्ञों के, द्विजों के भक्त हैं, उनके प्रति कभी अभिचार न करे। यदि ऐसा किया जाय, तो वह अभिचार निष्फल हो जाता है। 
नहि केशवभक्तानामभिचारेण कर्हिचित् । 
विनाशमभिपद्येत तस्मात्तन्न समाचरेत् ।।165।। 
जो श्रीकृष्ण भगवान् के भक्त हैं, उनके प्रति अभिचार का प्रयोग कदापि न करें, क्योंकि इस प्रकार करने पर अपना ही विनाश हो जाता है। 
सेवं धात्री विधात्री च सावित्र्यघविनाशिनी । 
प्राणायामेन जाप्येन तथा चान्तर्ज्जलेन च ।।166।। 
सव्याहृतीसप्रणवा जप्तव्या शिरसा सह । 
प्रणवेन तया न्यस्ता वाच्या व्याहृतयः पृथक् ।।167।। 
पाप-समूहों का विनाश करने वाली उस धात्री सावित्री को प्राणायाम से, जप, अन्तर्जल से व्याहृति तथा प्रणव सहित सिर से जपना चाहिये। प्रणव के साथ न्यास करके व्याहृतियों का पृथक्-पृथक् उच्चारण करना चाहिये। 
सदाचारेण सिध्येच्च ऐहिकामुष्मिकं सुखम् । 
तदेव ते मया प्रोक्तं किमन्यच्छ्रोतुमिच्छसि ।।168।। 
सदाचार से लौकिक और पारलौकिक सुख प्राप्त होता है। यह मैंने आपसे कहा और क्या सुनने की इच्छा है? वह मुझसे कहो। 
गायत्री तंत्र के अन्तर्गत कुछ थोड़े से प्रयोगों का संकेत ऊपर किया गया है। इन प्रयोगों के जो सुविस्तृत, विधि-विधान, कर्मकाण्ड एवं नियम-बन्धन हैं, उनका उल्लेख यहां न करना ही उचित है, क्योंकि तन्त्र के गुह्य विषय को सर्वसाधारण के सम्मुख प्रकट करने से सार्वजनिक सुव्यवस्था में बाधा उपस्थित होने की आशंका रहती है। 
गायत्री अभिचार 
मनुष्य एक अच्छा-खासा बिजली घर है। उसमें इतनी उष्णता एवं विद्युत् शक्ति होती है कि यदि उस सबका ठीक प्रकार से उपयोग हो सके, तो एक द्रुत वेग से चलने वाली तूफान मेल रेलगाड़ी दौड़ सकती है। जो शब्द मुख से निकलते हैं, वे अपने साथ एक विद्युत् प्रवाह ले जाते हैं। फलस्वरूप उनके द्वारा एक सूक्ष्म जगत् में कम्पन उत्पन्न होता है और उन कम्पनों द्वारा अन्य वस्तुओं पर प्रभाव पड़ता है। देखा गया है कि कोई वक्ता अपनी वक्तृता के साथ-साथ ऐसी भाव-विद्युत् का सम्मिश्रण करते हैं कि सुनने वालों का हृदय हर्ष, विषाद, क्रोध, त्याग आदि से भर जाता है। वे अपने श्रोताओं को उंगली पर नचाते हैं। देखा गया है कि कई उग्र वक्ता भीड़ को उत्तेजित करके उनसे भयंकर कार्य करा डालते हैं। कभी किसी-किसी महत्त्वपूर्ण व्यक्ति के भाषण इतने महत्त्वपूर्ण होते हैं कि उससे समस्त संसार में हलचल मच जाती है। 
शब्द को शास्त्रों में बाण कहा गया है। धनुष से जब बाण छूटता है तो उसमें शक्ति होती है। यह शक्ति जहां चोट करती है, उसे तिलमिला देती है। शब्द भी ऐसा शक्ति सम्पन्न साधन है, जो प्रकृति के परमाणुओं में विविध प्रकार के विक्षोभ उत्पन्न करता है। जिस प्रकार प्रकृति में वैज्ञानिक आविष्कारों की सहायता से हलचल पैदा की जाती है, उसी प्रकार मनुष्य शरीर में रहने वाले विद्युत् प्रवाह के आधार पर भी सृष्टि के परमाणुओं में गतिविधि पैदा की जा सकती है और वैसे ही परिणाम उपस्थित किये जा सकते हैं, जैसे कि वैज्ञानिक लोग मशीनों के आधार पर प्रस्तुत करते हैं। 
आकाश के ऊंचे स्तर पर बर्फ का चूर्ण हवाई जहाजों से फैलाकर वैज्ञानिकों ने तुरंत वर्षा करने की विधि निकाली है। इस कार्य को प्राचीनकाल में शब्द-विज्ञान द्वारा, मन्त्र-बल से किया जाता था। उस समय भी उच्चकोटि के वैज्ञानिक मौजूद थे, पर उनका आधार वर्तमान आधार से भिन्न था। इसके लिये उन्हें मशीनों की जरूरत नहीं पड़ती थी, इतनी खर्चीली खटपट के बिना भी उनका काम चल जाता था। आज स्थूल से सूक्ष्म को प्रभावित करके वह शक्ति उत्पन्न की जाती है, जिससे आविष्कारों का प्रकटीकरण होता है। आज कोयला, तेल और पानी से शक्ति पैदा की जाती है। परमाणु का विस्फोट करके शक्ति उत्पन्न करने का अब नया प्रयोग सफल हुआ है। अमेरिका साइन्स एकेडमी के प्रधान डॉक्टर ‘अविड’ का कहना है कि आगामी तीन सौ वर्षों के भीतर विज्ञान इतनी उन्नति कर लेगा कि बाहरी किसी वस्तु की सहायता के बिना मानव शरीर के अन्तर्गत रहने वाले तत्वों के आधार पर ही सूक्ष्म जगत् में हलचल पैदा की जा सकेगी और जो लाभ आजकल मशीनों द्वारा मिलते हैं, वे शब्द आदि के प्रयोग द्वारा ही प्राप्त किये जा सकेंगे। 
डॉक्टर एविड भविष्य में जिस वैज्ञानिक उन्नति की आशा करते हैं, भारतीय वैज्ञानिक किसी समय उसमें पारंगत हो चुके थे। शाप और वरदान देना इसी शब्द विज्ञान की चरम उन्नति थी। शब्द का आघात मारकर प्रकृति के अन्तराल में भरे हुए परमाणुओं को इस प्रकार आकर्षित-विकर्षित किया जाता है कि मनुष्य के सामने वैसे ही भले-बुरे परिणाम आ उपस्थित होते थे, जैसे आज विशेष प्रक्रियाओं द्वारा मशीनों की गति-विधि द्वारा विशेष कार्य सिद्ध किये जाते हैं। प्राचीन काल में अपने आपको ही एक महा शक्तिशाली यन्त्र मानकर उसी के द्वारा ऐसी शक्ति उत्पन्न करते थे कि जिसके द्वारा अभीष्ट फलों को चमत्कारिक रीति से प्राप्त किया जा सकता था। वह प्रणाली साधना, योगाभ्यास, तपश्चर्या, तन्त्र आदि नामों से पुकारी जाती है। इन प्रणालियों के उपाय जप, होम, पुरश्चरण, अनुष्ठान, तप, व्रत, यज्ञ, पूजन, पाठ आदि होते थे। विविध प्रयोजनों के विविध कर्मकाण्ड थे। हवन में होमी जाने वाली सामग्रियां, मन्त्रों की ध्वनि, ध्यान का आकर्षण, स्तोत्र और प्रार्थनाओं द्वार आकांक्षा प्रदीप्ति, विशेष प्रकार के आहार-विहार द्वारा मनःशक्तियों का विशेष प्रकार का निर्माण, तपश्चर्याओं द्वारा शरीर में विशेष प्रकार की उष्णता का उत्पन्न होना, देव पूजा द्वारा प्रकृति की सूक्ष्म शक्तियों को खींचकर अपने में धारण करना आदि अनेक विधियों से साधक अपने आपको एक ऐसा विद्युत् पुंज बना लेता था कि उसका प्रयास जिस दिशा में चल पड़े, उस दिशा के प्रकृति के परमाणुओं पर उसका आधिपत्य हो जाता था और उस प्रक्रिया द्वारा अभीष्ट परिणाम प्राप्त होते थे। 
भारतीय विज्ञान इसी प्रकार का था। उसमें मशीनों की आवश्यकता नहीं पड़ती थी, बल्कि अपने आपको महा यन्त्र मानकर उसी को समय-समय पर इस योग्य बना लेते थे कि उसी से दुनिया की सारी मशीनों का काम चल जाता था। उस समय रेडियो ध्वनि विस्तारक या ध्वनि ग्राहक यन्त्रों की जरूरत नहीं पड़ती थी। तब विचार संचालन की विद्या जानने वाले बड़ी आसानी से इस लाभ को उठा लेते थे। अस्त्र-शस्त्रों के विषय में भी यही बात थी। आज बन्दूक की गोली को सीध में चलाये जाने की बात लोगों को मालुम है, पर किसी जमाने में गोली या बाण को मोड़कर गोलाई में चक्राकार चलाने का विज्ञान भी मालूम था। रामचन्द्र जी ने चक्राकार खड़े हुए सात ताड़ के वृक्षों को एक ही बाण से वेधा था। एकलव्य ने कुत्ते के होठों को बाणों से सी दिया था, पर कुत्ते के जबड़े में राई भर भी चोट नहीं आयी थी। शब्दवेधी बाण चलाने की विद्या तो पृथ्वीराज चौहान तक को विदित थी। आज तो उस विज्ञान का प्रायः लोप हो गया है। 
बिना मशीन के चलने वाले जिन अद्भुत दिव्य शस्त्रों का भारतीय इतिहास में वर्णन है, उनमें आग्नेयास्त्र भी एक था। मुंह में इससे आग लगाई जाती थी, जलन, आंधी या तूफान पैदा किया जाता था। व्यक्तिगत प्रयोगों में इससे किसी व्यक्ति विशेष पर प्रयोग करके उसकी जान तक ले ली जाती थी। अग्निकाण्ड कराये जाते थे। इसे तान्त्रिक काल में ‘अगियाबैताल’ कहा जाता था। इनका प्रयोग गायत्री मन्त्र द्वारा भी होता था, जिसका कुछ संकेत निम्न प्रमाणों में वर्णित है। उल्टी गायत्री को ‘अनुलोम जप’ कहते हैं, यही आग्नेयास्त्र है। 
त् या द चो प्र नः यो यो धि । हि म धी यस् व दे र्गो भ यंण् रे र्व तु वि सत् त वः स्वः र्भु भू ॐ। यह मन्त्र आग्नेयास्त्र है। इस विद्या का कुछ परिचय इस प्रकार है— 
आग्नेयास्त्रस्य जानाति विसर्गादानपद्धतिम् । 
यः पुमान् गुरुणा शिष्टस्तस्याधीनं जगत्त्रयम् ।। 
जो पुरुष इस आग्नेयास्त्र के छोड़ने तथा खींचने की विधि को जानता है और जो गुरु द्वारा शिक्षित है, उसके अधिकार में त्रैलोक्य है। 
आग्नेयास्त्राधिकारी स्यात्सविधानमुदीर्यते । 
आग्नेयास्त्रमिति प्रोक्तं विलोमं पठितं मनु ।। 
और वह आग्नेयास्त्र का अधिकारी होता है। अब आग्नेयास्त्र की प्रयोग विधि कहते हैं। आग्नेयास्त्र प्रतिलोम और अनुलोम दो प्रकार से कहा गया है— 
क्षीरद्रुमेन्धनाज्येन, हविष्यान्नैर्घृतान्वितैः । 
चतुश्चत्वारिंशदाढ्यं चतुः शतसमन्वितम् ।। 
चतुः सहस्र जुहुयादर्चिते हव्यवाहने । 
मण्डले सर्वतोभद्रे षट्कोणांकितकर्णिके ।। 
दूध वाले वृक्षों की समिधाओं से घृतयुक्त जौ की सामग्री से चार हजार चार सौ चवालीस (4444) आहुति प्रदीप्त अग्नि में दे और सर्वतोभद्र यन्त्र बनाकर उसके अन्तर्गत छः कोण वाला यन्त्र बनाए। 
पूर्वोक्ता एव संपठ्याः, मन्त्राश्च परिकीर्तिताः । 
प्रतिलोमं कुर्यादस्य षडंगानि प्रकल्पयेत् ।। 
प्रतिलोम कर्म में पूर्वोक्त ऋष्यादि तथा षडंगन्यास आदि को प्रतिलोम क्रम से (उलटा) करें। 
वर्णन्यासं पदन्यासं, विदध्यात्प्रतिलोमतः । 
ध्यानभेदान्विजानीयाद् गुर्वादेशान्न चान्यथा ।। 
वर्णन्यास, पदन्यास आदि को भी प्रतिलोम क्रम से करे। ध्यान भेदों को गुरु की आज्ञा से करे, अन्यथा न करे। 
पूर्ववज्जपक्लूप्तिः स्याज्जुहुयात्पूर्वसंख्यया । 
पंचगव्य सुपक्वेन् चरुणा तस्य सिद्धये ।। 
पूर्वोक्त संख्यानुसार जप करे और पंचगव्य युक्त अच्छी प्रकार से पके चरु से जप सिद्धि के लिये पूर्वोक्त संख्यानुसार आहुति दे। 
अर्चनं पूर्ववत्कुर्याच्छक्तीनां प्रतिलोमतः । 
सर्वत्र दैशिकः कुर्यात् गायत्र्या द्विगुणं जपम् ।। 
प्रतिलोमता से शक्तियों का पूजन पूर्ववत् करे और सर्वत्र आचार्य गायत्री का दूना जप करे। 
क्रूरकर्माणि कुर्वीत प्रतिलोमविधानतः । 
शांतिकं पौष्टिकं कर्म कर्तव्यमनुलोमतः ।। 
प्रतिलोम के विधान को जपादि, क्रूर कर्मों की सिद्धि के लिये करे और शान्तिमय एवं पुष्टिदायक कर्मों की सिद्धि के लिये, अनुलोमन के विधान से करें। 
विलोमे प्रजपेदष्टौ, पादान्तु प्रतिलोमतः । 
शोधितो जायते पश्चात् मन्त्रोऽयं विधिनामुना ।। 
विलोम, प्रयोग काल में मन्त्र के आठों पदों को प्रतिलोम क्रम से पढ़े और अनुलोम क्रम में अनुलोमतः आठों पदों से पढ़े, क्योंकि मन्त्र पढ़ने से मन की अस्थिरता आदि दोष नष्ट हो जाते हैं। 
उपर्युक्त विधि एक संकेत मात्र है। उसके साथ में एक विस्तृत कर्मकाण्ड एवं गुप्त साधना विधि है, उन सबका रहस्य गुप्त ही रखा जाता है, क्योंकि उन बातों को सार्वजनिक प्रकटीकरण करना सब प्रकार निषिद्ध है। 

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