सहयोग और सहिष्णुता

सहयोग और सामूहिकता की भावना

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मनुष्य सामाजिक प्राणी है और आज तक संसार में उसने जो कुछ उन्नति की है वह सहयोग और सामूहिकता की भावना के द्वारा ही की है । अकेला व्यक्ति किसी प्रकार की उन्नति कर सकने में असमर्थ होता है । यदि मनुष्य इन विशेषताओं का त्याग कर दे तो उसमें और जंगलों में फिरने वाले एक पशु में कुछ भी अन्तर न रह जायगा । इसलिए मनुष्य को अपने हित की दृष्टि से भी सदा सामूहिकता को भावना को बढ़ावा देना चाहिए और इस बात का प्रयत्न करते रहना चाहिए कि समाज में जहाँ तक सम्भव हो सहयोग की भावना निरन्तर बढ़ती रहे ।

सच्चा सामाजिक बनने के लिए आपको सहनशक्ति, धैर्य तथा संतोष की आवश्यकता है । आप में भी कमियाँ हैं आप में भी अभाव दुर्गुण हैं, इसलिए दूसरों को इस बात का मौका न दीजिए कि जब आप उन्हें सही रास्ता दिखा रहे हों, तभी वे आपको पहले स्वयं सम्हालने का ताना देकर आपके काम में बाधा डालें । आपको धैर्य और नरमी से काम लेना है । आदमी अपने स्वभाव को नहीं छोड़ सकता । उसमें कुछ संस्कार जमे होते हैं । कुछ वंशानुगत जन्मभूमिगत भावनाएँ होती हैं कही-सुनी और लिखी- पढ़ी बातों का प्रभाव पड़ा होता है । माना कि उन्हें अपनी अच्छाइयों व बुराइयों का भार स्वयं सहन करना पड़ता है किन्तु आप यदि किसी को गलत राह पकड़ते देख ले तो आगे बढ़कर उसे सचेत कर देना आपका काम है । आप उसे समझायें कि उसे उस प्रकार का बना देने की जिम्मेदारी किस पर है ? यदि समझाने के बजाय आप रुष्ट होकर बैठ रहे और आपका पारा चढ़ा रहा तो उससे आपकी ही क्षति है । इससे दिल और दिमाग दोनों ही थक जायेंगे । यदि आपने उत्तेजनापूर्ण शब्दों से काम लिया तो किया हुआ काम फिर से दुहराया जा सकता है उससे भी भयंकर कृत्य किया जा सकता है । उत्तेजित व्यक्ति समझता है कि वह अपराधी को अपशब्दों और ताड़ना द्वारा सुधार रहा है किन्तु वह नहीं जानता कि ऐसा करके बहू स्वयं अपने प्रति अन्याय कर रहा है । अपराधी स्वयं आपकी बात मानने में आपका मत स्वीकार करने में हिचकिचाएगा, लड़ने-झगड़ने पर आमादा हो जाएगा और ऐसे समय यदि आप भी उसी की तरह उन्मत्त हो गये तो आप में और उसमें अन्तर ही क्या रह जायेगा ? इस अनर्थकारी प्रकृति के कारण दलों में फूट पड़ जाती है प्रान्त-प्रान्त और राष्ट्र-राष्ट्र एक-दूसरे को धिक्कारता और पछाड़ने की कोशिश करता है ।

यह भी आवश्यक है कि आप ईर्ष्या एवं अपनी अहमन्यता त्यागकर दूसरों की योग्यता का भी मूल्यांकन करें । केवल इसी से काम न चलेगा कि आपने अपने प्रतिद्वन्दियों से ईर्ष्या या द्वेष करना छोड़ दिया है और अब भविष्य में इस रोग से बचे रहेंगे । दूसरों की सफलता पर उन्हें साधुवाद दीजिए । उनकी अच्छाइयों की प्रशंसा करके उन्हें और उत्साहित कीजिए ।' समाज-सुधार की राह में ईर्ष्या एक बड़ी दीवार है । प्रसिद्ध कवि मोलियर ने कहा है ''ईर्ष्यालु व्यक्ति मर जाते हैं किन्तु ईर्ष्या नहीं मरती ।'' उदाहरणार्थ यदि आप किसी अपने से बुद्धिमान व्यक्ति से मिलें तो समझ लें कि उसकी बुद्धि समाज की बुद्धि है और केवल उसी की बुद्धि नहीं है, मानवता के बुनियादी ऐक्य के नाते यह आपकी भी है । प्रकृति द्वारा सभी को यथायोग्य गुण-अवगुण मिलते हैं । कुछ गुण आप में हैं कुछ दूसरों में । इससे स्पष्ट है कि कोई किसी से छोटा नहीं हीन नहीं । वास्तव में ईर्ष्या तो ऐसा निकृष्ट अभिशाप है जो बदले में हानि के सिवा और कुछ नहीं देता ।

व्यवहार में आपको विनीत, मितभाषी और आदर-सूचक ''शब्दों का प्रयोग करना है । चाहिए तो यह कि जो जिस योग्य हैं उसे वैसा ही आदर, सम्मान और स्नेह अर्पण किया जाय । किसी की प्रतिष्ठा में कमी करने के असफल प्रयत्न से आपको अपयश के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिलने का । आज के दूषित वातावरण में कोई अपनी योग्यता या अज्ञानता के दम्भपूर्ण स्तर से नीचे उतर कर समझौता नहीं करना चाहता किन्तु यह ध्यान देने योग्य है कि सहयोग की पहली सीढ़ी समझौता है । संसार में एक ही व्यक्ति होता तो कोई बात नहीं थी । यदि हम समाज में सहयोग के भाव की स्थापना और वृद्धि करना चाहते हैं तो हमको उन विशेषताओं को ग्रहण करना चाहिए जिनसे अन्य मनुष्यों को लाभ पहुँचता है और जिन्हें वे पसन्द करते हैं । यह भली प्रकार स्मरण रखना चाहिए कि आज हम सभ्यता और संस्कृति की जितनी उन्नति देख रहे हैं और जिसके कारण हमारा जीवन भी सुख और शान्ति से व्यतीत हो रहा है उसके निर्माण में समस्त समाज का हाथ रहा है । इसलिए हमको आचरण ऐसा ही रखना चाहिए जिससे समाज में एकता प्रेम और सहयोग के भावों की वृद्धि हो और हम दिन पर दिन उन्नति की ओर अग्रसर हो सकें ।
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