किसी वस्तु के सम्बन्ध में विचार करने के लिए यह आवश्यक है कि उसकी कोई मूर्ति हमारे मनःक्षेत्र में हो। बिना कोई प्रतिमूर्ति बनाये मन के लिये किसी भी विषय में कुछ सोचना असम्भव है। मन की प्रक्रिया ही यह है कि पहले वह किसी वस्तु का आकार निर्धारित कर लेता है, तब उसके बारे में कल्पना-शक्ति काम करती है। समुद्र भले ही किसी ने न देखा हो, पर जब समुद्र के बारे में कुछ सोच-विचार किया जायेगा, तब एक बड़े जलाशय की प्रतिमूर्ति मनःक्षेत्र में अवश्य रहेगी। भाषा विज्ञान का यही आधार है। प्रत्येक शब्द के पीछे एक आकृति रहती है। ‘कुत्ता’ शब्द जानना तभी सार्थक है, जब ‘कुत्ता’ शब्द उच्चारण करते ही एक प्राणी विशेष की आकृति सामने आ जाये। न जानी हुई विदेशी भाषा कोई हमारे सामने बोले, तो उसके शब्द कान में पड़ते हैं, पर वे शब्द चिड़ियों के चहचहाने की तरह निरर्थक जान पड़ते हैं। कोई भाव मन में उदय नहीं होता। कारण यही है कि उस शब्द के पीछे रहने वाली आकृति का हमें पता नहीं होता। जब तक आकृति सामने न आए, तब तक मन के लिये असम्भव है कि उस सम्बन्ध में कोई सोच-विचार करे।
ईश्वर या ईश्वरीय शक्तियों के बारे में यही बात है। चाहे उन्हें सूक्ष्म माना जाए या स्थूल, निराकार माना जाए या साकार, इन दार्शनिक और वैज्ञानिक झमेलों में पड़ने से मन का कोई प्रयोजन नहीं। उससे यदि इस दिशा में कोई सोच-विचार का काम लेना है, तो कोई न कोई आकृति बनाकर उसके सामने उपस्थित करनी पड़ेगी, अन्यथा वह ईश्वर या उसकी शक्ति के बारे में कुछ भी नहीं सोच सकेगा। जो लोग ईश्वर को निराकार मानते हैं, वे भी ‘निराकार’ का कोई न कोई आकार बनाते हैं। आकाश जैसा निराकार, प्रकाश जैसा तेजोमय, अग्नि जैसा व्यापक, परमाणुओं जैसा अदृश्य। आखिर कोई न कोई आधार उस निराकार का भी स्थापित करना ही होगा। जब तक आकार की स्थापना न होगी, मन, बुद्धि और चित्त से उसका कुछ भी सम्बन्ध स्थापित नहीं हो सकेगा।
इस महा सत्य को ध्यान में रखते हुए निराकार, अचिन्त्य, बुद्धि से अगम्य, वाणी से अतीत परमात्मा का मन से सम्बन्ध स्थापित करने के लिये भारतीय आचार्यों ने ईश्वर की आकृतियां स्थापित की हैं। इष्टदेवों के ध्यान की सुन्दर, दिव्य आकृति की प्रतिमायें गढ़ी हैं। उनके साथ दिव्य आयुध, दिव्य वाहन, दिव्य गुण, दिव्य स्वभाव एवं शक्तियों का सम्बन्ध किया गया है। ऐसी आकृतियों का भक्तिपूर्वक ध्यान करने से साधक उनके साथ एकीभूत होता है, दूध और पानी की तरह साध्य और साधक का मिलन होता है। भृंगी झींगुर को पकड़ ले जाती है और उसके सामने भिनभिनाती है, झींगुर उस गुंजन को सुनता है और इतना तन्मय हो जाता है कि उसकी आकृति तक बदल जाती है और वह झींगुर भृंगी बन जाता है। दिव्य कर्म स्वभाव वाली देवाकृति का ध्यान करते रहने से साधक में भी उन्हीं दिव्य शक्तियों का आविर्भाव होता है। जैसे रेडियो यन्त्र को माध्यम बनाकर सूक्ष्म आकाश में उड़ती फिरने वाली विविध ध्वनियों को सुना जा सकता है, उसी प्रकार ध्यान में देवमूर्ति की कल्पना करना एक आध्यात्मिक रेडियो स्थापित करना है, जिसके माध्यम से सूक्ष्म जगत् में विचरण करने वाली विविध ईश्वरीय शक्तियों को साधक पकड़ सकता है। इसी सिद्धान्त के अनुसार अनेक इष्टदेवों की अनेक आकृतियां साधकों को ध्यान करने के लिये बनाई गयी हैं। इन देव आकृतियों का स्वतंत्र विज्ञान है। अमुक देवता की अमुक प्रकार की आकृति क्यों रखी गयी है? इसका एक क्रमबद्ध रहस्य है। उसकी चर्चा तो स्वतन्त्र पुस्तक में करेंगे, यहां तो इतना ही जान लेना पर्याप्त होगा कि अमुक प्रयोजन के लिये अमुक ईश्वरीय शक्तियों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिये जो आकृति योगी लोगों को ठीक सिद्ध हुई है, वही आकृति उस देवता की घोषित कर दी गयी है।
जहां अन्य प्रयोजनों के लिये अन्य देवाकृतियां हैं, वहां इस विश्व-ब्रह्माण्ड को ईश्वरमय देखने के लिये ‘विराट् रूप’ परमेश्वर की प्रतिमूर्ति विनिर्मित की गयी है। मनुष्य की सारी आत्मोन्नति और सुख-शान्ति इस बात पर निर्भर है कि उसका आन्तरिक और बाह्य जीवन पवित्र एवं निष्पाप हो, समस्त प्रकार के क्लेश, दुःख, अभाव एवं विक्षोभों के कारण मनुष्य के शारीरिक एवं मानसिक पाप हैं। यदि वह इन पापों से बचता जाता है, तो फिर और कोई कारण ऐसा नहीं जो इसकी ईश्वर प्रदत्त अनन्त सुख-शान्ति में बाधा डाल सके। पापों से बचने के लिये ईश्वरीय भय की आवश्यकता होती है। ईश्वर सर्वत्र व्यापक है, इस बात को जानते तो सब हैं, पर अनुभव बहुत कम लोग करते हैं। जो मनुष्य यह अनुभव करेगा कि ईश्वर मेरे चारों ओर छाया हुआ है और वह पाप का दण्ड अवश्य देता है—जिसको यह भावना अनुभव में आने लगेगी, वह पाप नहीं कर सकेगा। जिस चोर के चारों ओर सशस्त्र पुलिस घेरा डाले खड़ी हो और हर तरफ से उस पर आंखें गड़ी हुई हों, वह ऐसी दशा में भला किस प्रकार चोरी करने का साहस करेगा?
परमात्मा की आकृति चराचरमय ब्रह्माण्ड में देखना ऐसी साधना है, जिसके द्वारा सर्वत्र परमात्मा अनुभव करने की चेतना जाग्रत् हो जाती है। यही विश्व मानव की पूजा है, इसे ही विराट् दर्शन कहते हैं। रामायण में भगवान् राम ने अपने जन्म-काल में कौशल्या को विराट् रूप दिखाया था। एक बार भोजन करते समय भी राम ने माता को विराट् रूप दिखलाया था। उत्तरकाण्ड में काकभुशुण्डि जी के सम्बन्ध में वर्णन है कि वे एक बार भगवान् के मुख में चले गये, तो वहां सारे ब्रह्माण्ड को देखा। भगवान् कृष्ण ने भी इसी प्रकार कई बार अपने विराट रूप दिखाये। मिट्टी खाने के अपराध में मुंह खुलवाते समय यशोदा को विराट रूप दिखाया, महाभारत के उद्योग पर्व में दुर्योधन ने भी ऐसा ही रूप देखा। अर्जुन को भगवान् ने युद्ध के समय में विराट् रूप दिखलाया, जिसका गीता के 11वें अध्याय में सविस्तार वर्णन किया गया है।
इस विराट् रूप को देखना हर किसी के लिये सम्भव है। अखिल विश्व ब्रह्माण्ड को परमात्मा की विशालकाय मूर्ति देखना और उसके अन्तर्गत उसके अंग-प्रत्यंगों के रूप में समस्त पदार्थों को देखने, प्रत्येक स्थान को ईश्वर से ओत-प्रोत देखने की भावना करने से भगवद् बुद्धि जाग्रत् होती है और सर्वत्र प्रभु की सत्ता के व्याप्त होने का सुदृढ़ विश्वास होने से मनुष्य पाप से छूट जाता है। फिर उससे पाप कर्म नहीं बन सकते। निष्पाप होना इतना बड़ा लाभ है कि उसके फलस्वरूप सब प्रकार के दुःखों से छुटकारा मिल जाता है।
अन्धकार के अभाव का नाम है—प्रकाश और दुःख के अभाव का नाम है—आनन्द। विराट् दर्शन के फलस्वरूप निष्पाप हुआ व्यक्ति, सदा अक्षय आनन्द का उपभोग करता है।
गायत्री परमात्मा की शक्ति है। परमात्मा की शक्ति सर्वत्र, अणु-अणु में, विश्व ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। जो कुछ है गायत्रीमय है। गायत्री के शरीर में ही यह जगत् है, यह भावना ‘गायत्री का विराट् रूप दर्शन’ कहलाती है। नीचे दिये हुए ‘‘गायत्री पंजर स्तोत्र’’ में यहीं विराट् दर्शन है। पंजर कहते हैं ढांचे को। गायत्री का ढांचा, सम्पूर्ण विश्व में है, यह इस स्तोत्र में बताया गया है। इस स्तोत्र का भावना सहित ध्यान करने से अन्तःलोक और बाह्य-जगत् में विराट् गायत्री के दर्शन होते हैं। उस दर्शन के फलस्वरूप पाप करने का किसी को उसी प्रकार साहस नहीं हो सकता जैसे कि पुलिस से घिरा हुआ व्यक्ति चोरी करने का प्रयत्न नहीं करता।